Thursday 30 April 2020

इरफान का जाना

 
      पूरा देश तालाबंदी में गया तो जैसे कोई एक ताला खुला ही रह गया. नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के बंद द्वार में बंद हुअा मैं देखता रहा सामने की सूनी पड़ी सड़क पर वह अबाध मानव-झुंड जो अपना पूरा अस्तित्व संभाले चल रहा था- लगातार-लगातार ! कोरोना से डरी नगरीय सभ्यता ने उनके मुंह पर अपने दरवाजे बंद कर दिए थे. वे सब जा रहे थे - भाग या दौड़ नहीं रहे थेबस जा रहे थे. मैं जब-जब उन्हें देखतामन कहीं दौड़ कर पान सिंह तोमर’ के पास पहुंच जाता था ! यह फिल्म देखी है अापने मैंने जब से देखी तब से अाज तक वैसी दौड़ दोबारा देख नहीं पाया हूं. इरफान उस फिल्म में बहुत कुछ कर गये हैं लेकिन जिस तरह दौड़ गये वह भारतीय सिनेमा का एक मानक है. ये अनगिनत अौर अनचाहे दिहाड़ी मजदूरजो पता नहीं देश के किस कोने से निकले थे अौर पहुंचे थे अपनी राजधानी दिल्ली- अौर बिना स्वागतबिना अावाज,बिना सूचना उन्होंने राजधानी का सारा कल्मष खुद पर अोढ़ लिया. मुझे खूब पता है कि उनमें से किसी ने भी दिल्ली की राजधानी वाला चेहरा देखा भी नहीं होगाउनके लिए दिल्ली का चेहरा रोटी का चेहरा था. 

     पान सिंह तोमर’ के साथ भी ऐसा ही था लेकिन उसकी रोटी में अात्मसम्मान का जायका भी घुला हुअा था. इसलिए उसकी दौड़ अस्तित्व की दौड़ थी. सामने से जा रहे मजदूर दौड़ नहीं रहे थेवे कुछ कह भी नहीं रहे थेबोल ही नहीं रहे थे - बसअपनी अस्तित्वहीनता की कातर पुकार बन कर चले जा रहे थे. लेकिन मैं देख पा रहा था अौर सुन भी रहा था वह हाहाकार जो पान सिंह तोमर’ से उठा था अौर अाज राजधानी की सड़कों पर अाकार ले रहा थागूंज रहा था. अभिनय ( अभिनय ही क्योंकोई भी कला जो सच को छूने को छटपटा रही हो ) कितना लंबा सफर तै कर सकता हैक्या हमें इसका पता लगता है इरफान को पता था मेरे ऐसे कई सवालों का जवाब वे इस तरह देते थे मानो जवाब मुंह में घुला रहे हों लेकिन कह नहीं पा रहे हों.  

      इरफान को पान सिंह तोमर’ में देख कर लगा कि यह मुकम्मिल बात हुई. खास क्या था पान सिंह तोमर’ में उसकी सच्चाई ! फिल्म भी सच्ची थीकथानक भी अौर सबसे अादमकद था इरफान का अभिनय जो अभिनय जैसा था ही नहीं. उस एक पात्र में जैसे उन्होंने सब कुछ उडे़ल दिया था. वैसी बदहवास दौड़ कब किसी ने फिल्मी पर्दे पर दौड़ी मुझे दो बीघा जमीन’ के बलराज साहनी याद अाते हैं जो रिक्शा ले कर वैसे ही दौड़े थे जैसे अादमी नहींसारा अस्तित्व दौड़ रहा हो. दिलीप कुमार भी गंगा-जमुना’ में भयंकर दौड़े थे लेकिन फिर भी उसमें अभिनय था. इरफान की दौड़ में गरीबी भी थीअपमान भी थाचुनौती भी थी अौर बदला लेने की ललकार भी थी. वह पान सिंह तोमर सारी कहानीसारी फिल्म ले कर ही दौड़ पड़ा था. यह परिपूर्णता इरफान की विशेषता थी. 

