Sunday 15 October 2017

अांबेडकर डर-डर कर चलता सफर

  


यह हिसाब कोई लगाता नहीं है लेकिन किसी-न-किसी को लगाना चाहिए कि भारतीय समाज में बाबसाहेब अांबेडकर ने अपनी दलित पहचान को हथियार बना कर जो राजनीतिक सफर शुरू किया था, वह इतने वर्षों कहां पहुंचा है अौर अब अाज इसकी संभावनाएं कितनी बची हैं अौर कितनी सिद्ध हुई लगती हैं ! यह जानना या इसका अाकलन करना जरूरी इसलिए नहीं है कि इससे बाबासाहेब की महत्ता में कोई फर्क पड़ेगा याकि इसके अाधार पर हम उन्हें विफल करार दे सकते हैं. सवाल उनकी महत्ता या विफलता का नहीं है बल्कि समाज के हर उस अादमी की सार्थकता का है जो सामाजिक न्याय व समता के दर्शन में किसी भी स्तर पर भरोसा करता है. एक स्तर पर यह इसका भी अाकलन हो सकता है कि दलित नेतृत्व के नाम पर अाजादी के बाद जो राजनीति चली अौर जिसने बाबासाहेब को अाक्रामक प्रतीक बना कर सबको धमकाने-डराने का काम किया, वह सारत: क्या साबित हुई अौर उसमें अब कितनी अौर कैसी संभावना बची है.

अांबेडकर को हिंदू समाज ने जैसा जीवन दिया, अांबेडकर ने उसे वैसा ही प्रत्युत्तर दिया अौर वही उसे वापस लौटाया ! उनके मन व चिंतन में हम गहरी प्रतिक्रिया अौर तीखा विक्षोभ देखते हैं, वह वहां से अाया है. हम उसे अस्वीकार या स्वीकार कर सकते हैं लेकिन इन दोनों से ज्यादा बड़ी बात यह है कि हम उसे समझ सकते हैं. जिसे हम समझ सकते हैं वह प्रतिभाव बहुत ठोस होता है. अांबेडकर के संदर्भ में वह इतना स्वाभाविक अौर स्वाभिमान से भरा है कि उसकी तरफ से अांख फिराना अांख का अपमान होगा. इसलिए अांबेडकर के वक्त में किसी के लिए भी उनसे अांख चुराना संभव नहीं हुअा था, अांख मिलाने की स्थिति भी बिरलों की ही थी. अांख मिलाने वालों में गांधी सबसे अव्वल थे.

गांधी अौर अांबेडकर दोनों का बोधिवृक्ष एक ही था - जातीय अपमान व घृणा ! गांधी बोध को तब उपलब्ध हुए जब वे दक्षिण अफ्रीका के मारित्सब्बर्ग स्टेशन पर, एक सर्द रात में रेल के डिब्बे से सामानसहित निकाल फेंके गए थे. अांबेडकर जन्म से ही ऐसे दारुण अनुभवों से गुजरते हुए बोध को तब उपलब्ध हुए जब बडोदरा के उस पारसी होस्टल से उन्हें सामानसहित निकाल फेंका गया जिसमें बडोदरा महाराजा के निर्देश पर, उनके एक विशिष्ट मंत्री की हैसियत से उन्हें रखा गया था. गांधी दक्षिण अफ्रीका के उस स्टेशन से उठे तो कटुता व विक्षोभ के तमाम बंधनों को काटते हुए एक नई दुनिया के सर्जन में प्राणपण से जुट गये - एक ऐसी दुनिया, जो मूल्यों के लिहाज से भी अौर व्यवहार के लिहाज से भी अाज की दुनिया से एकदम भिन्न होगी. अांबेडकर बडोदरा के होस्टल से उठे तो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर इतनी प्रखरता से भासमान हुए कि लोगों की नजरें चौंधिया गईँ. अचानक ही तब के अछूत समाज को अपनी खोई हुई अावाज अौर अपना खोया हुअा व्यक्तित्व मिला अौर वह बोलता-चलता अौर हर विमर्श में अपनी जगह बनाता दिखाई देने लगा.

 लेकिन एक बड़ा फर्क भी हुअा - गांधी जब अपनी नई दुनिया का नक्शा बनाते अौर उसके कील-कांटे गाड़ते-ठोकते थे तो वह बुनियादी परिवर्तन के लिए ही होता था. उन्हें अपनी नई दुनिया अपने लिए नहीं बनानी थी, सारे इंसानों के लिए बनानी थी अौर इसलिए उन्हें ढांचे व मन दोनों स्तरों पर लगातार काम करना था. अांबेडकर के लिए सारे इंसानों का मतलब अपने अछूत समाज से शुरू होता था अौर अाज के समाज में जहां उसकी जगह बनती थी, वहां समाप्त हो जाता था. राजनीति का मतलब ही यही होता है - जो अाज है उसमें अपनी जगह बनाना; जो प्राप्त है उसमें से अपना हिस्सा लेना ! गांधी का रास्ता अलग जाता था क्योंकि वह अलग संसार बनाने में लगा था. यह फर्क था, है अौर जब तक हम इसे बुनियादी तौर पर समझ नहीं लेंगे तब तक बना रहेगा. इसलिए गांधी को यहीं छोड़ कर हम अागे चलते हैं. 

