यह सबसे अासान सवाल है कि अाज की स्थिति में महात्मा गांधी होते तो क्या करते ? तो महात्मा गांधी तो हैं नहीं; उनके पास जा सकने का कोई उपाय भी नहीं है; अौर अभी अपना वैसा कोई इरादा भी नहीं है. तो फिर सवाल का मतलब क्या है ? क्या हम सच में महात्मा गांधी से रास्ता पूछ रहे हैं; या वे भी रास्ता भूल जाएं, ऐसीकोशिश कर रहे हैं ? वैसे जब महात्मा गांधी थे अौर हमसे कहते रहते थे कि मैं क्या करूंगा, तब भी हम उनका कहा कितना करते थे अौर कितना समझते थे ? वे जबतब कभी अपने हाथ अाए नहीं तो अाज क्या अाएंगे ! इसलिए मेरी सलाह यह है कि हम इस सवाल से किनारा कर लें कि महात्मा गांधी होते तो क्या करते. लेकिनमहात्मा गांधी ने एक नहीं अनेक अवसरों पर यह कहा है कि हमें किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए. वे क्या करते यह पूछने से कहीं अच्छा यह नहीं है क्या कि हमयह समझने कि कोशिश करें कि वे होते तो हमसे क्या करने को कहते ?
वह अाजादी का उष:काल था. किसी ने महात्मा गांधी को घेरने कीकोशिश की अौर उनसे पूछा : बापू, अब तो अंग्रेज चले गये ! अब अपना देश है, अपना शासन है अौर अपने लोग सरकार में हैं. अापने हमलोगों को जिन हथियारों से लड़ना सिखलाया है - हड़ताल, प्रदर्शन, धरना, जुलूस, जेल - क्या यही हथियार अागे भी हमारेकाम अाएंगे ? अाजाद भारत में अापकी लड़ाई के हथियार क्या होंगे ?
बापू हंसे, “ हथियार ही बदलते हैं, लड़ाई कहां रुकती हैभाई ! मैं अब अागे की लड़ाई एक नये हथियार से लडूंगा - अौर वह होगा जनमत का हथियार - वीपन अॉफ पब्लिक अोपीनियन !” तो लड़ाई भी सामने है अौर बापूका बताया हथियार भी सामने धरा है. हम वह हथियार क्यों नहीं उठाते हैं ? इस हथियार को उठाने अौर चलाने की अनिवार्य शर्त है कि आपको जनता के बीच जानाव रहना होगा.
1915में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आते हैं तो देश में अाजादी का सशक्त अांदोलन कांग्रेस चला रही थी. एक-से-एक बड़े नेता थे,बड़ी-बड़ी हस्तियां थीं. लेकिन कुछ था कि वह कांग्रेस जनमत से कटी हुई, आभिजात्य लोगों के हाथों में बंदी थी. गांधी ने यह पहचाना अौर कांग्रेस को बदलना शुरू किया - पहलेइसकी भाषा बदली,फिर इसकी भूषा बदली, फिर इसके सपने बदले अौर फिर इसे मंच से उठा कर जनता के बीच ला रखा. किसान, मजदूर, गरीब, निरक्षर - कांग्रेसइन सबकी पार्टी बन गई; इसके मंच को माटी का स्पर्श हुअा. कांग्रेस जनता से जुड़ी तो जनमत का हथियार बनाने लगी. गांधी ने जनमत को अपनीलड़ाई का अमोघ हथियार बना दिया जबकि हम अाज उस जनमत को एक भोथरे अौर बिकाऊ माल की तरह देखते हैं. अौर कहा तोयह भी जा रहा है कि जनमत जैसी कोई चीज होती ही नहीं है; होती है तो बस भीड़ होती हैजिसे चाहे जैसे,जो अपने बस में कर ले ! कभी गरीबी हटाअो तो कभी विकास लाअो, कभी इस्लाम पर खतरा बताअो तो कभी बहुजन को अल्पजन से डराअो. गांधीके बाद की कुल राजनीति का यही आम चेहरा है. लेकिन जो ‘प्रजा' अौर ‘जनता’ का भेद नहीं समझते हैं अौर जो अादमी को सिर्फ भीड़ समझते हैं क्यावे लोकतंत्र को समझते हैं ?
