Sunday 21 August 2016

लोकतंत्र की शर्मिला

लोकतंत्र की शर्मिला 


कहानी मणिपुर के ईटानगर के एक कस्बे मालोम के बसस्टैंड से सन् २००० के २ नवंबर को शुरू हुई थी जहां बस का इंतजार करते १० जिंदा लोगों को खून में तड़पता छोड़ कर फौजी दल रवाना हो गया था अौर २८ साल की एक साधारण-सी मणिपुरी लड़की अवाक, हैरान यह पूछती ही रह गई थी कि यह क्या हुअा अौर क्यों हुअा ?  उस दिन से लेकर अाज तक, १६ लंबे सालों तक वह लड़की यही सवाल पूछती अाई है - यह क्या हुअा अौर क्यों हुअा ? हमारे स्वस्थ्य व स्थिर लोकतंत्र ने १६ सालों तक उसके सवालों का कोई जवाब नहीं दिया ! लोकतंत्र जब गूंगा अौर बहरा हो जाता है तब वह इंसान की बनाई सबसे दुर्दांत व्यवस्था में बदल जाता है. तब उसका चेहरा उस अार्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट जैसा हो जाता है. गुलाम भारत को काबू में रखने के लिए बनाए गये इस कानून को अाजाद भारत के कई हिस्सों में लागू कर के, फौज अौर दूसरे सैन्य संगठनों को ऐसे अंधाधुंध अधिकार दे दिए गये हैं कि नागरिक एकदम असहाय अौर निरुपाय रह गया है.  
वह लड़की, इरोम छानू शर्मिला अाज ४४ साल की वैसी महिला है जैसी देश में दूसरी कोई महिला नहीं है. उसे देश में सबसे अधिक लोग जानते भी हैं भले यह न जानते हों कि अाखिर वह चाहती क्या है. वह चाहती बस इतना ही है कि हमारा लोकतंत्र अपने लोक की बात सुने अौर उसके सवालों के जवाब दे. पिछले १६ सालों से यही कह-कह कर, यही पूछ-पूछ कर उसने सारे देश का अंतरमन झकझोर रखा है. अौर तमाशा यह कि वह इन १६ सालों में १६ बार भी बोली नहीं है, १६ जगहों पर भी गई नहीं है अौर १६ प्रेस बयान भी नहीं दिए हैं. मौन की ऐसी मुखरता कहां देखी थी हमने ! १६ सालों से वह अनशन पर है - १६ सालों से उसने अपने हाथ से, अपनी पसंद का कोई खाना खाया नहीं है. १६ सालों से उसे सरकारी खाना खिलाया जाता रहा है जो नाक में डाली एक नली से उसके भीतर उडेल दिया जाता रहा है. १६ साल पहले उस पर अारोप लगाया गया कि वह अात्महत्या करना चाहती है अौर संविधान कहता है हमारा कि अात्महत्या अपराध है अौर इसलिए राज्य-धर्म है कि वह शर्मिला को अात्महत्या न करने दे. इसलिए १६ सालों से रोज-रोज उसकी हत्या की जाती रही है. १६ साल पहले मणिपुर की राजधानी इंफाल के सरकारी अस्पताल के एक कमरे को जेल में तब्दील कर, शर्मिला को वहां कैद कर दिया गया ताकि वह अात्महत्या न कर सके. यह सब किया गया लेकिन जो नहीं किया गया वह यह कि अार्म्ड फोर्सेस स्पेशन पावर एक्ट नहीं हटाया गया अौर न ऐसी कोई व्यवस्था बनाने की ही पहल की गई कि सुरक्षा बलों को मर्यादा में रहना पड़े. 
