Sunday, 27 August 2017

असहिष्णुता डर अौर हिंसा की बेटी है

इन दिनों बहुत डरा हुअा देश है अपना जो बहुतों को बहुत डरा रहा है ! कोई पूछता है - ऐसा कब नहीं था ? ऐसा ही तो पहले भी था - धन की ताकत के सामने झुका हुअा; राज्य की ताकत के सामने डरा हुअा अौर भीड़ के वहशीपन के सामने घबराया हुअा ! कोई समझाता है - ऐसा ही हमेशा रहा है भाई !!

मैं बहस नहीं करता, मान लेता हूं कि अाप ही सही कह रहे हैं कि ऐसा ही रहा है ! रहा होगा… लेकिन हमने तो इसकी तरफ पीठ कर, इससे अलग व दूर निकलने की एक यात्रा १५ अगस्त १९४७ की मध्य रात्रि में शुरू की थी अौर नियति से वादा किया था कि एक ऐसा हिंदुस्तान बनाएंगे कि जहां किसी भी अांख में भय या अांसू या लाचारी नहीं होगी ! अाज अगर सबकी अांखों में कुछ समान है तो यही है - भय, अांसू अौर लाचारी ! 

इन सबकी जड़ में एक ही चीज है - डर !! महात्मा गांधी ने डर की इस बीमारी को पहचाना अौर सौ साल से ज्यादा पहले लिखी अपनी पुस्तिका ‘हिंद-स्वराज्य’ में लिखा कि अंग्रेजों ने जो सबसे बड़ा पाप किया वह यह कि भारतीयों को निहत्था कर, उनका अात्मविश्वास तोड़ दिया ! जिससे हथियार छीन लिया गया था, गांधी ने ‘सत्याग्रह’ का नया हथियार गढ़ कर, वापस उसे हथियारसज्ज कर दिया ! गांधी के भारत में अाने अौर लड़ाई का एक नया स्वरूप गढ़ने के बाद बहुत धीरे-धीरे ही सही, हमारी समझ में यह अाया कि जो डरता है, वही डराता है; अौर जो डराता है वहीं हिंसक भी होता है ! इसलिए गांधी ने कहा डर छोड़ो, हिंसा छोड़ो अौर अपने सभी देशवासियों को साथ ले कर अागे चलो ! यह बात जितनी समझ में अाई हमारे, उतनी ही हमारे अमल में अाई अौर उतने से ही हमने अाजादी की अपनी लड़ाई लड़ी भी अौर जीती भी. गांधी ने बाद में, अाजादी के बाद की हमारी अापाधापी देख कर, ‘अपनों की सरकारों’ की ठसक व तेवर देख कर अपनी ही लड़ाई की समीक्षा की अौर कहा कि यह सब जो हुअा कि अाजादी की लड़ाई हुई, हम डर से अागे निकल सके, हमने अाजादी की लड़ाई जीती, यह सारा कुछ कमजोरों की अहिंसा के बूते हुअा ! उन्होंने कबूल किया कि मेरी अांख पर पट्टी पड़ी थी कि मैं इसे पहले पहचान नहीं सका. तो बताएं कि मजबूतों की अहिंसा कैसी होती है ? गांधी ने कहा - मेरा जीवन ही इसकी तस्वीर है ! अपने जीवन व व्यवहार से गांधी ने जो तस्वीर खींची, कविगुरु रवींद्रनाथ ने उसे ईश प्रार्थना में ढाल कर अमर कर दिया !  अहिंसक शौर्य से अाजाद भारत कैसा होगा ? उन्होंने एक तस्वीर बनाई : 

जहां उड़ता फिरे मन बेखौफ अौर सर हो शान से उठा हुअा
जहां इल्म हो सबके लिए बेरोक-टोक बिना शर्त रखा हुअा
जहां घर की चौखट-सी छोटी सरहदों में न बंटा हो जहां 
जहां सच से सराबोर हो हर बयां 
जहां बाजुएं बिना थके लगी रहें कुछ मुकम्मल तराशने 
जहां सही सोच को धुंधला न पाएं उदास, मुर्दा रवाएतें
जहां दिल-अो-दिमाग तलाशें नये ख्याल अौर उन्हें अंजाम दें 
ऐसी अाजादी की जन्नत में ऐ खुदा मेरे वतन की हो नई सुबह 

ऐसे देश की साधना जिसे भी करनी हो उसे भयमुक्त, सहिष्णुतायुक्त अौर हिंसाविरोधी होना होगा. इसके बगैर इस प्रार्थना का देश बन नहीं सकता है. तब फिर बात वही पुरानी अा खड़ी होती है पहले अंडा कि पहले मुर्गी ? अादम-हव्वा नहीं होते तो हम भी नहीं होते;  मुर्गी नहीं होती तो अंडा भी नहीं होता. फिर तो सवाल उठता है कि वह पहली मुर्गी कहां से अाई अौर वह पहले अादम-हव्वा कहां से अाए ? जवाब है कि प्रकृति ने वह पहली संरचना किसी दूसरी रास्ते की अौर अागे के लिए यह रास्ता बना दिया ! मतलब यह कि प्रकृति विज्ञान की जनक है, विज्ञान प्रकृति का जनक नहीं है. यह प्रकृति ही है जिसने हमें अाकार दिया है लेकिन उसने अाकार भर नहीं दिया है बल्कि हमारे भीतर तमाम वेग-संवेग, अाकांक्षाएं-अपेक्षाएं, अपने-पराये का बोध जैसा सब कुछ, बहुत कुछ भर भी दिया है. अाप देखें कि वहीं, हमारे भीतर सम्राट अशोक की हिंसा भी भरी हुई है अौर बुद्ध की क्षमा भी; वहीं कलिंग का युद्ध भी मचा हुअा है अौर उसी युद्ध के विनाश को देख कर युद्धविमुख होने का सम्राट अशोक का फैसला भी ! देखिए तो हर अादमी के भीतर एक महाभारत ही मचा हुअा है. यह अादिम है. जन्म के साथ हमें मिला है जैसे मिली है सांस, भूख अौर प्यास ! तो क्या सांस सम करने को हम थमते नहीं हैं ? क्या फेंफड़ों में पूरी सांस भरने का हम प्रयास नहीं करते ? भूख है अौर विवेक भी है, इसलिए हम कुछ भी, कहीं भी खाते तो नहीं हैं ! प्यास बुझाने को पानी पीने से पहले देखते तो हैं कि पानी कहां से अौर कैसे मिला है ? नहीं अपना मन जमा तो भूखे भी रह जाते हैं अौर प्यासे भी ! तो यह सांस, यह भूख अौर यह प्यास सच है लेकिन यह विवेक उससे भी बड़ा सच है. अौर फिर यह भी तो सच है कि सच का कोई विकल्प नहीं है. 

