Sunday, 17 November 2024

हारते अमरीका की हार

जोनाथन स्विफ्ट की अमर कृति गुलिवर की यात्राएं’ पढ़ी है आपने ! उसमें गुलिवर घूमते-खोजते एक ऐसे मुल्क में पहुंच जाता हैजहां बौनों का राज है. लगता है,हमारा इतिहास भी घूमते-घूमते ऐसी ही दुनिया में पहुंच गया है जहां सब तरफ बौनों का बोलबाला है भीहोता भी जा रहा है - पुतिनजिनपिंगनेतन्याहू,मोदी,मैक्रोंस्टारमर,शोल्ज आदि-आदि. इस सूची के सबसे नये सदस्य हैं डोनल्ड ट्रंप ! वैसे इस अर्थ में ट्रंप नये नहीं हैं कि उनका बौनापन अमरीका भी और दुनिया भी पहले देख व भुगत चुकी है. शोक है तो इस बात का उन्होंने आम अमरीकी को भी अपनी तरह ही बौना बना दिया है. इसमें भी उनकी कोई शिफत नहीं है. इतिहास बताता है कि इंसान व उसका समाज फिसलन की तरफ आसानी से ले जाया जा सकता हैऔर फिसलन निष्प्रयास नीचे-से-नीचे ही जाती जाती है. ट्रंप फिसलते अमरीका की फिसलन को न केवल तेज करेंगे बल्कि उसे बहुत कुरूप व कर्कश बना देंगे. यह अनुमान नहीं हैअनुभव है. इसलिए मुझे यह लिखना पड़ रहा है कि ट्रंप की यह जीत हारते अमरीका की हार है. किसी व्यक्ति की जीत किसी समाज की हार कैसे बन जाती हैयह अमरीका भी समझेगा और हम भी.      

दुनिया में धन और दमन की कलई जैसे-जैसे खुलती जा रही हैअमरीका बौना होता जा रहा है. उसके पास यही दो हथियार रहे हैं जिनसे उसने अपनी पहचान व ताकत बनाई थी. अब दुनिया के बाजार में उसके डॉलर का वह डर नहीं रहाऔर यह भी जाहिर होता जा रहा है कि हथियारों की मारक शक्ति से कहीं बड़ी है इंसानों की संकल्प शक्ति ! यह वही बात जिसे महात्मा गांधी ने दुनिया की महाशक्तियों को बताने-समझाने की कोशिश की थी. 

गांधी दुनिया के अंगुली भर देशों में भी नहीं गए थे लेकिन दुनिया देखी बहुत थी. इसलिए बहुत कुछ ऐसा कहते-समझाते रहे थे जिसे समझने में हमें सदियां लग गईं.  अभी भी हम उन्हें लेकर भटकते ही रहते हैं. वे कभी अमरीका नहीं गए. कई बारकई विशिष्ट अमरीकियों नेजिनमें अलबर्ट आइंस्टाइन भी थेआग्रह किया था कि वे अमरीका आएं. गांधी ने कभी कुछ कह करतो कभी कुछ और कह कर बात टाल दी थी. आइंस्टाइन को लिख दिया कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं कि जब अपने सेवाग्राम आश्रम में मैं आपका स्वागत कर सकूंगा. मतलब यह कि आप यहां आएंमैं अमरीका आने की नहीं सोचता हूं.                   

दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए जब गांधी इंग्लैंड आए तो यह दवाब कई तरफ से बनाया गया कि अब जब आप यहां तक आ ही गए हैं तो अमरीका भी आ जाइए. अमरीका में गांधी के कई चाहक व प्रिय भी थेतो उनका अमरीका होते आना कतई असंगत नहीं होता. लेकिन गांधी ने कहा तो इतना ही कि मैंने अपने देश में ही कोई सिद्धि हासिल नहीं की है अब तकतो अमरीका को वहां आ कर क्या दे सकूंगा ! फिर यह भी जोड़ दिया कि जब तक अमरीका दौलत के पीछे की अपनी अंधी दौड़ से बाहर नहीं आता हैमेरे वहां आने का कोई मतलब नहीं होगा. 

अमरीका उस अंधी दौड़ से बाहर तो कभी नहीं आयाउसने सारी दुनिया को अपने जैसी ही अंधी दौड़ में दौड़ा दिया. जिन्हें ट्रंप अवैध अप्रवासी कहते हैंजिन दूसरे मूल के वैध अमरीकियों को श्वेत अमरीकी जलती आंखों से देखते हैंवे सब इसी अंधी दौड़ के धावक हैं. अमरीका ने सारी दुनिया से साम-दाम-दंड-भेद के बल पर जो दौलत निचोड़ी हैये सब उसमें हिस्सेदारी मांगते हैं. अगर दौलत लूट लाना वैध है तो उसमें हिस्सेदारी अवैध कैसे हैयह समझना बहुत टेढ़ी खीर तो नहीं है. 

इस अंधी दौड़ में दौड़ते-दौड़ते अब अमरीका का भी और दुनिया का भी दम टूट रहा है. यह स्थिति इसलिए भी ज्यादा घातक बन गई है क्योंकि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों की अयोग्यता की वजह से हर देश में निराशा व्याप्त है. सामान्य जीवन जीना इतना कठिन व खतरों से भरा बन गया है कि इंसान हर नई आवाज की तरफ लपक रहा है. यदि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों ने ईमानदारी से अपने-अपने देशों की वैकल्पिक ताकतों को संयोजित कर वह कुछ हासिल किया होता जिसकी ललक आम आदमी को होती हैतो दक्षिणपंथी-तानाशाही ताकतें इस तरह वापसी नहीं कर पातीं. लेकिन सत्ता को अंतिम प्राप्य मान कर बैठ जाने वाला तथाकथित उदार-लोकतांत्रिक नेतृत्व व्यापक निराशा व असंतोष का जनक बन गया है. बाइडन जैसों को एक दिन के लिए भी राष्ट्रपति क्यों बनना चाहिए था कमला हैरिस को हारना ही था क्योंकि वे बाइडन से अलग थी ही नहीं. इसलिए राष्ट्रपति बदलते हैंअमरीका नहीं बदलता है. बराक ओबामा जैसा आदमी आया तो वह भी कुछ बदल नहीं सका. तो फिर ट्रंप से कैसी शिकायत ! लेकिन शिकायत है - गहरी व तीखी शिकायत है. 

कमजोर होने में और कमजोर करने में बहुत बड़ा फर्क है. ट्रंप बिरादरी के बौनों की हकीकत यह है कि उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है - न दिशान साहसन सपनेन उदारता. उनके पास कहने के लिए भी कुछ उदारकुछ मानवीयकुछ उदात्त नहीं है. उनके पास सत्ता का दंभ व मनमानापन हैअकूत सार्वजनिक धन हैअसहमति से घृणा हैअसहमतों के प्रति क्रूरता है. बौनों की जो सूची मैंने शुरू में दी हैवे सब इन्हीं ताकतों के बल पर टिके हैं. 

ट्रंप कमजोर होते अमरीका को जल्दी व ज्यादा कमजोर कर देंगे क्योंकि उनके पास महंगाईबेरोजगारी को हल करने की कूवत नहीं है. वे अवैध अप्रवासियों का भूत उसी तरह खड़ा कर रहे हैं जिस तरह हमारे यहां अल्पसंख्यकों का भूत खड़ा किया जाता है. इसमें बदला लेने की मनुष्य की हीन भावना को उकसाया जाता है. यह उकसावा आसान भी है तथा यह आपको दूसरी जिम्मेवारियों से बच निकलने की गली भी देता है. अपने पिछले पांच साल के राष्ट्रपति-काल में ट्रंप ने अमरीकी समाज की एक भी मुसीबत का हल नहीं निकालाअमरीका को हर तरह से उपहास का पात्र जरूर बनाया. उनमें अपनी हार स्वीकार करने की शालीनता भी नहीं रही. उन्होंने अमरीकी समाज के गुंडा-तत्वों को ललकार कर बुनियादी लोकतांत्रिक शील की भी खटिया खड़ी कर दी. वे आगे भी ऐसा ही करेंगेक्योंकि इसके अलावा वे कुछ जानते नहीं हैं

. हमारा हाल यह है कि हमें प्रिय मित्र ट्रंप’ की जीत ऐसी लग रही है मानो डोनल्ड ट्रंप ने अमरीका के राष्ट्रपति का नहींभारत के राष्ट्रपति का चुनाव जीता है. उनके चुनाव जीतने से जितने खुश अमरीकी नहीं हैंउससे ज्यादा भारत के सत्ताधारी व उस मानसिकता के लोग खुश हैं. अपने यहां के लोकसभा चुनाव मेंउनके तईं जो कसर रह गई थीमानो अमरीका ने ट्रंप जो चुन कर वह कसर पूरी कर दी है. यह भारत के अमरीका बनने का नया अध्याय है. यह हारते अमरीका के हारने के नये अध्याय का प्रारंभ है. ( 09.11.2024)

Thursday, 31 October 2024

आपका आभार चंद्र्चूड साहब!

   भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने हम परकई बारकई तरह के उपकार किए हैं. जाते-जाते एक और बड़ा उपकार कर गए वे कि हमें बता गए कि न्यायपालिका के फैसले जज साहबान नहींभगवान करते हैं. बेचारे संविधान निर्माताओं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे जिस न्यायपालिका का खाका खींच रहे हैंउसे भगवान इस तरह ‘ हाइजैक’ कर लेंगे. चंद्रचूड़ साहब ने ही हमें यह भी बताया कि कैसे ऐसा किया जा सकता है कि अपराधियों को कोई सजा न दी जाए लेकिन उनके अपराध को असंवैधानिक बता कर वाहवाही लूटी जाए ! और यह भी कि एक सरकार को असंवैधानिक रास्तों से बनी सरकार करार दे कर भी वैध घोषित कर दिया जाए !    