जब कहीं से कोई हाथ नहीं बढ़ा अौर कहीं से कोई अावाज नहीं उठी तब सर्वोच्च न्यायालय की अावाज उठी. पहले भी उठ सकती थी, उठनी चाहिए थी लेकिन बीते समय का क्या रोना, अाज तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक मणिपुर समेत देश के किसी भी अशांत-असुरक्षित इलाके में कानून-व्यवस्था के नाम पर फौज-सुरक्षा बल मनमाना नहीं कर सकते हैं अौर वे जो भी करेंगे उसकी अदालती जवाबदेही से न तो वे बच सकते हैं अौर न कोई उन्हें बचा सकता है. इस एक फैसले से अदालत ने सरकार व फौज-पुलिस को उस लोकतांत्रिक जिम्मेवारी से जोड़ दिया है जिसे अशांति, सुरक्षा, अातंकवाद, अलगाववाद अादि-अादि नामों से धता बताई जा रही थी. उनके ऐसे रवैये से बात बनती होती तो भी कुछ बात थी. लेकिन यहां तो मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की वाला हाल हम देख रहे हैं. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने यह लक्ष्मण-रेखा खींची अौर अार्म्ड फोर्सेस स्पेशन पावर एक्ट का विषदंत किसी हद तक टूट गया.
शर्मिला ने इस फैसले के तुरंत बाद ही, २६ जुलाई को घोषणा कर दी कि वह अपना १६ साल पुराना अनशन तोड़ रही है अौर लोकतंत्र के अांगन में पांव धरने जा रही है. यह घोषणा किसी भी तरह जीएसटी के लागू होने से कम संभावना वाली घोषणा नहीं है. लोकतंत्र की यही अांतरिक ताकत उसे संभावनापूर्ण बनाए रखती है कि वह अपने भीतर की जड़ता की काट भी  खुद ही निकालती रहती है. शर्मिला की यह घोषणा ऐसी ही है. अाप जब यह पढ़ रहे होंगे, शर्मिला ९ अगस्त को अपना अनशन तोड़ रही होगी. उसने कहा है कि वह अब सामान्य जिंदगी जीएगी, अपने ब्रिटिश प्रेमी-सहयोगी डेसमांड काउटिन्हो से शादी करेगी अौर चुनाव लड़ेगी. शर्मिला को यह सब करने की पूरी अाजादी है लेकिन हमें जिसकी तरफ ध्यान देना है वह यह है कि लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया में उतरने की उसकी घोषणा में बड़ी संभावनाएं छिपी हैं. यह चुनावी-संसदीय तंत्र निष्प्राण अौर संभावनाहीन हो चुका है लेकिन शर्मिला, मेधा पाटकर जैसे लोग इसके भीतर जाते हैं तो एक दूसरे तरह की संभावना अाकार लेती है, अौर वह संभावना है लोकतंत्र व संसदीय राजनीति के नये अायाम उभरने की. 
शर्मिला को दृढ़तापूर्वक लेकिन फूंक-फूंक कर कदम उठाने चाहिए. उसे किसी राजनीतिक दल का दामन नहीं थामना चाहिए बल्कि मणिपुर में अपना राजनीतिक दल बनाना चाहिए अौर उनकी अपनी कसौटी पर खरे उतरने वाले नये चेहरों को सामने लाना चाहिए. शर्मिला को अब इस सच का सामना भी करना है अौर देश को दिखाना भी है कि अशांति अौर अलगाव मणिपुरी नागरिकों के खून में घुला हुअा नहीं है बल्कि अदूरदर्शी व स्वार्थी राजनीति द्वारा पैदा किया गया है. अपने मौन संधर्ष के लंबे काल में उन्होंने सत्ता के खोजी एक राजनीतिज्ञ से कहीं ज्यादा बड़ी विश्वसनीयता कमाई है. उनका कद अाज चुनावी जीत-हार से कहीं बड़ा है. भारतीय लोकतंत्र को भी अौर मणिपुर को भी ऐसे कद की सख्त जरूरत है. अपनी एकाकी लड़ाई को एक सामूहिक संकल्प में बदलने का मौका शर्मिला के सामने है. यह कहना कठिन है कि १६ साल लंबे अनशन ने उन्हें शारीरिक तौर पर कितना खोखला बना दिया है लेकिन यह कहना जरूरी है कि हमारे लोकतंत्र को इस खोखले तन की नहीं, उस भरे-पूरे मन की बेहद जरूरत है जिसकी प्रतीक शर्मिला बन गई हैं. ( 05.08.2016) 

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