Friday 27 July 2018

सूखे की बारिश




किसान खुशहाल हो गया ! अब सारे किसान नेता अपने-अपने अांदोलन वापस ले लें. उन्होंने जो कभी सपने में भी न देखा, न सोचा था वही धरती पर तारी हो गया है, सूखे अांकड़ों की ऐसी बारिश हुई है कि धरती का कोना-कोना अाप्लावित हो गया है. प्रधानमंत्री ने कबीर-भूमि पर जा कर कई शताब्दियों का ऐसा कॉकटेल बनाया कि इतिहास अौर इतिहासकार सभी चारो खाने चित्त हो गये. फिर उन्होंने ‘मेरे किसान भाइयो’ की तरफ नजर घुमाई अौर फिर एक ऐसी लकीर खींच दी कि किसान इधर अौर समस्याएं उधर रह गईं. किसानों को कर्जमाफी का इंतजार था, प्रधानमंत्री ने उनके खेतों में ‘द्रौपदी का बटुअा’ गाड़ दिया ! मौका इतना बड़ा माना गया कि छुटभैय्यों को नहीं, प्रेस से बात करने खुद गृहमंत्री को ला बिठाया गया. 
गृहमंत्री ने इतिहास को टांग मारते हुए, बिना लाग-लपेट के कहा कि किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इतनी बड़ी वृद्धि कभी नहीं की गई थी ! हमने इतिहास का पन्ना फड़फड़ाया तो तथ्य यह निकला कि हर अाम चुनाव से पहले ‘द्रौपदी का बटुआ’ इसी तरह खोला जाता रहा है अौर अपनी सुविधा की फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाता रहा है. 2008-09 में अौर फिर  2012-13 के चुनावी-दौर में भी ऐसी ही बड़ी वृद्धि की गई थी. यह जरूर है कि उनकी सुविधा की 11 फसलें कुछ दूसरी थीं, इस सरकार की सुविधा की 6 फसलें दूसरी हैं. इस सरकार ने जिन फसलों को चुना है - गेहूं, सोयाबीन, मक्का, दलहन, कपास अौर बाजरा - ये वे ही फसलें हैं जिनकी पैदावार उन इलाकों में ज्यादा होती हैं जिनमें चुनाव अासन्न हैं. अपनी लड़ाई के उपयुक्त हथियार चुनने का अधिकार सबको है बशर्ते अाप लड़ने में ईमानदार तो हों. 
बाजरा, रागी, मूंग, तूवर अादि की खरीदी सरकार कितना करती रही है, यह अांकड़ा देखें हम तो इन घोषणाअों की पोल खुल जाती है. न्यूनतम मूल्य तो सरकार देने वाली है न, बाजार नहीं. सरकार जिसे खरीदती नहीं है या कम खरीदती है अौर बाजार जिनकी खरीद में सबसे ज्यादा लूट करता है उसकी खरीद के न्यूनतम मूल्य में वृद्धि कितना बड़ा धोखा है ! सरकार में इतनी भी शक्ति नहीं है कि वह अपनी नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके, तो उससे यह उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि वह बाजार अौर नौकरशाही की मिलीभगत से चलने वाली लूट को रोक सकेगी ? तो मतलब सीधा है कि सरकार ने न्यूनतम मूल्य में वृद्धि इस लूट को ज्यादा फलप्रद बनाने के लिए अौर उन शक्तिमान किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए की है जिनके बारे में कहा जाता है कि किसान अांदोलनों की चोटी इनके हाथ में है. 
हमारे देश का किसान अांदोलन इस बुरी तरह टूटा हुअा है कि राजनीतिक दलों की बैसाखी लगाए बिना चल ही नहीं पाता है. कोटा ( राजस्थान) में हड़ौती किसान संघ लंबे समय से चल रहा किसानों का प्रभावी संगठन है. उसके अामंत्रण पर जब मैं उस इलाके की एक किसान सभा में बार-बार किसानों को उनकी भूमिका बदलने के लिए सजग कर रहा था तब एक संभ्रांत किसान ने उठ कर मुझसे कहा था : किस किसान को अाप संबोधित कर रहे हैं ! यहां किसान कोई नहीं है. यहां कांग्रेसी किसान हैं, भाजपाई किसान हैं, समाजवादी व बहुजन समाज पार्टी के किसान हैं लेकिन अाप जिस किसान को खोज रहे हैं वैसा किसान अब खोजे नहीं मिलेगा ! लेकिन मैंने अापको तो खोज लिया !, कह कर मैंने बात भटकने नहीं दी लेकिन यही वह सत्य है  जिसे सरकार ने निशाने पर रख कर न्य़नतम समर्थन मूल्य का निर्धारण भी किया है अौर घोषणा भी की  है. 
