Tuesday 16 October 2018

अर्थशास्त्री गांधी



महात्मा गांधी दूसरे किसी  अर्थ में हों या हों, इस अर्थ में जीवित हैं कि हम भारत में, अौर दूसरे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जब किसी भी समस्या से घिरते हैं तो बाहर निकलने का रास्ता तलाशते हुए गांधी तक पहुंचते हैं। यह भी कम ही होता है कि हम या वे गांधी रास्ता स्वीकार के लेते हैं। गांधी को स्वीकार कर लेना इतना सरल कभी नहीं रहा है। अाप उन्हें टुकड़ों में समझने अौर अपनाने की कोशिश करेंगे तो बड़ी बुरी स्थिति में पड़ेंगे, क्योंकि गांधी की समग्रता में ही उनकी परिपूर्णता है। हम अाज उस दौर में है जोशॉर्टकटकी खोज करता है - जल्दी अौर अासान रास्तों से सफलता ! लेकिन सबसे जल्दी अौर अासान रास्ता तो वही है कि जो अापको अापकी मंजिल तक पहुंचाता हो ?  जो मंजिल तक पहुंचता ही हो वह चाहे जितना अासान हो, छोटा हो हमारे किस काम का ? यही गांधी कहते अौर समझाते हैं। 

गांधी पूछते हैं कि हम सबसे पहले तय यह करें कि हम चाहते क्या हैं इस बारे में सबकी सहमति हो जाए तब यह देखें कि यह हो कैसे ? साधन, तकनीक, संसाधन अौर बाजार - ये चार बातें भी हमें देख-समझ लेनी पड़ेंगी। वे कहते हैं कि यह जब पक्का हो जाए तब काम में जुट पड़ों, सफलता कदमों में रखी है। वे कहते हैं कि मैं गुजराती बनिया हूं तो घाटे का सौदा करता ही नहीं हूं. तो हमारा हमारे सामने चुनौती बेरोजगारी की है। हर सरकार के सामने यह सवाल होता है अौर हर सरकार अपना संकल्प भी बताती है कि वह किस तरह नये रोजगारों का सर्जन करेगी लेकिन होता यह है कि मनचाही परिस्थितियां मिलती हैं, मनचाहे लोग मिलते हैं, पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होते हैं, अावश्यकतानुसार साधन ! हमारी सारी कोशिश अांकड़ों के जंजाल में उलझ कर रह जाती है अौर हम ख्याली पकौड़े तलते मिलते हैं। 

गांधी को पता है कि संकल्प, साधन, तकनीक, संसाधन अौर बाजार की चुनौती से कोई बच नहीं सकता है। इसलिए वे अपना काम बुनियाद से खड़ा करते हैं। वे गांवों को अपना अाधार इसलिए नहीं बनाते हैं कि वहां सब कुछ अासानी से हो  जाएगा बल्कि इसलिए बनाते हैं कि वहां वह सब कुछ उपलब्ध है जिसकी हमें जरूरत है। वे यह भी बताते हैं हमें कि यह पेंच बहुत पुराना है कि जहां संसाधन हैं, वहां लोग नहीं हैं; जहां लोग हैं वहां संसाधन नहीं हैं। इसलिए उनका रास्ता यह है कि जहां लोग हैं वहां हम पहुंचें अौर उनके पास जो संसाधन हैं उससे काम शुरू करें। 