हिंसा है क्योंकि अन्याय है. बड़ी बहस छिड़ी थी युवाअों के उस जमावड़े में. नक्सली ठीक ही करते हैं कि अन्याइयों के सर ही उड़ा देते हैं. मैंने छूटते ही कहा - तो बस ठीक, हम भी ठीक काम क्यों न करें ?… गांधी-वांधी की बात छोड़ो, चलो, अपने गांव के अन्याइयों की सूची बनाते हैं अौर उनका सर कलम कर देते हैं ! अब तक सबसे अागे बढ़ कर सर काटने की बात जो कर रहा था वह युवक मेरी तरफ कुछ परेशानी से देखने लगा कि इस गांधीवाले को क्या हुअा ! … लेकिन मैं सूची बनाने ही लगा, अौर मैंने उस लड़के से पूछा कि तुम्हारे पिता तो इलाके के बड़े जमींदार हैं ! दबंगों में नाम है. तो बताअो अपने पिताजी का नाम, सबसे पहले वही लिखता हूं ! … लड़का परेशान हुअा अौर फिर धीरे से मुझसे बोला : रहने दीजिए सर, मैं अपने पिताजी को समझा लूंगा ! … मैंने कहा : क्यों, तुम्हारे पिता ही सबसे समझदार हैं क्या इस इलाके में ?? अगर समझाना भी कोई रास्ता है तो तुम ही क्यों, सभी अपने-अपने बापों को समझा लेंगे अौर सर काटने की नौबत नहीं अाएगी ! लड़का कट कर रह गया… जब तक दूसरा है तब तक हम हिंसा में जवाब खोजते हैं. जहां यह अहसास होता है कि वह दूसरा नहीं, हमारा है, तो हमारे तर्क बदल जाते हैं. जब सभी हमें अपने-से लगने लगते हैं तब समझ में अाता है कि हिंसा का रास्ता गलत है, अव्यवहारिक है अौर परिणामहीन भी है. यह किसी अादर्श या अध्यात्म की बात नहीं है, सहज व्यवहारिकता है. गांधी जब कहते हैं कि अांख के बदले अांख का रास्ता सारी दुनिया को अंधा बना देगा तब वे अहिंसा का सिद्धांत नहीं बयान कर रहे होते हैं बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य को रेखांकित कर रहे होते हैं. सारी दुनिया अंधों की बन जाए ( अाज है तो वैसी ही लेकिन शारीरिक स्तर पर नहीं है ! ) इससे पहले यदि इसे रोकना हो तो किसी एक को अागे अा कर, हिम्मत से कहना होगा कि मैं अांख के बदले अांख की इस होड़ से खुद को अलग करता हूं; अौर जो ऐसा करेगा वह अंधता की इस अंधी श्रृंखला को तोड़ कर, दुनिया को बचा लेगा. गांधी जैसे लोग ऐसे उन्माद के क्षण में भी खुद को भीड़ से अलग करने का साहस रखते थे. 

यह समझने में ज्यादा बौद्धिक कसरत करने की दरकार नहीं है कि भीड़ से अलग होने का यह साहस तभी अाता है जब अापमें गहरी सहिष्णुता हो ! जिस थर्मामीटर को खुद ही बुखार अाता हो, वह मरीज का बुखार कैसे नापेगा ? इसलिए सहिष्णुता अादर्श नहीं, सामूहिक जीवन का धर्म है - धर्म यानी वह लक्ष्मण-रेखा जिसे किसी भी अवस्था में, कैसी भी परिस्थिति में हमें पार नहीं करना है. सहिष्णुता की लक्ष्मण-रेखा अापने तोड़ी तो अाप हिंसा के दुष्चक्र में जा गिरे ! अौर इस अधोगति का कोई विराम नहीं है - यह रुकेगा वहीं, जहां कोई हिटलर रुका था, कोई याह्या खान मरा था. मंटो साहब की अमर कहानी का वह नायक टोबा टेक सिंह जहां गिरता है, अहिंसा वहां से शुरू होती है क्योंकि वहां किसी देश की, हिंसा से बने अौर हिंसा की ताकत पर टिके किसी देश की सरहद नहीं है. वह निरुपाधि मानव की धरती है ! … हम टोबा टेक सिंह को जानने की भी कोशश नहीं करते, बनेंगे क्या खाक !!

  असहिष्णुता का जो वातावरण देश में अभी बना है अौर उभरता-बढ़ता जा रहा है, अाप उसकी कुंडली देखिए ! सब डरे हुए हैं कि येनकेनप्रकारेण जो सत्ता हाथ लग गई है, वह हाथ से खिसक न जाए ! इसलिए सत्ता छीन लेने का अंदेशा जिधर से भी अौर जिनकी तरफ से भी अा सकता है, उनके प्रति एक हमलावर भाव बनाया गया है. भय में से पैदा कायरता अपने बचाव के लिए भाव, भाषा अौर व्यवहार में ऐसी अाक्रामकता दिखाती है ताकि सारा समाज असहिष्णु बने. ऐसी प्रवृति वालों को सबसे बड़ा खतरा असहमति से होता है अौर इसलिए वे असहमति का अस्तित्व ही खत्म करने पर अामादा रहते हैं. बौद्धिकों को, रचनाकारों को, पत्रकारों अौर विचारकों को सबसे पहले निशाने पर इसलिए ही लेना जरूरी होता है क्योंकि ये ही पहले होते हैं जो समाज में असहमति का वातावरण बनाते हैं, फैलाते हैं. असहिष्णुता एक हथियार है लोगों को चुप कराने का. ‘मॉब लिंचिंग’ हथियार है एक को मार कर सभी असहमतों को सावधान व भयग्रस्त करने का. इसके लिए जरूरी होता है कि एक व्यक्ति को अादर्श प्रचारित किया जाए, उसकी अादमकद प्रतिमा खड़ी की जाए, उसे सर्वज्ञाता सिद्ध करने में सत्ता, संपत्ति अौर समाज की सारी ताकत उड़ेल दी जाए अौर फिर कहा जाए कि जो इससे असहमत है, वह राष्ट्रद्रोही है ! यह ऐसा राष्ट्रद्रोही कृत्य है जो राष्ट्र के नाम पर किया जाता है. 

तुझसे   पहले    जो    यहां    तख्तनशीं    था 
उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था. 

ऐसा माहौल बनाए बिना भय-हिंसा-असहिष्णुता के त्रिकोण का यह मॉडल काम ही नहीं करता है. बड़ी पूंजी अौर बड़े अांकड़े, जातीय-धार्मिक श्रेष्ठता का गहराता भाव, एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा, फासीवादी तरीकों से समाज को नाथने का सिलसिला, प्रभुत्ववादी वातावरण का सर्जन, असीमित सत्ता का अालोक बिखेरना अौर बाजार को हमेशा अपने साथ रखना - ये अाठ कारक हैं जो इस मॉडल को चलाने में सहायक बनते हैं. अाप गिन कर अौर पहचान कर देखें तो पाएंगे कि अाज ये सब कुकुरमुत्ते की तरह यहां-वहां उगने लगे हैं. 

