Tuesday 16 October 2018

बा: बापू की साथी


गांधी : 150

मां ब्रजकुंवरी अौर पिता गोकुलदास मकनजी की बेटी कस्तूर … तारीख तो पक्की किसी को पता नहीं लेकिन सन् सबको याद है कि 1868 था जब वह पैदा हुई थी. फिर हुअा यह कि 14 साल की कस्तूर अौर 13 साल के मोहन दास का विवाह 1882 में हुअा। कस्तूर ने न कभी अपने जीवन के बारे में अौर न जिसके जीवन में उसका प्रवेश हुअा, उसके जीवन के बारे में कभी सपने में भी वह सोचा होगा जो हुअा अौर जो उसे मिला। 1882 से 1944 तक वे एक ज्वालामुखी के साथ रहती रहीं; एक तूफान के संग तिनके की तरह उड़ती रहीं; एक अतल गहरी चेतना को थाहने की कोशिश करती रहीं, अौर इन सारे झंझावातों के बीच खुद को भरपूर संभालती रहीं। इसी क्रम में वे कस्तूर से कस्तूर गांधी बनीं, कस्तूर बा बनीं अौर फिर बा बन कर अनंत में विलीन हो गईं। अौर अपनी इस पूरी जीवन-यात्रा में वे एक चुनौती बनी रहीं - अपने लिए भी; महात्मा गांधी के लिए भी; उनके विचारों अौर उनके यम-नियमों के लिए भी; उनके साथी-सहयोगियों के लिए भी। बा जब तक रहीं एक शाश्वत चुनौती बनी रहीं। 
बैरिस्टर मोहन दास अपनी कस्तूर अौर अपने बच्चों को जैसी िंजदगी देने की अभिलाषा ले कर दक्षिण अफ्रीका अाए थे, उसे उन्होंने पूरा नहीं किया, ऐसा नहीं था। दक्षिण अफ्रीका पहुंच कर युवा बैरिस्टर गांधी ने खूब नाम कमाया अौर भरपूर नामा भी बटोरा ! लेकिन सफलता व वैभव की हवा पर सवार उड़ती पतंग सरीखी जिंदगी उनका रास्ता कभी नहीं थी। वे तो बचपन से ही हवाअों पर सवारी करने वाले अादमी थे। ऐसा नहीं होता तो तमाम तरह की कमजोरियों अौर फिसलनों से घिरा मोहन वहां से निकल ही कैसे पाता ! लेकिन बचपन से किशोरावस्था तक मोहन दास उनसे निकलता ही गया। फिर बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी इंग्लैंड में इन सबसे कटता-बचता अागे बढ़ा।   फिर वह पहुंचा दक्षिण अफ्रीका। यहां अा कर सफलता व वैभव में खो जाने के अवसर कम नहीं थे। लेकिन जो खो जाए वह गांधी ही क्या ! 
