राहुल
मौनी बाबा नहीं हैं ! खूब बोलते हैं. उनकी दिक्कत दो स्तरों पर है - वे अपना कुछ
नहीं बोलते, दूसरों के कहे पर प्रतिक्रिया करते हैं. जब अाप प्रतिक्रिया
में बोलते हैं तो हमेशा एजेंडा दूसरे का तय किया होता है. ऐसे में जरूरत होती है
तुर्की-ब-तुर्की बोलने की, नहले पर दहला मारने की. राहुल को यह कला
अाती ही नहीं है. नरेंद्र मोदी को अाज की राजनीति को सबसे बड़ी देन अगर कुछ है तो
जीभ चलाने की. वे उन लोगों में हैं जो मानते हैं कि गाल के अागे दीवाल नहीं टिकती
है. तो कांग्रेस अौर भाजपा का मुकाबला हो नहीं पाता है. राहुल के बोलने की विशेषता
यह है कि वे ईमानदारी से बोलते हैं, अौर उतना ही बोलते हैं जितने की जरूरत
होती है. अौर यह भी सच है कि अापके पास जब अपना ‘कमाया’ बहुत कुछ हो नहीं तो
बोल कर भी अाप कितना बोलेंगे !
लेकिन
राहुल बोले - अपनी धरती पर नहीं तो अमरीका की दिव्य धरती पर बोले ! उस मिट्टी की
सिफत ही यह है कि वहां जो जाता है सर्वज्ञानी होने का भ्रम पाल बैठता है. अमरीका
के बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक अायोजन में,अायोजकों ने जिसका
नाम रखा था ‘ 70 की उम्र का भारत : अागे का रास्ता’
रखा
था, राहुल
गांधी खुल कर बोले. अाज देश की राजनीति जहां पहुंच कर ठिठक गई है अौर जहां से अागे
का रास्ता ऊपर या नीचे वाले ‘खुदा’ को ही मालूम है,
यह
बड़ा मौका था कि राहुल खुद का रास्ता साफ करते. मौका भी था अौर दस्तूर भी; राहुल ने दोनों गंवा
दिया. राहुल ऐसा कुछ भी नहीं कह सके कि जिससे देश का मतदाता यह सोचे कि चलो,
इस
बार इसे मौका देते हैं ! मोदी को भी ऐसे ही मौकों पर सुनते-सुनते लोगों ने मौका
देने का मन बनाया था.
राहुल
ने अपने देश में परिवारवाद के चलन को स्वीकार कर, अपने संदर्भ में उसे
मान लेने की वकालत की. वे यह नहीं कह सके कि यह चलन गलत है, सामंतवाद/राजाशाही का
अवशेष है अौर यह भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में प्रचलित है. जिस अमरीका
में वे बोल रहे थे उस अमरीका में ही बुश-परिवार, केनेडी-परिवार तथा कई
दूसरे उदाहरण मिलते हैं. श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान में भी इस
परिवारवाद का बोलबाला है. इंग्लैँड, जापान समेत एशिया, यूरोप के कितने ही
देश अाज भी अपने राजपरिवारों को ढोते हैं. कहना तो राहुल को यह था कि यह सब खत्म
हो, यह
मैं चाहता हूं अौर इसलिए ही मैंने अब तक अपनी पार्टी की पैदल सेना की तरह काम किया
है अौर विरासत के रूप में मिल रही गद्दी को इंकार करता रहा हूं. अब देश-समाज अौर
अपनी पार्टी के मंच से पर्याप्त काम करने के बाद मैं तैयार हूं कि जिस भी तरह की
जिम्मेदारी मुझे दी जाएगी, मैं उसे निभाऊंगा. उनके जवाब में न तो
ऐसी सफाई थी, न अात्मविश्वास था अौर न देश को भरोसा दे सकने लायक गहराई थी.