सभ्यता के सहज विकास-क्रम में अादमी ने जहां रहना शुरू किया वह गांव था। सब वहीं रहते अाए हैं। गांवों के पास स्थायी प्राकृतिक संसाधन हैं - जल, जंगल अौर जमीन ! गांधी कहते हैं कि इन्हीं संसाधनों का मनमाना दोहन कर के तो अौद्योगिक क्रांति के बाद का संसार बनाया है हमने। हमने चूक यह की कि मशीनें, कारखाने, परियोजनाएं अादि सबकी-सब हमने वहां स्थापित की जहां लोग नहीं थे। ऐसा शायद इसलिए किया कि जहां अाबादी नहीं है वहां निर्माण का काम अबाध गति से हो पाता है। हमने यह सुविधा तो देखी लेकिन इसमें से पैदा होने वाला खतरा नहीं देखा। देखते भी कैसे ? हमें ऐसा करने का कोई अनुभव तो था नहीं। हमारे परंपरागत समाज की चालक-शक्ति वे थे जो मेहनत से उत्पादन करते थे, अौद्योगिक क्रांति ने समाज का चालक उसे बना दिया जिसे पास पूंजी थी। श्रमिक से धनिक की तरफ समाज की इस छलांग ने पूंजी तो बेहिसाब बढ़ाई लेकिन उसे बहुत छोटे समूह तक सीमित कर दिया। पूंजी वाले इस समूह ने अपनी सुविधा देख कर विकास के पैमाने तय किए। जब ढांचा खड़ा हो गया तब पता चला कि काम करने वाले लोग तो वहां हैं ही नहीं। लोग कहीं थे, साधन कहीं अौर बनाया गया। हम अपनी इस चूक को समझ कर सुधारते अौर वापस लौटते तो भी खैर थी लेकिन पूंजीसंपन्न वर्ग ने इस मशक्कत से मुंह चुराया, अौर अपनी चूक को कबूल करने की जगह रास्ता यह निकाला की मनुष्यों को अपनी जगह से उखाड़ कर वहां लाया जाए जहां साधन बनाया गया है। इस तरह कारखानों दूसरे प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द शहरों-नगरों-कस्बों का निर्माण होने लगा। गांव प्राकृतिक संरचना है जो प्रकृति के अाधार पर बना-बसा अौर संपन्न हुअा; शहर कृत्रिम संरचना है जिसके पीछे पूंजी की ताकत अौर श्रमिक वर्ग की लाचारी है। अाबादी बढ़ने, अावश्यकताएं बढ़ने के साथ-साथ अौद्योगिक विकास की यह जटिल संरचना अौर भी जटिल होती गई। फिर इसमें एक दूसरा पेंच यह अा पड़ा कि मशीनों से हो रहा बेहिसाब उत्पादन बिके कहां ? तो रास्ता यह निकाला गया कि उत्पादन जहां कहीं भी हो, उत्पादित माल वहां पहुंचाया जाए जहां लोग रहते हैं। यहां से बाजार एक नई ताकत बन कर गांव-गांव तक पहुंचा। एक बाजार पर्याप्त नहीं था, तो नये-नये बाजार खोजने अौर वहां पहुंचने की होड़ शुरू हुई अौर इस तरह वह भयानक उपनिवेशवाद पांव फैलाने लगा जिसने सारी दुनिया में गुलामी का एक दौर चलाया। हम भी उस चक्की में लंबे समय तक  पिसते रहे। 

यह इतिहास अौर उसका यह परिणाम गांधी ने देखा समझा तथा 1909 में लिखी अपनी कालजयी पुस्तकहिंद-स्वराज्यमें बड़ी की लाक्षणिक शैली में हमें समझाया। लेकिन गांधी किताबी विद्वान नहीं थे। उनके व्यक्तित्व में क्रांतिकारी विचारक-योद्धा का अनोखा संगम था। इसलिए उन्होंने इंसान, पूंजी अौर बाजार का यह विष-चक्र तोड़ने की योजना बनाई अौर खादी-ग्रामोद्योग का पूरा दर्शन खड़ा किया। दर्शन ही खड़ा नहीं किया बल्कि उसे प्रयोगशाला में उसी तरह जांचा-परखा जिस तरह कोई भी वैज्ञानिक अपनी खोज को जांचता-परखता है। विदेशी के बहिष्कार अौर स्वदेशी के स्वीकार का उनका पूरा अांदोलन वह प्रयोगशाला थी जिसमें वे इसकी व्यावहारिकता इसके परिणामों को परख रहे थे। खादी का काम जिस गति से बढ़ा अौर खादी ने विदेशी सामानों के बाजार को जिस तरह चोट पहुंचाई अौर खादी का विकसित होता बाजार जिस तरह सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की कपड़ा मिलें को बंदी की कगार पर ले गया, उसने यह प्रमाणित कर दिया कि खादी-ग्रामोद्योग की उनकी अवधारणा में शक्ति भी है अौर संभावना भी। 