अाप ही सोचिए न कि प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं कि उनके गद्दीनशीं होने के बाद से रोजगार तो बहुत बढ़ा है लेकिन समस्या यह है कि उसके अांकड़े हमारे पास नहीं हैं. मैं नहीं जानता हूं कि प्रधानमंत्री ऐसा कह कर कहना क्या चाहते हैं लेकिन इससे जो भयंकर सत्य बाहर अाता है वह यह है कि सरकार के पास अांकड़े जमा करने अौर उन अांकड़ों के अाधार पर गणित बनाने का तंत्र नहीं है. फिर हमें यह पूछना ही चाहिए कि जिस सकार के पास अांकड़े जमा करने का तंत्र भी नहीं है अौर ज्ञान भी नहीं वह करोड़ों-करोड़ किसान भाइयों के कृषि-खर्च, बीज-खाद-पानी की जरूरत, कर्ज की अावश्यकता, खेती में हुए नुकसान, भरपाई की हैसियत अौर अात्महत्या के शिकारों के अांकड़े कैसे प्राप्त करती है अौर उस अाधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य भी तै कर लेती है ? क्या यह सच नहीं है कि हमारा किसान जिस जमीन पर जीता-मरता-पसीने बहाता-अन्न उगाता है अौर फिर लाखों की संख्या में अात्महत्या कर लेता है उस गांव-जमीन तक सरकार की कोई पहुंच नहीं है ? अौर क्या यह भी उतना ही बड़ा सच नहीं है कि गांव-कस्बे की जिस मंडी में जीवन-मौत का यह सौदा होता है वहां सरकार की कोई हैसियत नहीं है ? नौकरशाही प्रायोजित दौरों से, हैलिकॉप्टरों के हवाई सर्वेक्षणों से अौर चमकीली चुनावी रैलियों से जो गांव देखे जाते हैं उनका असलियत से कोई रिश्ता होता नहीं है.   सच यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल 6% किसानों तक पहुंचता हैं. 94% फीसदी किसान इस सरकारी तंत्र तक पहुंच भी नहीं पाते हैं अौर न उनमें इतनी ताकत होती है कि मंडी में किसी तरह लाया अपना अनाज बिन बिका वापस ले जाएं अौर तब तक उसे घर पर रोके रखें जब तक बाजार का दम न टूट जाए अौर वह उन्हें वाजिब कीमत न अदा करे. देश के सारे गांवों-कस्बों में ऐसे दलालों की दुरभिसंधि खुले अाम बनी हुई है जो लाचार किसानों को कहती है कि न्यूनतम मूल्य बाजार में मिलेगा नहीं, न्यूनतम मूल्य की घोषणा करने वाली सरकारी व्यवस्था बनी नहीं है, कब अौर कैसे बनेगी हम जानते नहीं हैं. नकद पैसा चाहिए तो हमारी कीमत पर अनाज उतार जाअो अौर नकद पैसा ले कर घर जाअो. सौदा हो जाता है, किसान अपना कफन खरीद कर लौट जाता है. फिर उसी दिन देर रात से या अगले दिन मुफीद समय पर यही चंडालचौकड़ी लाचारी में बेचा वही अनाज अपनी टीम के ‘सरकारी अधिकारी’ को न्यूनतम मूल्य पर बेचता है अौर दोनों अपने-अपने हिस्से की कमाई संभालते घर जाते हैं. 
यह अगर सच नहीं है तो न्यूनतम मूल्य की घोषणा करने वाली बहादुर सरकार हमें बताए कि किसानों की अात्महत्या में न्यूनतम गिरावट भी क्यों नहीं अा रही है ? पैदावार बढ़ी है लेकिन बाजार में अनाज की जगह क्यों नहीं है ? सरकारों का भोग-विलास अविश्वसनीय सीमा छू रहा है लेकिन गांव-किसान-किसानी की दरिद्रता का चक्र थम नहीं रहा है, तो सरकारी विशेषज्ञ क्या नया रास्ता निकाल रहे हैं ? जवाब एक ही है : चुनाव के मद्देनजर ऐसे सवाल पूछे नहीं जाते हैं ! सूखे में हो रही इस बारिश का यही सच है. ( 08.07.2018 )              



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