लेकिन कस्तूर का क्या ? वे तो नहीं अाई थीं दक्षिण अफ्रीका वह जीने के लिए जिसमें बैरिस्टर गांधी ने धीरे-धीरे उन्हें डाल दिया। एक सामान्य, घरेलू महिला जैसी शांत, भरी-पूरी जिंदगी की कल्पना करती है, बा उससे अलग कुछ नहीं चाहती थीं।  वे जो चाहती थीं उससे एकदम विपरीत जिंदगी उन्हें मिली। ऐसी जिंदगी कि कोई लड़की कह उठे कि यह भी कोई जिंदगी है ! उन्होंने कहा; अपनी तरह से यह भी कहा अौर दूसरा भी बहुत कुछ कहा, कई मौकों पर कहा लेकिन जिंदगी के अर्थ की तलाश में खोये मोहन दास ने न उसे सुना, न उसका समय उसे दिया। फिर कस्तूर ने क्या किया ? कड़ी असहमति जताते हुए भी खुद को बड़ी कड़ाई से मोहन दास के अनुकूल बनाने की कोशिश की। असहमति जताना यानी सामने चुनौती पेश कर देना ! चुनौती का जवाब तो उसे देना होता है न जिसे चुनौती मिली है, सो हम बार-बार मोहन दास को जवाब देते पाते हैं। उनकी शरीर-श्रम की अनिवार्यता की शर्त; उनकी सब जाति-धर्म को एक साथ, एक समान बरतने की शर्त; परिजन-अन्य जन का भेद न करने की शर्त; छुअाछूत अौर देशी-विलायती अादमी का ख्याल न करने की शर्त; अौरत-मर्द की दूरी व बराबरी की शर्त; सार्वजनिक धन व निजी संपत्ति का विभेद पालने की शर्त; अपने अौर दूसरों के बच्चों की पढ़ाई व प्राथमिकता में फर्क न करने की शर्त ! … शर्त-शर्त-शर्त !!! इतने  सारे  यम- नियम से लदे-फदे मोहन दास जीवन का अर्थ खोज रहे थे, कस्तूर अपना पति अौर अपने बच्चों का पिता खोज रही थी। इसलिए मोहन दास के लिए कस्तूर अौर कस्तूर के लिए मोहन दास चुनौती बने रहे। चुनौती ऐसी सीधी कि मोहन दास तिलमिलाहट से उफन उठे अौर अनजान देश में, एकाकी रात में सीधे बांह से पकड़ कर घर से बाहर निकाल देने का उपक्रम किया; अौर सामने से ‘तुम्हें शर्म नहीं  अाती!’ की चुनौती ऐसी उठी कि शर्म से गड़ कर, पश्चाताप के अांसुअों में सराबोर हो गये। कस्तूर की दी चुनौती हवा में टंगी रही लेकिन पत्नी का प्यार उन्हें खींच कर पति के पास ले गया अौर स्नेह से पति को पास ले कर बोली : तुम भी तो इंसान हो न !… बा ने वहां से चलते हुए यहां तक की यात्रा पूरी की कि अागा खान जेल में मृत बा के पास पाषाणवत् बैठे बापू को ख्याल अाया कि अब नये तरह से जीवन जीना सीखना होगा मुझे- बा के बिना जीवन ! 
बा खास कुछ पढ़ी-लिखी नहीं थीं। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए भी बापू ने चाहा था कि वे प़ना-लिखना अच्छे से सीख लें। लेकिन बा ने इसमें दिल डाला ही नहीं। इसलिए  बापू के साथ रहते हुए भी, उस दौर में उन्होंने खास कुछ पढ़ा-लिखा नहीं। फिर बा को हम चंपारण में पाते हैं। गांधी अब खासे महात्मा बन चुके हैं। बड़े लोगों का उनका साथ है, बड़ी बातों से उनका सरोकार है। लेकिन उनकी समझ व उनकी कार्य-शैली ऐसी है जो जमीन छोड़ कर नहीं चलती है। इसलिए चंपारण का काम अागे बढ़ाने के लिए वे महादेव भाई को बुलाते हैं अौर बा को साथ लाते हैं। 