   न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने हमें स्वंय ही बताया कि रामजन्मभूमि विवाद ( या बाबरी मस्जिद विवाद ?) का क्या हल निकाला जाएजब महीनों तक उन्हें यह सूझ ही नहीं रहा था, “ तब मैं ईश्वर की शरण में गया. मैंने उनसे प्रार्थना की कि अब आप ही कोई रास्ता बताइए….और रास्ता उन्होंने बताया. मेरा पक्का विश्वास है कि जब भी आप आस्था के साथ भगवान की शरण में जाते हैंतो वे रास्ता बताते ही हैं.” जिसे हम-आप सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के रूप में जानते हैंवह फैसला भगवान की तरफ से सीधे चंद्रचूड़ साहब को सुझाया गया थायह जानते ही मेरे मन में पहला सवाल यह आया कि यह सुनवाई तो पांच जजों की बेंच ने की थीतो भगवान ने सीधे चंद्रचूड़ साहब को ही रास्ता बताने के लिए क्यों चुना देखता हूं कि तब इस बेंच में सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगईबाद में सर्वोच्च न्यायाधीश बने एस.ए. बोरडेअब के सर्वोच्च न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़जो सर्वोच्च तक नहीं पहुंच सके वे अशोक भूषण तथा एस.अब्दुल नजीर थे. क्या ये सारे न्यायमूर्ति भगवान की शरण में नहीं गए क्या गोगई साहब को भगवान ने ही बताया कि वत्सधैर्य धरोतुम्हारे लिए राज्यसभा का रास्ता बनाता हूं बोरडे साहब को बताया कि बच्चाखामोश रहोगे तो यह सर्वोच्च कुर्सी तुम्हारी होगी यदि देश की सबसे बड़ी अदालत में यही नजीर है तो नजीर साहब भी तो अपने खुदा की रहमत में गए होंगे न ! क्या उन्हें खुदा ने कहा कि मुझे जो फैसला देना थावह मैंने तुम्हारे चंद्रचूड़ साहब के भगवान को बता दिया है. खुदा व भगवान का झगड़ा खड़ा किए बिना वह चंद्रचूड़ जो कहेतुम उसे मान लेना मुझे नहीं पता कि भगवान या खुदा ने एक-एक से बात करने की इतनी जहमत क्यों उठाई ! उन्हें कहना ही था तो चंद्रचूड़ साहब सहित पूरी बेंच से सिर्फ इतना ही कहते कि संविधान ठीक से देख लेना क्योंकि वही तुम्हारा भगवान है. न इसे कम कुछन इसे ज्यादा कुछ ! वैसे मुझे अब लग रहा है कि चंद्रचूड़ साहब ठीक ही कह रहे हैं कि रामजन्मभूमि का फैसला भगवान का बताया फैसला है. भगवान के फैसले अक्सर इंसानों की समझ में नहीं आते हैं. इस फैसले के साथ भी ऐसा ही है.   

   चंद्रचूड़ साहब व हमारे जज साहबान की दिक्कत यह है कि वे मामले की सुनवाई नहीं करते हैंवे हालात के भगवान होने के भ्रम में जीते हैं. वे इंसान हैं और उन्हें एक संविधान दिया गया है जो उनकी गीताकुरानबाइबलजपुजीगुरुग्रंथ साहब या अवेस्ता आदि है. इस संविधान के पन्नों के बाहर का जगत उनके लिए मिथ्या है. यह थोड़ा कठिन तो है लेकिन उनकी संवैधानिक सच्चाई यही है कि वे आज और अभी में जीने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उनके अधिकार-क्षेत्र में यह आता ही नहीं है कि वे यह देखें कि उनका निर्णय संतुलन बिठा कर चलता है या नहीं. यह देखना जिनका काम है वे जब बेड़ा गर्क कर देते हैं तब तो देश आपके पास आता हैऔर चाहता है कि आप बेड़ा गर्क करने वाले ( करने वालों ) का बेड़ा गर्क करें. हर मामले में संविधान क्या कहता हैऔर क्या करने को कहता हैदेश आपसे इतना ही जानना चाहता है. 

   हरियाणा के चुनाव में संवैधानिक व्यवस्थाओं से बाहर जाने की जितनी शिकायतें चंद्रचूड़ साहब की अदालत में पेश की गईंउनकी पड़ताल कर उन्हें लगा कि ये बेबुनियाद हैंतो एक आदेश से उसे खारिज कर देना था. चंद्रचूड़ साहब ने वैसा नहीं किया. उन्होंने आपत्ति उठाने वालों पर तंज कसा कि क्या आप चाहते हैं कि हम जीती हुई सरकार को शपथ-ग्रहण करने से रोक दें हांचंद्रचूड़ साहबमैं कहना चाहता हूं कि यदि संविधान की कसौटी पर कसने के बाद आपको लगता है कि यह जो सरकार बनने जा रही है वह असंवैधानिक रास्ते से सत्ता में पहुंचना चाह रही हैतो आपको उसे शपथ लेने से रोकना ही चाहिए. यह संवैधानिक दायित्व है जिसके निर्वाह में ही आपके होने की सार्थकता है. अगर आपको लगता है कि इस सरकार को शपथ ग्रहण करने से रोकना असंवैधानिक होगातो आरोप को रद्द कर देना भर काफी है. जो सवाल आपने पूछा वह पैदा ही नहीं होता है कि “ क्या हम जीती हुई सरकार को शपथ-ग्रहण करने से रोक दें ?” यह संविधान प्रदत्त आपके अधिकार-क्षेत्र से बाहर की बात है. ऐसा ही मामला महाराष्ट्र की उस सरकार की वैधानिकता के बारे में भी है जो बगैर संवैधानिक जांच-पड़ताल के चलती चली गईऔर आज वहां दूसरा चुनाव आ गया है लेकिन आपकी अदालत में मामला खिंचता ही चला जा रहा है. अब आपके फैसले का आनान आना अर्थहीन हो गया है. लेकिन अगर यह सरकार असंवैधानिक साबित हुई तो महाराष्ट्र की जनता की अदालत में आप व आपकी अदालत हमेशा के लिए अपराधी बन खड़ी रहेगी. न्याय में देरी अन्याय के बराबर होती हैयह आप कैसे भूल सकते हैं ! 

   आप अपने घर में किसकी व कैसे पूजा करते हैंयह आपका अधिकार भी हैआपकी निजी स्वतंत्रता भी है. लेकिन उसका सार्वजनिक प्रदर्शन यह न तो शोभनीय हैन संस्कारीन भारत के धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक जीवन से मेल खाता है. यह धर्मनिरपेक्षता हमारे यहां आसमान से नहीं टपकी है बल्कि उस संविधान से हमें मिली है जिसके संरक्षण की शपथ आप खाते हैं. फिर अपने धार्मिक विश्वासों का सार्वजनिक प्रदर्शनघर के गणपति-पूजन का राष्ट्रीय प्रसारण कैसे आपके गले उतर सकता है यह तर्क बहुत छूंछा है कि न्यायपालिका व विधायिका के लोग आपस में मिलते-जुलते रहते ही हैं. उनका सार्वजनिक समारोहों में मिल जाना एक बात हैपारिवारिक व निजी अनुष्ठांनों में एक-दूसरे से गलबहियां करना दूसरी बात है. संविधान चीख-चीख कर कहता है कि न्यायाधीशों की संवैधानिक प्रतिबद्धता होनी ही नहीं चाहिएइस तरह दीखनी भी चाहिए कि समाज मान्य हो. सत्ता की ऊंगलियों पर नाचने वाले जजों के उदाहरण जब आम होंजब संविधान द्वारा सत्ता व अधिकारों के स्पष्ट बंटवारे के बावजूद विधायिका-कार्यपािलका-न्यायपालिका अपनी लोकतंत्रसम्मत भूमिका समझने में इस कदर भटकती होतब सर्वोच्च न्यायाधीश का प्रधानमंत्री के साथ अपने घर में गणेश-पूजा करना गणेश-शील के एकदम विपरीत जाता है. यह सवाल किसी व्यक्ति का किसी व्यक्ति से नाते-रिश्ते का नहीं हैलोकतंत्र की लक्ष्मण-रेखा को पहचानने व उसकी मर्यादा में रहने का है. 

   संविधान कानून की किताब मात्र नहीं हैलोकतंत्र का आईना भी है. उस आईने में न तो इस सरकार की छवि उज्ज्वल हैन आपकी न्यायपालिका की.  इसलिए तो राष्ट्र विकल हो कर हर नये सर्वोच्च न्यायाधीश के पास जाता है कि शायद इसके पास संविधान की तराजू के अलावा दूसरा कुछ न हो. पता नहीं कैसे यह धारणा बनी थी कि धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ऐसे न्यायाधीश हैंकि उनके पास वह संवैधानिक अनुशासन है कि जो न्यायपालिका की छवि निखार सकता है. आपने वह भ्रम तोड़ दियाइसके लिए हम भारी मन से आपके आभारी हैं. (31.10.2024)

Sunday, 25 August 2024

लड़की किसे चाहिए ?

