Thursday 15 August 2019

प्रधानमंत्री ने जो नहीं कहा …

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अाधे घंटे से कुछ ज्यादा ही समय तक राष्ट्र को संबोधित किया लेकिन देश यह समझने में असफल रहा कि वे किसे अौर क्यों संबोधित कर रहे थे. यदि उनके संबोधन का सार ही कहना हो तो कहा जा सकता है कि वे कश्मीरियों के बहाने देश को अपने उस कदम का अौचित्य बता रहे थे जिसे वे खुद भी जानते नहीं हैं. वे ऐसा सपना बेचने की कोशिश कर रहे थे जिसे वे देश में कहीं भी साकार नहीं कर पा रहे हैं. कश्मीर को जिस बंदूक के बल पर अाज चुप कराया गया है, उसी बंदूक को दूरबीन बना कर प्रधानमंत्री कश्मीर को देख अौर दिखा रहे थे. ऐसा करना सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण अौर देश के लिए अपशकुन है. 

प्रधानमंत्री ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा कि ऐसा क्यों हुअा है कि दिन-दहाड़े एक पूरा राज्य ही देश के नक्शे से गायब हो गया - भारतीय संघ के 28 राज्य थे, अब 27 ही बचे ! यह किसी पी.सी. सरकार का जादू नहीं है कि अचंभित हो कर हम जिसका मजा लें, क्योंकि जादू के खेल में हमें पता होता है कि हम जो देख रहे हैं वह यथार्थ नहीं है, जादू है, माया है. लेकिन यहां जो हुअा है वह ऐसा यथार्थ है जो अपरिवर्तनीय-सा है, कुरूप है, क्रूर है, अलोकतांत्रिक है अौर हमारी लोकतांत्रिक राजनीित के दारिद्रय का परिचायक है. 

इंदिरा गांधी ने भी अापातकाल के दौरान लोकसभा का ऐसा अपमान नहीं किया था, अौर न तब के विपक्ष ने ऐसा अपमान होने दिया था जैसा पिछले दो दिनों में राज्यसभा अौर लोकसभा में हुअा अौर उन दो दिनों में हमने प्रधानमंत्री को कुछ भी कहते नहीं सुना. यह लोकतांत्रिक पतन की पराकाष्ठा है. कहा जा रहा है कि लोकतंत्र बहुमत से ही चलता है, अौर बहुमत हमारे पास है ! लेकिन ‘बहुमत’ शब्द में ही यह मतलब निहित है कि वहां मतों का बाहुल्य होना चाहिए। राज्यसभा अौर लोकसभा में क्या उन दो दिनों में मतों का कोई अादान-प्रदान हुअा ? बस, एक अादमी चीख रहा था, तीन सौ से ज्यादा लोग मेजें पीट रहे थे अौर बाकी पराजित, सर झुकाए बैठे थे. यह बहुमत नहीं, बहुसंख्या है. अापके पास मत नहीं, गिनने वाले सर हैं. 

पिछले सालों में हमसे कहा जा रहा था कि कश्मीर का सारा अातंकवाद सीमा पार से पोषित, संचालित अौर निर्यातित है. इसलिए तो बारंबार हम पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा कर रहे थे अौर सर्जिकल स्ट्राइक कर रहे थे. अचानक गृहमंत्री अौर प्रधानमंत्री ने देश के पैरों तले से वह जमीन ही खिसका दी. अब पाकिस्तान कहीं नहीं है, प्रधानमंत्री ने कहा कि अातंकवाद का असली खलनायक धारा-370 थी, अौर तीन परिवार थे. वे दोनों ध्वस्त हो गये हैं अौर अब अातंकवादमुक्त कश्मीर डल झील की सुखद हवा में सांस लेने को अाजाद है. कैसा विद्रूप है ! हम भूलें नहीं हैं कि यही प्रधानमंत्री थे अौर ऐसा ही एक सरविहीन फैसला था नोटबंदी ! उसके आौचित्य की बात कहां से चली थी अौर कितनी-कितनी बार बदलती हुई कहां पहुंचाई गई थी ! ऐसा ही कश्मीर-प्रकरण का हाल होने वाला है. 

