Tuesday 16 October 2018

सिकुड़ कर मजबूत हुअा अाधार



    
अाधार बनाया था तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो एक सर्वमान्य अर्थशास्त्री थे अौर राष्ट्र की अार्थिक बुनियादों को मजबूत करने में अर्जुन जैसी एकाग्रता से लगे हुए थे; अाधार को सजाया था नंदन नीलकेणी ने जो अर्थशास्री तो नहीं थे लेकिन व्यापार, टेक्नोक्रेसी अौर अार्थिक जरूरतों की अच्छी समझ रखते थे; अाधार का राजनीतिक इस्तेमाल शुरू किया अब के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो तो अर्थशास्त्री हैं, टेक्नोक्रेट अौर अार्थिक जरूरतों की पेंचीदगियों की किसी गहरी समझ का दावा कर सकते हैं लेकिन राजनीतिबाजी में जिनकी पकड़ खासी है; अाधार का अाधार तोड़ा प्रधानमंत्री के उन चापलूसों ने जिन्हें चापलूसी के अलावा तो कुछ अाता है, कोई फिक्र होती है; अाधार के खतरों से अागाह किया उन तमाम विचारकों-पत्रकारों तथा सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताअों ने जो लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में पैनी सावधानी रखते हैं; अाधार की हदबंदी की देश की सर्वोच्च अदालत ने जिसे अाज की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता अौर लोकतंत्र की बुनियादी जरूरतों के बीच संतुलन साधना होता है। तो कह सकते हैं हम कि अाधार ने हमें खुद को भी अौर अपनी व्यवस्था को भी जांचने का एक नया अाधार दिया। 

बात शुरू तो वहां से हुई थी जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह स्वीकार किया था कि हम एक ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था चला रहे हैं जो देश के विकास के लिए खर्चने को मिले 100 पैसे में से 90 पैसा खुद खा जाती है। देश की किस्मत 10 पैसों पर निर्भर करती है। इस स्वीकारोक्ति की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन रास्ता कुछ मिला नहीं। 2009 में योजना अायोग ने यूअाईडीएअाई की सूचना जारी की अौर नंदन नीलकेणी को उसका अध्यक्ष बनाया। देश ने तो यही माना कि कार्डों से खेलने वाले देश को एक अौर कार्ड खेलने को दिया जा रहा है। मतदाता पहचान-पत्र को लेकर शेषण साहब का रौद्र रूप देश ने देखा था अौर उसका अरबों रुपयों का खर्च भी देश ने उठाया था। फिर दूसरे तमाम तरह के कार्डों के बीच पैन कार्ड का धमाका हुअा। उसने भी हमें कितना अौर किस स्तर पर जलील नहीं किया ! अौर डेबिट कार्ड अौर क्रेडिट कार्ड जैसे कार्डों की तो गिनती ही नहीं थी, है। अाधार का काम ऐसे ही कार्डों की श्रेणी में माना गया अौर मुझे लगता है कि मनमोहन सिंह सरकार को भी इसकी बहुत गंभीर कल्पना नहीं थी। उसने देश को कभी भी नहीं बताया कि क्या अाधार के बाद देश को दूसरे किसी कार्ड की जरूरत नहीं रह जाएगी ? क्या यह कार्ड नागरिकता की हमारी पहचान का एकमात्र अाधार बनेगा ? 

