Wednesday 19 October 2016

तलाक दो !

तलाक दो ! 
० कुमार प्रशांत  

मानो देश में बहस व विवादों की कमी थी कि तीन तलाककी अमानवीय प्रथा को ले कर लोग मैदान में उतर अाए हैं ! अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तथा उनकी तरह के कितने ही मुस्लिम संगठन व कितने ही मुल्ला-मौलवी हर तरफ चीख-चिल्ला रहे हैं कि तीन तलाकशरिया कानून का हिस्सा है अौर हम इससे किसी को खेलने की इजाजत नहीं दे सकते ! ये सभी इस तेवर में बात कर रहे हैं मानो देश में न कोई सरकार है, न कानून, न अदालत अौर न समाज ! जो कुछ भी है वह मुसलमान होने का दावा करने वाले मुट्ठी भर मौलाना-मौलवी हैं जो यह तै करेंगे कि इस मुल्क में क्या होगा, क्या नहीं होगा !!  
मैं ऐसा लिख भी रहा हूं अौर ठिठक भी रहा हूं क्योंकि यदि इनमें से कोई उन्मत्त मौलाना मुझसे यही पूछ बैठे कि इस देश में कौन, किससे, कहां क्रिकेट खेलेगा यह उद्धव ठाकरे की शिव सेना तै कर सकती है अौर पिच खोद कर, मैच नामुमकिन बना दे सकती है तो हम क्यों नहीं कर सकते, तो मैं जवाब नहीं दे पाऊंगा. मैं जोर से कहना चाहता हूं कि तीन तलाकके बारे में सरकार ने अदालत में अपनी राय रखी है तो कुछ भी असंगत या गलत नहीं किया है लेकिन अगर राज ठाकरे की मनसे यह ऐलान करती है कि पाकिस्तानी कलाकारों को इतने घंटे के भीतर मुंबई अौर भारत खाली कर देना है, अौर उनकी गुंडा फौज सड़कों पर उतर अाती है अौर महाराष्ट्र सरकार या केंद्र सरकार इतना भी नहीं कह पाती है कि किसी को राज्य या देश छोड़ने का फरमान देने का अधिकार उसका है, गली-नुक्कड़ पर बैठे लोगों का नहीं तो फिर सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा हो ही जाता है. जब अाप शान से यह कहते सड़कों पर उतरते हैं कि राम जन्मभूमि हमारी अास्था का मामला है अौर इसमें किसी अदालत को बोलने का अधिकार नहीं है तो मुल्ला-मौलवियों को अाप ऐसा कहने से कैसे रोकेंगे कि शरिया कानून अदालत, संविधान अौर देश से ऊपर है अौर इस बारे में कोई बात हो ही नहीं सकती है ? लोकतंत्र ऐसा विधान है जिसमें हर सवाल पर बात हो सकती है अौर किसी भी विवाद में सरकार या अदालत हस्तक्षेप कर सकती है. हां, इनमें से कोई भी गलत हस्तक्षेप करेगा तो संविधान ही हमें यह अधिकार देता है कि हम उसके खिलाफ अदालत में या संसद में जा सकते हैं. लोकतंत्र के इस विधान को अांख दिखाने वाले हिंदुत्व वाले हों कि संघ परिवार वाले कि अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड वाले कि किसी दूसरे नाम से मुसलमानों या दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों की तरफदारी करने वाले, सबको यह समझ लेना चाहिए, अौर अंतिम तौर पर समझ लेना चाहिए कि संविधान अौर अदालत की व्यवस्था के सामने सबको झुकना ही होगा अन्यथा इस देश का भूगोल व इतिहास सलामत नहीं रह सकता है. 
अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह मूर्खतापूर्ण बात की है तीन तलाक के सवाल पर जनमत संग्रह करवाया जाए ! वे चुनौती दे रहे हैं कि ९० फीसदी महिलाएं शरिया कानून के पक्ष में होंगी ! होंगी, हो सकती हैं लेकिन इससे तीन तलाक सही कैसे साबित होता है ? अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड वालों को इस बात का इल्म है कि इस देश में अगर इस सवाल पर जनमत संग्रह करवाया जाए कि मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहने देना चाहिए या नहीं तो कौन कहां खड़ा होगा ? जाति, छूअाछूत, अॉनर कीलिंग अादि-अादि सामाजिक कुरीतियों पर अगर जनमत संग्रह करवाया जाए तो देश का अाईन बदलना पड़ेगा !  अमरीका में पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक अोबामा को श्वेत चमड़ी वाले काले मन के अमरीकियों से क्या-क्या न सुनना व झेलना पड़ा ! अमरीका में यदि जनमत संग्रह हो कि अश्वेतों को, जो जन्मना अमरीकी नहीं है उन्हें राष्ट्रपति बनने का अधिकार देना चाहिए या नहीं, तो अमरीकी समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा ! इसलिए नहीं कि अमरीका कोई बुरा मुल्क है याकि भारत बहुत पिछड़ा हुअा देश है.  रूहानी अौर जहनी तौर पर उलझे हुए समाजों का मन बहुत धीरे-धीरे बदलता है, बड़ी मुश्किल से नई बातों के लिए तैयार होता है. उसे लगातार प्रगतिशील कानूनों की मदद देनी पड़ती है, चुस्त व बा-ईमान सरकारों को संभल कर चलना अौर चलाना पड़ता है, समाज पर नैतिक असर रखने वालों को बार-बार रास्ते पर अा कर, रास्ता बताना पड़ता है, जनमत बनाने की मुहिम चलानी पड़ती है. अगर ऐसे सवालों पर जनमत करवाएंगे अाप तो अपना ही कुरुप चेहरा दुनिया को दिखाएंगे ! 