कहा जा रहा है कि कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अौर तीन परिवारों ने कश्मीर में सारी लूट मचा रखी थी ! मचा रखी होगी, तो उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दें अाप; अापने तो सारे राज्य को जेल बना दिया ! क्या अापकी सरकार, अापका राज्यपाल, प्रशासन, पुलिस सब इतने कमजोर हैं कि तीन परिवारों का मुकाबला नहीं कर सकते थे ? कल तक तो इन्हीं परिवारों के साथ मिल कर कांग्रेस ने, अटलजी ने, आपने सरकारें चलाई थीं ! तब क्या इस लूट में अापसी साझेदारी चल रही थी ? अौर कौन कह सकता है कि यह पूरा राजनीतिक-तंत्र बगैर लूट के चल सकता है ? कौन-सी सरकारी परियोजना है कि जहां अावंटित पूरी रशि उसी में खर्च होती है ? कौन-सा राज्य है जो इस या उस माफिया के हाथ में बंधक नहीं है ? अब तो माफियाअों की सरकारें बना रहे हैं हम ! कोई यही बता दे कि राजनीतिक दलों की कमाई के जो अांकड़े अखबारों में अभी ही प्रकाशित हुए हैं, उनमें ये अरबों रुपये शासक दल के पास कैसे अाए ? ऐसा क्यों है कि जो शासन में होता है धन की गंगोत्री उसकी तरफ बहने लगती है ? बात कश्मीर की नहीं है, व्यवस्था की है. महात्मा गांधी ने इस व्यवस्था को वैसे ही चरित्रहीन नहीं कहा था.          

कश्मीर हमें सौंपा था इतिहास ने इस चुनौती के साथ िक हम इसे अपने भूगोल में समाहित करें. ऐसा दुनिया में कहीं अौर हुअा तो मुझे मालूम नहीं कि एक भरा-पूरा राज्य समझौता-पत्र पर दस्तखत कर के किसी देश में सशर्त शरीक हुअा हो. कश्मीर ऐसे ही हमारे पास अाया अौर हमने उसे स्वीकार किया. धारा-370 इसी संधि की व्यवहारिकता का नाम था जिसे अस्थाई व्यवस्था तब ही माना गया था - लिखित में भी अौर जवाहरलाल नेहरू के कथन में भी. बहुत कठिन चुनौती थी, क्योंिक इतिहास ने कश्मीर ही नहीं सौंपा था हमें, साथ ही सौंपी थी मूल्यविहीन सत्ता की बेईमानी, नीतिविहीन राजनीति की लोलुपता, सांप्रदायिकता की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कुचालें तथा पाकिस्तान के रास्ते साम्राज्यवादी ताकतों की दखलंदाजी ! कश्मीर भले स्वर्ग कहलाता हो, वह हमें स्वार्थ के नर्क में लिथड़ा मिला था. अौर तब हम भी क्या थे ? अपना खंडित अस्तित्व संभालते हुए, एक ऐसे रक्तस्नान से गुजर रहे थे जैसा इतिहास ने पहले देखा नहीं था. भारतीय उपमहाद्वीप के अस्तित्व का वह सबसे नाजुक दौर था. एक गलत कदम, एक चूक याकि एक फिसलन हमारा अस्तित्व ही लील जाती ! इसलिए हम चाहते तो कश्मीर के लिए अपने दरवाजे बंद कर ही सकते थे. हमने वह नहीं किया. सैकड़ों रियासतों के लिए नहीं किया, जूनागढ़ अौर हैदराबाद के लिए नहीं किया, तो कश्मीर के लिए भी नहीं किया. वह साहस था, एक नया ही राजनीतिक प्रयोग था. अाज इतिहास हमें इतनी दूर ले अाया है कि हम यह जान-पहचान नहीं पाते हैं कि जवाहरलाल-सरदार पटेल-शेख अब्दुल्ला की तिकड़ी ने कैसे वह सारा संभाला, संतुलन बनाया अौर उसे एक अाकार भी दिया. ऐसा करने में गलतियां भी हुईं, मतभेद भी हुए, राजनीतिक अनुमान गलत निकले अौर बेईमानियां भी हुईं लेकिन ऐसा भी हुअा कि हम कह सके कि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है; अौर जब हम ऐसा कहते थे तो कश्मीर से भी उसकी प्रतिध्वनि उठती थी. अाज वहां बिल्कुल सन्नाटा है. कश्मीर का मन मरघट बन गया है.

