Thursday 17 August 2017

गूंगे लोकतंत्र का खतरा

इस बार के स्वतंत्रता दिवस की धज कुछ अलग ही थी ! वही १५ अगस्त था अौर वही लाल किला था, वैसे ही फौजी भी थे अौर उनका अनुशासन भी; वैसे ही बच्चे भी थे अौर वही राष्ट्रगान भी था अौर वही प्रधानमंत्री भी थे जिन्होंने डोरी खींची अौर हमारा तिरंगा लहराया ! लेकिन किसी के अादेश से लहराने अौर अपनी मस्ती में झूमने का फर्क जो समझते हैं, वे समझ रहे थे कि कुछ है कि जो बदला जा रहा है. 

यह पहली बार ही था कि स्वतंत्रता का उल्लास भरा समारोह सत्ता की घुड़की खा कर मनाया गया. पहले ही मुनादी कर दी ग थी कि सभी स्कूलों में स्वतंत्रता दिवस हम जिस तरह बता रहे हैं  उस तरह मनाया जाए, झंडा इस तरह फहराया जाए अौर राष्ट्रगान इस तरह गाया जाए अौर इन सबका वीडियो तैयार कर, ३१ अगस्त २०१७ तक अपने निकटवर्ती सर्व शिक्षा मिशन के कार्यालय में जमा कराया जाए. अादेश मानव संसाधन मंत्रालय ने जारी किया था. यह धमकी भी दे दी गई थी कि एेसा नहीं करने वालों पर कानूनी काररवाई की जा सकती है. बात वहां तक पहुंची जहां तक इसे पहुंचना था. कई जगहों से जवाब अाया- हमारेस्कूलों को ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हम तो राष्ट्रभक्त हैं ही !पालन तो उन्हें करना है जिनकी देशभक्ति साबित नहीं है ! इससे बात खुली कि यह अादेश दरअसल तो मदरसों तथा दूसरे अल्पसंख्यकों के लिए जारी किया गया था. बात लोगों तक इस तरह पहुंची कि सबने जाना अौर माना कि उन सबको अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देना है जो हिंदू नहीं हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुअा था. 

ऐसा नहीं है कि लोग पहले देश का अौर देश के मान्य प्रतीकों का स्वाभिमान व सम्मान नहीं करते थे. ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता पर अापत्तियां उठाने वाले पहले नहीं थे. मुसलमानों का एक बड़ा तबका ऐसा रहा है जो झंडे के सामने झुकने में, भारत माता की जय कहने में, वंदे मातरम् कहने में संकोच करता रहा है. धीरे-धीरे उनका यह संकोच जिद में बदलता गया अौर मुस्लिम सांप्रदायिकता की फसल काटने वालों ने उसे खाद-पानी दे कर मजबूत भी बनाया. लेकिन यहां यह भी कहना अौर याद रखना जरूरी है कि ऐसे लोगों में सबसे बड़ी संख्या उनकी ही रही है जो अाज दूसरों से प्रमाणपत्र मांग रहे हैं. उनके लिए कभी किसी ने नहीं कहा कि अपनी देशभक्ति का प्रमाण दो ! कभी किसी ने नहीं कहा कि नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मुख्यालय पर तिरंगा फहराने के लिए फौज-पुलिस की मदद ली जाए. कौन नहीं जानता है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता का संघ परिवार में कभी स्वप्रेरित सम्मान नहीं हुअा. विरोध हुअा, उपहास हुअा अौर जब मौका लगा अपमान भी हुअा, फिर भी कभी किसी ने नहीं कहा कि फौजी हाथों से झुका कर अौर कानूनी फंदों में जकड़ कर इन्हें मजबूर किया जाए कि ये राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता को सार्वजनिक रूप से स्वीकारें. जन गण मन नहीं वंदे मातरम्, तिरंगा नहीं भगवा, गांधीजी नहीं भारत माता जैसी बेतुकी अौर खतरनाक धारा बहाने की कोशिशें इनकी तरफ से लगातार चलती ही रहीं अौर लगातार चलता रहा इनका वैचारिक विरोध.  
  
लेकिन इस बार माहौल पूरी तरह बदला क्योंकि सत्ता उनके हाथ में अा गई जो राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता को स्वीकार नहीं करते थे बल्कि उनका अपना विकल्प प्रचारित करते रहे थे. सरकारें बदलती रहें, यह लोकतंत्र की जरूरत है. सरकारें बदलेंगी तो कई स्तर पर नीतियां भी बदलेंगी, प्राथमिकताएं भी बदलेंगी, कार्यशैली भी बदलेगी. यह सब बदलना चाहिए ही क्योंकि यह सब नहीं बदले तो सरकार ही क्यों बदले ? लेकिन कोई भी सरकार देश नहीं होती ! सरकार बदले तो देश ही बदलने लगे, उसके बुनियादी मूल्य अौर उसकी सामाजिक संरचना बदलने लगे, नागरिकता के प्रतिमान बदलने लगें तब तो देश नहीं, सरकार बड़ी चीज हो जाएगी. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दृढ़ फैसले में यही तो कहा है कि संसद सार्वभौम है, वह सब कुछ कर सकती है लेकिन संविधान का बुनियादी ढांचा नहीं बदल सकती. लेकिन अब ऐसा करने की कोशिशें हो रही हैं. 