इसलिए विमर्श की - खुले अौर लंबे विमर्श की - बहुत जरूरत होती है. खुद को भी पहचानना, समाज को भी पहचानना अौर समाज को ऐसा काबिल बनाना कि वह खुद की पहचान कर सके, जो असहमत हैं उन्हें साथ लेना अौर इस तरह एक बड़ी सामूहिक ताकत खड़ी करना ! किसलिए खड़ी करना ? ताकि एक साथ, समवेत स्वर में, उत्तर-पूरब-पश्चिम-दक्षिण से असहमति की, इंकार की अवाज उठे ! ‘नहीं’  कहने की सामूहिक शक्ति जितनी बनेगी, भय-हिंसा-असहिष्णुता का त्रिकोण उतना ही कमजोर होगा, उतनी ही जल्दी टूटेगा अौर एक-दूसरे पर भरोसा रखने वाला, एक-दूसरे को साथ ले कर सहिष्णुता में जीने वाला अौर जबर्दस्ती व हिंसा से दूसरों को लाचार नहीं करने वाला समाज बनेगा. 
यही अाज का साध्य है अौर हम ही उसके साधन हैं !! ०००    

27 Aug 2017

Thursday, 17 August 2017

गूंगे लोकतंत्र का खतरा

इस बार के स्वतंत्रता दिवस की धज कुछ अलग ही थी ! वही १५ अगस्त था अौर वही लाल किला था, वैसे ही फौजी भी थे अौर उनका अनुशासन भी; वैसे ही बच्चे भी थे अौर वही राष्ट्रगान भी था अौर वही प्रधानमंत्री भी थे जिन्होंने डोरी खींची अौर हमारा तिरंगा लहराया ! लेकिन किसी के अादेश से लहराने अौर अपनी मस्ती में झूमने का फर्क जो समझते हैं, वे समझ रहे थे कि कुछ है कि जो बदला जा रहा है. 

यह पहली बार ही था कि स्वतंत्रता का उल्लास भरा समारोह सत्ता की घुड़की खा कर मनाया गया. पहले ही मुनादी कर दी ग थी कि सभी स्कूलों में स्वतंत्रता दिवस हम जिस तरह बता रहे हैं  उस तरह मनाया जाए, झंडा इस तरह फहराया जाए अौर राष्ट्रगान इस तरह गाया जाए अौर इन सबका वीडियो तैयार कर, ३१ अगस्त २०१७ तक अपने निकटवर्ती सर्व शिक्षा मिशन के कार्यालय में जमा कराया जाए. अादेश मानव संसाधन मंत्रालय ने जारी किया था. यह धमकी भी दे दी गई थी कि एेसा नहीं करने वालों पर कानूनी काररवाई की जा सकती है. बात वहां तक पहुंची जहां तक इसे पहुंचना था. कई जगहों से जवाब अाया- हमारेस्कूलों को ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हम तो राष्ट्रभक्त हैं ही !पालन तो उन्हें करना है जिनकी देशभक्ति साबित नहीं है ! इससे बात खुली कि यह अादेश दरअसल तो मदरसों तथा दूसरे अल्पसंख्यकों के लिए जारी किया गया था. बात लोगों तक इस तरह पहुंची कि सबने जाना अौर माना कि उन सबको अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देना है जो हिंदू नहीं हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुअा था. 

ऐसा नहीं है कि लोग पहले देश का अौर देश के मान्य प्रतीकों का स्वाभिमान व सम्मान नहीं करते थे. ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता पर अापत्तियां उठाने वाले पहले नहीं थे. मुसलमानों का एक बड़ा तबका ऐसा रहा है जो झंडे के सामने झुकने में, भारत माता की जय कहने में, वंदे मातरम् कहने में संकोच करता रहा है. धीरे-धीरे उनका यह संकोच जिद में बदलता गया अौर मुस्लिम सांप्रदायिकता की फसल काटने वालों ने उसे खाद-पानी दे कर मजबूत भी बनाया. लेकिन यहां यह भी कहना अौर याद रखना जरूरी है कि ऐसे लोगों में सबसे बड़ी संख्या उनकी ही रही है जो अाज दूसरों से प्रमाणपत्र मांग रहे हैं. उनके लिए कभी किसी ने नहीं कहा कि अपनी देशभक्ति का प्रमाण दो ! कभी किसी ने नहीं कहा कि नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मुख्यालय पर तिरंगा फहराने के लिए फौज-पुलिस की मदद ली जाए. कौन नहीं जानता है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता का संघ परिवार में कभी स्वप्रेरित सम्मान नहीं हुअा. विरोध हुअा, उपहास हुअा अौर जब मौका लगा अपमान भी हुअा, फिर भी कभी किसी ने नहीं कहा कि फौजी हाथों से झुका कर अौर कानूनी फंदों में जकड़ कर इन्हें मजबूर किया जाए कि ये राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता को सार्वजनिक रूप से स्वीकारें. जन गण मन नहीं वंदे मातरम्, तिरंगा नहीं भगवा, गांधीजी नहीं भारत माता जैसी बेतुकी अौर खतरनाक धारा बहाने की कोशिशें इनकी तरफ से लगातार चलती ही रहीं अौर लगातार चलता रहा इनका वैचारिक विरोध.  
  
लेकिन इस बार माहौल पूरी तरह बदला क्योंकि सत्ता उनके हाथ में अा गई जो राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता को स्वीकार नहीं करते थे बल्कि उनका अपना विकल्प प्रचारित करते रहे थे. सरकारें बदलती रहें, यह लोकतंत्र की जरूरत है. सरकारें बदलेंगी तो कई स्तर पर नीतियां भी बदलेंगी, प्राथमिकताएं भी बदलेंगी, कार्यशैली भी बदलेगी. यह सब बदलना चाहिए ही क्योंकि यह सब नहीं बदले तो सरकार ही क्यों बदले ? लेकिन कोई भी सरकार देश नहीं होती ! सरकार बदले तो देश ही बदलने लगे, उसके बुनियादी मूल्य अौर उसकी सामाजिक संरचना बदलने लगे, नागरिकता के प्रतिमान बदलने लगें तब तो देश नहीं, सरकार बड़ी चीज हो जाएगी. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दृढ़ फैसले में यही तो कहा है कि संसद सार्वभौम है, वह सब कुछ कर सकती है लेकिन संविधान का बुनियादी ढांचा नहीं बदल सकती. लेकिन अब ऐसा करने की कोशिशें हो रही हैं. 

