Sunday 21 August 2016

कुछ बात है कि चुप हैं

अचानक ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गालिब मियां का ऐसा मेल बैठा कि मैं भीतर-भीतर ही बाग-बाग हो रहा हूं ! गालिब मियां तो कब का गा गये हैं : कुछ बात है कि चुप हैं / वरना क्या बात कर नहीं आती…” और यह कह कर गालिब ने बात ऐसी-ऐसी की कि सारी दुनिया आज तक उन्हें ही सुनती और गुनती आ रही है. अब प्रधानमंत्री ने दिखाया कि उनको भी बात करनी आती है ! एक दिन राजधानी दिल्ली में गौ-रक्षकों का काम तमाम किया उन्होंने तो दूसरे दिन हैदराबाद में दलितों पर लगातार हो रहे और बढ़ रहे कायराना हमलों पर हमला किया. दोनों ही मौकों पर वे उस तरह बोले जिस तरह किसी भी जिम्मेवार प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए. 

लेकिन उनके बोलने से बात खत्म नहीं हुई है बल्कि नई तरह से शुरू हुई है. पहली बात तो प्रधानमंत्री ने ही छेड़ी है कि नगरपालिका के सवालों से ले कर अंतरराष्ट्रीय सवालों तकसब कुछ उनसे ही क्यों पूछा जाता है प्रधानमंत्री ने दिल्ली के भाषण में इस पर अपनी हैरानी-परेशानी जताई. देश भी उतना ही हैरान-परेशान है कि जितने की प्रधानमंत्री. देश जानना चाहता है कि जो आदमी हर महीने मन की बात’ कहने के लिए देश की रेडियो-सेवा का बेहिचक इस्तेमाल करता हैजो आदमी चाय पर चर्चा केरास्ते प्रधानमंत्री बना हैजो आदमी देश-दुनिया में योजनाबद्ध तरीके से भीड़ जुटवा कर अपना ढोल बजाता है और उसमें अधिकांशत: जुमलेबाजी ही होती हैवही आदमी उन सवालों के बारे में गहरी उपेक्षा और अवमानना का भाव क्यों रखता है जिनसे समाज का कोई-न-कोई वर्ग व्यथित या उत्तेजित होता है बड़ी बातों पर जब चुप्पी रखी जाती है तब छोटी बातें असाधारण हो जाती हैं. रोहित वेमुला भी मेरे दलित भाइयों’ में एक नहीं था क्या कि जिसकी आत्महत्या प्रधानमंत्री से संवेदना और संलग्नता की मांग करती थी जिसकी आत्महत्या के सवाल को उनकी ही खास शिक्षामंत्री ने लोकसभा में मजाक का विषय बना दिया था और फिर कुछ ऐसी लहर चली कि शिक्षा-संस्थानों में ‘ मेरे दलित भाइयों’ का कॉंबिंग अॉपरेशन होने लगा. गलती उनकी भी हो सकती है लेकिन सरकार की गलती और लोगों की गलती को कोई एक पलड़े पर रख सकता है क्या जब ऐसा कुछ होने लगे तभी तो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की भूमिका अहम हो जाती है कि वे तराजू के दोनों पलड़े बराबर कर देते हैं. जब वे ऐसा नहीं करते हैं तब उनके सारे बयान किसी दूसरे तराजू पर ही तौल जाने लगते हैं. तब शब्दों के अर्थ बदल जाते हैंमुद्राएं खोखली हो जाती हैं और संवेदनाएं नकली लगने लगती हैं. ऐसा ही  हुआ है. 

सहिष्णुता-असहिष्णुता के पूरे विवाद की जड़ ही कट जाती अगर प्रधानमंत्री ने उन्हें बुला कर समझ लिया होता कि दर्द कहां है और यह भी बता दिया होता कि वे कहां खड़े हैं. जब वे मौन रहे तो सरकार और दल के सारे छुटभैयों ने तलवारें निकाल लीं और फिर तो कोन-कौनकैसे-कैसे घायल हुआक्या कहा जाए ! आज वे सब तलवारबाज सकते में हैं कि हमने तो तलवार प्रधानमंत्रीजी का चेहरा देख कर ही निकाली थे और अब उन्होंने ही म्यान सामने धर दी है ! अब वे सब अपनी तलवारें थामे रहें कि धर देंइससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि सरकार का इकबाल तो घुटनों बल बैठ गया है ! हिंदुत्व वालों और गौ-रक्षकों की जहरीली प्रतिक्रयाएं सामने आने लगी हैं और वे जल्दी ही संगठित चुनौतियां उछालेंगी. तब प्रधानमंत्री का यह बोलना काम नहीं आएगेक्योंकि तब वे अपने मौन की कीमत चुका रहे होंगे. ऐसे में संघ परिवार किस तरफ खड़ा होगायह भी देखने जैसा होगा.  

