Tuesday 28 November 2017

अापने ठीक कहा है उप-राष्ट्रपतिजी !


अभी जब कोई कुछ कह नहीं रहा बल्कि सभी चिल्ला रहे हैं हमारे उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कुछ कहा है ! उन्होंने जो कहा है, उसमें खास कुछ नहीं है लेकिन जैसे माहौल में जिस तरह उन्होंने यह  बात कही है उससे वह बात बहुत खास ही नहीं बन गई है वरन बहुत जरूरी भी बन गई है.

किसी फिल्म या किसी रचना या किसी वक्तव्य को ले कर यदि देश में ऐसी अफरा-तफरी मच जाए कि देश मछलीबाजार बन जाए अौर व्यवस्था बनाने की जिनकी जिम्मेवारी हो वे व्यवस्था का माखौल उड़ाने में लग जाएं तो मानना चाहिए कि देश गंभीर रूप से बीमार है. मतलब देश को गहन इलाज की तत्काल जरूरत है. जब अादमी कैंसर से पीड़ित हो तब डॉक्टर यह नहीं देखता है कि उसकी सूरत कैसी है कि वह कितनी सीढ़ियां तेजी से चढ़ लेता है कि वह कितनी दंडबैठकी लगाता है कि वह कितना खाता है. डॉक्टर जानता है कि मामला वहां है जहां कहते हैं कि बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी ! इसलिए वह दूसरा कुछ भी न देखते-सोचते, इलाज में जुट जाता है. ऐसा ही देश व समाज के साथ भी होता है. अाप दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थ-व्यवस्था हैं कि अाप अपने पड़ोसियों पर भारी पड़ते हैं कि दुनिया सारी अापकी ही सुनती है जैसी बातें भूल कर इस बीमार देश-समाज के इलाज की बात सोचें हम, उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा है. एक साहित्यिक मेले में बोलते हुए उन्होंने कहा कि यदि देश के लोग एक-दूसरे को हिंसक धमकियां दे रहे हों, शारीरिक क्षति पहुंचाने की चुनौती उछाल कर करोड़ों रुपये इनाम देने की बात कह रहे हों तो किसी लोकतंत्रिक देश में यह स्वीकार्य नहीं हो सकता है. अापको दूसरे से शिकायत हो सकती है, अाप किसी से असहमत हो सकते हैं तो अापको जिम्मेदार अधिकारी के पास जा कर अपनी शिकायत या असहमति दर्ज करानी चाहिए अौर समुचित काररवाई का इंतजार करना चाहिए. लेकिन अाप शारीरिक दंड देने या हिंसक धमकियां उछालने की बात नहीं कर सकते हैं. 

उप-राष्ट्रपति जिस मामले का सीधा संदर्भ ले रहे थे वह फिल्म ‘पद्मावती’ से जुड़ा है. इतिहास में रानी पद्मावती भले दो पंक्तियों से ज्यादा की जगह न घेरती हों लेकिन इतिहास के पन्नों से निकल कर अाज के वर्तमान में उन्होंने कोई डेढ़ अरब के इस देश को हतप्रभ कर रखा है. इतिहास कहानी भी है, सच्चाई भी; इतिहास रास्ता भी है अौर रास्ते का पत्थर भी; वह अांख भी है अौर अंधता भी; वह कान भी है अौर वज्र बहरापन भी ! मतलब इतिहास तो अपनी जगह है अौर रहेगा भी, देखना तो यही है कि अाप उससे बरतते कैसे हैं ! अाप उसे विकृत कर सकते हैं, तोड़-मरोड़ सकते हैं अौर उसका बेजा इस्तेमाल भी कर सकते हैं लेकिन अाप उसे बदल नहीं सकते अौर न उसे रास्ते से हटा सकते हैं. वह मील का पत्थर भी है अौर अापके साथ निरंतर सफर पर भी है. इसलिए अाज का हिंदुस्तान देख कर मुझे अंदाजा होता है कि इतिहास के अंधों का देश कैसा होता होगा !  