देश की सबसे बड़ी अदालत ने सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजाने को अौर उसके सम्मान में खड़ा होने को भारतीय होने अौर राष्ट्रभक्त होने से जोड़ने वाला फैसला जब से दिया है, यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या राष्ट्रप्रेम ऐसी चीज है जो कानून अौर दंड से सिखाई जा सकती है ? अगर ऐसा होता तो फौज में कभी, कोई जासूसी करता अौर दस्तावेजों के सौदे करता पकड़ा नहीं जाता अौर राष्ट्रीय महत्व की कुर्सियों पर बैठे लोग कमीशन खाते, दल बदलते अौर अपने अार्थिक लाभ के मद्देनजर कानूनों को बनाते-बिगाड़ते नहीं मिलते अौर न्यायपालिका के न्यायदाता फैसलों का सौदा करते नहीं मिलते. यह सब हो रहा है अौर हमारा कोई ७० साल पुराना लोकतंत्र बार-बार कोशिश कर रहा है कि बातें सुधारी जाएं अौर लोगों को सचेत किया जाए. इसमें कानून की भी अपनी भूमिका है, प्रशासन की भी अौर सामाजिक स्तर पर काम करने वालों की भी. लेकिन किसी जातिविशेष या धर्म विशेष या भाषाविशेष  या लिंगविशेष को निशाने पर ले कर जब भी अाप कानूनी या फौजदारी कदम उठाते हो तो यह अपने पांवों पर अाप कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है. झंडे फहराने का अादेश अाप नहीं दे सकते, अाप यह निर्देश जरूर दे सकते हैं कि अगर झंडा फहराया है अापने तो निम्न प्रक्रियाअों का पालन करना जरूरी है. मुस्लिम व दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को यह सिखाने-समझाने-बताने की जरूरत है कि राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता का वैसा ही सहज मान अापको भी करना चाहिए जैसा देश में सभी करते हैं. मुस्लिम समुदाय के रहनुमाअों का भी यह धर्म है कि वे अपने समाज को इसके लिए तैयार करें. उनको यह समझना ही होगा कि देश में जो सर्वमान्य है, सर्ववंदित है उसका मान-सम्मान करना हर नागरिक का धर्म भी है अौर जिम्मेवारी भी. सरकारी निर्देश या कानून इसमें हमारी मदद करता है. 


लेकिन जब अादेश में ही खोट हो तो पालन निर्दोष कैसे हो सकता है ? धौंस जमाने की मंशा से जारी अापके अादेश से डरे मदरसों ने बड़ी संख्या में झंडे का समारोह किया इस बार,दारुल उलूम की इमारत पर ४० सालों बाद झंडा फहराया गया, जिन बच्चों को कुरान व इस्लाम के नाम पर राष्ट्रगान गाने से रोका गया था अब तक, वैसे सभी बच्चों ने यह समारोह मनाया. दूसरी तरफ सहारनपुर से अाई खबरों जैसी खबरों की भी कमी नहीं है कि जहां झंडे की जबर्दस्ती में सांप्रदायिक तनाव बना, कितनी ही जगहों पर लोग अादेश व जबर्दस्ती के खिलाफ अदालतों में गए हैं. ममता बनर्जी की सरकार ने बंगाल के अपने संस्थानों को निर्देश जारी किया कि केंद्रीय निर्देशों का पालन न किया जाए. यह भी हुअा कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने स्थानीय प्रशासन के अादेशों की अवहेलना कर, गैर-कानूनी तरीके से केरल के एक स्कूल में झंडा फहराया. अब क्या ऐसा माना जाए कि मोहन भागवत अौर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के लोग, उनकी शाखाएं सब-की-सब राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय झंडा अौर राष्ट्रपिता के बारे में अपना रवैया एकदम से बदलेंगे अौर देश की मुख्यधारा में शमिल हो जाएंगे ? अगर हां तो इस बारे में लोकशिक्षण का एक नया अभियान छेड़ना होगा; अगर नहीं तो कोई फैजकी अावाज में अावाज मिला कर कह उठेगा : निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां / चली है रस्म की कोई न सर उठा के चले !अौर तब अाप निरुत्तर रह जाएंगे. गूंगा लोकतंत्र बहुत खतरनाक होता है. ( 18.08.2017)  

15 अगस्त 2017

वह पूरा हुअा जिसके अाने की नहीं, बीत जाने की राह हम सब देखते हैं ! मैं 15 अगस्त की बात कर रहा हूं; 15 अगस्त जैसे ही उन समारोहों की बात कर रहा हूं जो बड़ी भीड़ के सामने, बड़े धूम-धड़ाके से अायोजित किए जाते हैं. लेकिन उसके पीछे भी तो कई होते हैं कि जिनकी जान सांसत में होती है. उन्हें तामझाम की पूरी व्यवस्था ही नहीं करनी होती है बल्कि सुरक्षा का पूरा जिम्मा भी ढोना पड़ता है. लालकिले के अायोजन से जुड़े उस बड़े अधिकारी ने कार्यक्रम की समाप्ति के बाद राहत की गहरी सांस ली थी अौर बड़ी अाजिजी से मुझसे जो कहा उसका मतलब इतना ही था कि चलो, अपना काम पूरा हुअा; अब कहा किसने क्या अौर कैसा, यह सब अापलोग जानते-छानते रहो ! हम सबने मिल कर देश को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है जहां सार्वजनिक कुछ भी करना अौर कहना सुरक्षित नहीं माना जाता है. एक भयाक्रांत समाज, एक डरी हुई व्यवस्था अौर एक निरुपाय सरकार - ऐसे त्रिभुज में हम कैद हुए जा रहे हैं ! 

प्रधानमंत्री जब लालकिला पर झंडा फहरा रहे थे, योगी अादित्यनाथ सत्ता की योग-साधना का पाठ लखनऊ में पढ़ रहे थे, तब भी उत्तरप्रदेश के उसी बाबा राघवदास अस्पताल में बच्चों की मौत हो ही रही थी. अाज भी जारी है. 5 दिनों में मरे 79 बच्चे! अॉक्सीजन की अापूर्ति बंद होने से बच्चों की मौत वैसी ही है जैसे हिटलर के गैस चैंबर में यहूदियों की मौत ! यहां हिटलर कौन है अौर यहूदी कौन, ऐसा सवाल पूछने वाला भी कोई बचा नहीं है,क्योंकि अॉक्सीजन की कमी से जो घुट मरे वे सवाल पूछने जैसी अवस्था में ही नहीं थे. वे सभी मनुष्य जाति की सबसे निरीह अौर निर्दोष अवस्था में थे. अौर उनके बचे परिजन कैसे कुछ पूछ सकेंगे, क्योंकि उनकी दलीय या जातीय या सांप्रदायिक हैसियत का फैसला नहीं हुअा ! जो गरीब होते हैं उनके बच्चों का क्या !! उनकी मौत हम पर भारी पड़े तो पड़े, उन्हें तो जिंदगी अौर मौत का फर्क भी कम ही मालूम होगा ! अाप नकली दवा दे कर, जहरीली दवा दे कर, गंदी सूई चुभो कर या कुछ भी न दे कर, किसी प्रतिवाद के बिना उनकी जान ले सकते हैं; लेते ही रहते हैं.  इसलिए सारी बहस यहां पहुंचा दी गई है कि जान कैसे गई - गंदगी की वजह से कि अॉक्सीजन की कमी की वजह से कि पोषण की कमी की वजह से कि इंसेफलाइटिस की वजह से ? सब ताबड़तोड़ पूछते जा रहे हैं ताकि सवालों का नाग कहीं उनके गले न लिपट जाए ! इसकी वेदना कहीं दिखाई तो नहीं देती है कि इतने बच्चों की जान कैसे चली गई; किसकी जिम्मेवारी है; उसकी खोज धाराप्रवाह हो रही है अौर जो भी जिम्मेवार निकलेगा, उसे इसकी सजा भुगतनी ही होगी. प्रधानमंत्री ने भी एक पंक्ति में अपना शोक दर्ज करवाने से अधिक कुछ नहीं कहा. अौर कुछ न सही, योगी अादित्यनाथ ने माफी ही मांग ली होती ! लेकिन नहीं, सत्ता अब ऐसी कमजोरियां दिखाती ही नहीं है. 

