Tuesday 16 October 2018

संविधान में गांधी की अात्मा




वह अाजादी का उष:काल था. किसी ने महात्मा गांधी से पूछा : बापू, अब तो अंग्रेज चले गये ! अब अपना देश है, अपना शासन है अौर अपने लोग हैं. अापने लोगों को जिन हथियारों से लड़ना सिखलाया है- हड़ताल, प्रदर्शन, धरना, जुलूस, जेल - क्या यही हथियार अागे भी काम अाएंगे ? अाजाद भारत में अापकी लड़ाई के हथियार क्या होंगे ? 

बापू हंसे, “ हथियार ही बदलते हैं,  लड़ाई कहां रुकती है ! मैं अब अागे की लड़ाई एक नये हथियार से लडूंगा - जनमत का हथियार - वीपन अॉफ पब्लिक अोपीनियन !    वे जनमत को लड़ाई के अमोघ हथियार के रूप में देखते थे. अाज उस जनमत को एक भोथरे अौर बिकाऊ माल की तरह देखा जा रहा है अौर यह भी कहा जा रहा है कि जनमत जैसी कोई चीज होती नहीं है; होती है भीड़ जिसे चाहे जैसे, जो अपने बस में कर ले ! कभी गरीबी हटाअो तो कभी विकास लाअो अौरसब मिल के, छक कर माल खाअो ! लेकिन जो अादमी को भीड़ समझते हैं वे लोकतंत्र को समझते हैं ? 
एक घुटा हुअा माहौल सब अोर है. चार साल पहले देश कई स्तरों पर हिचकोले खा रहा था अौर लगता था कि जिन्हें देश का जहाज संभालना है वे देश तो दूर, खुद को ही संभाल नहीं पा रहे हैं. यदि महावत हाथी पर अंकुश रख सके तो हाथी सामने जो कुछ अाता है उसे भी ध्वस्त कर देता है अौर पीठ पर जो बैठा है उसे भी जमीन पर पटक देता है. हमने यह होते देखा. यह भी देखा कि नया महावत, नई धज के साथ हाथी पर सवार हुअा. लेकिन इतना ही हुअा कि वह सवार हुअा, फिर कुछ नहीं हुअा. बातें हुईं, लच्छेदार जुमले हुए, इतनी घोषणाएं हुईं कि हम गिनना भी भूल गए कि किसने, कब,कहां, क्या कहा. एक कहावत है कि जंगल में जब एक गीदड़ बोलता है तो सभी  हुअां-हुअां करने लगते हैं. फिर अाप किसे गिनेंगे अौर किसकी सुनेंगे ?  

अौर इसके बाद से हम देख रहे हैं गणतंत्र का महाभंजक स्वरूप ! तंत्र किसी अंधे हाथी की तरह उत्पात मचा रहा है अौर गण किसी महावत की भूमिका में तो दूर, किसी हरकारे की भूमिका में भी नहीं है.यह हमारे लोकतंत्र के लिए अपशकुन की घड़ी है. लोक की स्वतंत्रता अौर किसी एक गुट या जमात की निरंकुशता में फर्क होता है. लोकतंत्र में तंत्र की प्राथमिक जिम्मेवारी है, बल्कि उसके होने की कसौटी भी है कि यह है कि वह निरंकुशता को कैसे काबू में रखता है. कानून का राज कहते ही उसे हैं जिसमें कानून हाथ में लेने की इजाजत किसी को नहीं होती है.

