कैलेंडर बदलने से जिनका नया साल आता है उन्हें उनका नया साल मुबारक हो ! लेकिन कपड़े बदलने से आदमी कब, कहां नया हुआ है. आप देखें कि प्रकृति भी, उसके समस्त वन-वृक्ष-पौधे भी जब तक नये उल्लास के नये पल्लव अपने भीतर कहीं गहरे उतर कर पा नहीं लेते, वसंत उतरता ही नहीं है. हम भी अपने भीतर उतरें गहरे कहीं, और खोजें कि क्या है वह सब जो हमें नया सोचने, करने और बनने से रोकता है ? क्यों बाहरी हर सजावट हमें भीतर से रसहीन और हतवीर्य छोड़ जाती है ? ऐसा क्यों है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती जाती है और हमारा जन छोटा भी और अकेला भी और निरुपाय भी होता जाता है ? अच्छे दिन की चाह क्यों हमें बुरे मंजर की तरफ धकेलती है ?
नये साल की दहलीज पर खड़े हैं हम तो जरा बीतते वर्ष के करीब चलें, जरा भीतर उतरें ! दीखता है न कि नया करने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं. सरकारों ने कागजों पर कितनी ही बड़ी और कल्याणकारी योजनाएं लिखीं, बनाई और सफल भी कर ली हैं लेकिन धरती पर कोई रंग पकड़ता नहीं है. हमने भी काफी जद्दोजहद की है कि हमारे और हमारों के हालात बदलें और शुभमंगल हो. लेकिन जैसे होते-होते बात बिगड़ जाती है, चढ़ते-चढ़ते पांव फिसल जाते हैं, पकड़ते-पकड़ते हाथ छूट जाता है. यह जाता हुआ साल भी तो अभी-अभी, बारह माह पहले ही नया-नया आया था ! इतनी जल्दी पुराना कैसे हो गया ? जवाब में लिखा है किसी ने : “ पूत के पांव / पालने में मत देखो / वह अपने पिता के / फटे जूते पहनने आया है ! तो पिता के जूते फटे ही क्यों होते हैं ? और क्यों ऐसा सिलसिला बना है कि हर पिता अपने बच्चे को और वह बच्चा अपने बच्चे को और वह अपने बच्चे को … ऐसा लंबा सिलसिला फटे जूतों का ही है ? नहीं, जूते नहीं, हमारे मन फटे हैं ! इसकी सिलाई करनी है ताकि यह साबुत हो जाए.
आप देखेंगे तो समझेंगे कि चादर हो कि मन कि समाज, सभी अनगिनत धागों से मिल कर बने हैं. बड़ी जटिल बुनावट है - दीखती नहीं है लेकिन बांधे रखती है. लेकिन चादर हो कि मन कि समाज, बस एक धागा खींचो तो सारा बिखर जाता है. रेशा-रेशा हवा में उड़ जाता है. लगता है कि अभी-अभी जो साकार था, मजबूत था और बड़ी मोहकता से चलता चला जाता था वह नकली था, कमजोर था और दिखावटी था. जो बिखर सकता है, टूट सकता है, उसे संभालने की विशेष जुगत करनी पड़ती है न ! घरों में भी टूटने वाली क्रॉकरी आलमारी के सबसे ऊपर वाले खाने में, बच्चों और काम करने वाली बाइयों की पहुंच से ऊपर रखते हैं न ! ऐसा ही हमें मन के साथ भी और समाज के साथ भी करना चाहिए. जहां चोट लगने की गुंजाइश हो वहां से इन दोनों को बचाते हैं. गालिब तो कब के कह गये न : दिल ही तो नहीं संगो-खिश्त/ गम से न भर आए क्यूं / रोएंगे हम हजार बार / कोई हमें रुलाए क्यों. यही खेल समझना है हमें कि इंसानी दिल इतना नाजुक और मनमौजी है कि कहीं भी, किसी से भी चोट खा जाता है, तो उसे चोट पहुंचाने का कोई आयोजन होना नहीं चाहिए; और ऐसा कोई कुफ्र हो ही गया हो तो हजारो-हजार लोग, लाखों-लाख हाथ-पांव ले कर उसकी मरम्मत में लग जाएं. यह जरूरी ही नहीं है, एकमात्र मानवीय कर्तव्य है, हमारे मनुष्य होने की निशानी है. न कोई जाति, न कोई धर्म, न कोई भाषा, न कोई प्रांत, न कोई देश, न कोई विदेश, न कोई काला, न कोई गोरा, न कोई अमीर, न कोई गरीब ! बस इंसान !! …यह नया है. यह नया मन है. हमारे मन में उमगी यह नई कोंपल है. विनोबा कहते थे कि अब हम इतने बड़े हो गये हैं और इतने करीब आ गये हैं कि कामना भी करेंगे तो जय जगत की करेंगे ! जगत की जय नहीं होगी तो अकेले हिंदुस्तान की जय संभव भी नहीं और काम्य भी नहीं; और जगत की जय होती है तो हिंदुस्तान की जय तो उसी में समाई हुई है.