बा ने चंपारण में जो काम किया अौर जिस तरह किया अभी उसका पूरा अाकलन बाकी है। चंपारण के जीवन में गांधी का सहज प्रवेश हो सका तो इसके पीछे उनकी अनोखी कार्यशैली तो थी ही, बा की मजबूत व सक्षम उपस्थिति भी थी। बा के कारण बापू के लिए चंपारण के घर के द्वार खुले। चंपारण में बापू को दो काम सबसे जरूरी लगे - पढ़ाई व सफाई ! बा को उन्होंने इन दो मोर्चों की जिम्मेवारी सौंपी अौर बा ने अपूर्व कुशलता से इन दोनों मोर्चों पर काम भी किया अौर चंपारण के जन-जीवन से नये सिपाही तैयार भी किए। चंपारण के काम से अौर देश के दूसरे कामों से बापू को चंपारण से निकलना भी पड़ता था लेकिन बा चंपारण में तब तक डटी रहीं जब तक चंपारण का काम स्थानीय लोगों को सौंप कर बापू ने वहां से विदाई न ले ली। लेकिन चंपारण में हम बा को एक परिपक्व सामाजिक कार्यकर्ता बनते पाते हैं । 
  वे बापू के राजनीति कामों व उसके पीछे की बारीकियों को समझती भी कम ही थीं अौर उनमें हाथ भी नहीं डालती थीं। वे तब बंबई में बापू के साथ ही थीं जब 8 अगस्त 1942 को बापू ने भारत छोड़ो अांदोलन की घोषणा की। उसके बाद, उन्होंने वे भयानक गिरफ्तारियां देखीं जो पौ फटने से पहले बापू समेत सारे नेताअों की हुई। कौन कहां पकड़ा गया अौर गिरफ्तार कर कौन कहां भेजा गया, किसी  को पता नहीं था। बापू भी बंबई के मणि भवन से गिरफ्तार कर कहां ले जाए गये, यह किसी को पता नहीं था। लेकिन एक बात सबको पता थी कि 9 अगस्त 1942 की शाम को बंबई की चौपाटी पर वह अामसभा रखी गई है जिसे बापू को संबोधित करना है। सवाल सीधा था - चौपाटी की सभा को अब कौन संबोधित करेगा ? बा को इस गाढ़े वक्त अपनी भूमिका तै करने में थोड़ी देर भी नहीं लगी। वे सहज ही बोल उठीं : मैं उस सभा को संबोधित करूंगी ! बापू की अनुपस्थिति भरने के लिए भारत छोड़ो अांदोलन की उस पहली सभा को संबोधित करने वे अपनी पहल से पहुंची थीं लेकिन सभा-समारोहों में बोलने की पहल उन्होंने कभी नहीं की। 
अपने अौर अपने बच्चों के प्रति बापू की तथाकथित कठोरता का पहला निशाना वे ही बनती थीं लेकिन बापू पर लगने वाले हर निशाने का जवाब देने को वे हमेशा तत्पर मिलती थीं। देश-दुनिया की तमाम बड़ी हस्तियां बापू के इर्द-गिर्द मंडराती थीं अौर बा उन सबके बीच, िबना किसी दावेदारी के अपनी अलग जगह बनाए रखती थीं।  
ऐसी बा हर उस महिला के लिए, अौर हर उस इंसान के लिए चुनौती थीं, अौर अाज भी हैं जो अपनी सामान्यता की हीनता में दबा-सिकुड़ा रह जाता है। सामान्यता वह कच्चा माल है जिससे असामान्यता का पक्का लोहा तैयार होता है। इसलिए हम सबकी सामान्यता हीनता में सिकुड़ने के लिए नहीं बल्कि लगातार मांजने के लिए है। हम बा को यह उद्यम करते पाते हैं। बा को यह पहचानने में काफी समय लगा कि वे जिस पुरुष के साथ रह रही हैं वह सामान्य पुरुष नहीं, कुछ एकदम अलग अौर कोई नई चीज है। इस अलग अौर नये अादमी को कदम-दर-कदम बनते अौर बनने के क्रम में विफल होते, फिसलते भी उन्होंने देखा है। इसलिए स्वाभाविक है कि बापू के प्रति उनका नजरिया अौर उनकी प्रतिक्रिया दूसरों से भिन्न होती है। लेकिन एक बार यह सब पहचान लेने के बाद अौर इस पहचान के स्थिर हो जाने के बाद वे उस पुरुष की अाभा से लड़ती अौर खुद को अारोपित करती कहीं नहीं मिलती हैं बल्कि उसकी अौर अपनी निजता का दायरा बना कर जीने लगती हैं। इसे साथी कहते हैं। वह साथी नहीं है जो हरदम गर्दन पर सवार रहे।  