आज एक घुटा हुअा माहौल सब अोर है. 2014 से पहले देश कई स्तरों पर हिचकोले खा रहा था अौर साफ दिखाई दे रहाथा कि जिन्हें देश का जहाज संभालना है वे जहाज संभालना तो दूर, खुद को ही संभाल नहीं पा रहे हैं. वह समीकरण बदला अौर नया सवार सामने अागया. लेकिन वह भूल गया कि सवार नया है लेकिन सत्ता का हाथी तो पुराना ही है. इसलिए इतना तो हुअा कि सवार बदला लेकिन उसके बाद कुछ नहीं बदला. कितने ही नाटक हुए, बातें हुईं, लच्छेदार जुमले हुए, इतनी घोषणाएं हुईं कि हम गिनना भी भूल गए कि किसने, कब,कहां, क्या कहा. जंगल में जब एक गीदड़ बोलता है तो सभी हुअां-हुअां करने लगते हैं. बड़े-बूढ़े कहते हैं कि जब सियारों की हुअां-हुआं हो रही हो तो उसे सुनना छोड़,अपने काम मेंलग जाना चाहिए. हम वह नहीं कर सके. हम सियारों की हुअां-हुअां सुनने में इस तरह मशगूल हुए कि अपना भी कोई काम है, कोई दर्शन है, कोई दिशा है, यह भूल ही गये.
अौर इसके बाद से हम देख रहे हैं गणतंत्र के महावत का महाभंजक स्वरूप ! अाजतंत्र किसी अंधे हाथी की तरह उत्पात मचा रहा है अौर गण किसी महावत की भूमिका में तो दूर, किसी हरकारे की भूमिका में भी नहीं है.यह हमारे लोकतंत्र के लिए अपशकुन की घड़ी है. लोक की स्वतंत्रता अौर किसी एक गुट या जमात की निरंकुशता में फर्क होता है. लोकतंत्र में तंत्र की प्राथमिक जिम्मेवारी है, बल्कि उसके होने की कसौटी भी यही है कि वह निरंकुशता को कैसे काबू में करता है. कानून का राज कहते ही उसे हैं जिसमें कानून हाथ में लेने की इजाजत किसी को नहीं होती है. लेकिनयहां तो देश का गृहमंत्री संसद में खड़े होकर कहता है कि कुछ नहीं करोगे तो सुरक्षित रहोगे, करोगे तो हमारे हत्थे चढ़ोगे. मतलब इन्हें देश उन नागरिकों का ही बनानाहै जो मुंह बंद कर, सर झुका कर अपना काम करते हों. देश बनाने का काम अाप करेंगे तो सत्ता दबोच लेगी. गांधी बता कर गये हैं कि ऐसी सत्ता अौर उसके अादेश कोन मानना लोकतंत्र में नागरिक का प्रथम कर्तव्य है. जो नागरिक का प्रथम कर्तव्य है उसके लिए उसे तैयार करना राजनीतिक कर्म का अनिवार्य अंग है.
