जब अाप वायलिन से कुदाल का काम लेने लगें तब राग-रागनियों की बारीकी का रोना कैसे रो सकते हैं ? इसलिए अयोध्या के मामले में, देश के कानूनी इतिहास की दूसरी सबसे लंबीसुनवाई के बाद अाया फैसला हमसे न्याय के बारे में कुछ नहीं कहता है बल्कि इतना ही बताता है कि साक्ष्य, सूत्र, भावनाअों के अाधार पर उसने किसे कहां, कितनी जमीन अौर जगह देना न्यायप्रद लगा,तो हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए. क्यों, कहां, कैसे अौर किस तरह अादि-अादि सवाल अब न पूछे जाएं अौर न उनका कोई उत्तर खोजा जाए. बस उतना अौर वही जाना व माना जाए जो सर्वोच्चन्यायालय ने सर्वसम्मति से कहा है. 134 साल पुराना जख्म अाप जब भी छूते,होना तो यही था- कहीं खून बहता, कहीं अाह उठती, कहीं सपने टूटते तो कहीं जीत का भाव जागता; अौर लंबे समय तकसालने वाला पराजय घनीभूत हो जाता.
इसलिए हमें अाज सर्वोच्च न्यायालय की बात मान ही लेनी चाहिए, क्योंकि हमने उससे वह काम लिया है जो काम उसका कभी भी अौर किसी हालत में नहीं था. हमारी जिद अौर हमारेउन्माद ने एक संयमित, सजग अौर संस्कारी समाज की पहचान खो दी है. एक तरफ हमारा सामाजिक नेतृत्व इतना प्रभावी बना नहीं कि वह लोगों को रास्ता दिखा सके,दूसरी तरफ हमारा राजनीतिकनेतृत्व अत्यंत बौना, स्वार्थी व सांप्रदायिक साबित हुअा. फिर बची रही हमारी न्याय-व्यवस्था ! संवैधानिक व्यवस्था अौर संवैधानिक नैतिकता, दोनों कहती है कि सामाजिक विवेक जगाना अौर बनानाकिसी भी मुल्क के सामाजिक व राजनीतिक नेतृत्व का काम है, अदालत का नहीं. लेकिन यहां तो समाज ने अपनी अयोग्यता अौर राजनीति ने अपनी अक्षमता को स्वीकारते हुए अदालत को विवश करदिया कि वह इस मामले को सुलझाए.
हमें अपनी न्याय-व्यवस्था का आभारी होना चाहिए कि उसने इस चुनौती को स्वीकार किया अौर कई स्तरों पर इसका हल निकालने की कोशिश की. अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने विशेषसंविधान पीठ का गठन किया, लगातार इस मामले की सुनवाई की, सभी पक्षों को अपनी बात व साक्ष्य रखने का पूरा मौका दिया अौर फिर फैसले तक पहुंची. लेकिन बस, इसके अागे कई सवाल ऐसेखड़े होते हैं कि जो अदालत को ही कठघरे में खड़ा करते हैं. हम फैसले को पूरी तरह मान्य करते हैं,न्यायाधीशों का सम्मान भी करते हैं लेकिन यह कहने से खुद को रोक नहीं पाते हैं कि मी लॉर्ड,या तोअापने विवाद की अात्मा नहीं पहचानी या फिर इसके पीछे छिपी राजनीति की कुटिलता की अनदेखी की.
