Saturday 10 August 2019

मन के अांगन में अाजादी के फूल

          मियां गालिब - मिर्जा असादुल्ला खान गालिब - अागरा से जब पहली बार दिल्ली अाए तो 7 साल के थे. 13 साल की उम्र में शादी हो गई अौर तब वे मुकम्मल तौर पर दिल्ली अा बसेअौर फिरअगले 50 सालों तक दिल्ली गालिब की रही कि गालिब दिल्ली केयह गुत्थी हम आज तक सुलझा रहे हैं. इन 50 सालों में दिल्ली में गालिब ने अपना कोई घर नहीं बनायाबस किराये के घरों को हीअाबाद करते रहे. लेकिन ध्यान में रखें हम कि उनके वे सारे-के-सारे घर गली कासिम जान में ही सिमटे हुए थे.  उससे बाहर वे कहीं गये ही नहीं. वह आखिरी घरजहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी,  एकमस्जिद के साये में पनाह लेता था. उसे ही लक्ष्य कर गालिब ने लिखा : मस्जिद के जेरे-साये इक घर बना लिया है / इक बंदा-ए-कमीना हमसाये खुदा है !” 

                न हम अौर न हमारा संविधान ही गालिब जात’ है. अगर होते तो हम जरूर कहते : अाजादी के जेरे-साये इक घर बना दिया है / कई बंदा-ए-कमीने इसके साये में पोशीदा हैं ! हमारे अाईन ने ऐसेनिजामों की सोहबत कर ली है कि जो रोज-रोज उसके पर कतर रहे हैं. हमें अासमान भी चाहिएअपनी उड़ान भी चाहिए अौर उसका इनाम-इकराम भी चाहिए लेकिन उड़ने वाला’ कोई नहीं चाहिए- फिरवह चाहे तोता हो कि बाज ! अाजादीस्वतंत्रताखुद-मुख्तारी कह लें हम कि महात्मा गांधी के शब्दों में ‘ स्वराज्य’ कह लेंये सब हमें शब्दों में बहुत प्रिय हैं,मतलब भी जान-समझ लें आप तो हर्ज नहीं हैलेकिन वैसा कुछ करने की आप सोचने लगें तो मुसीबत हो जाती है - हमारी भी अौर आपकी भी ! 

              अाजाद हिंदुस्तान में वह पहली बार ही हुअा था कि संविधान के नाम पर हमारी सारी नागरिक अाजादी हर ली गई थी अौर चंडीगढ़ ही एकांत कारा में बंदी,बीमार-बूढ़े जयप्रकाश सोच रहे थे किउनका गणित गलत कहां हुअा कि वेजो लोकतंत्र का क्षितिज व्यापक करने में जुटे थेअाज उसके ही कबाड़ पर बैठे हैं वे लिखते हैं कि मेरा सारा संसार मेरे सामने छिन्न-भिन्न हुआबिखरा पड़ा है अौरलगता नहीं है कि मैं इसे अपने बचे जीवन-काल में समेट भी पाऊंगातो फिर मेरा गणित गलत कहां बैठा वह क्या था कि जिसका मैंने ध्यान नहीं रखा अौर अाजादी का यह भग्नावशेष लिए अाज मैं बैठाहूं सवाल भी उनका ही था अौर खुद से ही थासो जवाब भी दिया उन्होंने खुद को ही : “ मैं यह भांपने में विफल रहा कि लोकतांत्रिक पद्धति से चुन कर बनी कोई सरकार,यहां श्रीमती इंदिरा गांधी कीलोकतांत्रिक सरकार की बात हैलोकतांत्रिक रास्तों से उठने वाली चुनौती का मुकाबला करने में कहां तक जा सकती है ! वह लोकतंत्र को ही खत्म कर देगीयह मैं अांक नहीं पाया !”  अाजादी के साथ यही परेशानी है. यह असीम है अौर असीमता में ही इसकी ताकत है. लोकतंत्र का हर प्रेमी जयप्रकाश की तरह ही इस असीमता का आराधक होता है. दूसरी तरफ एकसंविधान है जिसके तहत एक सरकार बनती हैचलती है अौर वह चाहती है कि सब उसकी तरह ही चलेंउस जैसा ही करें अौर उसकी ही मानें. फिर उसी लोकतंत्र को वही संविधान,जिससे उसकाअस्तित्व प्रमाणित होता है,जिससे ही उसके सारे अधिकार नि:सृत होते हैंवही संविधान उसे बाधक लगने लगता है,बेड़ियों की  तरह चुभने लगता है. अाजादी अौर एकाधिकार का यह संघर्ष बहुत पुरानाहै. वहां भी है जहां राजा का एकाधिकार ही संविधान हैवहां भी है जहां संविधान सत्ता की मर्जी से कपड़े बदलता है अौर वहां भी यही रस्साकसी मिलती है कि जहां संविधान हैउसकी रक्षा के लिए संसदभी हैन्यायालय भी पहरेदारी में खड़ा हैऐसे नागरिक भी हैं जो अाजादी के पैरोकार हैं. यह सब है तब इतना मतलब समझना मुश्किल क्यों कर है कि अाजादी का मतलब ही है अाजाद होने अौर अाजादरहने की सतत सावधानी ! वह कहावत पुरानी है लेकिन हमेशा सच्ची है कि सतत जागरूकता ही अाजादी की गारंटी है. जागरूकता गईदुर्घटना घटी !                                                     