देश की सबसे बड़ी अदालत ने सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजाने को अौर उसके सम्मान में खड़ा होने को भारतीय होने अौर राष्ट्रभक्त होने से जोड़ने वाला फैसला जब से दिया है, यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या राष्ट्रप्रेम ऐसी चीज है जो कानून अौर दंड से सिखाई जा सकती है ? अगर ऐसा होता तो फौज में कभी, कोई जासूसी करता अौर दस्तावेजों के सौदे करता पकड़ा नहीं जाता अौर राष्ट्रीय महत्व की कुर्सियों पर बैठे लोग कमीशन खाते, दल बदलते अौर अपने अार्थिक लाभ के मद्देनजर कानूनों को बनाते-बिगाड़ते नहीं मिलते अौर न्यायपालिका के न्यायदाता फैसलों का सौदा करते नहीं मिलते. यह सब हो रहा है अौर हमारा कोई ७० साल पुराना लोकतंत्र बार-बार कोशिश कर रहा है कि बातें सुधारी जाएं अौर लोगों को सचेत किया जाए. इसमें कानून की भी अपनी भूमिका है, प्रशासन की भी अौर सामाजिक स्तर पर काम करने वालों की भी. लेकिन किसी जातिविशेष या धर्म विशेष या भाषाविशेष  या लिंगविशेष को निशाने पर ले कर जब भी अाप कानूनी या फौजदारी कदम उठाते हो तो यह अपने पांवों पर अाप कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है. झंडे फहराने का अादेश अाप नहीं दे सकते, अाप यह निर्देश जरूर दे सकते हैं कि अगर झंडा फहराया है अापने तो निम्न प्रक्रियाअों का पालन करना जरूरी है. मुस्लिम व दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को यह सिखाने-समझाने-बताने की जरूरत है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता का वैसा ही सहज मान अापको भी करना चाहिए जैसा देश में सभी करते हैं. मुस्लिम समुदाय के रहनुमाअों का भी यह धर्म है कि वे अपने समाज को इसके लिए तैयार करें. उनको यह समझना ही होगा कि देश में जो सर्वमान्य है, सर्ववंदित है उसका मान-सम्मान करना हर नागरिक का धर्म भी है अौर जिम्मेवारी भी. सरकारी निर्देश या कानून इसमें हमारी मदद करता है. 


लेकिन जब अादेश में ही खोट हो तो पालन निर्दोष कैसे हो सकता है ? धौंस जमाने की मंशा से जारी अापके अादेश से डरे मदरसों ने बड़ी संख्या में झंडे का समारोह किया इस बार,दारुल उलूम की इमारत पर ४० सालों बाद झंडा फहराया गया, जिन बच्चों को कुरान व इस्लाम के नाम पर राष्ट्रगान गाने से रोका गया था अब तक, वैसे सभी बच्चों ने यह समारोह मनाया. दूसरी तरफ सहारनपुर से अाई खबरों जैसी खबरों की भी कमी नहीं है कि जहां झंडे की जबर्दस्ती में सांप्रदायिक तनाव बना, कितनी ही जगहों पर लोग अादेश व जबर्दस्ती के खिलाफ अदालतों में गए हैं. ममता बनर्जी की सरकार ने बंगाल के अपने संस्थानों को निर्देश जारी किया कि केंद्रीय निर्देशों का पालन न किया जाए. यह भी हुअा कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने स्थानीय प्रशासन के अादेशों की अवहेलना कर, गैर-कानूनी तरीके से केरल के एक स्कूल में झंडा फहराया. अब क्या ऐसा माना जाए कि मोहन भागवत अौर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के लोग, उनकी शाखाएं सब-की-सब राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता के बारे में अपना रवैया एकदम से बदलेंगे अौर देश की मुख्यधारा में शमिल हो जाएंगे ? अगर हां तो इस बारे में लोकशिक्षण का एक नया अभियान छेड़ना होगा; अगर नहीं तो कोई फैजकी अावाज में अावाज मिला कर कह उठेगा : निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां / चली है रस्म की कोई न सर उठा के चले !अौर तब अाप निरुत्तर रह जाएंगे. गूंगा लोकतंत्र बहुत खतरनाक होता है. ( 18.08.2017)  

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