भारतीय समाज में अपने अछूत समाज के लिए जगह बनाने के अपने धर्मयुद्ध में अांबेडकर कहां पहुंचे अौर उनका समाज कहां पहुंचा, इसका अाकलन अाज करना शायद संभव भी है अौर जरूरी भी क्योंकि उनके नाम पर चलाई गई पूरी दलित राजनीति अाज अौंधै मुंह गिरी अौर बिखरी पड़ी है. तब वाइसरॉय की कौंसिल में जगह पाने अौर बाद में लोकसभा में जगह बनाने की अपनी कोशिशों के कारण अांबेडकर की वही विरासत बनी, वही उनके समाज ने पहचानी अौर वही संभाली भी. अपने अाखिरी दिनों में अांबेडकर खुद भी इस कटु सत्य को पहचान सके थे अौर क्षुब्ध-लाचार इसे देखते रहे थे. उनका यह अवसान भी करीब-करीब गांधी की तरह ही था. अाखिरी दिनों में अांबेडकर के सेवक रतिलाल रत्तू ने इसका मार्मिक विवरण लिखा है. 

भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाने की अांबेडकर की वह कोशिश बहुत रंग नहीं ला सकी क्योंकि ताउम्र अांबेडकर कभी भी पूरे दलित समाज के सर्वमान्य नेता नहीं बन सके. प्रचलित राजनीति में इस सर्वमान्यता से प्राप्त संख्याबल का ही निर्णायक महत्व होता है. इसी गणित से हिंदू समाज की सिरमौर जाति ब्राह्मण समाज से अाने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू को चलना पड़ा, स्त्री-जाति से अाई इंदिरा गांधी को चलना पड़ा, यही गणित था जिसकी चूल बिठाने में कांशीराम की सारी उम्र गई अौर यही समीकरण है कि जिसने मायावती से ले कर तमाम दलित नेताअों को हलकान कर रखा है अौर अाज सभी अपने-अपने पिटे मोहरे संभालने में लगे हैं. सवाल है कि क्या सत्ता का समीकरण बिठा लेने से समाज का समीकरण भी बनता अौर बदलता है ? अौर शायद यह भी कि क्या समाज का समीकरण न बदले तो सत्ता का बदला हुअा समीकरण टिकाऊ होता है ? जवाब हम अांबेडकर के नाम पर चलने वाली राजनीति में खोजें तो पाएंगे कि समाज के सामान्य विकास का जितना परिणाम दलित समाज पर हुअा है, उसके अलग या अधिक राजनीति ने उसे कुछ भी नहीं दिया है. 

दलित राजनीति के नाम पर कई नेता बने भी हैं अौर स्थापित भी हो गए हैं लेकिन उनका दलित समाज से वैसा अौर उतना ही नाता है जितना किसी भी सवर्ण नेता का उसके अपने समाज से है. अगर हम ऐसा कहें कि तमाम दलित नेता सवर्ण राजनीतिक नेताअों की अच्छी या बुरी प्रतिच्छाया बन कर रह गये हैं, तो गलत होगा क्या ? सत्ता तक पहुंचने के तमाम समीकरणों का अनिवार्य परिणाम यह हुअा है कि दलित राजनीति जोड़-तोड़ का, राजनीतिक सौदा पटाने का अखाड़ा बन गई है अौर धीरे-धीरे वह पूरी तरह बिखर गई है. दलित समाज अौर दलित राजनीति के बीच भी उतनी बड़ी व गहरी खाई खुद गई है जितनी सवर्ण राजनीति व सवर्ण समाज के बीच है. जिस भूत से लड़ने का अांबेडकर का संकल्प था वही भूत  दलित राजनीति को कहीं गहरे दबोच चुका है. तब अांबेडकर की इस सोच की मर्यादा समझ में अाती है कि जैसे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है यह भ्रामक है वैसे ही समाज परिवर्तन सत्ता की ताकत से होता है, यह भी भ्रामक है. 

सत्ता पाने की अाराधना अौर समाज बदलने की साधना दो भिन्न कर्म हैं जो भिन्न मन व संकल्प से करने होते हैं. समाज बदलेगा तो एक नई राजनीति बनेगी ही लेकिन इसी राजनीति के बंदरबांट से कोई नया समाज बनेगा यह वह अात्मवंचना है जिसे पहचानने में अांबेडकर विफल हुए थे अौर दलित राजनीति जिससे लहूलुहान पड़ी है. यहां से अागे का कोई रास्ता तभी बनेगा जब गांधी-अाबेडकर का नया समीकरण हम तैयार कर सकेंगे. अाज भारतीय समाज इसी मोड़ पर खड़ा किसी नये अांबेडकर की प्रतीक्षा कर रहा है. ( 14.10.2017 ) 

1 comment:

  1. सुन्दर और सुचिंतित आलेख। प्रशांत जी के गद्य की खुशबू भी आकृष्ट करती है।
    - राजीव रंजन गिरि

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