          इसलिए कोई नई सरकारकोई करिश्माई नेताकोई स्वघोषित उद्धारककोई नया कानूनकोई नई करेंसी कुछ भी नया नहीं कर पाती है. अाप ही बताएं न कि कपड़े बदलने से अादमी कबकहांनया हुअा है?  प्रकृति भीउसके समस्त वन-वृक्ष-पौधे भी जब तक नये उल्लास के नये पल्लव अपने भीतर कहीं गहरे उतर कर पा नहीं लेतेवसंत उतरता ही नहीं है. हम भी अपने भीतर उतरें गहरे कहींअौरखोजें कि क्या है वह सब जो हमें नया सोचनेकरने अौर बनने से रोकता है क्यों बाहरी हर सजावट हमें भीतर से रसहीन अौर हतवीर्य छोड़ जाती है ऐसा क्यों है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती जाती है अौरहमारा जन छोटा भी अौर अकेला भी अौर निरुपाय भी होता जाता है अच्छे दिन की चाह क्यों हमें बुरे मंजर की तरफ धकेलती है 
     
              हम यह समझने में क्यों भूल कर रहे हैं कि संसद का चेहरा जैसा होता है उसके द्वारा बनाए कानून भी वैसे ही दिखाई देते हैं यह तो अाईने में प्रतिबिंब देखने जैसा है. फिर गालिब को ही याद करता हूं: लोग बदलते नहीं गालिब / बेनकाब होते हैं !”  इसलिए यह संसद इस कदर बेनकाब हुई जाती है कि तिहरे तलाक की असभ्य व कालवाह्य हो चुकी प्रथा की समाप्ति का कानून बनाती है तो उसके हेतुपर ही शंका उठाई जाती है. ऐसा इसलिए है कि जिनका स्वघोषित एजेंडा ही बहुसंख्यावाद है अौर जो सिर्फ इस बल पर मनमाना करने में जुटे हैं कि उनके पास गिनने के लिए संसद में सर बहुत हैं,अौरकहा ही गया है कि “ जम्हूरियत वह तर्ज-ए-हुकूमत है कि जिसमें / बंदों को गिनते हैंतोला नहीं करते !” तो सवाल बना ही रहता है कि आपकी मंशा पर शक न करने की वजह क्या है जीने के लिए जैसेसांस की जरूरत होती है वैसे ही लोकतंत्र के जिंदा रहने के लिए विश्वास की जरूरत होती है. शासक दल में उसका भयंकर अभाव है. इसलिए गृहमंत्री जब संसद में खड़े हो कर डपटती अावाज अौर तोहमतलगाती भाषा में कहते हैं कि वे कानून का दुरुपयोग नहीं करेंगे तो  तक्षण उसे अस्वीकार करने की अावाज गोवा से भी अाती हैमणिपुर से भीकर्नाटक से भी अौर उत्तरप्रदेश से भी ! आप वह करने कीकोशिश कर रहे हैं जिसे करने की पात्रता आपने कमाई ही नहीं है.  

