तो पाकिस्तान ने बातचीत बंद करने का मन बना कर रखा है. कभी हम तो कभी वे ऐसा मन बनाते ही रहते हैं - कभी खुद तो कभी बाहरी निर्देश से ! सवाल एक ही है जो पाकिस्तान बनने से आज तक चला चला आ रहा है: कौन किससे बात करे ? दोनों देशों में बनती और बदलती सरकारों की कसौटी भी इसी एक सवाल पर होती रही है कि किसने किससे, कब और कहां बातचीत की. भारत में तो एकदम प्रारंभ से ही लोकतांत्रिक सरकारें रही हैं, पाकिस्तान में सरकारों का चरित्र लगातार बनता-बिगड़ता रहा है - कभी लोकतांत्रिक तो कभी फौजतांत्रिक ! बातचीत फिर भी दांवपेंचों में फंसती रहती है.
लेकिन एक सवाल है जिससे हम मुंह चुराते हैं: क्या बातचीत भारत और पाकिस्तान के बीच ही होनी है ? इस विवाद के दो ही घटक हैं ? ऐसा मानना सच भी नहीं है और उचित भी नहीं. भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी बातचीत होगी, कश्मीर के लोग उसका तीसरा कोण होंगे ही. एक तरफ यह इतिहास का वह बोझ है जिसे उठा कर हमें किसी ठौर पहुंचा ही देना है; दूसरी तरफ यह हमारी दलीय राजनीति का वह कुरूप चेहरा है जिस पर स्वार्थ की झुर्रियां पड़ी हैं. ६० वर्षों से अधिक समय में भी हम कश्मीर को इस तरह अपना नहीं सके कि वह अपना बन जाए. जब सत्ता का सवाल आया तो पिता मुफ्ती से ले कर बेटी मेहबूबा तक से भारतीय जनता पार्टी ने रिश्ते बना लिए अन्यथा उसकी खुली घोषणा तो यही थी न कि ये सब देशद्रोही ताकतें हैं जिनके साथ हाथ मिलाना तो दूर, साथ बैठना भी कुफ्र है. कुछ ऐसा ही रवैया कांग्रेस का भी रहा है और नेशनल कांफ्रेंस का भी. सब हाथ मिला कर सत्ता में जाते रहे हैं और सत्ता हाथ से जाते ही एक-दूसरे पर कालिख उछालते रहे हैं. लेकिन इन सबके बावजूद न नेशनल कांफ्रेंस, न कांग्रेस, न भारतीय जनता पार्टी और न महरूम मुफ्ती ही कभी ऐसी हैसियत बना सके कि कह सकें कि कश्मीर का अवाम उनके साथ है. ऐसा दावा एक ही आदमी का था और सबसे खरा भी था और वे थे शेख अब्दुल्ला ! बाकी सारे-के-सारे नाम हाशिए पर कवायद करने वाले ही रहे. शेख साहब की बहुत सारी ताकत जेलों में जाया हुई और बहुत सारी उन्होंने भटकने में गंवा दी. फिर जो सत्ता हाथ में आई उसे ले कर वे भी व्यामोह में फंसे और अौसत दर्जे के राजनीतिज्ञ बन कर रह गये. किसी लालू यादव की तरह उन्हें भी अपना उत्तराधिकारी अपने परिवार में ही मिला. पाकिस्तान हमारी यह दुखती रग पहचानता रहा है और उसका फायदा उठा कर, कश्मीर के अलगाववादियों को उकसाता भी रहा है. आज की स्थिति यह है कि कश्मीर में किसी भारत के पांव धरने की जगह नहीं है. कश्मीरी अवाम और नवजवान के मन में भारत की तस्वीर बहुत डरावनी और धृणा भरी है. ऐसा क्यों हुआ, यह कहानी बहुत लंबी है और उसके पारायण में से आज कुछ निकलने वाला भी नहीं है.