जब लालकिला से झंडा फहराया जा रहा था मेधा पाटकर अपने कई साथियों के साथ मध्यप्रदेश के धार की जेल में बंद रखी गई थीं. अाज भी हैं. मेधा पाटकर से हमारी असहमति हो सकती है, उनकी मांगों को हम अनुचित भी करार दे सकते हैं लेकिन क्या कोई भी साबित दिमाग हिंदुस्तानी यह कह सकता है कि मेधा पाटकर जैसी सामाजिक कार्यकर्ता की जगह जेल में होनी चाहिए ? अगर नरेंद्र मोदी चुनावी रास्ते से देश के प्रधानमंत्री बने हैं तो मेधा पाटकर संघर्ष के रास्ते अाज देश की चेतना की प्रतीक बनी हैं. इनमें से एक लालकिले पर अौर दूसरा धार की जेल में, इससे हमारे लोकतंत्र का चेहरा कितना विकृत दिखाई देता है ! प्रधानमंत्री ने इस विद्रूप पर कुछ कहा तो होता ! 

कहा तो कश्मीर के बारे में भी कुछ नहीं ! जिस बात का खूब प्रचार करवाया जा रहा है, उस  ‘गाली-गोली से नहीं गले लगाने सेवाली बात का यदि कोई मतलब है तो अब तक हमारी फौज अौर सुरक्षा बल के हाथों कश्मीरियों की अौर कश्मीरियों के हाथों इन सबकी जो जानें गईं हैं अौर जा रही हैं, उसका क्या ? क्या प्रधानमंत्री मान रहे हैं कि वह गलत रास्ता है ? अगर अाज ही यह समझ में अाया है तो भी हर्ज नहीं लेकिन फिर यह तो बताएं अाप कि नये रास्ते का प्रारंभ बिंदु क्या है ? यह बात समझने की है कि बात का भात खा कर न व्यक्ति का पेट भरता है न समाज का ! बातें जब जुमलों में बदल जाती हैं, जहर बन जाती है. 

उन्होंने जरूरत नहीं समझी कि चीन के साथ जैसी तनातनी चल रही है, उसे देश के साथ साझा करें ! यह अापकी सरकार अौर अापकी पार्टी से कहीं बड़ा सवाल है, क्योंकि शपथ-ग्रहण के दिन से अाज तक प्रधानमंत्री विदेश-नीति को बच्चों का झुनझुना समझ कर जिस तरह उससे खेलते रहे हैं, वह सारा एकदम जमींदोज हो चुका है. रूस पाकिस्तान से अलग हमसे कोई रिश्ता बनाने को तैयार नहीं है, उस ट्रंप का अमरीका हमें चीन से बात करने की नसीहत ( या हिदायत ? )  दे रहा है जो दुनिया में किसी से बात करने को तैयार नहीं है; अौर दूसरे भी जिससे बात करने में अब कोई खास मतलब नहीं देखते हैं. हमारे सारे पड़ोसी कहीं दूसरा पड़ोस खोजने की कोशिश में हैं.  

स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से भी प्रधानमंत्री को दिखाई दी तो केवल अपनी सरकार अौर अपनी पार्टी ! इसलिए अासन्न चुनावों की किसी रैली में बोलने से अलग वे कुछ भी नहीं कह सके. अाधे-अधूरे मन से बोले उनके वाक्य लड़खड़ा रहे थे, शब्दों का उनका बेतुका खेल बहुत घिसा-पिटा था. अास्था की अाड़ में हिंसा बर्दाश्त नहीं जैसे जुमले किसके लिए थे ? संघ परिवार के अलावा अाज कौन है जो हिंसा अौर धमकी से लोगों को डरा रहा है ? गो-रक्षक किसी दूसरी पार्टी के तो नहीं है न ? उन सबके बारे में क्या जिन्होंने उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी की छीछालेदर सिर्फ इसलिए कि वे एक मुसलमान होने के बाद भी अपने मन की बात कहने की हिम्मत रखते हैं ? जब उनकी विदाई के मौके पर प्रधानमंत्री व नये उप-राष्ट्रपति ने अपनी गरिमा नहीं रखी तो किसे गवाह करें, किससे मुंसिफी चाहें?” 

अपनी उपलब्धियों के अांकड़ों का जाल उन्होंने जिस तरह बिछाया उसमें अात्मविश्वास की बेहद कमी थी, क्योंकि उन्हें पता था कि अांकड़ों के जानकार उनका समर्थन नहीं करेंगे. अौर तो अौर, उनकी ही सरकार के मंत्रियों ने संसद में जो अांकड़े पेश किए हैं, वे ही प्रधानमंत्री की चुगली खाते हैं. सरकार के मंत्रियों ने, विभागों ने, इसी सरकार द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों ने, स्वतंत्र अध्येताअों ने अब तक विकास के जितने अांकड़े देश के सामने रखें हैं या तो वे सारे गलत है या प्रधानमंत्री गलत हैं. सरकार व सरकारी व्यवस्था के दो लोग एक ही बारे में दो तरह के अांकड़ें दें तो मारा तो अांकड़ा ही जाएगा न !  वह रोज-ब-रोज मारा जा रहा है.

17.08.2017

Thursday, 10 August 2017

अांख के अंधे नाम नयनसुख

अाज अभी हम खोजें कि देश कहां है ! मैं भूगोल की बात नहीं कर रहा हूं, भूगोल के भीतर बसने वाले लोगों की बात कर रहा हूं. भूगोल से देश पहचाने जाते हैं, लोगों से देश बनते हैं अौर लोग अगर सर काटने में, घेर कर इंसानों को मारने में, झंडे उछालने में, नारे गुंजाने में, दूसरों को देशद्रोही घोषित करने में, खुद देशभक्ति की जयमाल पहनने में लगे हों तो मानना चाहिए कि देश बनाने का काम स्थगित है. जब कुप्रथाएं सुप्रथाअों की तरह प्रचारित की जा रही हों, अफवाहें देश के कानून से ज्यादा तेज चलती हों अौर कानून का मतलब अपनी मर्जी से बनाया व बदला जाता हो तब मानना चाहिए कि देश बनाने का काम स्थगित है. जब नागरिकों को उस अंधेरे दौर में पहुंचाया जा रहा हो जहां बेजान मूर्तियां दूध पीने लगें, जो कहीं है नहीं वही मंकी मैनहर कहीं नजर अाने लगे अौर सख्ती से ऐसे अंधोंको अंदर करने के बजाय पुलिस उसकी खोज में टोलियां बना कर घूमने लगे तब मानना चाहिए कि देश बनाने का काम स्थगित है… 