           अभी-अभी हमारी संसद में राष्ट्रवाद अौर अातंकवाद के नाम पर वह कानून पारित हुअा है जो अाजादी अौर संविधान दोनों को घायल कर गया है. वह अाजादी की संकल्पना पर ही कुठाराघात करताहै. यह कानून राष्ट्र को राज्य के हाथ का खिलौना बनाना चाहता है. इस कानून से सरकार ने अपने हाथ में यह अधिकार ले लिया है कि नागरिकता का भी फैसला वही करेगीनागरिक का भीराष्ट्रीय सुरक्षाका भी फैसला वही करेगी अौर वही यह भी तय करेगी कि क्या राष्ट्रहित में है अौर क्या नहीं अौर कौन राष्ट्रभक्त है अौर कौन नहीं ! हमारे लोकतंत्र ने बड़ी मशक्कत के बाद सरकारसत्ता अौर नौकरशाही सेसवाल पूछने अौर जानकारी हासिल करने का जो अधिकार हासिल किया था वह सूचना का अधिकार भी क्षत-विक्षत सत्ता की कुर्सियों के नीचे दबा पड़ा है. कोई पूछे कि हमारी संसद अौर हमारे लोकतंत्रके साथ ऐसा करने की आपकी हैसियत क्या हैतो जवाब इतना ही होगा न कि संसद में हमारे पास ३०० से अधिक सर हैं जो भीड़ की तरह चीखते हैं अौर चाभी वाले खिलौने की तरह मुंडी हिलाते हैं !!

              ऐसा पहले की संसदों में भी होता रहा है तभी तो महात्मा गांधी ने संसद को वेश्याजैसा कठोर नाम दिया था ! लेकिन पहले की संसद अौर आजकी संसद में एक फर्क था.  हमारी संसदमें हमेशा हीऐसे लोग होते थे कि जो स्वतंत्रता की लड़ाई के सिपाही थे. वह पीढ़ी गई तो वैसी एक जमात आ खड़ी हुई जिसके लोग नागरिक स्वतंत्रता  व मानवीय गरिमा को सरकार-दल-सत्ता से ऊपर रख पाते थे. वेसंसद में भी थे अौर संसद पर अंकुश भी रखते थे. अौर फिर था संसद के बाहर एक समाज था - मुखरजीवंत अौर पहरेदार ! संसद अौर समाज के बीच रिश्ता ही ऐसा है - दोनों एक-दूसरे के प्रतिबिंब हैं. मराहुअा समाज जीवंत संसद का निर्माण नहीं कर सकता हैअौर मरी हुईअसामाजिक अपराधियों से बनी हुई संसद समाज को अालोड़ित नहीं कर सकती है. संसद दिशा खो दे अौर समाज दम तोड़ दे तोअाजादी के लिए पांव टिकाने की जगह कहां बचती है ?

              अाजादी के बाद ही किसी ने पूछा था गांधी से :  अब तो अाजादी भी मिल गई अौर अपनी सरकार भी बन गई ! अब अापकी कल्पना का समाज बनाने की लड़ाई का हथियार क्या होगा तपाक सेकहा था गांधी ने : मैं अब अागे की लड़ाई जनमत के हथियार से लडूंगा ! गांधी मानते थे कि लोकतंत्र में जनमत हथियार बनाया जा सकता हैपार्टियों ने माना कि जनमत हथियाया जा सकता हैखरीदाअौर बेंचा जा सकता है.  तो मैदान में वे खिलाड़ी उतारे गये जो लोकतंत्र का तंत्र’ तो बखूबी साध सकते थे लेकिन लोक’ उनके लिए अनपढ़गंवार बोझ भर था. शुरू में थोड़ा मात्रा-भेद रहा लेकिन जल्दीही सबने यह अासान रास्ता अपना लिया - लोकविहीन लोकतंत्र !  कहां गांधी के अनुसार हमें जनमत को हथियार बनाना था अौर कहां  हमने जनमत में से जन’ को बाहर कर दिया अौर मत गिनने कीतमाम मशीनें ले कर बैठ गये. सत्ता की होड़ में पड़े सबने यह पाप किया अौर अाज हम एवीएम की मशीनें लिए अपने-अपने लोकतंत्र की कब्र पर फातिहा पढ़ रहे हैं.