      इरफान जिस तरह के कैंसर से ग्रस्त थे उसका इलाज बहुत मुश्किल थाअौर बहुत मुश्किल है. वैसे किस कैंसर का इलाज मुश्किल नहीं होता है ?  इसके चंगुल से जो निकल सके हैं वे भी उसके खूनी पंजों का दंश झेलते ही रहते हैं. इसलिए इरफान को जाना ही था. वे गये. बड़ी बात थी जिस तरह वे अौर उनका परिवार इससे लड़ा. बहुत सारी खबरें अौर बहुत सारी भाग-दौड़ अौर तकलीफों की बहुत सारी कहानियां इरफान के पास से नहीं अाईं.  बीमार हुएइलाज के लिए बाहर गयेलंबे समय तक बाहर रहे अौर फिर लौटे तो ऐसे कि नहीं लौटे. फिर वह फिल्म अा गई इंग्लिश मीडियम’. खबर मिली कि इरफान फिल्म कर रहे हैं तो अच्छा ही लगा लेकिन यह नहीं लगा कि वे अच्छे हो गये हैं. फिल्म देख कर भी नहीं लगा. वह बहुत कुछ वहां दीखता ही रहा जो कैंसर ने इरफान में से सोख लिया था. 

      इरफान से मेरा बहुत कम अौर बहुत हल्का मिलना हुअा था अौर वह भी तब जब वे ऐसे इरफान नहीं बने थे. उनका बंबई अाना अौर फिल्मी दुनिया का दरवाजा खटखटाना अौर दरवाजे का खुलना बहुत लंबा चला था. काफी सारा समय अौर काफी सारा अपना सार उन्होंने उस दौर में गंवाया जिसे फिल्मी भाषा में स्ट्रगल’ कहते हैं. वैसे ही दौर मेंकभी-कभार जब मैं फिल्मी पार्टियों में जाता था तब झिझकते-से इरफान से मिलना हुअा. ऐसा भी हुअा कि वे टाइम्स अॉफ इंडिया के दफ्तर में अाए तो मुलाकात हुई. इरफान की अांखें बहुत गहरी थीं - जितनी बाहर थीं उतनी ही भीतर भी थीं. अांखों में खोज भी थी अौर गहराई भी. इसलिए भी मुझे इरफान याद रहे. उनकी अावाज में भी एक अात्मा थी जो गूंजती  रहती थी - फोन पर पकड़ में अाने वाली अावाज ! सुनते ही मैं कहता था : हांइरफानजी ? ‘अच्छायाद हूं मैं अापको !’ मैंने एकाधिक बार कहा होगा कि नहींयाद से नहींअावाज से पहचाना मैंने अापको.  

      उस रोज भारतीय विद्या भवन में फोन अाया : मैं यहीं हूं … नीचे ! मैं ऊपर अाऊं या अाप नीचे अा सकेंगे तो हम लंबे समय बाद मिले थे. यह मकबूल’ के बाद की बात है. मैंने मकबूल’ पर अौर उसमें इरफान पर जो लिखा था उसके बाद मिलने न अातायह तो कैसी बात होती!” मैंने बधाई दी कि अब वह मुकाम बन रहा है जिसके लिए इतना इंतजार किया. हांलगता तो है कुमार साहब … लेकिन यहां लगने अौर होने में इतना फासला होता है कि लगते-लगते बात लग नहीं पाती है’- भारतीय विद्या भवन के नीचे मिलने वाली खास सैंडविच खाते हुए इमरान बोले थे. ऐसे डायलॉग’ बनाते रहना इरफान को खूब अाता था.

