वक्फ विवाद को अपनी मर्जी से हल करने के लिए बनाई गई संसदीय समिति की लंबी बैठकों में जो बात न कही जा सकी, न सुनी जा सकी, सुप्रीम कोर्ट ने वह सारा सुना भी, सरकार से टेढ़े-मेढ़े सवाल पूछे भी और फिर कहा कि इन सबका सरकारी जवाब आ जाए फिर हम अपनी बात कहेंगे. उसने सरकार को ‘स्टैच्यू’ कर दिया है. सरकार अपने जवाबी हलफनामे में बहुत कर के भी इतना ही कह पा रही है कि ‘वक्फ एमेंडमेंट एक्ट 2025’ मजबूत संवैधानिक आधार पर खड़ा है. वह मजबूत संवैधानिक आधार क्या है, यह बात उसके जवाब में कहीं आई नहीं है.
अदालत के रुख से कुपित सरकार के इशारे पर भारतीय जनता पार्टी के दो सांसदों ने हमारे चीफ जस्टिस संजीव खन्ना साहब को इसके पीछे का ‘शैतानी दिमाग’ तथा गृहयुद्ध भड़काने वाला बता दिया. बात जो कहनी थी, कह दी गई; बात जहां पहुंचनी थी, पहुंचा दी गई फिर पार्टी अध्यक्ष ने कहा कि हम इन सांसदों से नहीं, उनकी बातों से ख़ुद को अलग करते हैं. यह कुछ वैसा ही हुआ जैसे यह होता रहा है कि चोरी का माल घर में रख लिया और चोर को पिछले दरवाजे से भगा दिया.
कहना कठिन है कि अपने अंतिम फैसले में अदालत क्या रुख लेती है. अभी तक का अनुभव यही रहा है कि हमारी सर्वोच्च अदालत कहती कुछ है और लिखती कुछ है. हम अब तक यह भी नहीं समझ सके हैं कि चीफ जस्टिस यदि देश के भीतर चल रहे तमाम गृहयुद्धों के ‘मास्टरमाइंड’ हैं, तो वे अपने पद पर बने कैसे हैं; और यदि ऐसा नहीं है तो सरकारी सांसद पर अदालत की अवमानना की कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है ? अरुंधती राय व निशिकांत दुबे में अदालत इतना फर्क कैसे कर सकती है ? यह मुकदमा किस अदालत में पेश किया जाए ?
अखबारों की मानें तो प्रधानमंत्री ने वक्फ बिल पारित होने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि इस कानून के द्वारा उन्होंने कांग्रेस की चाल को नाकाम कर दिया है. क्या कांग्रेस की चालों को नाकाम करने के लिए कानून बनते या बदलते हैं ? क्या सिर्फ इस कारण से एक गैर-कानूनी कानून देश का कानून बन गया ? हमारा संविधान किसी भी सरकार को इसकी इजाजत नहीं देता है कि उसका कोई भी कानून या कदम ऐसा हो कि जो इस देश के नागरिकों के बीच भेद करता हो.
आज यदि देश का कुछ उधार है सरकारों पर तो एक ऐसी तरमीम उधार है जो किसी भी स्तर पर, किसी भी तरह का कानूनी भेद-भाव यदि कहीं बचा हो तो उसे भी समाप्त करे. वक्फ भेद-भाव का ऐसा कोई मुद्दा है ही नहीं. बिलाशक वक्फ की आड़ में बहुत कुछ नाजायज व मनमाना होता रहा है. उसे रोका जाए व किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत उसे नियंत्रित किया जाए, इसकी जरूरत थी भी, और है भी. लेकिन ऐसा कुछ करने से पहले यह भी तो देखा जाए कि क्या हर धर्म के अपने-अपने वक्फ नहीं हैं ? आप उन सबका क्या करने वाले हैं ? हर धर्मसत्ता ने अपने वक्त की अनुकूल राजसत्ता से सांठ-गांठ करके अपने लिए विशेष सुविधाएं हासिल की हैं. जमीनें हैं, दान-चढ़ावा पर एकाधिकार है, ट्रस्ट आदि की सुविधाजनक व्यवस्थाएं हैं, धार्मिक शिक्षा के नाम पर अपने धर्म के प्रचार की सहूलियतें हैं, विभिन्न पर्दों की आड़ में धर्म-परिवर्तन का चलन है, रवायतों के नाम पर ऐसी सामाजिक प्रथाओं को जारी रखने की चालाकी है जो लिंगभेद पर आधारित हैं आदि-आदि. सारे धर्म-संगठन निरपवाद रूप से एक-दूसरे के प्रति नफरत फैलाते हैं. ये सब लोकतंत्र का विकास ही रुद्ध नहीं कर रहीं बल्कि उसे विकृत भी बनाती जा रही हैं.