             पूरा कोलकाता पहले गुस्से से लाल हुआ, फिर जल-भुन कर राख हुआ ! अस्पताल में ही नहीं, वह राख कोलकाता शहर में भी सब दूर फैली. जुलूस-धरना-प्रदर्शन चला तो लगातार चलता ही रहा. उसे भाजपा समेत विपक्षी दलों ने उकसाया-भड़काया जरूर लेकिन वह जल्दी ही कोलकाता के भद्रजनों के आक्रोश में बदल गया. ऐसा जब भी होता है, बंगाल से ज्यादा खतरनाक भद्रजन आपको खोजे नहीं मिलेंगे. ममता बनर्जी यह अच्छी तरह जानती हैं क्योंकि इसी भद्रजन के आक्रोश ने, उन्हें मार्क्सवादी साम्यवादियों का पुराना गढ़ तोड़ने में ऐसी मदद की थी कि वे तब से अब तक लगातार सत्ता में बनी हुई हैं. लेकिन सत्ता ऐसा नशा है एक जो जानते हुए भी आपको सच्चाई से अनजान बना देता है. ममता भी जल्दी ही बंगाल के भद्रजनों की इस ताकत से अनजान बनती गईं. 

   किसी भी अन्य मुख्यमंत्री की तरह सत्ता के तेवर तथा सत्ता की हनक से उन्होंने बलात्कार व घिनौनी क्रूरता के साथ लड़की रेजिंडेंट डॉक्टर की हत्या के मामले को निबटाना चाहा. लेकिन उस मृत डॉक्टर की अतृप्त आत्मा जैसे उत्प्रेरक बन कर काम करने लगी. जैसे हर प्रदर्शन-जुलूस-नारे-पोस्टर के आगे-आगे वह डॉक्टर खुद चल रही थी. ऐसी अमानवीय वारदातों को दबाने-छिपाने-खारिज करने की हर कोशिश को विफल होना ही था. वह हुई  और कोलकाता का आर.जी.कर अस्पतालममता की राजनीतिक साख व संवेदनशील छवि के लिए वाटर-लू साबित हुआ. अब ममता भी हैंउनकी सत्ता भी है लेकिन सब कुछ कंकाल मात्र है. 

   यह आग कोलकाता से निकल कर देश भर में फैल गई. मामला डॉक्टरों का था जो वैसे भी कई कारणों से सारे देश में हैरान-परेशान हैं. सो देश भर की सूखी लकड़ियों में आग पकड़ गई. आंच सुप्रीमकोर्ट तक पहुंच गई. नागरिक अधिकारोंसंवैधानिक व्यवस्थाप्रेस की आजादीअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ले कर सत्ता के मर्यादाविहीन आचरण तक के सभी मामलों में देश में जैसी आग लगी हुई हैउसकी कोई लपट जिस तक नहीं पहुंचती हैउस अदालत को यह लपट अपने-आप कैसे दिखाई दे गईकहना कठिन है. मणिपुर की लड़कियों को जो नसीब नहीं हुआकोलकाता की उस डॉक्टरनी को वह नसीब हुआ- भले आन व जान देने के बाद!  सुप्रीम कोर्ट ने आनन-फ़ानन में अपनी अदालत बिठा दी और कड़े शब्दों में अपनी व्यवस्था भी दे दीएक निगरानी समिति भी बना दी जिसकी निगरानी वह स्वयं करेगी. मैं हैरान हूं कि हमारी न्यायपालिकाजो इसकी निगरानी भी नहीं कर पाती है कि उसके फैसलों का सरकारें कहां-कब व कितना पालन करती हैंवह डॉक्टरों पर हिंसा की जांच भी करेगी व उसकी निगरानी भी रखेगीयह कैसे होगा ! लेकिन अदालत कब सवाल सुनती है ! अगर वह सुनती तो उसे सुनायी दिया होता कि सत्ता की शह से जब समाज में व्यापक कानूनहीनता का माहौल बनाया जाता हैतब राजनीतिक ही नहींसामाजिक-नैतिक-आर्थिक एनार्की का बोलबाला बनता है. कानूनविहीनता का आलम देश में बने तो यह सीधा न्यायपालिका का मामला हैक्योंकि संविधान के जरिये देश ने यही जिम्मेवारी तो उसे सौंपी है. न्यायपालिका के होने का यहीऔर एकमात्र यही औचित्य है. 2014 से अब तक अदालतों को यह दिखाई नहीं दिया तो अंधेरा और किसे कहते हैं बताते हैं कि कोलकाता के अस्पताल में जब वह अनाचार हुआ तो वहां भी अंधेरा था.   

   कोलकाता की घटना के बाद यौनाचार व यौनिक हिंसा की कितनी ही वारदातों की खबरें देश भर से आने लगीं. लगा जैसे कोई बांध टूटा है ! पता नहींऐसा कहना भी कितना सही है. जब घर-घर में ऐसी वारदातें हो रही होंजब सब तरफ हिंसक उन्माद खड़ा किया जा रहा हो तब कोई कैसे कहे कि यह जो सामने हैयह पूरी तस्वीर है !  

   यह सब हुआहोना चाहिए था. आगे भी होता रहेगा. प्रधानमंत्री यूक्रेन की आग बुझा कर लौटेंगे तो चुनावी आग में इस मामले को होम करधू-धू जलाएंगे. लेकिन जो नहीं पूछा गया और जिसका जवाब नहीं मिला वह यह सवाल है कि लड़की किसे चाहिए आर.जी.कर अस्पताल में जो अनाचार व अत्याचार हुआवह डॉक्टर पर नहीं हुआलड़की पर हुआ. वह लड़की डॉक्टर थी और वह जगह अस्पताल थीयह संयोग है. महाराष्ट्र में जो हुआ वह स्कूल थाऔर जिनके साथ हुआ वे छोटी बच्चियां थीं. तो जो यौन हिंसा हो रही हैउसके केंद्र में लड़की है जिसका स्थानजिसकी उम्रजिसका पेशा आदि अर्थहीन है. तो सवाल वहीं खड़ा है कि लड़की किसे चाहिए जवाब यह है कि हर किसी को लड़की चाहिए : व्यक्तित्वविहीन लड़की ! शरीर चाहिए. वह स्त्री-पुरुष के बीच जो नैसर्गिक आकर्षण हैउस रास्ते मिले कि प्यार नाम की जो सबसे अनजानी-अदृश्य भावना हैउस रास्ते मिले या डरा-धमका करछीन-झपट करमार-पीट कर मिले. वह मिल जाएयह हवस हैमिल जाने के बाद हमारे मन में उसकी प्रतिष्ठा नहीं मिलती है. इसलिए घरजो लड़की के बिना न बनता हैन चलता हैलड़की के लिए सबसे भयानक जगह बन जाता है जहां उसकी हस्ती की मजार मिलती है. हर घर में लड़की होती है लेकिन मिलती किसी घर में नहीं है. इसकी अपवाद लड़कियां भी होंगी लेकिन वे नियम को साबित ही करती हैं.   

   इसलिए समस्या को इस छोर से देखने व समझने की जरूरत है. अंधी-कुसंस्कृति की नई-नई पराकाष्ठा छूती राजनीति व जाति-धर्म-पौरुष जैसे शक्ति-संतुलन का मामला यदि न होतो भी स्त्री के साथ अमानवीय व्यवहार होता है. ऐसी हर अमानवीय घटना हमें बेहद उद्वेलित कर जाती है. दिल्ली के निर्भया-कांड के बाद से हम देख रहे हैं कि ऐसा उद्वेलन बढ़ता जा रहा है. यह शुभ है. लेकिन यह भीड़ का नहींमन का उद्वेलन भी बने तो बात बने. स्त्री-पुरुष के बीच का नैसर्गिक आकर्षण और उसमें से पैदा होने वाला प्यार का गहरा व मजबूत भाव हमारे अस्तित्व का आधार है. वह बहुत पवित्र हैबहुत कोमल हैबहुत सर्जक है. लेकिन इसके उन्माद में बदल जाने का खतरा हमेशा बना रहता है. यह नदी की बाढ़ की तरह है. नदी भी चाहिएउसमें बहता-छलकता पानी भी चाहिएबारिश भी चाहिएवह धुआंधार भी चाहिए लेकिन बाढ़ नहीं चाहिए. तो बांध मजबूत चाहिए. कई सारे बांध प्रकृति ने बना रखे हैं. दूसरे कई सारे सांस्कृतिक बांध समाज को विकसित करने पड़ते हैं. समाज जीवंत होप्रबुद्ध हो व गतिशील साझेदारी से अनुप्राणित हो तो वह अपने बांध बनाता रहता है. 

   परिवार में स्त्री का बराबर का सम्मान व स्थानपरिवार के पुरुष को सांस्कृतिक अनुशासन के पालन की सावधान हिदायतसमाज में यौनिक विचलन की कड़ी वर्जनाकानून का स्पष्ट निर्देश व उसकी कठोर पालना से ऐसा बांध बनता है जिसे तोड़ने आसान नहीं होगा. प्यार की ताकत समर्पण में ही नहींउसके अपमान की वर्जना में भी प्रकट होनी चाहिए. नहीं देखता-पढ़ता या सुनता हूं कि किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी कोकिसी पत्नी ने अपने पति कोकिसी मां ने अपने बेटे कोकिसी बहन ने अपने भाई को यानी किसी स्त्री ने अपने दायरे में आने वाले किसी भी पुरुष-संबंध को रिश्ते सेपरिवार से बाहर कर दिया हो क्योंकि उससे यौनिक अपराध हुआ है. बलात्कारी को यदि यह अहसास होउसके आसपास ऐसे उदाहरण हों कि यौनिक हिंसा के साथ ही वह समाज व परिवार से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो जाएगातो यह एक मजबूत बांध बना सकता है. मनुष्य सामाजिक प्राणी है. वह समाज को तब तक ही ठेंगे पर रखता है जब तक उसे विश्वास होता है कि वह समाज को हांक ले जाएगा. ऐसा इसलिए होता है कि आज अधिकांशत: समाज जीवंतसंवेदनशील मनुष्यों की जमात नहींभीड़ भर है. भीड़ में से मनुष्य को निकाल लाना बड़ी दुर्धर्ष मनुष्यता का काम है. लेकिन बांध बनाना कब आसान रहा है ! 