अौर अब रात के अंधेरे में, अंधकार अोढ़ कर कोई है कि जो लड़कियों-महिलाअों की चोटियां काट रहा है ! कौन है, एक है कि गिरोह है; यह चोटीकटुअा एक खास जगह पर करामात कर रहा है  कि सारे देश में फैला है; पहली वारदात जिसके घर में हुई वह घर किसका था, अौर उसके यहां से यह खबर किसने बाहर फैलाई; अौर दूसरा घर किसका था कि जहां चोटी काटी गई, अौर उन दोनों घरों के बीच दूरी कितनी थी अौर उनका रिश्ता कुछ था कि नहीं, ऐसे ढेरों सवाल हैं कि जिनकी सख्ती से पड़ताल की जानी चाहिए थी. किसने की, उसने क्या पाया अौर देश को क्या बताया वह अादमी कौन था कि जिसने इस शैतानी को खबर बना कर फैलाने में फुर्ती दिखाई

अाप देखेंगे तो एक सिलसिला मिलेगा ऐसी अफवाहों का जो अकारण, अचानक किसी कोने से उठाई जाती हैं. उनके निशाने पर होती हैं मानवीय कमजोरियां ! यह समाज को बस में रखने का एक हथियार है. मुल्ला-मौलवी,पंडे-पुजारी,अोझा-गुणी से ले कर ये तथाकथित साधक-भगवान, मंडलेश्वर-महामंडलेश्वर सब एक ही काम तो करते हैं कि इंसान का खुद पर से भरोसा तोड़ते हैं. सब जीने की बैसाखियां बांटते हैं ताकि कोई अपने विश्वासों के पांवों पर न चल सके. बैसाखी वाली जिंदगी वही कबूल करता है जो डरा हुअा, हारा हुअा अौर खोया हुअा होता है. चमत्कारों में भरोसा रखनेवाला समाज पुरुषार्थहीन बनता है; डरा हुअा समाज कायर बनता है. प्रतिगामी ताकतें ऐसा ही समाज चाहती हैं जो कुछ करता न हो, कुछ करने से डरता हो. अाप हैरान मत होइएगा कि मूर्तियों को दूध पिलाने वाला समाज कभी किसी की दूध की फिक्र नहीं करता है; चोटी काटने वाला समाज कभी कमजोरों की ( अाप यहां अौरतें पढ़ें ! ) ढाल बन कर खड़ा नहीं होता है. अफवाह या अंधविश्वास की घटनाएं मूर्खता या मासूमियत से नहीं की जाती हैं, उनके पीछे दूरगामी सोच होती है अौर अपनी मुट्ठी मजबूत करने की सोच होती है. 

जब-जब ऐसा कोई शगूफा हुअा है, अाप गौर कीजिए कि कोई महंथ-पंडित-मौलवी-फादर अागे अा कर इसका निषेध करता है ? कोई सरकार सामने अा कर, खुल कर कहती है कि हमारे राज्य में ऐसी एक भी वारदात हुई तो बर्दाश्त नहीं की जाएगी अौर सार्वजनिक जीवन को अशांत करने के अारोप में किसी को भी जेल भेजा सकता है ? पुलिस सड़कों पर उतर अाती है अौर ऐसी  दबिश चलती है कि लोग सीधी राह चलने पर मजबूर हों ? जब-जब ऐसी घटनाएं घटी हैं, अापने अपने तथाकथित समाचार माध्यमों का चेहरा देखा है ? किन-किन अखबारों अौर किन-किन चैनलों का नाम लें हम !! समाचार अौर प्रचार, अफवाह अौर अात्मश्लाघा, अात्मस्तुति अौर परनिंदा, असत्य अौर अहंकार, खबर अौर काले शीर्षक तथा समाज अौर सद् विवेक के बीच की रेखा, भले कितनी भी बारीक हो, भूलने या भुलाने जैसी नहीं है, यह बात समाचार-तंत्र के हमारे लोग सिरे से भूल ही गये हैं. वे समाचार देते नहीं, खबरें बेचते हैं अौर बेचने का सीधा नियम है कि लोगों की मत सोचे, उन्हें डराअो, भरमाअो, ललचाअो अौर उनकी सबसे कमजर नस पर वार करो. लेकिन बाजार भले भूल जाए कि ग्राहक माल नहीं, इंसान है, समाज यह कैसे भूल सकता है कि वह दूसरा कुछ नहीं, इंसानों का जोड़ है !  एक साबित दिमाग समाचार माध्यम का जितना बड़ा काम यह है कि वह तटस्थता से, विवेक से लोगों तक सारे ही समाचार पहुंचाए, वैसा ही अौर उतना ही पवित्र दायित्व उसका यह भी है कि वह कुसमाचार, अ-समाचार लोगों तक न पहुंचाए अौर हर वक्त सावधानी से यह फैसला करता रहे कि क्या पहुंचाना है, क्या नहीं पहुंचाना है. यह विवेक ही कोरे कागज को अखबार बनाता है अौर अखबारों को मूंगफली बांधने की रद्दी में बदल देता है. 

हम यह न भूलें कि सत्ता की ताकत से समाज को अपनी मुट्ठी में करने के अाधुनिक चलन की तरह ही अंधविश्वास की ताकत से समाज को अपनी मुट्ठी में करने का चलन भी रहा है अौर यह बहुत प्राचीन है, बहुत लाभकारी भी ! चोटी काटने की कुखबरकी अाड़ में बौराई भीड़ ने एक बुढ़िया की हत्या कर दी, अौर वह बुढ़िया दलित समाज से अाती थी. यहां खोजने की खबर यह है कि चोटी के बदले गला काटने के पीछे कहीं वे ताकतें तो अपना खेल नहीं खेल रही हैं जो हमेशा से दलितविरोधी रही हैं अौर जातीय अाधार पर समाज को विभाजित रखना चाहती है अगर ऐसा नहीं है तो यह भी समाचार ही है अौर हमारे मतलब का समाचार है. लेकिन ऐसी पड़ताल किसने की ? अखबारों के चीखते शीर्षक अौर दहाड़ते एंकर उस अफवाह को हवा दे कर तूफान में बदल देने से अलग कुछ नहीं कर सके ! कोई कहता है - वे क्या करें, उनकी चोटी तो पहले से कटी हुई है !इसे ही कहते हैं - अांख के अंधे, नाम नयनसुख ! 