यह बेहद जरूरी था कि इस जहरीले विवाद का अंत हो. सामाजिक विवेक से होता, राजनीतिक सहमति से होता, निष्पक्ष मध्यस्थता से होता या देश के गांधीजनों ने जो एक दिशा देश केसामने रखी थी कि जहां का मसला: वहां का फैसला वैसा कोई रास्ता खोजा गया होता तो इस विवाद में से भारतीय समाज अौर हमारा लोकतंत्र ज्यादा प्रौढ़ बन कर निकला होता. वैसा हो नहीं सका. जो हुअा वह ऐसा हुअा जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की तुला किनारे रख दी अौर सबको समझा-बुझा कर बीच का रास्ता निकाल दिया. नहीं तो यह कैसे हुअा कि न्यायालय जिसे जमीन की मालिकीका मामला बता रहा था उसमें धार्मिक विश्वास, पुराण-कथाएं, अास्था अादि का भी समावेश हो गया ?संभव है कि जब मामला खुला तब सर्वोच्च न्यायालय को समझ में अाया कि यह जमीन कीमालिकी का सामान्य मामला नहीं है, भारतीय समाज के कई नाजुक धागों को छूने का मामला है. यह समझ में अाया तो अच्छा ही हुअा. लेकिन फिर उसका कोई प्रभाव फैसले पर क्यों नहीं हुअा ? अदालत ने राम की जन्मभूमि के स्थल को कानूनी मान्यता दे दी, तो किस अाधार पर ? अगर वह अाधार धार्मिक है तो वह कानूनी तराजू पर कैसे तोला गया ? सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगई ने ही तोकहा था कि हम अास्था व मान्यता के अाधार पर नहीं, साक्ष्य के अाधार पर फैसला करेंगे,तो रामजन्मभूमि के मामले में ऐसा कौन-सा साक्ष्य पेश किया गया कि जो ऐसा कानूनसम्मत था कि अदालत नेउसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार लिया? आपने फैसले में कहा तो यही न कि हिंदुअों ने अपना मामला ज्यादा अच्छी तरह पेश किया, तो क्या वाकचातुरी या वेद-पुराण ऐसे विवाद में न्याय का पलड़ा अपनीतरफ झुका सकते हैं ? न्यायालय के कहने का मतलब यह भी तो है न कि दूसरे पक्ष को अपना मामला पेश करना नहीं अाया ? अगर ऐसा था तब तो न्यायालय के लिए अौर भी जरूरी था कि वह दूसरेपक्ष को अौर तैयारी का मौका देता? फैसला सुनाना नहीं, सत्य तक पहुंचना अदालत का काम है. के. परासरन साहब का पांडित्य अपनी जगह है लेकिन क्या वह कानून की जरूरतें पूरी करता है?
हमें तो अदालत से न्याय से अधिक या न्याय से कम कुछ भी नहीं चाहिए. फिर हमें समझाएं मी लार्ड कि बकौल अापके 1934 में मस्जिद के गुंबद को नुकसान पहुंचाना, 22 दिसंबर1949 की रात में गर्भगृह में, चोरी-चोरी मूर्तियों को ले जा कर रख देना अौर फिर मुसलमानों का वहां प्रवेश निषेध कर देना तथा 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद को ध्वस्त कर देना कानून का गंभीरउल्लंघन था. कानून तोड़ना अपराध है, तो ये सभी अापराधिक कृत्य थे. क्या कोई एेसा गैर-कानूनी अापराधिक कृत्य हो सकता है जिसे अदालत में पेश किया जाए, अदालत उस अपराध को मान्य भी करेफिर भी उसकी सजा न दे? मी लॉर्ड,अापके फैसले में इन तीन गंभीर व अनैतिक अपराधों की क्या सजा दी गई ? अापकी ही अदालत में सालों से बाबरी मस्जिद ध्वंस का मुकदमा चल रहा है. क्या यहज्यादा न्यायपूर्ण न होता कि अाप अपना फैसला वही सुनाते जो अापने अभी सुनाया है लेकिन यह भी कहते कि इस फैसले को तभी लागू किया जा सकता है जब ध्वंस के मुकदमे का फैसला हो अौरउसके अपराधी सुनिश्चित किए जाएं ?अौर यह भी कि उस मुकदमे की सुनवाई एक पखवारे में पूरी की जाए ताकि यह ताजा फैसला लंबे समय तक लटका न रहे ? अौर शायद यह भी कि उस मुकदमे मेंजो अपराधी साबित होंगे वे हमेशा के लिए किसी भी प्रातिनिधिक पद के अयोग्य माने जाएंगे ? अाखिर ऐसा न्याय कैसे हो सकता है जो अपराधी-पक्ष को छूता ही नहीं है ? अौर अापको खूब पता है किअाज की सरकार उनकी ही है जो इस अपराध में अपादमस्तक डूबे हैं. फिर उन्हीं लोगों की सरकार को अापने यह अधिकार भी दे दिया कि वे ही ट्रस्ट भी बनाएं, उसके सदस्य भी चुनें, मंदिर निर्माण की पूरीप्रक्रिया भी निर्धारित करें अौर निर्माण भी करें ! यह सजा है या इनाम ?