              कई लोग - जानकारविशेषज्ञइतिहासकारविद्वान कहते मिलेंगे कि ऐसा नहीं है कि देश ने विकास नहीं किया है ! जहां सिलाई की सूई नहीं बनती थीवहां विमान बन रहे हैं ! हांवे ठीक कह रहेहैं. सच विमान बन रहे हैंउड़ रहे हैं अौरअौर तो अौर लड़कियां उसे उड़ा रही हैं ! अाजादी के बाद से आज तक को करीब से देखिए तो दीखता है न कि नया करने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं. सरकारों नेकागजों पर कितनी ही बड़ी अौर कल्याणकारी योजनाएं लिखीं,बनाई अौर सफल भी कर ली हैं लेकिन धरती पर कोई रंग पकड़ता नहीं है या बदरंग रह जाता है.  हमने भी काफी जद्दोजहद की है कि हमारेअौर हमारों के हालात बदलें अौर शुभमंगल हो. लेकिन जैसे होते-होते बात बिगड़ जाती हैचढ़ते-चढ़ते पांव फिसल जाते हैंपकड़ते-पकड़ते हाथ छूट जाता है. यह जाता हुअा साल भी तो अभी-अभीकुछमाह पहले ही नया-नया अाया था न ! इतनी जल्दी पुराना कैसे हो गया ?जवाब में लिखा है किसी ने : “ पूत के पांव / पालने में मत देखो / वह अपने पिता के / फटे जूते पहनने अाया है ! तो पिता के जूतेफटे ही क्यों होते हैं अौर क्यों ऐसा सिलसिला बना है कि हर पिता अपने बच्चे को अौर वह बच्चा अपने बच्चे को अौर वह अपने बच्चे को फटा जूता देने ही अाता है ? … ऐसा लंबा सिलसिला फटे जूतोंका क्यों है ! नहींजूते नहींहमारे मन फटे हैं ! हम जूतों की सिलाई करने में बेतरह जुटे हैं जबकि फटे तो मन हैं,संकल्प हैं अौर एकात्मता है ! यह फांट गहरी होती जा रही है. इसलिए संसद में प्रधानमंत्रीशब्दों की बड़ी बेजान कढ़ाई कर मॉब लिंचिंग से असहमति व्यक्त करते हैं लेकिन मॉब के बीच आ कर मौन साध लेते हैं. यह सत्ता की चालाकी हैअाजादी का संकल्प नहीं ! 

 सवाल उठाया जाता है कि क्या फलां-फलां अौर फलां ने भी ऐसा ही नहीं किया है आप हमारे बारे में ही क्यों बोलते हैं इसका जवाब इतना ही है अौर यह काफी है कि फलां-फलां अौर फलां नेभी ऐसा ही नहीं किया होता तो अाप जनाब को यहां तक पहुंचने का मौका ही कैसे मिलता उनकी अयोग्यता अौर बेईमानी के रंज में ही तो हमने आपको मौका दिया न ! अाप भी वैसे ही निकले अौरफिर यह कैसे भूल गये आप कि जब वे सत्ता में थे तो हम भी अौर आप भी सारे सवाल उनसे ही पूछते थे न सत्ता में जो बैठा है उसकी जवाबदेही हमेशा ही सबसे अधिक होती है. न होती तो हमने इंदिरागांधी को क्यों हटाया होता अटलबिहारी वाजपेयी की पतंग क्यों काट दी होती राजीव गांधी की लुटिया क्यों डुबोई होती मनमोहन सिंह क्यों इस कदर बेरौनक हो कर जाते सत्ता है तो जवाबदेही हैअौर जवाबदेही है तो हर छोटे-बड़े सवाल का जवाब देने की जिम्मेवारी लेनी ही पड़ेगी. प्रधानमंत्री को यह अाजादी नहीं है कि वह जब चाहे तब बोलेजब चाहे तो मौन रह जाएअौर उसके मौन को सराहनेवाले चाटुकार शोर मचाने लगें !   

               अाप देखेंगे तो समझेंगे कि चादर हो कि मन कि समाजसभी अनगिनत धागों से मिल कर बने हैं. बड़ी जटिल बुनावट है - दीखती नहीं है लेकिन बांधे रखती है. लेकिन चादर हो कि मन कि समाजबस एक धागा खींचो तो सारा बिखर जाता है. रेशा-रेशा हवा में उड़ जाता है. लगता है कि अभी-अभी जो साकार थामजबूत था अौर बड़ी मोहकता से चलता चला जाता था वह नकली थाकमजोर थाअौर दिखावटी था. नहींसवाल उसके नकली होनेकमजोर होने या दिखावटी होने का नहीं हैसवाल है आपकी साज-संभाल का ! जो बिखर सकता हैटूट सकता हैउसे संभालने की विशेष जुगत करनीपड़ती है न ! घरों में भी टूटने वाली क्रॉकरी अालमारी के सबसे ऊपर वाले खाने मेंबच्चों अौर काम करने वाली बाइयों की पहुंच से ऊपर रखते हैं न ! ऐसा ही हमें मन के साथ भी अौर समाज के साथ भीकरना चाहिए. जहां चोट लगने की गुंजाइश हो वहां से इन दोनों को बचाते हैं. फिर गालिब से सुनें कि वे क्या कहते हैं :  दिल ही तो है नहीं संगो-खिश्त/ गम से न भर अाए क्यूं / रोएंगे हम हजार बार /  कोईहमें रुलाए क्यों. यही खेल समझना है हमें कि इंसानी दिल इतना नाजुक अौर मनमौजी है कि कहीं भीकिसी से भी चोट खा जाता हैतो उसे चोट पहुंचाने का कोई अायोजन होना नहीं चाहिएअौर ऐसाकोई कुफ्र हो ही गया हो तो हजारो-हजार लोगलाखों-लाख हाथ-पांव ले कर उसकी मरम्मत में लग जाएं. यह जरूरी ही नहीं है,यही एकमात्र मानवीय कर्तव्य हैराष्ट्रीय भावना की पहचान हैहमारे मनुष्यहोने की निशानी है. न कोई जातिन कोई धर्मन कोई भाषान कोई प्रांतन कोई देशन कोई विदेशन कोई कालान कोई गोरान कोई अमीरन कोई गरीबबस इंसान !! यह नया है. यह नया मनहै. हमारे मन में उमगी यह नई कोंपल है. विनोबा कहते थे कि अब हम इतने बड़े हो गये हैं अौर इतने करीब अा गये हैं कि कामना भी करेंगे तो जय जगत की करेंगे ! जगत की जय नहीं होगी तो अकेलेहिंदुस्तान की जय संभव भी नहीं अौर काम्य भी नहींअौर जगत की जय होती है तो हिंदुस्तान की जय तो उसी में समाई हुई है ही. इसलिए हिंदुस्तानी से छोटी किसी पहचान से जुड़ना नहींइंसान से दूर लेजाने वाले किसी कश्ती की सवारी करना नहीं. 