बार-बार सांस खींचने की तरह समाज में बार-बार मूल्यों का सर्जन करना पड़ता है; उसे बार-बार पटरी पर रखने का उद्यम करना पड़ता है. येनकेनप्रकारेण सत्ता हथिया कर पांच साल नींद लेने वाला खेल यह नहीं है. घर बंद कर छोड़ दो तो भी उसमें धूल जमती है कि नहीं; ठीक उसी तरह समाज में नई हलचल बंद कर दो तो प्रतिगामी विचारों की धूल उसे गंदा कर, सड़ाने लगती है. इसलिए घर की तरह समाज को भी झाड़ते-पोंछते रहने की जरूरत पड़ती है. समाज में विचारों की, अाचारों की अौर समझ की नई खिड़कियां खोलते रहने की जरूरत पड़ती है. जो समाज ऐसा करना बंद कर देता है, जो समाज अतीत के गुणगान में लग जाता है, वह समाज अंतत: अपनी ही चोटी में उलझ कर, उसे काट डालता है. हम उसी दौर से गुजर रहे हैं. ( 04.08.2017)

Tuesday, 8 August 2017

अपनी पहचान से वंचित पाकिस्तान

पड़ोसी पाकिस्तान की राजनीति हिंदुस्तान के रास्ते जा रही है. कहने वाले यह भी कह रहे हैं कि पड़ोसी पाकिस्तान का साया हिंदुस्तान पर गहराता जा रहा है. दोनों बातों में सत्यांश है क्योंकि हम पड़ोसी ही नहीं हैं, भाई भी हैं भले ही अपनी कारगुजारियों से हम एक-दूसरे के खिलाफ काफी दूर निकल अाए हैं. पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से यह जानते-समझते रहे हैं कि इस देश की गद्दी अपने हाथ में रखनी हो तो धर्म का अतिवादी चोला पहनना मुफीद रहेगा. इसलिए वहां मुशरर्फ हों कि नवाज कि इमरान खान हों कि बेनजीर-जरदारी कोई भी इस्लाम से कम या नीचे की बात नहीं करता है. हमारे यहां भी अब ऐसी ही कवायद की जा रही है. संकीर्णता का खेल जब भी खेला जाता है बड़े अल्फाजों में लपेट कर ही खेला जाता है.  

लेकिन अभी-अभी पाकिस्तान में एक दूसरा पन्ना भी खुला है जिसने कितनों को ही चौंका दिया है. पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनकी कुर्सी से बेदखल ही नहीं कर दिया है, उनका राजनीतिक जीवन एक तरह से तमाम कर दिया है. पिछले काफी समय से उन पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा था अौर अदालत ने पाया कि बार-बार मौका देने पर भी वे शरीफों की तरह अपनी खास कमाइयोंकी सफाई नहीं दे पा रहे थे. पनामा पेपर्स की गवाही है कि पूरा शरीफ-परिवार दोनों हाथों अनाप-शनाप दौलत बटोरने में जुटा था अौर विदेशों में उसने इतनी संपत्ति जोड़ रखी है कि अागे जब कभी ऐसी कोई मुसीबत अाएगी कि जो पैसों से हल होती हो तो उस पर कोई अांच न अाए. पाकिस्तान के जन्मदाता मुहम्मद अली जिन्ना को छोड़ दें तो पाकिस्तानी राजनीति की अधिकांश हस्तियों ने ऐसा ही किया है. यह भी एक कारण रहा है कि ७० साल के पाकिस्तानी इतिहास में एक भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं है कि जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया हो.  बेनजीर का पल्लू पकड़ कर जरदारी ने मर्यादाहीन कमाई की तो नवाज शरीफ ने मर्यादाहीनता की परिभाषा ही बदल डाली. 

अब कौन-सी गली से निकल कर नवाज किस रास्ते सत्तानशीं होंगे, यह देखना है लेकिन अाज जो हम देख रहे हैं वह तो यह है कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी खुद ही चुन लिया है ! यह लोकतंत्र का राजतंत्र है. भारतीय लोकतंत्र की खोज यह है कि जब तक ईश्वर ही कोई दूसरा फैसला न कर दे, राज चलाने के सबसे योग्य अापही हैं ! लेकिन खुदा-न-खास्ता अापपर कोई मुसीबत अान पड़ी तो फिर अापके अपने परिवार का ही, अापके खून वाला ही कोई योग्यउत्तराधिकारी हो सकता है फिर चाहे वह इंदिरा गांधी हों कि राबड़ी देवी कि तेजस्वी ! हमारा एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है कि जिसे लोकतंत्र के अाईने में देख कर अाप शर्मिंदा न हो जाएं. अापको याद हो शायद कि १९७५ में जब अदालत ने इंदिरा गांधी को भ्रष्ट अाचरण का अपराधी मान कर उन्हें प्रधानमंत्री के लिए अयोग्य बता दिया था तब भाईलोगों ने एक रास्ता निकाला था कि कोई स्टेपनीखोज कर उसे इंदिराजी की गद्दी तब तक संभालने को कहा जाए जब तक अदालती लड़ाई जीत कर मदाम वापस नहीं अा जातीं. जानकार बताते हैं कि ऐसे कुछ नाम इंदिरा गांधी के सामने रखे भी गए लेकिन मदाम समझ रही थीं कि एक बार जो इस पद पर बैठा, उसे पर निकलने लगते हैं. इसलिए लोकतंत्र के इस खतरे को झेलने के बजाए उन्होंने लोकतंत्र को ही खत्म कर देना बेहतर समझा अौर देश में अापातकाल की घोषणा हुई. यह अलग बात है कि उस घोषणा ने ही उनके पतन के बीज बो दिए अौर जिसने १९७७ में दिल्ली की गद्दी से कांग्रेस को ऐसा उखाड़ फेंका कि अाज तक वह अपने बूते कभी दिल्ली में सरकार नहीं बना सकी है.  