अब आज अगर हमारे सोचने और करने के लिए कुछ बचता है तो वह यह है कि पाकिस्तान हमसे बात करे कि ना करे, हम कश्मीर में एक सुनियोजित ‘संवाद सत्याग्रह’ करें. सरकार, फौज और राजनीतिक दल यह सत्याग्रह कर ही नहीं सकते क्योंकि इनके पास सत्य का एक अंश भी आज की तारीख में बचा नहीं है. तो फिर इस सत्याग्रह में शामिल कौन हो ? यह काम देश के नवजवानों को करना होगा. सरकार जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करा कर पीछे चली जाए. सारे देश में मुनादी हो कि कश्मीर के अपने भाइयों से बातचीत करने के लिए युवकों-युवतियों की जरूरत है. देश के विश्वविद्यालयों से, युवा संगठनों से, गांधी संस्थाओं के लोगों से व्यापक संपर्क किया जाए और इनकी मदद से ‘संवाद सत्याग्रह’ के सैनिकों का आवेदन मंगवाया जाए. स्थिति की गंभीरता को समझने वाले ५०० से १००० युवकों-युवतियों का चयन हो. उनका एक सप्ताह का प्रशिक्षण शिविर हो. जयप्रकाश नारायण के साथ मिल कर कश्मीर के सवाल पर लंबे समय तक, उसके विभिन्न पहलुओं पर काम करने वाले गांधी शांति प्रतिष्ठान को ऐसे शिविर के आयोजन और संचालन के लिए अधिकृत किया जाए. इस शिविर को पूरा करने का मतलब यह होना चाहिए कि युवाओं की यह टोली कश्मीर समस्या को हर पहलू से जानती व समझती है. यह जानकारी और कश्मीरी लोगों के प्रति गहरी सच्ची संवेदना ही इनका हथियार होगा.
ये संवेदनशील, प्रशिक्षित युवा अनिश्चित काल मान कर कश्मीर पहुंचें और कश्मीर घाटी में विमर्श का एक अटूट सिलसिला शुरू हो और अबाध चले; फिर जवाब में गाली हो कि गोली ! और हमें कश्मीर के लोगों पर पूरा भरोसा करना चाहिए कि वे घटना-क्रम से व्यथित हैं, चालों-कुचालों के कारण भटके और उग्र भी हैं लेकिन पागल नहीं हैं. ऐसा ही मान कर तो गांधी भी नोआखाली पहुंचे थे न ! देश के विभिन्न कोनों से निकली और कश्मीर की धरती पर एक हुई ८ से १० सदस्यों की टोलियां जब एक साथ, यहां-वहां हर कहीं, उनको जानने, उनसे सुनने, सारा कुछ सुनने पहुंचेंगी तो व्यथा की कठोरता भी पिघलेगी और गुस्से की गाली-गोली भी जल्दी ही व्यर्थ होने लगेगी. यह हिम्मत का काम है, धीरज का काम है और संवेदनापूर्वक करने का काम है. कश्मीरी लोगों और युवाओं में बनी हुई संपूर्ण संवादहीनता और उग्रता को हम शोर या धमकी के एक झटके से तोड़ नहीं सकेंगे. इसलिए यह सत्याग्रह धीरता, दृढ़ता और सदाशयता तीनों की समान मात्रा की मांग करता है.