      इरफान फिल्मों में किसके उत्तराधिकारी थे मोतीलालबलराज साहनी अौर किसी हद तक संजीव कुमार के. वे इनसे अच्छे या बुरे नहीं थेइनकी परंपरा को अागे ले जाने वाले कलाकार थे. वे परदे पर छाते नहीं थे क्योंकि छाना अभिनय नहीं होता हैप्रदर्शन होता है. वे पर्दे पर अपनी जगह बना लेते थे जिस पर दूसरे की छाया टिकती नहीं थी. कहानीकैमरारोशनीगीत-संगीतसंवाद तथा अदाअों का पूरा जाज-जंजाल- सब मिल कर पूरी ताकत झोंक दते हैं तब कहीं जा कर पर्दे पर एक हीरो या हीरोइन खड़ा हो पाता है. बंबइया फिल्मों में तो हीरो या हीरोइन की इंट्री’ कैसे होयह भी गहन विचार का विषय होता है अौर कैसी-कैसी हास्यास्पद फूहड़ता हमें झेलनी पड़ती है. इरफान जैसों की इंट्री’ अौर एक्जिट’ कैसे होगी न वे कभी सोचते हैंअौर न हमवे अाते हैं अौर अपना अमिट प्रभाव छोड़ कर चले जाते हैं. यही कला हैइसे ही कलाकार कहते हैं. इरफान कलाकार थे - विशुद्ध !

      पीकू’ में उनकी परीक्षा बहुत गहरी हुई जब कमर्शियल बंबइया फिल्मी व्याकरण के दो उस्तादों के साथ सीधा सामना था उनका. अमिताभ बच्चन अौर दीपिका पडुकोणअौर कहानी भी इन्हीं दोनों को समेटने अौर इनकी परिक्रमा करने में लगी हुई थी. दोनों ने अपना वह सब इस फिल्म में झोंक दिया था जिसके लिए वे जाने व माने जाते हैं. तो इरफान के लिए काफी था कि वे उनके साथ हो भर लेते. कहते भी हैं न लोग कि फिल्म में दिलीप कुमार हों कि देव अानंद हों तो दूसरे किसी के करने के लिए बचता क्या है ! कैमरा तो वहीं रहना है. पीकू’ भी  फिल्म तो उन दोनों की ही थी तो इरफान से कोई ज्यादा मांगता भी क्या लेकिन पीकू’ में इरफान ने एक फ्रेम भी ऐसा नहीं छोड़ा जिसमें वे उन दोनों के साथ थे भर. पहले दृश्य से ही वे पर्दे पर उस तरह अपनी जगह’ बनाते चले कि अाप कहीं भी उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते हैं. अमिताभ बच्चन के साथ वे हर फ्रेम में वैसी ही ठसक से खड़े रहे थे जैसी ठसक से अमिताभ बच्चन शक्ति’ में दिलीप कुमार के सामने खड़े रहे थे. दीपिका का सम्मोहन कहीं उनकी चमक को दबा नहीं सका. पीकू’ इरफान की अदाकारी अौर इस कला पर उनकी पकड़ यानी क्राफ्ट पर उनकी पकड़ का बेहतरीन नमूना है. नेमसेक’ इसी इरफान का दूसरा सिरा है. वहां पर्दे पर जगह बनानी ही नहीं थीस्वंय पर्दा बन जाना था. तब्बू अौर इरफान को पर्दे पर विस्थापन लिख देना था अौर वह ऐसा लिखा उन दोनों ने कि अमिट हो गया.   

      ऐसा नहीं कि इरफान से पहले कोई कलाकार नहीं हुअा याकि इरफान ही अंतिम लकीर खींच कर गये. ऐसा कहना या सोचना बड़ी बेजा बात होगी. कलाकारों को ऐसी नजर से देखना ही कला को नहीं समझना है. कलाकार इतना ही करता है ( या कहूं कि कर सकता इतना ही है !) कि अपनी जगह बनाता है अौर उसकी कला संवेदना की फसल लगाती है. इरफान ने अपने बहुत छोटे कला-जीवन में बहुत बड़ी जगह बना ली अौर संवेदनाअों की ऐसी जरखेज फसल उगाई कि हम भरे मन से जितना चाहें काटें-बटोरें.  ( 30.04.2020)

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