जब हमने संविधान बनाया था तब हमारा लोकतंत्र बहुत कच्चा था. बड़े अभागे दौर से गुजरते हुए हम अपनी आजादी तक पहुंचे थे. नेतृत्व नया भी था व बंटा हुआ भी था. एक गांधी थे कि जिनमें इतना आत्मबल था कि वे कैसी भी बाजी पलट सकते थे लेकिन आजादी पाते ही हमने सबसे पहले उनसे ही आजादी पा ली. वे क्या गए कि हमने अपना कंपास ही खो दिया.
अंग्रेजों ने देश को खोखला कर छोड़ा था तो विभाजन ने प्रशासन को छिन्न-भिन्न कर डाला था. उस वक्त एक ही प्राथमिकता थी : देश की एकता व संप्रभुता को अक्षुण्ण रखा जाए ! जरूरत थी कि देश के हर नागरिक व समुदाय को स्वांत्वना दी जाए, सबमें भरोसा पैदा हो, नयी लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति किसी समुदाय के मन में नाहक शंका न बने. बहुत कुछ था जो तब दांव पर लगा था, इसलिए बहुत कुछ था कि जिनकी अनदेखी जरूरी थी. हमारे तब के प्रौढ़ नेतृत्व ने बहुत सारी बातें कबूल कर लीं और कदम-दर-कदम देश को उस अभागे दौरे से निकाल लाए. वह सब पीछे छोड़ कर हम अब दूर निकल आए हैं.
हम दूर निकल आए हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि हम मनमाना कर सकते हैं. इसका मतलब इतना ही है कि अब हम संवैधानिक समता व एकता को मजबूत करने की दिशा में कुछ नये कदम उठा सकते हैं. इसके लिए हमारे पास एक नायाब औजार भी है जिसे संविधान कहते हैं. संविधान हमें यह नहीं बताता है कि हमें नया क्या करना है; वह बताता है कि हमें जो भी करना है, वह कैसे करना है. हमें संगठित धर्मों के एकाधिकार को ढीला करना है; हमें धर्म व परंपरा के नाम पर जारी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना है; हमें राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र मजबूत भी करना है व उजागर भी करना है; हमें आर्थिक विपन्नता, अमानवीय विषमता तथा अकल्पनीय शोषण को रोकना है. हमें राज्य को उसकी संवैधानिक मर्यादा बतानी भी है.
इतना कुछ है जो अब हम कर सकते हैं, हमें करना चाहिए. लेकिन यहां भी दो सवाल हैं जिनका सामना हमें करना है. पहला यह कि जो यह करना चाहते हैं, क्या उनकी मंशा साफ है ? मंशा का सवाल हमारी बनाई या कही बातों पर निर्भर नहीं करता है बल्कि समय उसकी गवाही देता है. हमारा इतिहास व हमारा वर्तमान बताता है कि जो धर्म, संस्कृति व परंपरा के आधार पर भारतीय समाज में भेद-भाव करते रहे हैं, उन्होंने उसका एक सिद्धांत गढ़ रखा है. वे घृणा, कठमुल्लापन, अवैज्ञानिक अवधारणाओं को हथियार की तरह बरतते हैं. ऐसे सारे लोग इस नई शुरुआत के पात्र नहीं हैं. जिनके वर्तमान पर देश को भरोसा नहीं है, उनके हाथ में कोई अपना भविष्य कैसे सौंप सकता है ? इसलिए हमें वह पात्रता अर्जित करनी होगी जो सत्ता की कुर्सी अर्जित करने से नहीं मिलती है. दूसरा सवाल यह है कि क्या आप भारतीय समाज से वैसे परिवर्तनों के लिए सहमति प्राप्त कर सकते हैं जिन्हें आप ख़ुद पर लागू नहीं करते हैं ?