यह सत्याग्रह इसलिए कि कश्मीर यह समझ सके कि वह जितना घायल है, बाकी का देश भी उतना ही घायल है. कश्मीर यह समझ सके कि राजनीतिक बेईमानी का शिकार अकेला वह नहीं है, क्षेत्रीय असंतुलन केवल उसके हिस्से में नहीं आया है, फौज-पुलिस के जख्मों से केवल उसका सीना चाक नहीं हुआ है और यह भी कि फौज-पुलिस का अपना सीना भी उतना ही रक्तरंजित है. ‘संवाद सत्याग्रह’ के युवा सैनिकों को यह जानना है कि कश्मीर दरअसल चाहता क्या है; और यह ‘सत्याग्रह’ उसे यह बताना भी चाहेगा कि वह जो चाहता है वह संभव कितना है. चंद्र खिलौना तो किसे मिला है आज तक ? कश्मीर के युवा और नागरिक यह समझेंगे कि एक अधूरे लोकतंत्र को संपूर्ण बनाने की लोकतांत्रिक लड़ाई हमें रचनी है, उसके सिपाही भी और उसके हथियार गढ़ने भी हैं और उसे सफलता तक पहुंचाना भी है. क्यों लड़ें हम ऐसी लड़ाई ? क्योंकि इस लड़ाई के बिना उन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे जिनसे कश्मीर भी और हम सब भी परेशान हैं और हलकान हुए जा रहे हैं. हो सकता है, कश्मीर हमसे उलट कर कहे कि वह इस देश को ही अपना नहीं मानता है तो इस देश के लोकतंत्र की वह फिक्र क्यों करे ? ठीक है, यह भी सही लेकिन कश्मीर को यह बताना तो होगा ही कि उसका जो भी देश होगा, पाकिस्तान हो या कि कोई स्वतंत्र देश ही सही, वहां भी सवाल तो सारे यही होंगे. कश्मीरी युवा चाहें तो पाकिस्तानी युवाओं से बात करें, म्यांमार और अफगानी युवाओं से बात करें कि श्रीलंकाई युवाओं से बात करें, जवाब एक ही मिलेगा कि जवाब किसी के पास है नहीं ! तख्त, तिजोरी और तलवार के बल पर चलने वाला तंत्र दुनिया में हर कहीं एक ही काम कर रहा है - वह लोक की पीठ पर बैठा, उसकी गर्दन दबा रहा है.
यह सच सबसे पहले मोहनदास करमचंद गांधी ने पहचाना था और इससे लड़ने का रास्ता भी खोजा था. आजादी के बाद ८० साल के उस आदमी ने अभी सांस भी नहीं ली थी कि किसी ने पूछा : बापू, जुलूस, धरना, जेल, हड़ताल आदि सब अब किस काम के ! अब तो देश भी आजाद हो गया और सरकार भी अपनी है. अब आगे की लड़ाई का आपका हथियार क्या होगा ? क्षण भर की देर लगाए बिना जवाब दिया उन्होंने : अब आगे की लड़ाई मैं जनमत के हथियार से लड़ूंगा !
३० जनवरी को हमारी गोली खा कर गिरने से पहले जो अंतिम दस्तावेज लिखा उन्होंने उसमें भी इसी को रेखांकित किया कि लोकतंत्र के िवकास-क्रम में, एक ऐसी अवस्था आनी ही है जब तंत्र बनाम लोक के बीच एक निर्णायक लड़ाई होगी; और उस लड़ाई में लोक की निर्णायक जीत हो, इसकी तैयारी हमें आज से ही करनी है. कोई ६८ साल पहले की यह वह भविष्यवाणी है और आज के हम हैं ! रूप व आवाज बदल-बदल कर वह लड़ाई सामने आती है और हमें पराजित कर निकल जाती है. कश्मीर भी समझे और हम सब भी समझें कि इस लड़ाई में अगर लोक को सबल और सफल होना है, तो ‘संवाद सत्याग्रह’ तेज बनाना होगा. कभी ऐसा वक्त भी आएगा कि जब कश्मीर देश के दूसरे कोनों में पहुंच कर ‘संवाद सत्याग्रह’ चलाएगा. ऐसा ही एक अपूर्व ‘संवाद सत्याग्रह’ जयप्रकाश नारायण ने आजादी के बाद, नगालैंड में चलाया था और वह संवादहीनता तोड़ी थी जिसे तोड़ने में राजनीतिक तिकड़में और फौजी बहादुरी नाकाम हुई जा रही थी. इतिहास का यह अध्याय इतिहासकारों पर उधार है कि पूर्वांचल आज देश से जुड़ा है और अलगाववाद की आवाजें वहां से कम ही उठती हैं, तो यह कैसे संभव हुआ ? खुले संवाद में गजब की शक्ति होती है बशर्ते कि उसके पीछे कोई छुपा एजेंडा न हो.
क्या हम अपनी कसौटी करने के लिए, पाकिस्तान से नहीं सही तो नहीं, कश्मीर से ‘संवाद सत्याग्रह’ आयोजित कर सकते हैं ? देखना है कि जवाब किधर से आता है ! ( 5.05.2016)
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