   यह हमारी खुद से लड़ाई है. लड़का डराएगा नहींलड़की लुभाएगी नहींतभी दोनों एक-दूसरे के प्रति सहज-स्वस्थ-सुंदर रिश़्ता बना व निभा पाएंगे. फिर बच जाएंगी दुर्घटनाएं जिन्हें संभालने-सुधारने-स्वस्थ बनाने का काम घर-समाज-कानून मिल कर करेंगे. अगर ऐसा कुछ बोध समाज को हुआ तो कोलकाता के उस अस्पताल की वह डॉक्टर सच में हम सबकी डॉक्टर बन जाएगी. ( 26.08.2024) 

                                                                                                                                     

Saturday, 10 August 2024

राहुल गांधी की जाति क्या है

   तो भरी संसद में, लोकसभा के अध्यक्ष की उपस्थिति में सत्ता पक्ष के एक सांसद ने दूसरे को भद्दी ( सामान्य सामाजिक सभ्यता के नाते भी और संविधान के नाते भी भद्दी ! ) गाली दी. फिर क्या हुआ ? अध्यक्ष ने इसे सामान्य मामले की तरह लिया और कहा कि वे गाली को फिर से सुनेंगे और फिर जो जरूरी होगा, वह करेंगे. सत्ता पक्ष के दूसरे सांसदों ने क्या किया ? कई खिलखिला कर बेशर्मी से हंसे; कई प्रतिशोध की जहरीली मुद्रा में उछल पड़े कि चलो, किसी ने तो इस आदमी का उस तरह अपमान किया जिस तरह हम भी करना चाहते तो थे लेकिन हिम्मत नहीं हो रही थी ! कुछ थे शायद जो असमंजस में चुप रहे लेकिन उनके चेहरे पर भाव ऐसा था मानो बात तो गलत है लेकिन अपनी पार्टी की तरफ से कही गई है, तो क्या बोलें और कैसे बोलें ! 

   आप समझ ही गए होंगे कि प्रसंग उस दिन का है जिस दिन भारतीय जनता पार्टी के सुप्रसिद्ध विवेकहीन सांसद अनुराग ठाकुर नेकांग्रेस के सांसद व प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी के लिए कहा कि “ जिसकी जाति का पता नहींवह जाति गणना की मांग कर रहा है !” वे समझ रहे थे कि वे जो बोलने जा रहे हैं उसकी चोट भी लगेगी और उसकी गूंज भी उठेगी. इसलिएगला साफ़ करअध्यक्ष का ध्यान खींचते उन्होंने पूरी तैयारी सेसमां बांध कर यह गाली दी.

    राहुल गांधी की दिक्कत यह है कि महाभारत में जैसे अर्जुन को मछली की आंख मात्र दिखाई दी थीदूसरा कुछ नहींवैसे ही उन्हें जातीय गणना का सवाल दिखाई देता हैउससे आगे-पीछे कुछ नहीं. यह उपमा उनकी ही दी हुई है. भारतीय जनता पार्टी का हाल भी ऐसा ही है. उसे इस मांग को एकदम सिरे से खारिज करने के आगे या पीछे दूसरा कुछ दीखता नहीं है. ( उसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जरूर दीखते हैं लेकिन वे जानते हैं कि नीतीश कुमार की आवाज जब तक गुम हैतब तक वे उन्हें देख कर भीअनदेखा कर ही सकते हैं ! )  

   हम कहते हैं : राहुल गांधी-अनुराग ठाकुर में दोनों सही या दोनों गलत हो सकते हैंया कोई एक गलत व दूसरा सही हो सकता है. लेकिन दोनों को अपनी-अपनी सही या गलत राय रखने का और उसे जाहिर करने का भी पूरा अधिकार है. यह अधिकार हम सबको जन्मसिद्ध मिला है जैसा कि बालगंगाधर तिलक ने स्वराज्य के लिए कहा था. लेकिन बालगंगाधर तिलक को तब जो अधिकार नहीं मिला था लेकिन हमें मिला हैवह यह है कि हमें अपनी राय रखने व उसे जाहिर करने का जन्मजात अधिकार तो है हीसंवैधानिक अधिकार भी है. तो हमारे तरकस में तिलक महाराज से एक वाण अधिक है. राहुल गांधी जातीय गणना की मांग करें और अनुराग ठाकुर उसका विरोध करेंइसमें आपत्ति जैसी कोई बात नहीं है. इन दो के बीच लोकसभा अध्यक्ष की कोई भूमिका है ही नहीं. लेकिन अनुराग ठाकुर अपनी राय भी न कहेंजातीय गणना के सवाल पर अपनी पार्टी का रुख भी स्पष्ट न करें लेकिन राहुल गांधी को भद्दी गाली देंतो फिर लोकसभा के अध्यक्ष की भी सीधी भूमिका बन जाती हैअनुराग ठाकुर सीधे कठघरे में खड़े हो जाते हैं. इसलिए जो सवाल अखिलेश यादव ने पर्याप्त गंभीरता व जरूरी तेवर के साथ लोकसभा में पूछावही सवाल देश का हर साबित दिमाग आदमी अनुराग ठाकुर सेलोकसभा अध्यक्ष सेभारतीय जनता पार्टी से तथा ईश्वरीय प्रधानमंत्री’ नरेंद्र मोदी से पूछ रहा है कि भाईआप किसी से उसकी जाति कैसे पूछ सकते हैं यह हमारे तरकश का वह तीर है जो संविधान ने हमको दिया है. आप किस को जातिसूचक गाली नहीं दे सकतेआप संस्थानों में जातीय भेद-भाव नहीं कर सकतेआप जातीय टिप्पणियां कर किसी का अपमान नहीं कर सकते. मुख्तसर में यह कि आप किसी से उसकी जाति नहीं पूछ सकते. 

   जब अनुराग ठाकुर की बीमारगंदी मानसिकता पकड़ी गई और उनके शातिर दिमाग ने हिसाब लगा लिया कि जातीय श्रेष्ठता का उनका तीर जहां पहुंचना थापहुंच गयातब उन्होंने उसी कायरता का परिचय दिया जैसी कायरता जातीय श्रेष्ठता का छूंछा भाव ओढ़ने वालों की पहचान है. जिससे कायरता भी शर्मिंदा होने लगे ऐसी कायरता से वे कहने लगे कि मैंने नाम तो नहीं लियामैंने कोई गाली तो नहीं दीमैंने जाति तो नहीं पूछी. किया उन्होंने यह सब लेकिन इसे कबूल करने का साहस उनमें नहीं था. होता भी कहां सेक्योंकि साहस नैतिक धरोहर हैकुर्सी-पार्टी-मंत्रीपद की इजारेदारी नहीं. 

   अनुराग ठाकुर ने पूरी तैयारी सेसोच-विचार कर राहुल गांधी को गाली दी क्योंकि राहुल गांधी की बात कातर्क का उनके पास कोई जवाब नहीं था. जब आपकी बौद्धिक औकात होती नहीं है तब आप गालियों का सहारा लेते हैं. बेचारे अनुराग ठाकुर पर दया ही की जा सकती है ! वे अपने सर के नाप से बड़ा जूता पहन कर चलते हैं और बार-बार उस जूते की मार खा कर चारो खाने चित्त गिरते हैं. जब वे किसी आमसभा में,  सार्वजनिक रूप से चिल्ला-चिल्ला कर सामूहिक गालियां दे करगोली मारने का नारा लगवा रहे थेतब भी उनका पतन देख कर उबकाई आती थीसदन में भी उस रोज़ वे ऐसी ही पतनावस्था में थे. “ जिसकी जात का पता नहीं” कहने के पीछे वही गंदी मानसिकता थी जिस गंदी मानसिकता से कोई कहता है, “ तेरे बाप का ठिकाना नहीं…!” यह गंदी गाली किसी औरत को छिनाल या रखैल या कुलटा कहनेकिसी पुरुष को चरित्रहीन या स्त्रीबाज कहनेकिसी बच्चे को एक बाप का नहीं या अवैध कहने जैसी गंदी बात है. यह सांस्कृतिक हीनता है जो श्रेष्टता बन कर चीखती है और अंतत: आपको ही नंगा  कर जाती है. 

   राहुल गांधी के पिता राजीव गांधीराजीव गांधी के पिता फीरोज गांधीराहुल गांधी की मां इंदिरा गांधीराहुल गांधी के नाना जवाहरलाल नेहरूउनके पिता मोतीलाल नेहरू और उनकी मां स्वरूप रानी देवीजवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू व जवाहरलाल नेहरू की बहनें आदि सब-की-सब हमारे स्वतंत्रता संग्राम की मान्य हस्तियां हैं. इन सबने अपनी तरह से वह इतिहास बनाया है जिसके एक छोटे कोने में भी उन सबकी उपस्थिति नहीं मिलती है जो आज सत्ता की कुर्सियों पर बैठे हैं. हम नेहरू खानदान के हर सदस्य से असहमत हो सकते हैं लेकिन उन्हें जाति या धर्म की गाली देने जैसी हीनतर मानसिकता का प्रदर्शन नहीं कर सकते. जातिवादियों को पता होना चाहिए कि संविधान ने उनसे यह हक़ छीन लिया है. 