इतिहास बताता है कि 1303 ई. में दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316)  ने लंबी लड़ाई अौर नाकाबंदी के बाद चित्तौड़गढ़ को जीता था. इस घटना के 237 साल बाद, 1540  ई. में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी में ‘पद्मावत’ लिखा जो चित्तौड़ फतह की पूरी कहानी का काव्यांतर है. उसी कहानी से रानी पद्मावती का जन्म होता है अौर इतिहास कहानी का रूप लेता है. फिर इसी को अाधार बना कर दूसरों ने भी पद्मिनी या पद्मावती पर कुछ-कुछ लिखा है अौर हम देखते हैं कि हर की पद्मिनी भिन्न-भिन्न है. अगर कोई एक बात समान है इन सबमें तो वह यह कि पद्मिनी बेहद खूबसूरत है. उसकी यही खूबसूरती किंवदंती बन कर सैकड़ों साल का सफर तै करती रही है अौर अाज भी करती है अौर संजयलीला भंसाली जैसे लोग अपनी कल्पना का घोड़ा दौड़ाते हैं. 

एक कथा ऐसी भी है कि मेवाड़ के राजा ने जिस एक व्यक्ति को किसी अपराध में राज से निकाल दिया था उसी ने खिलजी के दरबारियों में अपनी जगह बनाई अौर बदला निकालने के लिए उसने ही खिलजी के कानों में पद्मिनी के सौंदर्य की कथा ऐसी भरी कि खिलजी उसे देखने अौर पाने को बेचैन हो उठा. उसने धोखे से चित्तौगढ़ के राजा रतन सिंह को बंदी बना लिया अौर फिर उनकी जान का सौदा पद्मिनी से किया. राजपूती अान-बान-शान खौल उठा अौर राजपूतों ने अपने राजा को छुड़ाने की लड़ाई उनके किले में घुस कर छेड़ दी. खिलजी की फौज बहुत सधी अौर युद्धकुशल थी. राजपूतों को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा अौर अंतत: पराजय भी कबूल करनी पड़े. विजयी खिलजी जब किले में दाखिल हुअा तो उसने पाया कि रानी पद्मावती ने दूसरी महिलाअों के साथ जौहर कर लिया था. कथा यहीं पूरी हो जाती है. 

इतिहास में अाप खोजेंगे तो महारानी पद्मिनी का कोई ठोस जिक्र नहीं मिलता है. मतलब यह कहना इतिहाससंगत होगा कि पद्मिनी इतिहास नहीं, इतिहास की कहानी है. फिल्मी पर्दे पर पद्मिनी की कहानी को पकड़ने की कोशिश पहले भी कई बार हुई है जिसमें ‘चित्तौड़ की रानी’ नाम की तमिल फिल्म खूब पसंद की गई थी जिसमें वैजयंतीमाला पद्मिनी बनी थीं. श्याम बेनेगल ने जब अपना अपूर्व टीवी धारावाहिक ‘भारत : एक खोज’ बनाया तो उसका पूरा एक एपिसोड खिलजी-चित्तौड़ युद्द पर था जिसमें पद्मिनी का प्रसंग भी अाता है. हाल के वर्षों में पद्मिनी पर एक पूरा टीवी धारावाहिक भी बना है. मतलब यह कि पद्मिनी को लेकर इतिहास जितना ही चुप है, कलाकार-फिल्मकार उतने ही मुखर रहे हैं. हर फिल्मकार ने अपनी तरह की पद्मिनी बनाई है लेकिन सभी ने उसके सौंदर्य अौर उसकी नृत्य-प्रवीणता को केंद्र में रखा ही है. 
  
संजयलीला भंसाली न तो इतिहासकार हैं अौर न उनकी फिल्मों का कोई एेतिहासक संदर्भ है. वे हमारे वक्त के, सेल्यूलाइड के सिद्ध किस्सागो हैं. वे कभी इतिहास के पन्ने पलटते भी हैं तो सिर्फ इस खोज में कि कहां, क्या ऐसी कथा छुपी-दबी है कि जो बड़े पर्दे पर पंख फैला सकती है. वे बड़े दिल से कैमरे से कथा रचते हैं अौर पूरी तन्मयता के साथ उसे पर्दे पर उतारते हैं. वे कुछ कहने वाले फिल्मकार नहीं हैं कि अापको उनकी फिल्म का जवाब देना पड़े. उनकी फिल्म ‘रामलीला’ को ले कर शोर मचाने वालों ने यह समझा या नहीं पता नहीं लेकिन हमें समझना ही चाहिए कि ‘रामलीला’ का शोर उन्होंने इतना भर कर के शांत कर दिया कि नाम बदल दिया - गोलियों की रासलीला - राम  लीला ! न कहानी बदली, न कोई दृश्य काटा, बस नाम को थोड़ा बदल दिया. फिल्म बहुत अच्छी बनी थी, खूब कमाई की उसने ! ऐसा ही उन्होंने ‘बाजीराव मस्तानी’ के साथ भी किया अौर एक अच्छी फिल्म देखने का संतोष हमें मिला. एतराज उठाने वाले उनकी ‘देवदास’ पर भी एतराज उठाते रहे लेकिन शरत बाबू की कथा से अौर पहले से इसी कृति पर बनी फिल्मों से अलग ले जाकर उन्होंने अपनी ‘देवदास’ रची अौर अपनी तरह से सफल भी हुए. संजयलीला भंसाली बोलते कम हैं; जो कुछ भी बोलते हैं अपनी फिल्मों से ही बोलते हैं.  

