Monday 14 November 2022

50वां न्यायाधीश और 75 साल का भारत

         संगीत में कुछ है ऐसा रहस्य कि जब आप शिखर पर पहुंचते हैं तो वह वहां आपकी बांह थामने को खड़ा मिलता है. वहां पहुंच कर ही संगीत का असली मतलब समझ में आता है - संग चलने वाला गीत ! हमारा भौतिक जीवन भी दूसरा कुछ नहींसंगीत का ही एक तेज आलाप है. इसलिए इसमें हैरान होने जैसा कुछ भी नहीं है कि हमारी सभ्यता ने जिन लोगों के कंधों पर बैठ कर अपने कई सोपान चढ़े हैंवे सब कहीं-न-कहींकिसी-न-किसी तरह संगीत से आप्लावित रहे हैं - फिर चाहे आइंस्टाइन रहे हों कि रोमैं रोलां कि रवींद्रनाथ कि अलबर्ट स्वाइत्जर कि गांधी ! यह बात कम ही उभरी है कि अहमदाबाद में बंद पड़ गए संगीत विद्यालय को फिर से शुरू करवाने की जद्दोजहद में गांधी ऐसे लगे थे मानो आजाद भारत का संगीत ही कहीं खो गया हो ! वे भातखंडे तक दौड़े थेअौर हमें बता गए:  हम संगीत का ऐसा संकुचित अर्थ न करें कि वह सधे हुए कंठ सेशुद्ध स्वर मेंताल के साथ गाने-बजाने का अभ्यासमात्र है. जीवन में एकरागता अौर एकतानता होने पर ही सच्चा संगीत प्रकट होता है. जब तक वह संगीत प्रकट नहीं हुआ हैतब तक देश में अराजकता या कुराजकता रहने ही वाली है अौर गुलामी से हमारा छुटकारा संभव नहीं है.  

           सर्वोच्च न्यायालय के हमारे 50वें मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ का संगीत-प्रेम भी किसी से छुपा नहीं है. वे जिस महत्वपूर्ण जिम्मेवारी को एक अत्यंत नाजुक घड़ी में अंगीकार करने जा रहे हैंउस जगह कभी उनके पिताश्री यशवंत वी. चंद्रचूड़ विराजते थे. पिता यशवंत प्रशिक्षित शास्रीय संगीतज्ञ थे. धनंजय चंद्रचूड़ ने कानून की बारहखड़ी जब भी पढ़ी होघर में संगीत की बारहखड़ी बचपन से ही सुनी-पढ़ी है. उनकी मां को शास्रीय गायन सिखाने उनके घरदूसरा कोई नहींकिशोरी अमोनकर आती थीं. संगीतवह भी किशोरी अमोनकर सेयशवंत चंद्रचूड़ में जैसे घुट्टी में मिला है. उन्होंने ही बताया है हमें कि जब एक बार उन्होंने किशोरी अमोनकर से अॉटोग्राफ मांगा तो किशोरी अमोनकर ने लिखा :  संगीत हमें संगीतमय करता हुआ मौन तक पहुंचाता है : म्यूजिक म्यूजिकली लीड्स अस टू साइलेंस ! न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से यह देश अौर इसकी लोकतांत्रिक आत्मा अाज बस एक ही मांग करती है कि वह संगीतमय न्याय की नजरों से हमें देखे अौर संगीतमय मौन की भाषा में अपना फैसला सुनाए. यह देश आज जितना बेसुरा हुआ है उतना पहले कभी नहीं था. पहले भी यह संगीत विशारद तो नहीं था लेकिन रियाज में लगा हुआ था. आज तो बेसुरे को ही तानसेन साबित करने व मनवाने की हवा बहाई जा रही है. जब विधायिका बेसुरा गाने लगती है तो कार्यपालिका फटे बांस-सा राग अलापती है. यही वह नाजुक व घातक घड़ी है अाज जब न्यायपालिका सारे संसदीय तंत्र को राग बदलने परसंवैधानिक आलाप लेने पर तरीके से मजबूर करे.  

         हमारे संविधान से लोकतंत्र का दो चेहरा उभरता है : एकसंसदीय लोकतंत्र हैदूसरा संवैधानिक लोकतंत्र है. संसदीय लोकतंत्र एक ढांचा हैअावरण है जिसके भीतर संसद चलती हैकानून बनते हैंअदालतें चलती हैंझंडा लहराता हैलाल किले से अभिभाषण होते हैंफौजी परेड अादि होती है.  यह सब पहले भी इसी तरह होता था - 1947 से पहले भी ! तब भी यह सब था लेकिन जो नहीं थी वह थी आजादी ! अाजादी के बिना यह सारा तामझाम व्यर्थ था. उस एक आजादी को पाने में इतने सारे बलिदान हुए अौर तब कहीं जा कर यह संभावना पैदा हुई कि हम संसदीय लोकतंत्र को ज्यादा आत्मवान बना सकें. इस संभावना की सिद्धि के लिए संविधान सामने आया. हमने नियति से वादा किया कि हम भारत के लोग संविधान के रास्ते चल करअपने संसदीय लोकतंत्र को संवैधानिक लोकतंत्र से जोड़ेंगे. हम मानते थे कि इस साझेदारी में से वह आजादी जन्म लेगी व संपुष्ट होती चलेगी जिसके बिना संसदीय लोकतंत्र एक अौपचारिकता बन कर रह जाता है. संवैधानिक लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र को रास्ता भी बताता है अौर भटकने से भी रोकता है. पूछा तब भी गया थाआज भी पूछा जाता है कि संवैधानिक लोकतंत्र भटके तो इसकी संभावना नगण्य है क्योंकि इसकी नकेल संविधान के खूंटे से बंधी होती है. संविधान लिखित हैखुला हुआ हैसबके देखने-जांचने के लिए वह 24Xउपलब्ध हैअौर संसदीय लोकतंत्र यदि समर्थ व सावधान है तो उसकी नकेल भी काम करती ही है. हमारे संविधान की ऐसी कुशल संरचना है कि इसका कोई भी शक्ति-तंत्र अपने में स्वयंभू नहीं है. सभी परस्परावलंबी हैं. लेकिन संसदीय तंत्र अपनी संख्या व अपने तंत्र के बल पर हमेशा स्वंयभू बनने की कोशिश में रहता है.  