   राहुल गांधी ने ठीक ही कहा कि उन्हें न अनुराग ठाकुर की माफी चाहिएन उन्होंने इसकी मांग ही की है. उन्होंने यह भी कहा कि वे जो लड़ाई लड़ रहे हैंजाति का सवाल उठा रहे हैंउसके जवाब में गालियां मिलनी ही हैं. हम को भी मालूम हैराहुल गांधी को भी मालूम है कि भारतीय समाज में सदियों से जातीय-न्याय की मांग करने वालों को कम-से-कम जो मिला हैवह गाली ही है. लेकिन अब अब हमारे और उनके बीच एक संविधान भी है जो इसे वर्जित करता है. लोकसभा में संविधान द्वारा वर्जित काम अनुराग ठाकुर ने किया हैतो उनकी संवैधानिक सदस्यता कैसे बरकरार रह सकती है अध्यक्ष ने इसे तब अनसुना कर दिया. सुना कि बाद में इस टिप्पणी को काररवाई से बाहर निकाल दिया. 

   अध्यक्ष ने जिस गुगली से अनुराग ठाकुर को बोल्ड होने से बचायाउसी गुगली से ईश्वरीय प्रधानमंत्री’ क्लीनबोल्ड हो सकते हैं. अध्यक्ष ने जिस टिप्पणी को काररवाई से बाहर निकाल दियाउसे ही अपनी जोरदार अनुशंसा के साथ प्रधानमंत्री ने सारे देश को भेज दिया. यह भी तो संविधान का उल्लंघन है ! संविधान बदलने की घोषित मंशा से चुनाव लड़ कर परास्त हुए ईश्वरीय प्रधानमंत्री” को संसद में संविधान को धूल करने का विशेषाधिकार तो प्राप्त है नहीं. तो अब लोकसभा के बिरले अध्यक्ष बिरला क्या करेंगे वे विपक्ष को सदन से निलंबित करने तथा विपक्ष को आंखें दिखाने के अलावा कुछ करने की हैसियत रखते हैं क्या और फिर यह सवाल भी बन ही जाता है कि अनुराग ठाकुर ने जो किया व कहा उसकी योजना प्रधानमंत्री की स्वीकृति व सहमति से पहले ही बन गई थी तभी तो प्रधानमंत्री नेजो तब लोकसभा में अनुपस्थित थेअनुराग ठाकुर भाषण के तुरंत  बाद उस पूरे भाषण को रि-ट्विट’ किया !     

   अनुराग ठाकुर की बात इतनी मासूम नहीं थी. जाति-व्यवस्था से बीमार इस समाज में जाति को आदमी होने की हमारी हैसियत से जोड़ दिया गया है. कहते ही हैं न कि जो जाती नहीं है वह जाति है. अनुराग ठाकुर उसी बीमार-समाज के प्रतिनिधि हैं. संघवादी सोच ही इस बीमारी से ग्रसित है. इसलिए राहुल गांधी की जाति क्या हैइसका जवाब वही है जो राहुल गांधी ने उस दिन लोकसभा में दिया : उन्होंने पलट कर अनुराग ठाकुर से उनकी जाति नहीं पूछी. ( 04.08.2024)  

Tuesday, 16 July 2024

गोली की बोली

 अमरीका में फिर बंदूक गरजी ! जो भी सुनेगापलट कर पूछेगा कि कबक्योंकि वहां अकारणअसमय व सबसे अप्रत्याशित जगहों पर गोली बरसा कर दो-पांच-दस लोगों-बच्चों-महिलाओं को मार गिराना आम खबर की तरह होता है. यह अमरीकी समाज है जहां पागलपन सामान्य-सा बन गया है. लेकिन इस बार जो हुआ उसके निशाने पर पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप थे. छटांक भर की दूरी से मौत उन्हें छू कर निकल गई - उनका कान मौत के रास्ते में आ गया तो वह बेचारा थोड़ा घायल हो गया. घटना को देखने व जाननेवाले और गोली खाने से बच जाने वाले ट्रंप बता रहे हैं कि यह ईश्वर ही था कि जो उन्हें बचा ले गया. कैसा विद्रूप है कि जब हमारी जान बच जाती है तब हमें ईश्वर की साक्षात उपस्थिति महसूस होती हैजब हम दूसरों की जान लेते हैं तब कहां का ईश्वर और कहां की उसकी साक्षात उपस्थिति !  दुख में सुमरन सब करैं/ सुख में करे ना कोई / जो सुख में सुमरन करैं/ तो दुख काहे को होई ! इसलिए ट्रंप पर चली गोली के समर्थन या विरोध का सवाल नहीं है. सवाल गोली की इस बोली को समझने व समझाने का है.  

अपने-अपने देश में गोली की बोली से बात करने में जो सभी सत्ताधीश हैंवे सभी अमरीका में गोली की बोली की इस घटना से सदमे में हैं — कम-से-कम ऐसा दिखा तो रहे ही हैं !! हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी को सदमा लगा है कि मेरे मित्र ट्रंप’ के साथ ऐसा हादसा हुआ ! मोदीजीअगर ट्रंप आपके मित्र नहीं होते तो फिर भी सदमा होता इतना होता कि आप बयान दे कर अपना सदमा जगजाहिर करते सोचिएगा ! आपने कहा कि राजनीति में हिंसा की कोई जगह नहीं है. अगर यह सच है तो हिंसाघृणाद्वेषझूठहिंसक भाषा व हिंसक मुद्रा की छौंक से चलने वाली आपकी अब तक की राजनीति क्या है हिंसा के पनपने व फूटने की जमीन जितनी तरह से तैयार हो सकती हैउतनी तरह से पिछले 10 सालों में आपकी तरफ से तैयार की गई है. 

दुनिया के दूसरे कुछ हुक्मरानों ने भी गोली की बोली पर ऐतराज उठाया है. इनमें इसराइल के बेंजामिन नेतन्याहू भी हैं और फ्रांस के मैक्रां भी. ये भी और दूसरे सारे भी कह रहे हैं कि हमारे सभ्य समाज में ऐसी हिंसा की कोई जगह नहीं है. किसी ने यह भी कहा कि लोकतंत्र में हिंसा नहीं चल सकती. ये सच में ऐसा मानते हैंइसलिए कह रहे हैंया कह रहे हैं कि हम सच में ऐसा मान लें कि ये सच में ऐसा मानते हैं मामला बहुत जटिल हैक्योंकि झूठ को सच बनाना और फिर उसे सच मानना बहुत-बहुत बड़ा झूठ है. 

हिंसा घटना नहीं है. हिंसा मनोवृत्ति है. जब आप हिंसा को एक परिणामकारी रास्ता मानते हैं तब किसी गांधी की हत्या की लंबी साजिश रचते हैं और प्रार्थना के लिए जाते 80 साल के वृद्ध कोप्रार्थना-स्थल पर पहुंचने से पहले ही भगवान के पास पहुंचा देते हैं. हाथ भी नहीं कांपता है आपकाऔर इतने लंबे वर्षों में कभी प्रायश्चित का भाव भी नहीं उभरा आपमें ! हम कायर इतने होते हैं कि उस हत्या के 76 साल बाद भीएक दशक से ज्यादा समय से सत्ता की चादर अोढ़े रखने के बाद भीकायरता की धुंध इतनी घनी है कि हर संभव मौकों पर वे सब गांधी की विरुदावलि गाते हैं लेकिन यह कह नहीं पाते हैं कि यह हत्या हमने की है ! जो हिंसक होते हैं वे कायर ही होते हैंयाकि ऐसे कहें कि जो कायर होते हैंवे ही हिंसक भी होते हैं. 

मैं मणिपुर की हिंसा की बात न भी करूं तो भी यह तो कहना ही होगा न कि  मोदीजी की भारत सरकार न यूक्रेन की हिंसा के बारे में कभी कुछ बोलीन गजा की हिंसा के बारे में बोली. मित्रों की हिंसा हिंसा नहीं होती हैमित्रों पर हिंसा ही हिंसा होती हैनैतिकता की ऐसी परिभाषा कितनी हिंसक हैइसका हिसाब कोई गांधी ही लगा सकते हैं. भारत की यह चुप्पी और अब यह मुखरता राष्ट्रीय शर्म का सबब है. बेंजामिन नेतन्याहू को भी ट्रंप पर चली गोली से एतराज हैजब कि गजा में दनादन चलती अपनी अमानवीय गोलियों पर उन्हें कभी एतराज नहीं हुआ. फ्रांस में पिछले दिनों हुए विरोध प्रदर्शन को गोली की बोली से ही मैक्रां ने चुप कराया था. और जिस अमरीका में यह गोली चलीउस अमरीका में राष्ट्रपति बाइडन ने उन बच्चों के साथ क्या किया था जो फलस्तीनियों के लिए न्याय की आवाज लगाते हुए वहां के अधिकांश विश्वविद्यालयों में जमा हुए थे 

डोनाल्ड ट्रंप खुद हिंसा भड़काने व नागरिकों को भीड़ में बदल करहिंसा के लिए उकसाने के सबसे बड़े अपराधी हैं. अमरीकी अखबार उनके बारे में लिखते रहे हैं कि वे बला के झूठेसड़कछाप आदमी हैं जो संयोगवश राष्ट्रपति बन गया था. उन पर अमरीकी अदालतों में मुकदमे भी चल रहे हैं जिसे पूर्व राष्ट्रपति को मिले विशेषाधिकार की आड़ में ट्रंप धता बताने में लगे हैं. पिछली बार राष्ट्रपति का चुनाव हारने के बाद भी वे जिस तरह गद्दी छोड़ने को तैयार नहीं हुए उसनेऔर जिस तरह उन्होंने अपने समर्थकों को कैपिटल हिल्स में घुस जाने तथा हिंसालूटपाट मचाने के लिए ललकारा तथा उस सारे हंगामे को चालना दी उसनेअमरीकी लोकतंत्र का चेहरा खासा धुंधला कर दिया है. ट्रंप जब तक राष्ट्रपति रहेव्हाइट हाऊस से सफेद चमड़ी का अहंकारसत्ता की बदबू तथा दौलतमंदों का कुसंस्कार ही अमरीका की पहचान बना रहा. चुनाव जीतना व देश के सर्वोच्च पदों पर जा कर बैठ जाना जैसे भारत में किसी नैतिक श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं है - बल्कि उल्टा ही है ! - वैसे ही अमरीका में भी है. मैं तो कहूंगा कि भारत और अमरीका नहींसारी दुनिया के लिए यही सच है. 