वक्फ की मर्यादा तय करनी ही चाहिए लेकिन उसी के साथ, उसी सांस में यह भी करना चाहिए कि हिंदू धर्म संस्थानों की, चर्चों व गुरुद्वारों की, आतशबहेरामों की मर्यादा भी तय हो. आज के हिंदुस्तान में कोई भी मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा-गिरिजा-आतशबहेराम यह कैसे घोषणा कर सकता है कि उसके यहां दूसरे धर्मों का प्रवेश वर्जित है ? 75 से अधिक सालों से साथ रहने वाले हम लोग क्या सहजीवन का इतना शील भी नहीं सीख पाए हैं ? अगर संविधान व सहजीवन की इतनी लंबी संगत में हम यह पूरी तरह नहीं सीख पाए हैं तो अब संवैधानिक पहल व सरकारी निर्देश की मदद लेनी पड़ेगी. आज के हिंदुस्तान में कोई भी धर्म संस्थान, शिक्षा संस्थान ऐसा नहीं हो सकता है जो अपने लोगों को भारतीय समाज की विविधता का, भारतीय सामाजिक बुनावट का, हमारे पर्व-त्योहारों का, हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओं का, हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना न सिखाए. मदरसों का लोकतांत्रिक मिजाज बनाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है सरस्वती शिशु मंदिर सरीखे संस्थानों का लोकतांत्रिक मिजाज बनाना. यह किसी के खिलाफ नहीं, सबके हित में संविधानसम्मत पहल होगी. सांप्रदायिक राजनीति से यह काम करेंगे तो आप समाज को ज्यादा प्रतिगामी, कठमुल्ला तथा हिंसक बना देंगे. तो रास्ता गांधी का ही पकड़ना होगा कि संवेदना के साथ व्यापक सामाजिक संवाद, लोक-शिक्षण व लोक-संगठन का अभियान चलाना होगा. किसी धर्म, किसी वर्ग, किसी दल को निशाने पर लेंगे तो आप अपने समाज की संरचना पर घात करेंगे. चुनावी गणित से यह काम करेंगे तो कुर्सी भले वक्ती तौर पर आपके हाथ आ जाए, देश अंतिम तौर पर आपके हाथ से निकल जाएगा.
वक्फ के मामले पर विचार करते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ख़ुद भी संविधान की कसौटी पर है. हमारा संवैधानिक इतिहास बताता है कि सर्वोच्च न्यायालय हमेशा इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है. आप संविधान की शाश्वत मालिक जनता से पूछेंगे तो अपार बहुमत से आपको यही जवाब मिलेगा कि आपातकाल का संदर्भ तो है ही, सर्वोच्च न्यायालय उससे पहले भी और उसके बाद भी संविधान को समझने व उसकी रक्षा करने में बारहा विफल होता आया है. कारण यह है कि उसने संविधान से इतर कारणों को अपने निर्णय का आधार बनाया है. हमारे एक न्यायाधीश महाशय ने तो यह भी कहा है कि वे भगवान से पूछ कर फैसला करते थे ! जिसका भगवान ही संविधान है, उसे किसी दूसरे भगवान के पास जाने की जरूरत ही कैसे पड़ी ? जब न्यायाधीश भगवान से फैसला पूछने लगते हैं तब राजनीति कपड़ों से अपने नागरिक पहचानने लगती है. इसलिए न्यायपालिका से जुड़े हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि संविधान के बाहर जो है, वह न तो उसका क्षेत्र है, न उसकी संवैधानिक भूमिका है.
राहुल गांधी इतिहास कैसे पढ़ें व उससे क्या निष्कर्ष निकालें, यह तय करना अदालत की संवैधानिक भूमिका है ही नहीं. अदालत को इतना ही देखने व जांचने का अधिकार है कि राहुल गांधी को अपनी तरह से इतिहास पढ़ने व अपना नजरिया बनाने का अधिकार है या नहीं; और यह भी कि ऐसा करते हुए राहुल गांधी किसी का अपमान या किसी को अपशब्द तो नहीं कह रहे ? ऐसा हो तो अदालत को राहुल गांधी को पकड़ना चाहिए लेकिन अदालत को यह अधिकार कहां से मिला कि वह राहुल गांधी को धमकाए कि वह सावरकर को खारिज नहीं करें अन्यथा हम उन्हें अदालत में खींचेंगे ?
वक्फ का पिटारा खुला है तो यह सब उसके भीतर से निकल रहा है. सर्वोच्च न्यायालय को इन सबको समेट कर वह फैसला करना है जिसका इंतजार यह देश कर रहा है. ( 27.04.2025 )