नये तंत्र ने देश को अनुशासित करने की अपनी वैधानिक जिम्मेवारी छोड़ ही नहीं दी है, समझ-बूझ कर इसे कहीं गहरे दफना दिया है. यहतंत्र कानून को या संविधान को या इन सबसे ऊपर मनुष्यता के अाधारभूत मूल्यों को नहीं देखताहै, वह देखता है कि जिसे अनुशासित करने की जरूरत है उसका धर्म क्या है, उसकी जाति क्या है अौर यह भी कि उसका दल क्या है ? बल्कि अब तोयह भी देखा जा रहा है कि इस अपराधी की संभावना क्या है - क्या यह भविष्य में किसी भी तरह अपने खेमे में अा सकता है ? अगर इसकी संभावना है तो राज्य अपनी नजर भी बदल लेता है अौर दिशा भी. इतिहास फिर कुछ उन्हीं गलियों से, कुछ उसी तरह गुजर रहा है जिनसे तब गुजरा था जब गुलामी का अंधेरा घना था. वक्त की उस संकरी गली के अंधेरे में मुहम्मद अली जिन्ना ने ऐसा ही अंधा उत्पात मचा रखा था अौर राज्य-ब्रितानी साम्राज्य- लकड़ी की तलवारें भांजता हुए, उनका मुकाबला करने का स्वांग कर रहा था. लहूलुहान देश अंग्रेजों की मिलीभगत से निष्प्राण हुअा जा रहा था अौर अाजादी की पार्टी कांग्रेस उस धुंध में खोती जा रही थी. एक अकेले गांधी थे जो अपने मन -प्राणों का पूरा बल जोड़ कर इस दुरभिसंधि के खिलाफ तब तक अावाज उठाते रहे जब तक तीन गोलियों से बींध नहीं दिए गए.
यह वह इतिहास है जो हम पढ़ते रहे हैं लेकिन जो इतिहास हम गढ़ रहे हैं वह क्या इससे अलग है ? क्या वह हमें किसी दूसरी दिशा में ले जा सकेगा ? अौर फिर यह हिसाब भी हमें लगाना चाहिए कि कोई 70साल पहले हमने जो गणतंत्र बनाया अौर उसके साथ जो सपने देखे, वे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे ? सवाल अांकड़ों का नहीं है. सवाल यह कि गांधीकी हत्या के बाद के 70सालों में हमारा गणतंत्र 70साल जवान हुअा है या 70साल बूढ़ा ? जवानी अौर बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता है, उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का फर्क होता है ! यही विरासत गांधी हमें सौंप गये हैं कि न उम्मीद खत्म हो, न अात्मविश्वास !
बाबा साहब अांबेडकर ने संविधान सभा की काररवाई को समेटते हुए एक ताबीज दी थी हमें : हमने एक संविधान तो बना दिया है अौर अपनी तरफ से अच्छा ही संविधान बनाया है लेकिन अाप सब यह याद रखें कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या उतना ही बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं ! ….
पहले भी राजनीतिक दल ऐसे ही थे कि जो राजनीतिक लाभ के लिए कभी सांप्रदायिक या जातीय खेल खेलते थे लेकिन उन्हें भी इसमें कुछ शर्म अाती थी अौर देश के सार्वजनिक जीवन में इतना बल संचित था कि ऐसी प्रवृत्तियां दुत्कारी भी जाती थीं अौर हाशिए पर रहती थीं. अाज ऐसी स्थिति है कि सांप्रदायिकता-जातीयता के अाधार पर ही राजनीतिक दल बनाए गए हैं, जातीय अाधार पर हीबहुजन का निर्धारण होने लगा है अौर इतिहास को फिर से लिखने की घोषणाएं की जाने लगी हैं. किसी भी स्वतंत्र व स्वायत्त देश को इस बात का अधिकार है ही कि वह अपनी समीक्षा करे अौर अपना इतिहास खोजे ! लेकिन वह खुद ही इतिहास बनजाने की दिशा में दौड़ पड़े तो संविधान क्या कहेगा अौर क्या करेगा ? बाबा साहब होते तो जरूर कहते कि यह दस्तावेज तुम्हारे हाथ में सौंपते समय ही मैंने कहा था कि यह उतना ही अच्छा या बुरा