आज अधिकांश अमरीकी नहीं चाहते हैंन बाइडन की पार्टी ही चाहती है कि बाइडन फिर से राष्ट्रपति बनने की कोशिश करें. उनकी दूसरी योग्यताओं की बात न भी करें हम तो भी यह तो सभी जान व देख रहे हैं कि बाइडन शारीरिक रूप से राष्ट्रपति बनने लायक नहीं हैं. लेकिन बाइडन खुद को खुद ही सर्टिफिकेट देते जाते हैं कि मैं हर तरह से राष्ट्रपति बनने लायक हूं : “ या तो मैं या भगवान ही इस बारे कोई दूसरा फैसला कर सकते हैं !” इसे लोकतांत्रिक हिंसा कहते हैं भाई ! 

असहिष्णुताघृणाअंधी स्पर्धाझूठहिंसा आदि कुछ अलग-अलग वृत्तियां नहीं हैं. ये सब एक-दूसरे की संतानें हैं. समाज में आप जैसी वृत्तियों को चालना देते हैं वैसी ही लहरें उसमें उठती हैं. अमरीका में चुनावी बुखार चढ़ता जा रहा है जिसे उन्माद में बदलने की कोशिश में डोनाल्ड ट्रंप लगे हैं. वे जानते हैं कि अमरीकी समाज के दूसरे कई घटकों के खिलाफ उन्माद व असहिष्णुता फैला कर ही वे व्हाइट हाउस में दोबारा प्रवेश पा सकते हैं. वे अपने मित्र से सीखते हों शायद कि यदि यही सब कर के तीसरी बार सत्ता पाई जा सकती हैतो दूसरी बार क्यों नहीं 

सत्ता सबसे बड़ा सच हैतो हिंसा सबसे बड़ा हथियार है. इसलिए सारे सत्तावान इस सबसे बड़े हथियार पर अपना एकाधिकार चाहते हैं. ( 16.07.2024)  

Friday, 5 July 2024

यह जो हमारी संसद है !

 हमारी नई लोकसभा अभी बनी ही है लेकिन चल नहीं पा रही है. चल पाएगी, इसमें शक है. चल कर भी क्या कर पाएगी, कह नहीं सकते. कहावत बहुत पुरानी है जो हर अनुभव के साथ नई होती रहती है कि  पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं. जो पांव दीख रहा है, वह शुभ नहीं है. यदि मैं भूलता नहीं हूं तो कवि विजयदेव नारायण साही ने इस कहावत में एक दूसरी मार्मिक पंक्ति जोड़ दी थी :  पूत के पांव पालने में मत देखो/ वह पिता के फटे जूते पहनने आया है. इस लोकसभा के बारे में यही पंक्ति बार-बार मन में गूंज रही है. 

   जिस पार्टी नेजिन पार्टियों के साथ जोड़ बिठा कर सरकार बनाई हैउन सबको मालूम है कि यह वक्ती व्यवस्था है. कौनपहलेकिसे और कब लंगड़ी मारता हैइसी पर इस लोकसभा का भविष्य टिका हैऔर यह तो सारे संविधानतज्ञ जानते हैं कि लोकसभा के भविष्य पर ही सांसद नाम के निरीह प्राणियों का भविष्य टिका होता है. निरीह इसलिए कह रहा हूं कि पिछले कम-से-कम 10 सालों से हमारे सांसदों का एक ही काम रहा हैजिसे वे बड़ी शिद्दत से निभाते हैं : सरकार ही दी हुई सामने की मेज बजाना या भगवान की दी हुई हथेलियों से तालियां बजाना. प्रधानमंत्री जबजहां कहेंवे अपना काम ईमानदारी से करते हैं. विपक्ष भी ऐसा ही करता है. फर्क है तो बस इतना कि उसके पास कोई प्रधानमंत्री नहीं होता है. इस बार उसके पास एक छाया प्रधानमंत्री’ जरूर है जिसकी छाया कब तककहां तक रहती हैदेखना बाकी है. हम दुआ करते हैं कि अंग्रेजी के शैडो प्राइमिनिस्टर’ का मक्खीमार अनुवाद भले उसे छाया प्रधानमंत्री’ कहेनेता प्रतिपक्ष कभी इस प्रधानमंत्री की छाया न बनें. न उनकी छाया में रहेंन उनको छाया दें. 

   लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव हुआ ही नहींसंख्या बल से उसे लोकसभा पर थोप दिया गया. विपक्ष ने अपनी तरफ से भी एक उम्मीदवार का नाम आगे बढ़ाया जरूर था जिसे ऐन वक्त पर पीछे  खींच लिया गया. जब ऐसा ही करना था तब उसकी घोषणा करने की जरूरत ही क्या थी कांग्रेस ने बाद में तर्क दिया कि हम सहयोग व सद्भावना का माहौल बनाना चाहते थेइसलिए चुनाव टाल गए. भाईजो आपके बीच कहीं है ही नहींवह आप बनाना ही क्यों चाहते थेऔर जो है ही नहींवही बनाना था तो अपना उम्मीदवार आगे ही क्यों करना था प्रतिबद्धताविहीन ऐसे निर्णय दूसरों को मजबूत बनाते हैं और आपकी किरकिरी करवाते हैं. 

   ओम बिरला को दोबारा लोकसभा का अध्यक्ष बनाने के पीछे प्रधानमंत्री का एक ही मकसद थाव है : विपक्ष को अंतिम हद तक अपमानित करना ! बिरला कभी इस पद के योग्य नहीं थेआज भी नहीं हैं. विद्वताकार्यकुशलताव्यवहार कुशलतावाकपटुता तथा सदन में गरिमामय माहौल बनाए रखने जैसे किसी भी गुण से उनका नाता नहीं रहा हैयह हमने पिछले पांच सालों में देखा है. पता नहीं विपक्ष ने उनका इतना स्वागत व गुणगान क्यों किया ! वह सब जो किया गया वह बहुत खोखला था और जो खोखला होता है वह जल्दी ही टूट व बिखर जाता है. वही अब हो रहा है. 

   बिरलाजी का यह गुण जरूर हम जानते हैं कि वे प्रधानमंत्री की धुन पर सतत नाचते रह सकते हैं. लेकिन यह गुण तो सारे सरकारी सांसदों में है. आप प्रसाद’ से त्रिवेदी’ तक किसी की भी परीक्षा ले कर देख सकते हैं. लेकिन ओम बिरला ने पिछली संसद में जिस तरह विपक्ष को तिरस्कृत व अपमानित किया थाउसे ही दोहराने के लिए इस बार भी उन्हें ही प्रधानमंत्री ने आगे किया है ताकि विपक्ष व देश समझे कि कहींकुछ भी बदला नहीं है. इसलिए नई लोकसभा के पहले ही दिन वे अपने पुराने अवतार में दिखाई दिए. जिस असभ्यता से उन्होंने दीपेंद्र हुड्डा को अपमानित कियाशशि थरूर के जय संविधान’ कहने से तिलमिलाएविपक्ष के सांसदों को कब उठना-कब बैठना सिखाने की फब्ती कसी वह सब यह समझने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें क्या करने का निर्देश हुआ है. 

   राहुल गांधी ने जब यह कहा कि उनका माइक बंद क्यों किया गया हैतो अध्यक्ष का जवाब आया कि मैंने पहले भी यह व्यवस्था दी हैऔर आपको फिर से कहता हूं कि मेरे पास माइक का कोई बटन नहीं है. अध्यक्ष का बटन कहां हैयह तो सभी जानते हैं  लेकिन अभी जवाब तो यह आना था न कि माइक बंद कैसे हुआ और किसने किया ?  क्या अध्यक्ष की जानकारी व अनुमति के बगैर ही कोईकहीं से बैठ कर लोकसभा की काररवाई में दखल दे रहा है लोकसभा न हुईईवीएम मशीन हो गई ! अगर ऐसा है तो अध्यक्ष चाहिए ही क्यों जो अनदेखा- अनजाना आदमी बटन बंद कर सकता हैवही लोकसभा चला भी सकता है. इंडिया गठबंधन को तब तक न लोकसभा जाना चाहिएन राज्यसभा जब तक कि यह बता न दिया जाए कि माइक बंद किसने किया थाकिसकी अनुमति या निर्देश से किया था और यह भी व्यवस्था बना दी जाए कि सांसदों को बोलने से रोका तो जा सकता हैमाइक बंद नहीं किया जा सकता है. यह सांसदों का अपमान व तिरस्कार है जिसे किसी भी हाल में परंपरा में बदलने नहीं देना चाहिए. 