हम कश्मीर को इसी तरह बंद तो रख नहीं सकेंगे. दरवाजे खुलेंगे, लोग बाहर निकलेंगे. उनका गुस्सा, क्षोभ सब फूटेगा. बाहरी ताकतें पहले से ज्यादा जहरीले ढंग से उन्हें उकसाएंगी. अौर हमने संवाद के सारे पुल जला रखे हैं तो क्या होगा ? तस्वीर खुशनुमा बनती नहीं है. शासक दल के लोग जैसा मानस दिखा रहे हैं अौर अब कश्मीर के चारागाह में उनके चरने के लिए क्या-क्या उपलब्ध है, इसकी जैसी बातें लिखी-पढ़ी व सुनाई जा रही हैं, क्या वे बहुत वीभत्स नहीं हैं ? प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि यह छाती फुलाने जैसी बात नहीं है, नाजुक दौर को पार करने की बात है. लेकिन प्रधानमंत्री इसी बात के लिए तो जाने जाते हैं कि वे कहते कुछ हैं अौर उनका इशारा कुछ अौर होता है. अाखिर संसद को रौशन करने की क्या जरूरत थी ? अपने देश के एक हिस्से पर हमें लाचार हो कर कड़ी काररवाई करनी पड़ी इसमें जश्न मनाने जैसा क्या था ? यह जख्म को गहरा करता है.    

जनसंघ हो कि भारतीय जनता पार्टी- इसके पास देश की किसी भी समस्या के संदर्भ में कभी कोई चिंतन रहा ही नहीं है. रहा तो उनका अपना एजेंडा रहा है जो कभी, किसी ने, कहीं तैयार कर दिया था, इन्हें उसे पूरा करना है.  इसलिए ये सत्ता में जब भी अाते हैं, अपना एजेंडा पूरा करने दौड़ पड़ते हैं. उन्हें पता है कि संसदीय लोकतंत्र में सत्ता कभी भी हाथ से निकल सकती है. जनता पार्टी के वक्त या फिर अटल-दौर में, तीन-तीन बार सत्ता को हाथ से जाते देखा है इन्होंने. लोकतंत्र सत्ता दे तो भली; सत्ता ले ले, यह हिंदुत्व के दर्शन को पचता नहीं है, क्योंकि वह मूल में एकाधिकारी दर्शन है. इसलिए 2012 से इस नई राजनीतिक शैली का जन्म हुअा है जो हर संभव हथियार से लोकतंत्र को पंगु बनाने में लगी है. इसके रास्ते में अाने वाले लोग, व्यवस्थाएं, संवैधानिक प्रक्रियाएं अौर लोकतांत्रिक नैतिकता की हर वर्जना को तोड़-फोड़ देने का सिलसिला चल रहा है. 2014 से हमारी संवैधानिक संस्थाअों के पतन के एक-पर-एक प्रतिमान बनते जा रहे हैं अौर हर नया, पहले वाले को पीछे छोड़ जाता है. कश्मीर का मामला पतन का अब तक का शिखर है.

भारत में विलय के साथ ही कश्मीर हमें कई स्तरों पर परेशान करता रहा है. अाप इसे इस तरह समझें कि जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हों अौर उनके अादेश से उनके खास दोस्त शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी हो, उनकी सरकार की बर्खास्तगी हो तो हालात कितने संगीन रहे होंगे! यह तो भला था कि तब देश के सार्वजनिक जीवन में जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, राममनोहर लोहिया जैसी सर्वमान्य हस्तियां सक्रिय थीं कि जो सरकार अौर समाज को एक साथ कठघरे में खड़ा करती रहती थीं अौर सरकारी मनमानी अौर अलगाववादी मंसूबों के पर कतरे जाते थे. अाज वहां भी  रेगिस्तान है।

इसलिए भारत के लोगों पर, जो भारत को प्यार करते हैं अौर भारत की प्रतिष्ठा में जिन्हें अपनी जीवंत प्रतिष्ठा महसूस होती है, अाज के शून्य को भरने की सीधी जिम्मेवारी है। संसद में जो हुअा है वह स्थाई नहीं है । कोई भी योग्य संसद उसे पलट सकती है। अपने प्रभुत्व पर इतराती इंदिरा गांधी का संकटकाल पलट दिया गया तो यह भी पलटा जा सकता है। जो नहीं पलटा जा सकेगा वह है मन पर लगा घाव, दिल में घर कर  गया अविश्वास ! इसलिए इस संकट में कश्मीरियों के साथ खड़े रहने की जरूरत है। जो बंदूक अौर फौज के बल पर घरों में असहाय बंद कर दिए गये हैं, उन्हें यह बताने की प्रबल जरूरत है कि देश का ह्रदय उनके लिए खुला हुअा है, उनके लिए धड़कता है। ( 08.08.2019) 

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