यह आता हुआ नया साल- २०१९ - सच में नया हो जाएगा यदि इस साल हम सब एक-दूसरे से संवाद करने का संकल्प करेंगे. आपसी संवाद लोकतंत्र की आधारभूत शर्त है. संवाद करो और विश्वास करो : यह नये साल का हमारा नारा होना चाहिए. हमारे देश जैसी विभिन्नता वाले समाज में तो संवाद और विश्वास प्राणवायु हैं. जितना विश्वास करेंगे उतना नजदीक आएंगे; जितनी बातचीत करेंगे उतनी शंकाएं कटेंगी. शक वह जहरीला सांप है जिसके काटे का कोई इलाज नहीं. यह सांप अ-संवाद की बांबी में रहता है और अविश्वास की खुराक पर पलता है. इसलिए हम जिनसे सहमत नहीं हैं उन तक विश्वास के पुल से पहुंचेंगे और वहां संवाद की छोटी-बड़ी गलियां बनाएंगे. इसलिए सरकार कश्मीर में वार्ता करे कि न करे, कश्मीर से हमारी वार्ता बंद नहीं होनी चाहिए, कश्मीरियों से हमारा संवाद खत्म नहीं होना चाहिए, कश्मीरियों पर हमारा विश्वास टूटना नहीं चाहिए.
हर पुल बड़ी मेहनत से बनता है और हर पुल के जन्म के साथ ही उसके टूटने-दरकने की संभावना भी जन्म लेती है. लेकिन हम पुल बनाना बंद तो नहीं करते हैं न ! हां, मरम्मत की तैयारी रखते हैं. फिर इंसानों के बीच पुल बनाने में हिचक कैसी ? टूटेगा तो मरम्मत करेंगे ! हमें छत्तीसगढ़ के माओवादियों के बीच, पूर्वांचल के अलगाववादियों के बीच, राम मंदिर को गदा की भांति भांजने वालों के बीच, ओवैशियों की कर्कश चीख के बीच, हाशिमपुरा-बुलंदशहर के आंसुओं के बीच लगातार-लगातार जाना है क्योंकि इसके बिना हम कैलेंडर कितने भी बदल लें, कोई भी साल नया नहीं हो सकेगा.
ऐसा ही नया साल १९३२ में आया था और गांधीजी ने किसी को लिखा था : देखता हूं कि तुम नये साल में क्या निश्चय करते हो ! जिससे न बोले हो, उससे बोलो; जिससे न मिले हो उससे मिलो; जिसके घर न गये हो उसके घर जाओ; और यह सब इसलिए करो कि दुनिया लेनदार है और हम देनदार हैं. १९३२ का नया साल, २०१९ में भी हमारी राह देख रहा है क्योंकि इतने वर्ष निकल गये, नया साल तो आया ही नहीं !
सूरज-सी इस चीज को हम सब देख चुके / सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह ! ( 27.12.2018)