          यही असली संकट है. संसदीय तंत्र तख्ततिजोरी व तलवार के गर्हित त्रिकोण में घिर गया है. कल तक जिन बाहुबलियों के बल पर सत्ता पाई जाती थीउन्होंने दूसरों के लिए काम करना बंद करवहां खुद की जगह बना ली है. जो कुछ दूसरे बचे-खुचे सांसद हैंवे भी उन्हीं की क्षत्रछाया में जीना पसंद करते हैं. हर दूसरे दिन वह अांकड़ा प्रकाशित होता है कि इस लोकसभा में कितने सांसद ऐसे हैं जिन पर आपराधिक आरोप दर्ज हैं. अांकड़े तो अाते हैं लेकिन एक उदाहरण भी ऐसा नहीं है कि जब किसी पार्टी ने अपने अपराधी सांसद से इस अाधार पर छुट्टी पाई हो. ऐसा ही विधायकों के साथ भी है. अब तो राज्यसभा आदि में जो मनोनयन हो रहे हैं उनमें भी ऐसे लोगों की मौजूदगी अाम है. जिसे अंग्रेजी में हेट स्पीच’ कह कर थोड़ा सौम्य बनाने का प्रयास होता है अौर उसकी अाड़ में यह बहस भी खड़ी की जाती है कि अाप कैसे फैसला करेंगे कि किसे हेट स्पीच’ कहेंगेकिसे नहींवह सीधे तौर पर संविधान से घृणा की घोषणा है. हम संविधान का वह सब कुछ हजम कर जाते हैं जो हमारे अनुकूल पड़ता हैउन सबकी धज्जियां उड़ाते हैं जो हमारी मनमानी में राई भर भी बाधा खड़ी करता है. यही वह जगह है जहां संवैधानिक लोकतंत्र को अपनी मजबूत उपस्थिति बनानी व बतानी चाहिए. लेकिन वह ऐसी जिम्मेवारी के निर्वाह में विफल हो जाता है.          

         लच्छेदार भाषणों तथा कातर बयानों की अाड़ में अाप इस विफलता को छिपा नहीं सकते हैं बल्कि ऐसा रवैया संविधान के संदर्भ में अपराध है. अदालतों मेंसर्वोच्च अदालत में भीऐसा होता रहता है. यह वह बेसुरा राग है जिसमें से अशांति व अविश्वास पैदा होता है. अदालत का काम समाधान बताना नहींसंविधान की कसौटी पर सही या गलत बताना है. समाधान बताने का गलत रास्ता पकड़ने के कारण अदालतों ने अपनी प्रतिष्ठा व अपनी सामयिकता खोई है. अदालतें जब कभी ऐसी टिप्पणी करती हैं कि पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इन्हें’ रिहा किया जाता हैतो दरअसल वे अपराध या अपराधी की नहींअपने कर्तव्यच्युत होने की घोषणा करती हैं. अदालत की सार्थकता ही यह है कि वह तथ्यों की तह तक जाए अौर फिर संविधान की तुला पर उसे तौल करसही व गलत का फैसला दे. यदि वह तथ्यों तक पहुंची ही नहीं है तो उसे फैसला सुनाने की जल्दीबाजी क्यों है वह उन अधिकारियोंपुलिसमंत्रियों अादि के खिलाफ कोई कदम क्यों नहीं उठाती है जिनके कारण तथ्यों तक पहुंचने में वह समर्थ नहीं हुई अौर न्याय की पड़ताल में वह विफल रही ?    

          अदालत सही-गलत का निर्णय देने से पहले किसी का मुंह जोहेमुंहदेखी बात कहेक्या कहने से क्या प्रतिफल मिलेगा इसका हिसाब करेतो वह न्यायालय नहींबाजार है. बाजार में हर जिंस की कीमत होती हैतो आपके निर्णय की भी कीमत लगाई जाती हैअौर अदा भी की जाती है. इस तरह अदालत फरमाइशी गीतों का कार्यक्रम बन जाती है. हम यह भी देखते हैं कि अदालतें सामाजिक सवालों पर कभी-कभार सत्ता की मान्य धारा से भिन्न कोई रुख ले भी लेंलेकिन राजनीतिक सवालों पर निरपवाद रूप से सत्ता के साथ जाती हैं. इससे न्यायपालिका का पूरा चरित्र विदूषक-सा बन जाता है अौर समाज गहरे हतोत्साहित हो जाता है.  

         ऐसे मुकाम पर 75 साल का यह महान देश अपने 50वें न्यायाधीश से संगीत की वह तान सुनना चाहता है जो लोकतंत्र की अात्मा को छुए तथा उसके पांव मजबूत करे. ( 20.10.2022) 

 

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