साबित होगा जितने अच्छे या बुरे बनने की तुम्हारी तैयारी होगी ! महात्मा गांधी ने तो संविधान बनाने की प्रक्रिया से ही खुद को अलग कर लिया था, क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि देश का मन जब तक नया नहीं बनेगा तब तक उसके हाथ में सौंपी हर किताब पुरानी पड़ जाएगी. अांबेडकर समेत देश के सारे बड़े राजनीतिक नेताअों ने मिल कर वह किताब तैयार की जिसकी स्थापनाअों के बारे में उनकी अपनी ही अास्था नहीं थी. दस्तावेज इसलिए ही तो खतरनाक माने जाते हैं क्योंकि वे अपने निर्माताअों को ही अाईना दिखाने लगते हैं. हमारा संविधान कहता है कि यह बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुजातीय अौर स्त्री-पुरुष के बीच करीब-करीब बराबर बंटा हुअा समाज बहुसंख्यावाद के नारों से न चलाया जा सकता है,न संभाला जा सकता है.ऐसी हर कोशिश से यह टूटबिखर जाएगा ! हमने इसे नहीं समझा अौर सांप्रदायिक ताकतों की रस्साकशी ऐसी मची कि देश टूट गया.सैकड़ों सालों की गुलामी में, अंग्रेज भी जो करने की हिम्मत न कर सके,हमने खुद ही वह कर लिया ! अौर अाप इतिहास को इतिहास की नजर से देखेंगे तो पाएंगे कि इस अात्मघाती खेल में वे सब भी शामिल थे जो संविधान बना रहे थे. हजारों साल के अथक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रयास से भारतीय समाज की संरचना ऐसी हुई है कि इसे संभालो तो यह कालजयी बन जाएगी; तोड़ो तो रेशारेशा बिखर जाएगी. यह उस बुनी हुई चादर की तरह है कि जिसे फैला दो तो हर को पनाह देगी, एक धागा खींच दो तो सारी चादर उखड़ती चली जाएगी. इसलिए बहुसंख्यावाद चाहे जाति के नाम से हो कि धर्म के नाम से कि भाषा के नाम से याकि दूसरे किसी भी नाम से, वह भारतीय समाज को तोड़ेगा,कमजोर करेगा. बहुसंख्यावाद भारत की संकल्पना के मूल पर ही चोट करता है. यह अकारण नहीं था कि गांधी ने ताउम्र, बार-बार अपनी जान दे कर भी इन ताकतों का मुकाबला करने की कोशिश की - चाहे वह लंदन के गोलमेज सम्मेलन में हो कि पुणे के यरवदा जेल में कि दिल्ली में कि कोलकाता में कि नोअाखली में कि बिहार में ! अाज की तारीख में भी किसी को देखना हो कि हमें जाना किधर है, हमें पाना क्या है, हमें छोड़ना क्या है अौर हमें करना क्या है तो उसे गांधी का जीवन अौर गांधी की मौत देख लेनी चाहिए . वहां भारतीय समाज की अात्मा बसती है.
अत: संविधान की धाराएं हम चाहे जितनी बार बदलें, खतरा नहीं है लेकिन संविधान की अात्मा एक बार भी बदली तो यह देश हमारे हाथ से निकल जाएगा. देश हाथ सेकैसे निकलते हैं यह देखना हो तो पड़ोस में पाकिस्तान को देख लें हम. दूर जाना हो तो सोवियत संघ को देख लें, चेकोस्लावाकिया, पोलैंड, यूगोस्लाविया अादि को देखलें. अौर 1947से पहले का अपना हिंदुस्तान क्यों न देख लें ? इसलिए हम सब गांठ बांध लें कि गणतंत्र में ‘गण’ पहला तत्व है, तंत्र दोयम है ! अपनी अहर्निश सेवा-साधना से हम गण को जितना मजबूत बना सकेंगे, गणतंत्र भी उतना ही मजबूत अौर फलदायीबनेगा. यह गांधी की दिशा है जिसका पालन हमें हर दशा में करना है. ( 03.08.2019)
यह आलेख हमें जनमत मे काम करने की दिशा देता हैं एवं वर्तमान में हमारी गतिविधियाँ पर चिंतन सूत्र प्रदान करता हैं
ReplyDeleteआज जनमत को गाँधी के विचार व जीवन से अवगत कराना बहुत जरूरी हैं