पाकिस्तानी लोकतंत्र का इस्तेमाल नवाज शरीफ ने कुछ अलग तरीके से किया अौर पहले ही घोषणा कर दी कि उनके भाई शाहबाज शरीफ, जो अभी पंजाब के मुख्यमंत्री हैं, उनकी जगह प्रधानमंत्री होंगे. लेकिन पाकिस्तानी संविधान के मुताबिक प्रधानमंत्री का सांसद होना जरूरी है, सो तजवीज यह निकाली गई कि एक डमी प्रधानमंत्री बनाया जाए जो तब तक गद्दी की रखवाली करे जब तक शाहबाज चुनाव जीत कर सांसद नहीं बन जाते. तो जिस बात से इंदिरा गांधी डर गई थीं, नवाज शरीफ उससे नहीं डरे क्योंकि उनकी पार्टी में ऐसे लोकतंत्र की अभी दूर-दूर तक गुंजाइश नहीं है कि जिसके पर निकलते हों. हां, पंजाब के मुख्यमंत्री की खाली हुई कुर्सी जरूर भरी जानी है तो उसके लिए शाहबाज के बेटे हम्जा को चुनलिया गया है. पाकिस्तान की त्रासदी यह है कि वह अपने जन्म से अब तक कभी पूरा राष्ट्र बन नहीं सका ! एक कबिलाई मानसिकता में से उसका जन्म हुअा अौर कबीलों की खिचड़ी-सा बन कर ही वह रह गया. यह खिंचड़ी फौज को सर्वाधिक रास अाती है. इसलिए पाकिस्तानी लोकतंत्र का मतलब दो फौजी तानाशाहियों के बीच का वह छोटा-सा काल है जब फौजी जनरल थकान उतारते होते हैं. नवाज शरीफ ने भारत का साथ ले कर फौज का मुकाबला करने की कभी सोची जरूर लेकिन ऐसा करने के लिए जैसी रणनीति व जैसे साहस की जरूरत थी, वह उनके पास थी ही नहीं. इसलिए वे इस क्षण प्रधानमंत्री अौर उस क्षण चूहे बन जाते थे. नरेंद्र मोदी ने सत्ता में अाने के बाद उनके लिए कुछ ऐसे अवसर बनाए कि वे हिम्मत करते तो फौजी चंगुल से निकल सकते थे. लेकिन हर बार नवाज कमतर साबित हुए अौर अब तो वे पाकिस्तानी इतिहास का एक पन्ना भर बचे हैं. अब तक के अंतिम फौजी तानाशाह परवेज मुशरर्फ ने नवाज के इस्तीफे के बाद कहा कि जब-जब राजनीतिक शासन अाता है, पाकिस्तान का विकास रुक जाता है. फौजी शासन ही पाकिस्तान के लिए मुफीद साबित होता रहा है. लेकिन फौज ने अब यह समझ लिया है कि नाहक तख्तापलट करने की जरूरत नहीं है जबकि अपने सारे काम राजनीतिक शासन से करवाए ही जा सकते हैं. इसलिए अभी पाकिस्तान में किसी तख्तापलट का खतरा नहीं है लेकिन किसी लोकतांत्रिक पाकिस्तान के उदय की भी संभावना नहीं है. एक अधूरे अौर विखंडित राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान अभी कुछ अौर समय तक एशिया के सीने में घाव की तरह रिसता रहेगा. ( 09.09.2017)  

अंधेरे से अंधेरे की यात्रा

बिहार की राजनीति का अंधकार फाड़ कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अाज बिहार को दूसरे अंधेरे रास्ते पर चला दिया है ! यह अंधेरे से अंधेरे की यात्रा है जिसमें चल कोई नहीं रहा है, सभी चलाए जा रहे हैं. नीतीश कुमार ने अपना इस्तीफा देते हुए कहा भी कि जब तक संभव था, उन्होंने यह सरकार खींची, अब संभव नहीं रहा तो छोड़ दी ! जब मैं यह लिख रहा हूं तब खबर है कि वे नये समीकरण के साथ फिर से मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. तो छोड़ देने वाली बात कट जाती है. दरअसल अाज की राजनीति का सच यही है कि अापके पास अंधेरे का अलावा दूसरा कुछ है नहीं, तो अाप उजाला बांटेंगे कहां से

२०१५ में जिस चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू यादव के साथ मिल कर अपराजेय मुद्रा धारे नरेंद्र मोदी को परास्त किया था अौर महागठबंधन की अपनी सरकार बनाई थी तभी देखने वालों ने देख लिया था कि इसमें गांठें भी हैं अौर बंधन भी; गठबंधन बिल्कुल नहीं है. ज्यादा नहीं था फर्क जीत में - लालू प्रसाद के खाते में ८० विधायक अाए थे तो नीतीश कुमार के पास ७१ ! यह कोई ऐसा फासला ही नहीं था कि जिसके अाधार पर बड़ा घटक कौन, इसका फैसला किया जाता; बल्कि फैसला तो यह था कि लड़ाई छवि की थी अौर मोदी की छवि पर नीतीश की छवि भारी पड़ी थी. लालू प्रसाद के पास न तब, न अाज ऐसी कोई छवि है कि जिसे प्रचारित किया जा सके. ऐसा अात्मविश्वास होता नीतीश कुमार के पास तो लालू प्रसाद के पास तब इसके अलावा कोई रास्ता था ही नहीं कि वे बताई गई लकीर पर अपना नाम लिख देते. राजनीतिक नेतृत्व ऐसे ही अात्मवश्वास से बनता, पनपता अौर मान्य होता है. नीतीश कुमार उस वक्त चूके अौर लालू प्रसाद की बताई लकीर पर अपना दस्तखत कर दिया. लालू-रत्नों से बनी सरकार लालू की कहलाई; कहा गया कि नीतीश कुमार को ड्राइवर रख लिया है हमने ! बस उसी दिन नीतीश कुमार की सरकार की कुंडली में लिख दिया गया : जीअोगे दूसरों के भरोसे, मारे जाअोगे अपने हाथों !! 

२०१५ को लिखा प्रारब्ध २६ जुलाई २०१७ को सिद्ध हुअा. राजनीति में इसका हिसाब लगाया ही जाता है कि अापने क्या खोया, क्या पाया ? अाज लालू अौर नीतीश दोनों ही यह हिसाब लगा रहे होंगे कि कोई २ साल जिस सरकार को दोनों ने चलाया - या कहें कि लालू प्रसाद ने चलाया अौर नीतीश कुमार ने खींचा - उसमें किसके हाथ क्या अाया ? लालू प्रसाद की राजनीति अाज दिहाड़ी मजदूर जैसी है - जितने दिन निकल जाएं वही कमाई है ! नीतीश कुमार के पास ऐसे उपाय नहीं है अौर इसलिए अाज उनकी मुट्ठी खाली है. वह सत्ता से भरी तो जा रही है पर खाली ही रहेगी. 

२०१५ में  नीतीश कुमार ने सांप्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए भाजपा के साथ अपना ९ साल पुराना गठबंधन तोड़ा था. इसके लिए उन्हें भ्रष्टाचार की ताकतों का हाथ थामना पड़ा था. अाज वे कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार से उनकी सांस घुटी जा रही है ! अब सांप्रदायिक हवा में सांस लेने के अलावा उनके पास दूसरा रास्ता नहीं है. दूसरा कोई विकल्प है नहीं, क्योंकि दूसरा कोई विकल्प बनाया नहीं. खाई अौर कुएं के बीच ही चुनना हो तो डूबना ही चुनना पड़ता है. एक दौर वह भी था जब नीतीश कुमार, लालू प्रसाद अादि हम सब एक अंधेरे को काटने में लगे थे. रौशनी कहां है हम जानते नहीं थे लेकिन हमारे हर कदम रोशनी की तरफ बढ़ते थे. वह यात्रा ही नहीं छोड़ दी गई, वह रास्ता ही छोड़ दिया गया. अब जो बचा है वह अंधकार है. नीतीश कुमार को अंधकार की यह यात्रा फिर शुरू करनी है. हम तो यही कामना कर सकते हैं कि यह सफर नये रास्ते खोजने व बनाने का सफर बने ताकि फिर कुछ रोशनी हो, कुछ किरणें छिटकें. ( 26.7.2017)