नये तंत्र ने देश को अनुशासित करने की अपनी यह जिम्मेवारी छोड़ नहीं दी है, समझ-बूझ कर इसे कहीं गहरे दफना दिया है. अब तंत्र कानून को या संविधान को या इन सबसे ऊपर के मनुष्यता के विधान को नहीं देखता, वह देखता है कि जिसे अनुशासित करने की जरूरत है उसका धर्म क्या है, उसकी जाति क्या है अौर यह भी कि उसका दल क्या है ? बल्कि यह भी देखा जा रहा है कि इस अपराधी की संभावना क्या है - क्या यह भविष्य में किसी भी तरह अपने खेमे में अा सकता है ? अगर यह सब संभावना है तो राज्य अपनी नजर भी बदल लेता है अौर अपनी दिशा भी. इतिहास फिर कुछ उन्हीं गलियों से, कुछ उसी तरह गुजर रहा है जिनसे तब गुजरा था जब गुलामी का अंधेरा घना था. वक्त की उस संकरी गली के अंधेरे में मुहम्मद अली जिन्ना ने ऐसा ही अंधा उत्पात मचा रखा था अौर राज्य - ब्रितानी साम्राज्य - लकड़ी की तलवारें भांजता हुए, उनका मुकाबला करने का स्वांग कर रहा था. लहूलुहान देश अंग्रेजों की मिली-भगत से निष्प्राण हुअा जा रहा था अौर अाजादी की पार्टी कांग्रेस उस धुंध में खोती जा रही थी. एक अकेले गांधी थे जो अपने मन-प्राणों का पूरा बल जोड़ कर इस दुरभिसंधि के खिलाफ तब तक अावाज उठाते रहे जब तक तीन गोलियों से बींध नहीं दिए गए. 

यह वह इतिहास है जो हम पढ़ते रहे हैं लेकिन जो इतिहास हम गढ़ रहे हैं वह क्या इससे अलग है ? क्या वह हमें किसी दूसरी दिशा में ले जा सकेगा ? अौर फिर यह हिसाब भी हमें लगाना चाहिए कि कोई ७० साल पहले हमने जो गणतंत्र बनाया अौर उसके साथ जो सपने देखे, वे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे ? सवाल अांकड़ों का नहीं है अौर इस या उस सरकार को जिम्मेवार ठहराने या बचाने का है. सवाल यह कि हमारा गणतंत्र ७० साल जवान हुअा है या ७० साल बूढ़ा ? जवानी अौर बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता है, उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का फर्क होता है ! तो हम यह सवाल अपने गणतंत्र की गीता संविधान से ही पूछते हैं कि भैया, कैसे हो तुम ? हमने तुम्हारे हवाले जिस गणतंत्र को किया था, वह अाज कितना स्वस्थ है अौर कितनी संभावनाअों से भरा है ? 

इसका एक जवाब- अौर कहूं तो दो टूक जवाब - बाबा साहब अांबेडकर ने संविधान सभा की काररवाई को समेटते हुए दिया था : हमने एक संविधान तो बना दिया है अौर अपनी तरफ से अच्छा ही संविधान बनाया है लेकिन अाप सब यह याद रखें कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या उतना ही बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं ! …. 

तो हमारे संविधान का पहला ही वाक्य कहता है कि, “ हम भारत के नागरिक अपने लिए यह संविधान बना कर, इसे अपने ऊपर लागू करते हैं …” ! अाज यहभारत का नागरिककहां है ? संविधान लिखता है कि भारत का राज्य धर्म, जाति, लिंग, भाषा अादि के अाधार पर अपने नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा. संविधान का यह पन्ना बंद कर जब हम देश की तरफ देखते हैं तो पाते हैं कि संविधान चलाने वालों ने धीरे-धीरे ऐसी हालत बना दी है कि साबूत, निखालिस नागरिक तो देश में कहीं है ही नहीं, जो हैं वे बहुसंख्यक हैं या अल्पसंख्यक हैं; अौर बहुसंख्या का अाधार क्या है तो धर्म है अौर जाति है. हमारे लोकतंत्र का यही ध्रुव सत्य है ! संविधान सामने धरा हुअा है, संसद सारा कुछ देख रही है, न्यायपालिका चहुंअोर से अाती अावाजें सुन रही है अौर देश को सांप्रदायिकता अौर जातीयता का अखाड़ा बनाने वाली ताकतें सब कुछ तार-तार किए दे रही हैं. 