खादी-ग्रामोद्योग की उनकी पूरी अवधारणा के पीछे उनकी सोच यह है कि जहां संसाधन हैं अौर लोग हैं वहां ही विकास के साधन पहुंचाएं हम। लक्ष्य यह है कि हर इंसान की बुनियादी जरूरतें पूरी हों ही ! वे बुनियादी जरूरतों में घर-रोटी-कपड़ा ही नहीं जोड़ते हैं, अाजादी अौर स्वाभिमान को भी जोड़ते हैं। मतलब यह कि उनकी कल्पना का समाज अपनी भौतिक अांतरिक या अाध्यात्मिक जरूरतों के मामले में अात्मनिर्भर होगा।वे इस दर्शन का अाधार तैयार करते हुए कहते हैं कि अाप उत्पादन को जितना विकेंद्रित करेंगे, शोषण उतना कम होगा। उत्पादन तभी विकेंद्रित होगा जब पूंजी विकेंद्रित होगी। इसलिए गांवों को केंद्र बना कर, वहां के संसाधनों का वैज्ञानिक नियोजन कर, उत्पादन के साधन खड़े करना अौर वहीं उनके उपभोक्ता तैयार करना -  अत्यंत सरल तरीके से कहूं तो यह गांधी की अर्थ-रचना है।जब लाखों गांवों में ऐसा अर्थतंत्र विकसित होगा तो पूंजी के सम वितरण का शास्त्र बनाना होगा, अौर तब हम यह समझ सकेंगे कि सारे देश की दौलत समेट कर दिल्ली पहुंचाना अौर फिर वहां से वितरित करना अवैज्ञानिक प्रक्रिया है, इसमें पूंजी का भयंकर अपव्यय होता है, भ्रष्टाचार को खुला खेलने का मौका मिलता है अौर लोगों की जरूरत की नहीं, बाजार की जरूरत का उत्पादन होता है। इस बड़े लेकिन बुरे खेल में पहले उपनिवेशवादी ताकतें शामिल थीं, अब वे ही ताकतें चेहरा बदल कर सत्ता-संपत्ति-बाजार का त्रिभुज बना रहीं हैं। गांधी ने यह खेल समझ लिया था अौर गांवों को शासन की बुनियादी ईकाई बनाने की कोशिश की थी। 

अाज सारी दुनिया अार्थिक मंदी से घिरी हुई है। इतिहास बताता है कि जब-जब ऐसी गहरी अार्थिक मंदी ने संसार को घेरा है, विश्वयुद्ध हुए हैं। अाज का बड़ा-छोटा हर अर्थशास्त्री इस अाशंका से परेशान है कि क्या यह मंदी भी किसी विश्वयुद्ध को जन्म देगी ? अाशंका के बादल घिर रहे हैं। इसलिए भी जरूरी है कि हम गांधी के अर्थ-दर्शन को समझें। उन्होंने हमें पूरी अाजादी दे रखी है कि हम उसमें अपनी जरूरत का जो भी फर्क करना चाहें करें लेकिन इस सावधानी के साथ कि उसकी मुख्य टेक कहीं धरी रह जाए- वह टेक जो घोषणा करती है कि सभी मनुष्य समान सिरजे गये हैं इसलिए जीने की बुनियादी जरूरतें सबकी पूरी होनी ही चाहिए। वे हमसे कह गये हैं कि धरती के हर इंसान हर प्राणी की जरूरतें पूरी करने के लिए प्रकृति के पास अखूट संसाधन हैं लेकिन उसके पास एक अादमी के भी लालच को पूरा करने की कूवत नहीं है। मतलब यह कि हम सबको अपनी जरूरतें कम-से-कम करने की अावश्यकता है, क्योंकि दुनिया में किसी भी संसाधन का अक्षय भंडार नहीं है। हम जितनी किफायत से प्रकृति से अपनी जरूरतें लेंगे, प्रकृति को उतना ही वक्त मिलेगा कि वह अपने संसाधनों का भंडार भरती रहे। अगर हम उस मूढ़ की तरह बरतेंगे जिसने अपनी मुर्गी इसलिए काट दी थी कि वह हर दिन एक अंडा पाने से संतुष्ट नहीं था अौर चाहता था कि मुर्गी के पेट से सारे अंडे एक बार ही निकाल ले, तो हम उसी कंगाली में जीने के लिए अभिशप्त हो जाएंगे जिसकी तरफ दुनिया तेजी से दौड़ती जा रही है।   
             