   परंपरा की बात है तो यह समझना जरूरी है कि विपक्ष के नेता की भी परंपराएं हैं.  इस अध्यक्ष को न वे परंपराएं पता हैंन विपक्ष के नेता का मतलब इसे मालूम है. जिस सांसदों का जन्म ही 10 साल पहले हुआ हैउनकी यह त्रासदी स्वाभाविक है. उनकी तो आंखें जब से खुली हैं तब से उन्होंने यही देखा-जाना है कि लोकसभा का मतलब एक ही आदमी होता है. भाईयह एकदम सच नहीं है. जैसे यह परंपरा है कि अध्यक्ष जब खड़ा हो जाए तो सभी सांसदों को बैठ जाना चाहिएप्रधानमंत्री जब बोल रहा हो तब सांसदों को शांति से उसे सुनना चाहिएवैसी ही परंपरा यह भी है कि विपक्ष का नेता जब बोल रहा हो तब उसे अध्यक्ष द्वारा बार-बार टोकनाबार-बार समय का भान करानाक्या बोलेंक्या न बोलें आदि का निर्देश देना गलत हैअशिष्टता हैलोकतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन है. आखिर परंपराएं बनती कैसे हैं और उन्हें ताकत कहां से मिलती है परंपराएं कानूनी प्रावधानों से भी अधिक मान्य क्यों होती हैं सिर्फ इसलिए कि कोई भी उन्हें तोड़ता नहीं है. संविधान प्रदत्त शक्तिवान भी उनका शालीनता से पालन करउसे और अधिक मजबूत व काम्य बनाते हैं. राष्ट्रगान चल रहा हो तब राष्ट्रपति के सामने से धड़फड़ाते हुए निकल कर अपनी कुर्सी पकड़ने वाला लोकसभा अध्यक्ष हो कि राष्ट्रपति प्रवेश करें तब भी अपनी कुर्सी पर बैठा रहने वाला प्रधानमंत्री होये सब परंपराओं को ठेस पहुंचाती हैं. निश्चित अवधि में समय निकाल कर प्रधानमंत्री का राष्ट्रपति से मिलना व उन्हें देश-दुनिया के बारे में सरकारी रवैये की जानकारी देना भी एक स्वस्थ परंपरा है जिसका पालन सिरे से बंद है. वैसे यह बात भी अपनी जगह है ही कि राष्ट्रपति जब व्यक्तित्वहीन कठपुतली की भूमिका से संतुष्ट कुर्सी पर बैठा हो तब ऐसी परंपरा कोई निभाए भी क्यों ?   

   यह लंगड़ी व पतनशील गठबंधनों की संसद है जो जब तक रहेगीराष्ट्र व लोकतंत्र को शर्मसार करती रहेगी. विपक्ष के नेता व संपूर्ण विपक्ष को लगातार यह दबाव बनाए रखना चाहिए कि यह संसद सुधरे या टूटे ! 

   अंधभक्त अपनी फिक्र आप करें लेकिन हम-आप तो सोचें कि ऐसा क्यों है कि सत्तापक्ष के सारे शब्द इतने खोखले लगते हैं शिक्षामंत्री ठीक ही तो कह रहे थे कि नीट’ के बारे में हम विपक्ष के सारे सवालों का जवाब देने को तैयार हैं. वे कह तो रहे थे लेकिन उनके हाव-भाव व तेवर यह कहते सुनाई यह दे रहे थे कि कर लो जो करना होहम कोई चर्चा नहीं करेंगे. ऐसा इसलिए था कि इसी मंत्री नेइसी नीट’ के बारे में लगातार यही कहा था कि न कोई लीक हुआ हैन कोई घोटाला हुआ हैसब विपक्ष का कराया हुआ है. न कोई घुसा थान कोई घुसा है”, वाला प्रधानमंत्री का बयान इसी तरह चीन में कुछ दूसरा ही सुनाई दियाऔर वे हमारी सीमा के भीतर ज्यादा खुल कर अपना काम करने लगे. यह वह संसद है जिसके शब्दों का कोई मोल ही नहीं रह गया है. शेरो-शायरी भी हो रही हैकहावतें भी दोहराई जा रही हैंप्रधानमंत्री बड़े-बड़े विचारकों-दार्शनिकों के उद्धरण भी ला-ला कर पढ़ते हैं लेकिन सब-के-सब इतने प्रभावहीन क्यों हो जाते हैं इसलिए कि उनके पीछे विश्वसनीयता का बल नहीं है. आस्थाहीन प्रवचन आत्माहीन कंकाल की तरह होता है. 

   राहुल गांधी चाहें न चाहेंवे कसौटी पर हैं. कभी रहा होगा लेकिन आज नेता विपक्ष शोभा का पद नहीं है. आज यह पद विकल्प खड़ा करने की चुनौती का पद है. विपक्ष को वक्त की सीधी चुनौती यह है कि क्या पंडित जवाहरलाल के दौर वाली संसद वापस लाने की कूवत उसमें है नेहरू वाली संसद इसलिए कह रहा हूं कि हमने वहीं से अपना सफर शुरू किया था और लगातार फिसलते हुए यहां आ पहुंचे हैं. तो कैसे कहूं कि उस दौर से भी बेहतर संसद बनानी चाहिए ! पहले  वहां तक तो पहुंचोजहां से गिरे थेफिर उससे ऊपर उठने की बात करेंगे.  

   राहुल गांधी व इंडिया गठबंधन ने संविधान की किताब दिखा-दिखा कर प्रधानमंत्री को जिस तरह चुनाव में पीटाउसकी काट उन्होंने यह निकाली कि लोकसभा अध्यक्ष को मोहरा बना कर आपातकाल की निंदा का प्रस्ताव पारित करवाया. यह उस घटिया विज्ञापन की तरह था कि “ उसकी कमीज मुझसे सफेद कैसे ?” लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि कांग्रेस को इससे बौखलाने की क्या जरूरत थी कोई 50 साल पहले हुई चूकजिसे इंदिरा गांधी नेकांग्रेस अध्यक्ष ने कई बार सार्वजनिक रूप स्वीकार किया हैउसे ले कर कांग्रेस अब क्यों बिलबिलाती है वह इतिहास की बात हो गई. उसके बाद से कांग्रेस ने संविधान से वैसा कोई खेल खेलने की कोशिश तो की नहीं है. यह भी याद रखना चाहिए कि जनता पार्टी की अल्पजीवी सरकार ने 1977 में ऐसी संवैधानिक व्यवस्था खड़ी भी कर दी है कि किसी सरकार के लिए आपातकाल लगाना असंभव-सा है. फिर आपातकाल का जिक्र आने पर इतना मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. एक गलती हुई जिससे हम दूर निकल आए हैंकांग्रेस यह क्यों नहीं कहती है 

   इतिहास का जवाब देना हो तो संघ परिवार को देना है कि जिस संविधान में इसकी कभी आस्था नहीं रहीजिस तिरंगे को इसने कभी स्वीकार नहीं कियाजिस राष्ट्रगान को इसने कभी माना नहींजिस राष्ट्रपिता को इसने कभी मान नहीं दियाजिस भारतीय समाज की संरचना को यह हमेशा तोड़ने में लगी रहीउसी की आड़ में यह सत्ता में आ कर बैठी हैतो इसमें कैसी नैतिकता व ईमानदारी है कांग्रेस की तरह यह सरकार नहीं कह सकती है कि 50 साल पहले हमारे तब के नेतृत्व से एक चूक हुई थी. यह तो आज भी उसी सावरकरी एजेंडा को मानती हैऔर उसी को लागू करने का मौका ढूंढ़ती रहती है. इस कठघरे में विपक्ष सरकार को खड़ा कर सकेगा तभी अपनी भूमिका निभा सकेगा.  (01.07.2024)

Saturday, 29 June 2024

यह चुप्पी टूटनी चाहिए

जिसे जनता ने बहुमत नहीं दियाउसने अपनी सरकार बना लीजिसे देश ने स्वीकार नहीं किया वह देश को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने के बहाने इटली घूम आया ताकि दुनिया को बता सके कि मैं वहीं हूंजहां था. रात-दिन वही पिछला माहौल बनाने में सारी सरकारी मशीनरी झोंकी जा रही जो माहौल अब कहीं बचा नहीं है. देश ने जिस गोदी मीडिया’ को गोद से उतार दिया हैवह अपने लिए फेयर एंड लवली’ खोजतानई जोड़-तोड़ में लग गया है. कितना शर्मनाक है यह देखना कि कल तक यानी 3 जून की रात तक हर संभव हथियार से स्वतंत्र मीडिया की हत्या करने में जो जुटे थेप्रधानमंत्री की खैरख्वाही में लोटपोट हुए जा रहे थेवे ही मीडिया-व्यापारी 4 जून की शाम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतंत्र की नींव बताते हुए पता नहीं किसेक्यों संबोधित कर रहे हैं. अवसरवादिता आप गिरगिट से सीखेंगे कि गिरगिट आपसेयह  समझना कठिन है. 