पहले राजनीतिक दल थे जो राजनीतिक लाभ के लिए कभी सांप्रदायिक या जातीय खेल खेलते थे लेकिन उन्हें भी इसमें शर्म अाती थी अौर देश के सार्वजनिक जीवन में इतना बल संचित था कि ऐसी प्रवृत्तियां दुत्कारी भी जाती थीं अौर हाशिए पर रहती थीं. वहां से चल कर हम अाज ऐसी स्थिति में पहुंचे हैं कि सांप्रदायिकता-जातीयता के अाधार पर दल बनाए गए हैं, जातीय अाधार पर बहुजन का निर्धारण होने लगा है अौर इतिहास को फिर से लिखने की घोषणाएं की जाने लगी हैं. किसी भी स्वतंत्र स्वायत्त देश को इस बात का अधिकार है ही कि वह अपनी समीक्षा करे अौर अपना इतिहास खोजे ! लेकिन वह खुद ही इतिहास बनने की दिशा में दौड़ पड़े तो संविधान क्या कहेगा अौर क्या करेगा ? बाबा साहब होते तो जरूर कहते कि यह दस्तावेज तुम्हारे हाथ में सौंपते समय ही मैंने कहा था कि यह उतना ही अच्छा या बुरा साबित होगा जितने अच्छे या बुरे बनने की तुम्हारी तैयारी होगी ! अौर महात्मा गांधी ने तो संविधान बनाने की प्रक्रिया से ही खुद को अलग कर लिया था, क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि देश का मन जब तक नया नहीं बनेगा तब तक उसके हाथ में सौंपी हर किताब पुरानी पड़ जाएगी. अांबेडकर समेत देश के सारे बड़े राजनीतिक नेताअों ने मिल कर वह किताब तैयार की जिसकी स्थापनाअों के बारे में उनकी अपनी ही अास्था नहीं थी. दस्तावेज इसलिए ही तो खतरनाक माने जाते हैं क्योंकि वे अपने निर्माताअों को ही अाईना दिखाने लगते हैं. 

हमारा संविधान कहता है कि यह बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुजातीय अौर स्त्री-पुरुष के बीच करीब-करीब बराबर-बराबर बंटा हुअा समाज बहुसंख्यावाद के नारों से चलाया जा सकता है, संभाला जा सकता है. ऐसी हर कोशिश से यह टूट-बिखर जाएगा ! हमने इसे नहीं समझा अौर सांप्रदायिक ताकतों की रस्साकशी ऐसी मची कि देश टूट गया - सैकड़ों सालों की गुलामी में, अंग्रेज भी जो करने की हिम्मत कर सके, हमने खुद ही वह कर लिया ! अौर अाप इतिहास को इतिहास की नजर से देखेंगे तो पाएंगे कि इस अात्मघाती खेल में वे सब भी शामिल थे जो संविधान बना रहे थे. हजारों साल के अथक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रयास से भारतीय समाज की संरचना ऐसी हुई है कि इसे संभालो तो यह कालजयी बन जाएगी; तोड़ो तो रेशा-रेशा बिखर जाएगी. यह उस बुनी हुई चादर की तरह है कि जिसे फैला दो तो हर को पनाह देगी, एक धागा खींच दो तो सारी चादर उखड़ती चली जाएगी. इसलिए बहुसंख्यावाद चाहे जाति के नाम से हो कि धर्म के नाम से कि भाषा के नाम से याकि दूसरे किसी भी नाम से, वह भारतीय समाज को तोड़ेगा,कमजोर करेगा. बहुसंख्यावाद भारत की संकल्पना के मूल पर ही चोट करता है. यह अकारण नहीं था कि गांधी ने ताउम्र, बार-बार अपनी जान दे कर भी इन ताकतों का मुकाबला करने की कोशिश की - चाहे वह लंदन के गोलमेज सम्मेलन में हो कि पुणे के यरवदा जेल में कि दिल्ली में कि कोलकाता में कि नोअाखली में कि बिहार में ! अाज की तारीख में भी किसी को देखना हो कि हमें जाना किधर है, हमें पाना क्या है, हमें छोड़ना क्या है अौर हमें करना क्या है तो उसे हमारे संविधान का विधान देख लेना चाहिए ! संविधान की धाराएं हम चाहे जितनी बार बदलें, खतरा नहीं है लेकिन संविधान की अात्मा एक बार भी बदली तो यह देश हमारे हाथ से निकल जाएगा. 

इसलिए हम सब यह गांठ बांध लें कि गणतंत्र में गण पहला तत्व है, तंत्र दोयम है ! अपनी अहर्निश सेवा-साधना से हम गण को जितना मजबूत बना सकेंगे, गणतंत्र भी उतना ही मजबूत अौर फलदायी बनेगा. यह गांधी-तत्त्व ही संविधान की अात्मा है. 

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