तलाक एक जरूरी सामाजिक व्यवस्था है. स्त्री-पुरुष के बीच के संबंध जब अर्थहीन हो जाएं, एक-दूसरे को अपमानित करने, हीन दिखाने अौर हिंसा का शिकार करने तक पहुंचें इससे पहले ही वैसे संबंध से मनुष्य की मुक्ति मनुष्यता के विकास में अगला कदम है. यह अाधुनिकता का अभिशाप नहीं है, अाधुनिक समझ है जो यह मानती है कि स्त्री अौर पुरुष दोनों ही एक सी संवेदना से जीने वाले अौर एक-दूसरे की बेपनाह जरूरत महसूस करने वाले प्राणी हैं लेकिन उनका साथ अाना हर बार, हर कहीं श्रेयस्कर नहीं होता है, नहीं हो सकता है. इसलिए विफल साथ से निकल कर, अपनी जिंदगी के नये मुकाम खोजने की सहज अाजादी मनुष्य को होनी ही चाहिए. लेकिन तलाक की व्यवस्था ऐसी भी नहीं बनाई जा सकती है जिसका पलड़ा किसी एक के पक्ष में इतना झुका रहे कि वह उसे दमन के हथियार के रूप में इस्तेमाल करे. इसलिए तलाक के लिए पारिवारिक स्वीकृति हो, अगर बच्चे हैं तो उनके भावी की पूरी फिक्र हो, रिश्ते टूटने को सामाजिक मान्यता हो, एक अवधि विशेष तक दोनों को अपने संबंधों पर पुनर्विचार करने की बाध्यता हो, फिर अदालत में उनके मामले पर विचार हो अौर फिर तलाक तक पहुंचें हम, इसकी व्यवस्था बनानी पड़ी है. अगर वैवाहिक जीवन में ऐसी स्थिति बनती हो कि कोई किसी को अपमानित करे, अस्तित्वहीन व व्यक्तित्वहीन जीने को मजबूर करे तो यह निजी धािर्मक मान्यताअों  से निकल कर, राष्ट्रीय सवाल बन जाता है. इसलिए यहां किसी धार्मिक जमात के पर्सनल लॉ का कोई संदर्भ ही नहीं बनता है. स्त्री हो या पुरुष, अपने हर नागरिक के स्वाभिमान की रक्षा में राज्य या अदालत को सामने अाना ही चाहिए. ऐसे मामले में हम मनुस्मृति को या शरिया कानून को या पारसी पंचायत को या चर्च को नहीं, संविधान को देखेंगे जो बताता है कि लोकतंत्र का धर्म क्या है. यह संविधान अपूर्ण भी हो सकता है अौर हम उससे असहमत भी हो सकते हैं फिर भी उसे तब तक मानना ही होगा जब तक हम उससे बेहतर कुछ गढ़ नहीं लेते. अाखिर मनुष्य के रूप में हम सब भी तो अपूर्ण अौर कमतर ही हैं न लेकिन इससे किसी को यह अधिकार नहीं मिल जाता है कि वह समाज में कत्लेअाम मचा दे. 
तीन तलाक की व्यवस्था अाज बन रहे भारतीय समाज के साथ कदमताल नहीं कर सकती है जैसे सैकड़ों शादियां करने वाला राजवंश अाज के समाज में जी नहीं सकता. अाज के समाज में सती-प्रथा नहीं चल सकती है, दलितों को दोयम दर्जे का बताना व बनाना नहीं चल सकता है वैसे ही तीन तलाक की व्यवस्था भी नहीं चल सकती है. मुस्लिम समाज में अाधुनिक सोच वाले कई लोग अौर कई सारी महिलाएं इसे पसंद नहीं करती हैं. कई जागरूक मुस्लिम महिलाएं इसका मुखर विरोध करती हैं अौर अपने देश-समाज को जगा कर पूछती हैं कि हमारे लिए अापने क्या व्यवस्था बनाई है ? क्या उन्हें यह जवाब दिया जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र के पास उनके लिए कोई जगह नहीं है ? ऐसा जवाब देने वाला संविधान, ऐसा जवाब देने वाली सरकार अौर ऐसा जवाब स्वीकार करने वाला समाज एक साथ ही पतन की राह जाएंगे. इसका एक ही जवाब है, अौर हो सकता है कि संविधान, सरकार अौर समाज कहे कि हमारे धार्मिक विश्वास, हमारे सामाजिक रीति-रिवाज चाहे जितने अलग हों, जब सवाल नागरिक की हैसियत का उठेगा तब न कोई धर्म, न कोई जाति, न कोई संप्रदाय अौर न लिंग का भेद होगा. नागरिकता के संदर्भ में सारे देश में सबको शरीक करने वाला एक ही संविधान चलेगा. 
इस सरकार की परेशानी यह है कि इसकी झोली में भरोसा नाम का माल है ही नही ! इसे सरकार के रूप में देश का भरोसा जीतना होगा. जब तक ऐसा नहीं हो पाता है तब तक सामाजिक परिवर्तन के हर सवाल पर इसे वातावरण बनाने की पुरजोर कोशिश करनी होगी.  वातावरण बनाना मतलब धमकी देना, संख्या का भय पैदा करना, सरकारी तेवर दिखलाना अौर  गाय, सिनेमा, लव जेहाद, पलायन अादि-अादि की गर्हित चालें चलना नहीं होता है. यह सब तो बने या बनते वातावरण में पलीता लगाना है. अदालत में अपना पक्ष रख देने के बाद सरकार को अौर उसके भोंपुअों को न कुछ कहना चाहिए, न करना चाहिए ! एक लंबा, गहन विमर्श सारे देश में चले - तीन तलाक के बारे में भी अौर समान नागरिक कानून के बारे में भी ! फिर अदालत भी अपनी राय कहे. फिर देखें कि समाज कहां पहुंचता है. जितना विमर्श चलेगा, वातावरण तैयार होगा.  
मुस्लिम समाज के रहनुमाअों के अागे अाने की यह घड़ी है. उन्हें यह कहना ही होगा कि तलाक दो, अभी दो; अौर तीन नहीं, एक ही दो : हर कठमुल्ली सोच को तलाक दो ! करीब दो दर्जन इस्लामी देशों में तीन तलाक की स्वीकृति नहीं है अौर वहां मुसलमान अौर शरिया सब सलामत हैं. मतलब सीधा है - खोट मन में है जिससे सबको तलाक लेना जरूरी है.  ( 14.10.2016)                                                                                                                                                                           