जिन्हें याद होगा उन्हें याद होगा कि ऐसा ही लिजलिजा माहौल 1977 के आम चुनाव के बाद भी बना था. कायर व स्वार्थी लोग तब भी बहादुरी का तमगा धारण कर सबसे पहले सड़क पर उतरे थे. जिन्हें लोगों ने इस तरह खारिज कर दिया था जिस तरह देश के लोकतांत्रिक इतिहास में कभीकिसी को खारिज नहीं किया था फिर भी लगातार यह तिकड़म की जा रही थी कि इस अस्वीकृति को कैसे स्वीकृति का जामा पहनाया जाए. जो तब कांग्रेस ने और इंदिरा गांधी ने किया थावही सब आज भारतीय जनता पार्टी व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. तब इमर्जेंसी घोषित की गई थीआज अघोषित इमर्जेंसी से देश जूझ रहा है. इतिहास बताता है कि जो कायर थेवे कायर ही रहेंगे.

ऐसे माहौल में आज देश में कोई जयप्रकाश नहीं हैं. वह नैतिक अंकुश नहीं है जो पक्ष-विपक्ष दोनों को उनकी मर्यादा बताए भी और उसे लागू करने के हालात पैदा भी करे. 1977 में इंदिरा गांधी को हटा कर जयप्रकाश ने जिस सरकार को दिल्ली सौंपी थीउस सरकार को पहले दिन ही यह भी बता दिया था कि सिर्फ 1 साल का समय है आपके पास : “ इस 1 साल में मैं कुछ बोलूंगा नहींआप अपना काम करिएलेकिन आप मेरी गहरी निगरानी में हैंयह कभी भूलिएगा नहीं. एक साल बाद मैं आपका मूल्यांकन भी करूंगा और आगे का रास्ता भी बताऊंगा.” 

जिन्हें पता था वे समझ रहे थे कि यही वह भूमिका थी जिसकी जमीन बनाने में30 जनवरी 1948 को गोली खाने से पहले तक गांधी लगे थे. इतिहास इस तरह भी खुद को दोहराता है. हिंदुत्ववादियों ने गांधी को वह करने का मौका नहीं दियाजयप्रकाश किसी हद तक वह काम कर पाए. 

 1977 की पराजय के बाद जयप्रकाश बिना बुलाए इंदिरा गांधी के घर पहुंचे थे और उन्हें प्यार से समझाया था कि हार-जीत लोकतंत्र के खेल का हिस्सा है. लेकिन लोगों की सच्ची सेवा कर तुम अपना पुराना मुकाम फिर से हासिल कर सकती हो. वैसा ही हुआ. दूसरी तरफ जनता पार्टी के एक साल के कामकाज काएक शब्द में जयप्रकाश का मूल्यांकन था : निराशाजनक ! उन्होंने जनता पार्टी के तब के अध्यक्ष चंद्रशेखर व तब के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को एक खुला पत्र लिखा जिसका लब्बोलुआब यह था कि देश में उभरा आशा का ज्वारआप सबके करतबों से निराशा के भाटे में बदलने लगा है. उन्होंने मोरारजी देसाई को यह भी लिखा था कि उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली कर देनी चाहिए ताकि कोई दूसरा उपयुक्त व्यक्ति सामने लाया जा सके. जयप्रकाश इससे आगे बात  नहीं ले जा सके. मौत की लक्ष्मण-रेखा कौन पार कर सका है !

1977 का अनुभव बताता है और आज 2024 का माहौल भी यही बता रहा है कि जो भी सरकारजैसे भी बनी हैउस पर पहले दिन से ही नजर रखने तथा उसके बेजा इरादों पर अंकुश लगाने की जरूरत है. यह अंकुश सदन के भीतर भी लगे तथा सदन के बाहर भी तभी इस अंधी गली को पार करना संभव होगा.

दिल्ली के बला के असम्मानित लेफ्टिनेंट गवर्नर वी.के.सक्सेना की अनुमति से अरुंधति राय एवं कश्मीरी प्रो. डॉ. शेख शौकत हुसैन पर यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है. इन दोनों पर आरोप है कि 2010 में इन दोनों ने कश्मीर से सवाल पर एक उत्तेजक भाषण दिया था. 2010 के उत्तेजक भाषण से यह सरकार आज तक इतनी उत्तेजित है तो यह जरूरी है कि उसे जितनी तरह से व जितनी ऊंची आवाज में संभव होयह बताया जाए कि यह अब चलेगा नहीं. उसे समझना ही होगा कि वक्त उसके हाथ से निकल गया है. लोकतंत्र का खेल लोकतंत्र की मर्यादा से ही खेला जाएगा. 

मैं अपनी कहूं तो मैं अरुंधति राय के अंग्रेजी लेखन व उनकी भाषा का कायल हूं लेकिन उनकी बातों व स्थापनाअों से मुझे हमेशा ही परेशानी होती है. उनमें कच्चापन भी हैअधकचरापन भी और गैर-जिम्मेवारी भी. लेकिन अरुंधति को किसी मुकदमे में फंसाने का मैं सख्त विरोध करता हूं. उन्हें पूरा हक है कि वे अपनी राय बनाएंउसे जाहिर करें तथा उसे देश में प्रचारित भी करें. ऐसा करते हुए उन पर भी यह संवैधानिक बंदिश है कि वे देश की एकता-अखंडता को कमजोर न करें. अगर सरकार को ऐसा लगता है कि अरुंधति ने यह मर्यादा तोड़ी है तो उसके पास भी अदालत का रास्ता खुला है. वह चोर दरवाजे से अरुंधति पर वार करेयह किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए. पिछले 10 सालों में पनपाई गई यह राजनीतिक संस्कृति न सभ्य हैन लोकतांत्रिक. 

हमें अदालत से बार-बार पूछना चाहिए कि वह संविधान का संरक्षण करने का काम कैसे कर रही है जबकि यूएपीए जैसा कानून संसद ने बना दिया और उसे अदालती समीक्षा के दायरे से बाहर भी कर दिया संविधान कहता है कि देश में संसद ही एकमात्र संवैधानिक संरचना है जिसे कानून बनाने का अधिकार है. वही संविधानउतने ही स्पष्ट शब्दों में यह भी कहता है कि संसद द्वारा बनाए हर कानून की वैधता जांचने का अधिकार जिस एकमात्र संवैधानिक संरचना को है वह है न्यायपालिका. न संसद को अधिकार है कि वह न्यायपालिका का अधिकार छीनेन न्यायपालिका को अधिकार है कि वह संसद के अधिकार पर बंदिश लगाए. फिर न्यायालय देश को बताए कि यूएपीए जैसा कानून उसने कैसे संवैधानिक मान लिया है कितने ही आला लोग इस कानून के तहत सालों से जेलों में बंद हैं. उन्हें दोषमुक्त करना तो दूरउन्हें अदालतें जमानत देने से भी इंकार कर रही हैं. जमानत अदालती कृपा नहीं हैहर नागरिक का अधिकार है बशर्ते कि जमानत के कारण किसी के जीवन पर या राष्ट्र की सुरक्षा पर खतरा न हो. अदालत हमें बताए कि विभिन्न विश्वासों के कारण जिन लोगों को जेलों में बंद रखा गया है उनमें से कौन है जो जेल से बाहर आने पर किसी की हत्या कर देगा या राष्ट्र के खिलाफ षड्यंत्र रचेगा या तो अदालत इस बारे में देश को विश्वास में ले या फिर संविधान के संरक्षण की जिम्मेवारी से अपना हाथ खींच ले. हम इस सफेद हाथी का बोझ क्यों ढोएं यदि यह न चल पाता हैन बोल पाता है ?

यूसुफ पठान क्रिकेट के बहुत आला खिलाड़ी नहीं रहे हैं. अब तो उनका वह खेल भी समाप्त हो चुका है. पता नहींममता बनर्जी ने क्यों यूसुफ पठान को राजनीति में उतारा और यूसुफ पठान ने क्यों राजनीति में उतरना कबूल किया ! राजनीति का यह खेल न तो बहुत सम्मानजनक हैन बहुत अहम. लेकिन बहुत सारे लोग यह खेल खूब खेल रहे हैं तो ममता बनर्जी व यूसुफ पठान को भी यह खेलने का अधिकार तो है ही. तो यूसुफ पठान ने वह खेल खेला और चुनाव जीत कर अब वे सांसद भी बन गए हैं. वडोदरा में रहने वाले इस मुस्लिम-परिवार काबंगाल से भाजपा को हरा कर संसद में पहुंचना संघ परिवार को रास नहीं आया. उनका छूंछा क्रोध फूटा यूसुफ पठान और वडोदरा के उनके घर पर. गुजरात संघ परिवार की घोषित प्रयोगशाला है. वहां से यूसुफ पठान जैसा विभीषण पैदा हो तो संघ-परिवारी उन्माद में आ गए और उनके घर पर पत्थरबाजी हुईयूसुफ पठान को धमकाते हुएउन्हें उनकी औकात बताई गई. यह तो उनका काम हुआ लेकिन इस मामले में राजनीतिक दलों तथा समाज के सभी तबकों में जैसी चुप्पी छाई रही हैवह शर्मनाक भी है और खतरनाक भी ! कोई यह बताना चाह रहा है कि चुनाव का नतीजा भले जैसा भी रहा होहमारी हैसियत में कोई फर्क नहीं आया है. मुसलमान आज भी हमारे निशाने पर हैं. तो यह चुपचाप पी जाने वाला मामला नहीं है. इंडिया गठबंधन को और भारतीय समाज को हर स्तर पर इसकी भर्त्सना करनी चाहिए तथा यूसुफ पठान किस राजनीतिक दल से जुड़े हैंइसका ख्याल किए बगैर उनके साथ खड़ा होना चाहिए. 

चुप्पी लोकतंत्र को कायर व गूंगा बनाती है. यह चुप्पी हर वक्त और हर मामले में टूटनी चाहिएतोड़ी जानी चाहिए. ( 27.06.2024)