इसलिए यह समझना जरूरी है कि खादी की बड़ी-बड़ी, चमकीली दूकानें खादी की अात्मा का हनन करती हैं, खादी बिक्री के बढ़ते अांकड़ों में छिपा कोई व्यापार नहीं है। जो हर पहर अपनी पोशाकें बदलते हैं अौर समाज में उसकी कीमत का अातंक बनाते हैं, उनकी पोशाक खादी की है या पोलिएस्टर की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. वह खादी की हो फिर भी गांधी की नहीं है।

खादी के लिए गांधी सिर्फ तीन सरल सूत्र कहते हैं : कातो तब पहनो, पहनो तब कातो अौर समझ-बूझ कर कातो ! अाज की खादी का इन तीन सूत्रों से कोई नाता नहीं है. सरकार अौर बाजार के हाथ में गांधी की खादी सुरक्षित नहीं है, यह देख-जान कर विनोबा भावे के खादी कमीशन के समांतर खादी मिशन बनाया था अौर कहा था : जो -सरकारी होगा, वही असरकारी होगा ! गांधी ने खादी की ताकत यह बताई थी कि इसे कितने लोग मिल कर बनाते हैं यानी कपास की खेती से ले कर पूनी बनाने, कातने, बुनने, सिलने अौर फिर पहनने से कितने लोग जुड़ते हैं, यह अाधार होगा खादी की सफलता जांचने का। खादी उत्पादन यथासंभव विकेंद्रित हो अौर इसका उत्पादक ही इसका उपभोक्ता भी हो ताकि मार्केटिंग, बिचौलिया, कमीशन जैसे बाजारू तंत्र से मुक्त इसकी व्यवस्था खड़ी हो. जब गांधी ने यह सब सोचा-कहा तब कम नहीं थे ऐसी अापत्ति उठाने वाले कि यह सब अव्यवहारिक है, यह बैलगाड़ी युग में देश को ले जाने की गांधी की खब्त है, यह अाधुनिक प्रगति  के चक्र को उल्टा घुमाने की कोशिश है ! अाज भी तथाकथित अाधुनिक लोग, विशेषज्ञ ऐसा ही कहते हैं। लेकिन अाज पर्यावरण का भयावह खतरा, संसाधनों की विश्वव्यापी किल्लत, नागरिकों की अौर प्राकृतिक संसाधनों की अंतरराष्ट्रीय लूट अादि को जो जानते-समझते हैं, वे सब स्वीकार करते हैं कि गांधी इस शताब्दी के सबसे अाधुनिक अौर वैज्ञानिक चिंतक थे जिन्होंने अपने दर्शन के अनुकूल व्यावहारिक ढांचा विकसित कर दिखला दिया। गांधी ने खादी को सत्ता पाने का नहीं, जनता को स्वावलंबी बनाने का अौजार माना था। वे कहते थे कि जो जनता स्वावलंबी नहीं है वह स्वतंत्र लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है ? 

गांधी के खादी-ग्रामोद्योग का यह रहस्य हम जितनी जल्दी समझेंगे उतनी जल्दी नई संभावनाएं खुलने लगेंगी। ( 23.09.2018) 

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