साथी वह भी नहीं है जो तुमसे विमुख हो जाए अौर अपनी उदासीन दुनिया में छुप जाये।  साथी वह है जो अपनी अौर तुम्हारी, दोनों की अस्मिता को पूरा अवकाश देते हुए तुम्हारा दायित्व स्वीकार करे। यह दोतरफा चलने वाली प्रक्रिया है। बा अौर बापू के बीच यह प्रक्रिया बड़े अनोखे ढंग  से निष्पन्न होती है। वे बापू की अधिकांश पहल से असहमत होती हैं। बापू का गाय का दूध पीना छोड़ना भी उन्हें समझ में नहीं अाता है लेकिन बापू को बकरी का दूध पीने का विकल्प भी वे ही सुझाती हैं। वे अपने सबसे बड़े बेटे हरिलाल के प्रति बापू के रवैये से सर्वथा सहमत नहीं हैं अौर उसका पतन देख कर खून के अांसू रोती हैं। बापू को जिम्मेवार भी बताती हैं। लेकिन वे इसकी भी प्रत्यक्षदर्शी हैं कि हरिलाल का पतन बापू को कितने गहरे मथता रहता है अौर वे कैसी दारुण अात्मपीड़ा से गुजरते हैं। इसलिए हरिलाल को संबालने की कोशिश करते हुए वे बापू के प्रति न कोई अन्याय करती हैं न हरिलाल के किसी अन्याय का अनुत्तरित जाने देती हैं। वे बापू के हर अनशन से असहमत होती हैं। प्रतिवाद करती हैं, कई तरह के सवाल खड़े करती हैं। बापू अपनी इस बा को समझते भी हैं अौर उनका भरपूर मान भी करते हैं। इसलिए हर अवसर पर, अपने हर कदम का अकाट्य जवाब देते हैं। बा उन तर्कों को काटती नहीं हैं, काट सकती भी नहीं हैं क्योंकि बापू के उद्भट साथियों-सहयोगियों ने वह सारा कुछ कर के देख लिया होता है। वे अपना सब कुछ उड़ेलने के बाद, बापू के निर्णय को साड़ी के पल्लू से बांध कर अलग नहीं हट जाती हैं बल्कि अपनी निष्ठा के साथ उससे जुड़ जाती हैं। यह बापू का साथी होने की कसौटी है। 
बापू की 150वीं जन्मजयंती का यह वर्ष है। बा होतीं तो 151 वर्ष की होतीं। यह पत्नी का उम्र में बड़ा होना भी तो एक चुनौती ही है न ! दोनों ने इस चुनौती का तो अस्तित्व ही मिटा दिया है। यह करीब-करीब एकाकार होने की अवस्था है। क्या यह संगत होगा कि गांधी:150 के अवसर पर इन दोनों की अलग-अलग पहचान उभारी जाए जबकि बा की जीवन-साधना ही बापू की छाया में विलीन रहना थी? बापू ही वह अस्तित्व-कण थे जिनमें घुल कर बा खुद को सार्थक मानती थीं। इस अत्यंत निजी व नाजुक संदर्भ को न जानने वालों को ऐसा क्यों लगे कि बापू के नाम पर बा उन पर उसी तरह थोपी जा रही हैं जिस तरह अाज के ‘परिवार-के-परिवार’ अौर नातेदार-के-नातेदार सारे देश पर लादे जा रहे हैं ? जरूरत इस बात की है कि हम सब अपनी-अपनी अास्था व समझ से बा की 151वीं जन्मजयंती मनाएं अौर महिलाअों के स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की स्थितियां अपने भीतर भी अौर समाज के भीतर भी पैदा करें। गांधी:150 किसी व्यक्ति का नहीं, एक विशिष्ठ चेतना के अवगाहन का अवसर है, हम यह न भूलें, न इस अहसास से भटकें. बा स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व का एक मजबूत अाख्यान लिखती हैं जिसकी धुरी स्पर्धा नहीं, साथीपन है। बा को भी अौर बापू को भी ऐसी साथियों की बहुत जरूरत है। ( 30.09.2018) 

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