लेकिन अब सभी बोल रहे हैं - वे सब जिन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा है, जिन्होंने फिल्म नहीं देखी है. वे बोल रहे हैं इतना ही नहीं है, वे दूसरे किसी को बोलने देना नहीं चाहते हैं. वे किसी का सर,किसी की नाक, किसी का जौहर करने को दूसरों को ललकार रहे हैं. कायर इतने हैं ये सभी कि जातीय गौरव का यह काम खुद करने को अागे नहीं अा रहे, किराये पर यह काम करवाना चाहते हैं. उप-राष्ट्रपति ने इन्हीं लोगों को सावधान किया है कि लोकतंत्र में इसकी इजाजत नहीं है. लेकिन उप-राष्ट्रपति जो नहीं कह सके वह भी इसी के साथ कहने जैसी बात है कि हिंसा को उकसाने अौर उन्माद खड़ा करने की ऐसी कोशिेश यदि लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं है तो वैसी सरकारें कैसे स्वीकार्य हो सकती हैं जो इनकी पीठ थपथपा रही हैं ? सही-गलत फिल्मों का निर्धारण करने के लिए सेंसर बोर्ड नाम की एक संस्था बनी हुई है जिसकी अनुमति के बिना कोई भी फिल्म दर्शकों तक पहुंच नहीं सकती है. उसने अब तक ‘पद्मावती’ को प्रदर्शन की स्वीकृति नहीं दी है. उसकी स्वीकृति हो तब भी जिन्हें एतराज होगा वे अदालत जा सकते हैं. 

‘पद्मावती’ यदि इतिहास नहीं है तो उसकी परिकल्पना में इतिहास से छेड़छाड़ जैसी बात ही बेबुनियाद है. दूसरी बात रह जाती है जनमानस में बैठी छवि की, तो उसकी फिक्र भी की जानी चाहिए. लेकिन संजयलीला ने ऐसा कोई काम किया है कि नहीं, यह भी तो फिल्म देख कर ही तै होगा न !  फिर जिन मुख्यमंत्रियों ने बिना किसी अाधार के फिल्म का प्रदर्शन अपने राज्य में न होने देने की घोषणा की है, उनका क्या ? क्या हर राज्य का मुख्यमंत्री अब अपने राज्य का सेंसर बोर्ड अधिकारी भी बन गया है ? क्या ये सब अब मुख्यमंत्री नहीं, रियासतों के महाराजा बन गए हैं जो अपने फरमान अलग जारी करेंगे ? क्या लोकतंत्र में यह स्वीकार्य है ? संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. अगर भीड़ उसका हनन करती है तो उप-राष्ट्रपति उसे खारिज करते हैं. अगर सरकारें करती हैं तो क्या उसका निषेध नहीं करना चाहिए तथा इस असंवैधानिक कृत्य के लिए इन सबको बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए ? 

सारा देश भीड़ में बदल दिया जाए अौर फिर चतुर व अवांछित लोग अपनी दूकानें खोल लें, यह लोकतांत्रिक राजनीति का दर्शन नहीं है. संजयलीला भंसाली की ‘पद्मावती’ ने एक जौहर सजा दिया है जिसमें सरकारी व भीड़वादी सारे अलोकतांत्रिक रवैयों अौर मिजाजों का दहन कर देना चाहिए. उप-राष्ट्रपति की चेतावनी तभी सार्थक होगी. ( 28.11.2017) 

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