अाप भटक गये श्रीमान् ! जमीन की मालिकी तै करने के बजाए अाप इतिहास पढ़ने अौर लिखने में लग गये. देखिए न, अापने राम को -भगवान को - इंसान जैसी कानूनी हैसियत दे दी. कोईकहे कि यह ईश्वर का अपमान है, तो अाप क्या बचाव करेंगे ? ईश्वर हमारी वह ईजाद है जो हमारी हर इंसानी पकड़ से बाहर है. फिर वह कानून की इंसानी हद में कैसे बांध दिया गया ?अौर अगर यह मानलिया जाए कि अापके फैसले के बाद से भगवान इंसान बन गया है तो फिर सीलिंग के तमाम कानूनों को धोखा देने के लिए मंदिरों-मस्जिदों-गिरजों-गुरुद्वारों अादि ने जो सैकड़ों एकड़ जमीनें भगवानों केनाम लिख दी हैं उनका क्या होगा ? भगवान यदि इंसान हैं तो इंसान तो जमीन की कानूनी मालिकी रख ही सकता है ! फिर भू-अधिकार के उन तमाम संघर्षों का क्या होगा जो भगवानों के नाम से की जारही ऐसी धोखाधड़ी के खिलाफ लड़ी गईं, लड़ी जा रही हैं, लड़ी जाएंगी ? उनका सारा संघर्ष ईश्वर के खिलाफ बगावत बन जाएगा न !
किसी भी कानूनी फैसले की उत्कृष्टता की कसौटी यह है कि उससे अपराधी के मन में प्रायश्चित या पश्चाताप का भाव पैदा हो अौर दूसरे पक्ष में उदारता का भाव जागे. क्या अापके इस फैसलेसे ऐसा कुछ हुअा ? हिंदुत्व के दावेदार कह रहे हैं कि उनका लक्ष्य उन्हें हासिल हो गया, बस अब मंदिर बनाना है ! इस अपराध के सर्जक लालकृष्ण अाडवाणी कह रहे हैं कि उन्हें गर्व है कि वे बाबरीमस्जिद ध्वंस अांदोलन में शामिल हुए, उमा भारती विजय का समारोह अाडवाणी के घर मत्था टेककर मना रही हैं. अपराध-बोध का लेशमात्र भी कहीं नहीं है. दूसरी तरफ मुसलमान समुदाय में गहरीहताशा व पराजय का भाव घनीभूत है. अभी वह सदमे में है,कल इससे बाहर अाएगा, अौर फिर उसकी अभिव्यक्ति कैसी होगी, कहना कठिन है. हमें उनका साधुवाद करना चाहिए कि उन्होंने अभी इसफैसले का प्रत्यक्ष या परोक्ष विरोध न करने का निर्णय किया है. लेकिन अंदर की चोट बहुत गहरे फूटती है. जरा सोचिए कि अापका फैसला यदि मस्जिद के पक्ष में गया होता तो अाज देश में क्या नजाराहोता ! सड़कों पर अौर मंदिरों में अौर हिंदुत्व के तमाम गढ़ों में क्या हो रहा होता अौर देश भर की मस्जिदों पर क्या गुजर रही होती ? संसद में अपने अपार बहुमत की तलवार से अापका फैसला अब तककाट डाला गया होता अौर संसद वही फैसला करती जो अापने किया. जातीय श्रेष्ठता के दर्शन में विश्वास करने वाली राजनीति का यह चेहरा अाप कैसे भूल गये ?
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