1 comment:

  1. अमानवीय सामाजिक व्यवहार हो या कानून इन सबको मुखर होकर घोर विरोध कर समाप्त करना ही चाहिए। आप की बात से पूर्ण सहमत हूँ। आपने ठीक ही कहा है कि -
    तीन तलाक की व्यवस्था अाज बन रहे भारतीय समाज के साथ कदमताल नहीं कर सकती है जैसे सैकड़ों शादियां करने वाला राजवंश अाज के समाज में जी नहीं सकता. अाज के समाज में सती-प्रथा नहीं चल सकती है, दलितों को दोयम दर्जे का बताना व बनाना नहीं चल सकता है वैसे ही तीन तलाक की व्यवस्था भी नहीं चल सकती है. मुस्लिम समाज में अाधुनिक सोच वाले कई लोग अौर कई सारी महिलाएं इसे पसंद नहीं करती हैं. कई जागरूक मुस्लिम महिलाएं इसका मुखर विरोध करती हैं अौर अपने देश-समाज को जगा कर पूछती हैं कि हमारे लिए अापने क्या व्यवस्था बनाई है ? क्या उन्हें यह जवाब दिया जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र के पास उनके लिए कोई जगह नहीं है ? ऐसा जवाब देने वाला संविधान, ऐसा जवाब देने वाली सरकार अौर ऐसा जवाब स्वीकार करने वाला समाज एक साथ ही पतन की राह जाएंगे. इसका एक ही जवाब है, अौर हो सकता है कि संविधान, सरकार अौर समाज कहे कि हमारे धार्मिक विश्वास, हमारे सामाजिक रीति-रिवाज चाहे जितने अलग हों, जब सवाल नागरिक की हैसियत का उठेगा तब न कोई धर्म, न कोई जाति, न कोई संप्रदाय अौर न लिंग का भेद होगा. नागरिकता के संदर्भ में सारे देश में सबको शरीक करने वाला एक ही संविधान चलेगा.

    मनोज कुमार झा
    31 . 10. 2016

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