अाधार के बारे में दूसरे राजनीतिक दलों की बात हम करें तो ही बेहतर है। अाज के प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री अौर हाशिये पर डाल दिए गये लालकृष्ण अाडवाणी, यशवंत सिन्हा अादि की लूली-लंगड़ी टिप्पणियों को देखें हम तो समझ पाएंगे कि इनमें से किसी ने तब अाधार की व्याप्ति इसके दूसरे टेढ़े इस्तेमाल की बात सोची भी नहीं थी, समझी भी नहीं थी। लेकिन अाधार की बात सामने अाते ही निजता के अधिकार इसके उल्लंघन की संभावना की चर्चा हम जैसे लोगों ने जोर से उठानी शुरू की थी जिसकी रोशनी में नंदन नीलकेणी ने कुछ फेर-बदल भी किए थे। मनमोहन सरकार ने अपने स्वभाव के अनुरूप धीरे-धीरे इसे जांचने-समझने लागू करने की योजना बनाई थी। लेकिन सत्ता में अाने के बाद इस सरकार को इन कार्यक्रमों की दूसरी संभावनाएं समझ में अाने लगीं अौर मनरेगा, अाधार, सार्वजनिक राशन वितरण, सरकारी योजनाअों की धनराशि सीधे बैंक खातों में पहुंचाने का राजनीतिक लाभ सब जरूरी अौर अंधाधुंधी में कर डालने के काम बन गये। नोटबंदी, जीएसटी के मामले में भी एक चालाक हड़बड़ी दिखाई देती है। अाधार के साथ भी ऐसा ही किया जाने लगा। इससे जमा होने वाले अकल्पनीय अांकड़ों निजी जानकारियों का राजनीतिक इस्तेमाल अाम के अाम, गुंठलियों के दाम की तरह झोले में गिरते दिखाई दिए।अाधार अवसरवादी राजनीतिक पागलपन का अाधार बन गया।  
  
नारे कितने अर्थहीन हो सकते हैं लेकिन उनके पीछे की मानसिकता कितनी खतरनाक हो सकती है इसे ठीक से समझना हो तो पिछले दिनों उछाले गये कुछ नारों को देखें हम - एक देश: एक कर; एक देश: एक पहचान; एक देश: एक चुनाव; एक देश: एक कानून ! सुनने में अच्छी लगने वाली यह नारेबाजी तब बहुत खतरनाक रूप ले लेती है जब हम इसी सुर में एक देश: एक धर्म; एक देश : एक नेता; एक देश : एक पार्टी जैसे नारों की चीख सुनते हैं। दुनिया का इतिहास गवाह है कि ऐसे नारे फासिज्म का रास्ता साफ करते अाए हैं अौर धार्मिक उन्मादियों की जगह बनाते अाए हैं। संघीय ढांचे वाली हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नारे कहीं ठहरते ही नहीं हैं। भारत जैसे देश में खोज तो उस कीमिया की करनी है जो इसकी भिन्नताअों को सम्मानपूर्वक संभालते हुए इसकी एकता के सूत्र खोजे-गढ़े अौर मजबूत करे।

सर्वोच्च न्यायालय ने अाधार के मामले में इसी अाधार को मजबूत किया है। उसने अाधार का खौफनाक चेहरा किसी हद तक मानवीय बनाया है। उसने फिर से यह बात रेखांकित की है कि लोकतंत्र में लोक किसी तंत्र के हाथ की कठपुतली नहीं है। नागरिक के दायित्व भी हैं अौर मर्यादाएं भी हैं तो तंत्र के दायित्व अौर मर्यादाएं उससे कई गुना ज्यादा हैं अौर हर जगह, हर कसौटी पर उसे इसे निभाना है, निभाते हुए दिखाई देना है। अदालत का फैसला 4:1 की बहुमति से हुअा है। फैसला बहुमत से हो सकता है, न्याय बहुमत से नहीं होता है। इसलिए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के फैसले पर देश की भी अौर अदालत की भी सावधान नजर रहनी चाहिए। हो सकता है कि कल अाधार के बारे में देश को न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का अाधार लेना पड़े। सरकार ने इसे जिस तरह धन विधेयक बना दिया, वह खतरनाक ही नहीं है, सरकार की कुमंशा की चुगली खाता है। इसे अदालती अादेश से रोकना चाहिए तथा बैंकों से ले कर सेवा क्षेत्र की तमाम संस्थाअों को अागाह करना चाहिए कि उनकी पहली अौर अंतिम प्रतिबद्धता ग्राहकों के साथ है, सत्ताधीशों के साथ नहीं। ( 29.9.2018)   

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