            इसलिए संवाद ! हम सब एक-दूसरे से संवाद करने का संकल्प करें. अापसी संवाद लोकतंत्र की अाधारभूत शर्त है. संवाद करो अौर विश्वास करो : यह अाजाद मन का हमारा नया नारा होना चाहिए. हमारे देश जैसी विभिन्नता वाले समाज में तो संवाद अौर विश्वास प्राणवायु हैं. जितना विश्वास करेंगे उतना नजदीक अाएंगेजितनी बातचीत करेंगे उतनी शंकाएं कटेंगी. शक वह जहरीला सांप है जिसकेकाटे का कोई इलाज नहीं. यह सांप अ-संवाद की बांबी में रहता है अौर अविश्वास की खुराक पर पलता है.  इसलिए हम जिनसे सहमत नहीं हैं उन तक विश्वास के पुल से पहुंचेंगे अौर वहां संवाद की छोटी-बड़ी गलियां बनाएंगे. इसलिए सरकार कश्मीर में वार्ता करे कि न करेकश्मीर से हमारी वार्ता बंद नहीं होनी चाहिएकश्मीरियों से हमारा संवाद खत्म नहीं होना चाहिएकश्मीरियों पर हमारा विश्वास टूटना नहीं चाहिए. 

               हर पुल बड़ी मेहनत से बनता है अौर हर पुल के जन्म के साथ ही उसके टूटने-दरकने की संभावना भी जन्म लेती है. लेकिन हम पुल बनाना बंद तो नहीं करते हैं न ! हांमरम्मत की तैयारी रखते हैं. फिरइंसानों के बीच पुल बनाने में हिचक कैसी टूटेगा तो मरम्मत करेंगे ! हमें छत्तीसगढ़ के माअोवादियों के बीचपूर्वांचल के अलगाववादियों के बीचराम मंदिर को गदा की भांति भांजने वालों के बीचअोवैशियों की कर्कश चीख के बीचहाशिमपुरा-बुलंदशहर के अांसुअों के बीचकश्मीर की पत्थरबाजी के बीच लगातार-लगातार जाना है क्योंकि इसके बिना हम कितना भी कर लेंअाजादी न पासकेंगेन बचा सकेंगे. अाजादी की कीमत ही सतत संवाद है. 

                १९३२ का नया साल जब अाया था तब गांधीजी ने किसी को लिखा था : देखता हूं कि तुम नये साल में क्या निश्चय करते हो ! जिससे न बोले होउससे बोलोजिससे न मिले हो उससे मिलोजिसके घर न गये हो उसके घर जाअोअौर यह सब इसलिए करो कि दुनिया लेनदार है अौर हम देनदार हैं. १९३२ का यह निर्देश २०१९ में भी हमारी राह देख रहा है क्योंकि इतने वर्ष निकल गयेअाजादी तोहाथ अाई नहीं !  मन के अांगन में अाजादी के फूल खिलते हैं तो देश में गमकते हैं. 

             सूरज-सी इस चीज को हम सब देख चुके / सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह ! ( 02.08.2019)  

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