राहुल
ने जो कुछ वहां अमरीका में कहा वह दूसरे के सामने रोना रोने जैसा भाव देता है जबकि
उन्होंने ऐसा ही सब यहां कहा होता, अपनी पार्टी के मंचों से ऐसे सवाल खड़े
किए होते तो वह देश से अौर पार्टी से बात करने जैसा बन सकता था अौर उनकी अपनी छवि
गढ़ सकता था. उन्होंने कभी यहां तो देश से या पार्टी से नहीं कहा कि 2004 में बनाया गया
कांग्रेस का ‘विजन डाक्यूमेंट’ 10 साल की एक्सपायरी के साथ बना था अौर
उसने 2010-11में ही दम तोड़ दिया था अौर उस मुर्दा दस्तावेज को अब तक ढोकर
हम देश व पार्टी की कुसेवा कर रहे हैं ? 2010-11 से अब तक के तमाम
चुनावी युद्धों की कमान राहुल के पास ही रही है. सरकार व कांग्रेस पार्टी पर उनके
परिवार का जैसा दबदबा था अौर है, उसके बाद उस मुर्दा दस्तावेज को ले कर
बार-बार मतदाता के पास जाने के अपराधी अाप नहीं, दूसरे कैसे हो सकते
हैं ? नया
नजरिया बनाना अौर उसे दस्तावेज की शक्ल दे कर पार्टी से पारित करवाना व देश के
सामने पेश करना, क्या यही काम उनका नहीं था ? वे कह रहे थे कि 2012
में
कभी ऐसा हुअा कि एक किस्म की अहमन्यता या घमंड कांग्रेस पर हावी हो गया; वे वहां अमरीका में
कह रहे थे अौर मैं यहां हिंदुस्तान में देख रहा था कि थोड़ा अागे-पीछे यही दौर था
कि जब राहुल अपनी विरासत संभालने की गंभीर तैयारी में लगे थे अौर उनके सारे
नौसिखुअा सिपहसालार तालियां बजा कर उनकी अपरिपक्वता को अासमान पर पहुंचा रहे थे.
अपनी ही सरकार के खिलाफ उनके बचकाना तेवरों का यह दौर था, इसी दौर में वे
सार्वजनिक जगहों पर अपनी सरकार द्वारा पारित बिल की चिंदियां उड़ा रहे थे. यही दौर
था जब प्रियंकापति वाड्रा दोनों हाथों जमीन समेट रहे थे अौर कांग्रेस की राज्य
सरकारें उसमें उनकी बेकायदा अौर अनैतिक मदद कर रही थीं. बेकायदा अौर अनैतिक - इन
दोनों शब्दों को इस कदर तोड़-मरोड़ दिया गया है कि अब इनका कोई संदर्भ ही नहीं रह
गया है. फिर भी ये शब्द जीवित हैं अौर इनसे जुड़ी विभावनाएं बड़े-बड़े शूरमाअों को
धूल चटा चुकी हैं. राहुल ने यह नहीं कहा कि जिस दौर में वह घमंड पैदा हुअा,
उस
दौर में मैं ही निर्णायक था अौर इसलिए उस चूक की जिम्मेवारी मेरी है.
राहुल
ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा कि वे बहुत माहिर वक्ता हैं, संवाद साधने की उनकी
कला खूब है अौर यह भी कि वे एक ही सभा के, एक ही भाषण में कई सामाजिक जमावड़ों को
अलग-अलग संदेश दे लेते हैं. अच्छा है कि राहुल अपने प्रतिपक्षी के गुण भी देख लेते
हैं लेकिन यह दायित्व भी उनका ही है कि कांग्रेस के सबसे बड़े नेता के नाते वे
इसकी काट भी खोजें. यह संभव नहीं है कि राहुल मोदी की तरह बोलें; जरूरी भी नहीं है
लेकिन यह संभव भी है अौर जरूरी भी कांग्रेस में अलग-अलग प्रतिभाअों को अागे अाने का
माहौल मिले अौर वे अपनी तरह से देश से बातें करें. यह काम न तो राहुल खुद कर पाते
हैं अौर न पार्टी किसी दूसरे को यह करने देती है. प्रतिभाअों को बधिया करने की
कीमत कांग्रेस अाज चुका रही है. इसका अहसास राहुल को हुअा है, ऐसा कोई संकेत भी तो
नहीं मिला अमरीका में. हां, अमरीका जा कर राहुल ने यह रहस्य खोला कि
वे कांग्रेस की ही नहीं, देश की कमान भी संभालने को तैयार बैठे
हैं. उन्होंने कहा कि वे इस जिम्मेवारी को उठाने से हिचक भी नहीं
रहे हैं, वे वैसे मूर्ख भी नहीं हैं जैसा भाजपा का प्रचार-तंत्र,
जो
सीधे प्रधानमंत्री के हाथ में काम करता है, प्रचारित करता है. प्रकारांतर से इससे
दो बातें पता चलीं - हमें यह पता चला कि राहुल पार्टी व देश दोनों की जिम्मेवारी
लेने को तैयार हैं लेकिन माताजी की कांग्रेस उन्हें वह मौका दे नहीं रही है;
दूसरा
यह कि प्रधानमंत्री के सीधे निर्देश पर काम करने वाले भाजपा के प्रचार-तंत्र का
सामना कांग्रेस का प्रचार-तंत्र नहीं कर पा रहा है. फिर प्रशांत किशोरों का फायदा
क्या !
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