गाय का सवाल बहुत अहम है. संघ-परिवार की तरह ही गाय-परिवार भी है. इस गौ-बिरादरी का संरक्षण-संवर्धन जरूरी है. जरूरी इसलिए नहीं है कि वह हमारी माता हैकि उसकी पूंछ पकड़ कर कितने हीकितनी ही वैतरिणी पार कर चुके हैं. यह जरूरी इसलिए है कि कृषि-आधारित हमारा अर्थतंत्र और हमारी सामाजिक व्यवस्था सबसे सहजता से इसी बिरादरी द्वारा चल सकती है. यह बड़ी सहजता के साथ हमारे जीवन में घुला-पचा है. दूसरा कुछ भी इसकी जगह नहीं ले सकता है क्योंकि इस जैसी प्रदूषणरहित दूसरी कोई ऊर्जा हमारे पास नहीं है. लेकिन इस बिरादरी के साथ तालमेल बिठाने वाली संरचना भी तो चाहिए न ! यह आपकी स्मार्टसिटी में सांस नहीं ले सकती और आपकी नर्मदा परियोजना में डूब मरती है. आप गौ-माता कह कर और हमलावर रक्षकों की तलवारबाजी से इसे बचा नहीं सकेंगे.  बैलों काबछड़ों काबूढ़े  गाय-बैलों कामृत गाय-बैलों का सवाल रहेगा ही और तब चमड़ा उतारने का काम भी रहेगा. मरे जानवरों का चमड़ा न उतारा जाए तो जिंदा गाय-बैल बचेंगे ही नहीं. जैसे इंसान की किडनी तथा दूसरे अंग चुरा कर बाजार में बेचे जाते हैंवैसा ही हम इनके साथ भी करेंगेकर रहे हैं. इसलिए प्लास्टिक नहींसरकार विकास की जिस दिशा में जा रही हैवह गाय-बिरादरी की हत्या कर रही है. प्रधानमंत्री को इस बारे में सोचना है और बोलना है. 

गाय और गांधी का संबंध बहुत जटिल रहा है. उन्होंने ऐसी कोमल उपमा दी है कि कहा कि ईश्वर को जब करुणा पर काव्य लिखने का मन हुआ तो उसने गाय की रचना की. गाय के साथ हमारे समाज का वहशी व्यवहार देख कर उन्होंने जीवन भर उसका दूध नहीं पीया. लेकिन गाय-बिरादरी के प्रति असीम स्नेह के बावजूद उन्होंने कभी गौ-रक्षा के लिए अनशन नहीं किया बल्कि एक आप्त-वाक्य ही कह डाला कि मैं किसी गाय को बचाने के लिएकिसी आदमी की हत्या नहीं करूंगा. गाय को बचाने के लिए अपनी जान देने की बात तो वे बार-बार कहते ही थे. यह सब था जो प्रधानमंत्री को एकदम शुरू में ही कहना था. कहना इसलिए था कि आज वे जिसे समाज को तोड़ने का षड्यंत्र कह रहे हैंवह षड्यंत्र काफी पहले रचा जा चुका था और उन्हीं ताकतों ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में भी भूमिका अदा की थी. इसलिए देश के मन में खटका थाहै और बना रहेगा कि कहीं इस षड्यंत्र से समझौता करने की बात तो नहीं होगी अभी भी प्रधानमंत्री ने गौ-रक्षकों की हिंसा के प्रति अपनी सरकार का फैसला नहीं घोषित किया है और दलितों वाले मामले में यह भी संकेत दिया है कि यह विपक्ष के उकसावे का परिणाम है. अगर आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री की दिल्ली और हैदराबाद की ये सारी बातें जुमलेबाजी की धुंध में खो जाएंगी तो चुनाव नहींभारतीय समाज संकट में पड़ेगा. और प्रधानमंत्री ने यदि अपनी इन बातों को ही अपनी टेक बना लिया तो देश में एक नई ऊर्जा बन सकती है.                   

मनमोहन सिंह जैसे मौन और नरेंद्र मोदी जैसे वाचाल प्रधानमंत्रियों को झलते-झेलते देश थक चुका है. अब वह चाहता है और मांगता है ऐसा कोई जो मतलब की बातमौके पर बोले और जो बोले उसमें उसका भरोसा भी हो. जुमलों से आप देश को मूर्ख बन सकते हैंदेश चला नहीं सकतेयह बात इन दिनों बार-बार साबित होती जा रही है. देश बहत बड़ा हैबहुत जटिल है और लंबे समय तक दिशाहीन रहने के कारण इस गाड़ी को पटरी पर लाना आसान भी नहीं रह गया है. धर्म,जाति,संप्रदायभाषा आदि-आदि प्रतिगामी शक्तियों के ईंधन से इस गाड़ी को चलाने की कोशिशें कितने ही सूरमा कर चुके हैं और सभी खेत रहे हैं. ये शक्तियां विध्वंस मचा सकती हैंरच कुछ भी नहीं सकती हैंऔर जो रच नहीं सकता हैवह देश चला-बना नहीं सकता है. 

उत्तरप्रदेश व गुजरात के चुनाव कौन जीतता हैयह सवाल एकदम बेमानी हो जाएगा यदि प्रधानमंत्री अपनी इस नई पहल में जीत जाते हैं. ( 8.8.2016) 

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