Tuesday, 16 September 2025

एक और जगदीप !

     जगदीप छोकर नहीं रहे ! खबर चुप से गुजर नहीं जाती है, थरथराती हुई, संग चलती रहती है. एक आदमी की मौत में और एक जुनून की मौत में फर्क होता है न ! जगदीप छोकर की मौत ऐसे ही जुनून की मौत है. जिसने दिल लगा कर, दिलोजान से लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली के संरक्षण व सुधार के उपाय सोचे व किए, उसके दिल ने ही अंततः मुंह फेर लिया. दिल गया तो सब गया; हम गए. इसलिए जगदीप छोकर गए. 

नाम और काम की विरूपता को ले कर स्व. काका हाथरसी ने  कई हास्य कविताएं लिखी थीं. लेकिन ऐसा तो उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि एक ही नाम के दो व्यक्ति इतनी विरूपित भूमिकाओं में हो सकते हैं ! मैं ऐसी तुलना की कभी सोचता भी नहीं लेकिन लापता लेडीज’ वाले अंदाज में पूर्व उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कोई 53 दिनों बाद जिस रोज प्रकट हुएउसी रोज जगदीप छोकर विदा हुए. तो मुझे ख्याल आया कि एक ही नाम के दो व्यक्तियों में कितना गहरा फर्क है ! जगदीप छोकर ने जाते-जाते भी  रीढ़विहीन सत्तापिपासा के खिलाफ जैसे अपना बयान दर्ज करा दिया. 

बड़ी-बड़ी कुर्सियों परबड़े-बड़े जुगाड़ से बैठने वाले धनखड़ साहब ने सत्ता के साथ रहने का पूरा सुख जिया और फिर सत्ता की दुलत्ती ऐसी खाई कि किसी ने पानी भी नहीं पूछा. गुमनामी में बिसुरते हुए उन्हें अब यह अहसास हुआ कि बहुत हो चुका उनका एकांतवाससत्ता के दरबारी को इस तरह सत्ता के आभामंडल से लंबे समय तक दूर नहीं रहना चाहिए. सत्ता का शास्त्र कहता है कि यहां नियम ऐसा है कि कुर्सी से हटे तो साया भी साथ छोड़ देता है. इसलिए शाही समारोह में, ‘शाह’ लोगों के बीच वे अचानक प्रकट हुए. सत्ता के गलियारों में बने रहने के लिए दरबार से अच्छी जगह क्या हो सकती हैऔर वहां चहलकदमी करने से अच्छी जुगत क्या हो सकती है !  

जगदीप छोकर दरबार के आदमी नहीं थे. कभी अहमदाबाद के आइआइएम में प्रोफेसर रहे छोकर साहब ने वहां से निवृत्ति के बाद कुछ सहमना लोगों के साथ जुड़ कर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म या एडीआर नाम का संगठन बनाया तो फिर उसी के होकर रह गए. संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की अपनी खास जगह होती है - ऐसी जगह जो न बदली जा सकती हैन चुराई जा सकती हैन छीनी जा सकती हैन उसे किसी की जेब में छोड़ा जा सकता है. ऐसा कुछ भी हुआ तो संभव है कि लोकतंत्र का तंत्र बना रहे लेकिन उसकी आत्मा दम तोड़ देती है. यह बुनियादी बात है. 

जब देश में संसदीय लोकतंत्र आया-ही-आया थासंसदीय प्रणाली से अपने स्तर पर एक किस्म की अरुचि रखने वाले गांधी भी चुनाव की इस भूमिका को समझ रहे थे और इसे ले कर सावधान भी थे.  वे अलग-अलग शब्दों में यह बात कहते रहे कि जैसा संसदीय लोकतंत्र हमने अपने लिए चुना है उसमें चुनाव की मजबूत निगरानी जरूरी होगीक्योंकि यहीं से लोकतंत्र को धोखा देने का प्रारंभ हो सकता है. इसलिए गोली खाने से पहले वाली रातअपने जीवन का जो आखिरी दस्तावेज उन्होंने लिखा ताकि कांग्रेस व देश उस पर विचार करेउसमें दूसरी कई सारी बातों के साथ-साथ यह भी दर्ज किया कि मतदाता सूची में नाम जोड़ने-काटने-हटाने आदि का काम पूर्णतः विकेंद्रित हो व ग्राम-स्तर पर लोकसेवकों द्वारा किया जाए. चुनाव आयोग जैसे किसी भारी-भरकम सफेद हाथी को पालने की बात उन्हें कभी रास नहीं आई. लोकसेवकों द्वारा ग्राम-स्तर पर बनाई मतदाता सूची ही अंतिम व आधिकारिक मानी जाएगी तथा उसी आधार पर चुनाव होंगेकुछ ऐसी कल्पना उनकी थी. गांधी को दरअसल गोली मारी ही इस वजह से गई कि वे लगातार खतरनाक विकल्पों की तरफ देश को ले जाने में लगे थे.

आजादी के बाद और गांधी के बाद लोकतंत्र के संवर्धन की तरफ सबसे ज्यादा ध्यान किसी ने दिया व काम किया तो वे जयप्रकाश नारायण थे. तब थे वे समाजवादी पार्टी के सिरमौर नेता व देश मन-ही-मन उन्हें जवाहरलाल का विकल्प मानता था. लेकिन चुनाव में पराजय के बादउनके ऐसे प्रयासों को पराजित विपक्ष का रुदन भी माना गया. लेकिन बात इससे गहरी थीक्योंकि जयप्रकाश इन सबकी थाह से ज्यादा गहरे थे. इसलिए आज़ादी के बाद पहली बार वे जयप्रकाश ही थे कि जिन्होंने चुनाव सुधार पर सम्यक विचार कर अपनी सिफारिशें देने के लिए एक समिति का गठन किया. यह भी लोकतंत्र के संदर्भ में एक नया ही प्रयोग था कि केवल सरकारी नहींनागरिक समितियां भी बनाई जाएंनागरिकों के भी जांच आयोग गठित किए जाएं. जब हम गुलाम थे तब भी गांधी की पहल से जालियांवालाबाग हत्याकांड की जांच के लिए नागरिक समिति बनी थी जिसके गांधी स्वयं भी सदस्य थे. जयप्रकाश ने ऐसे अनेक आयोगों का गठन किया - प्रशासनिक सुधार पर भीशिक्षा-व्यवस्था पर भीचुनाव सुधार पर भीपंचायती राज पर भी. बाद में तो लोकतंत्र का सवाल उन्होंने इतना अहम बना दिया कि संपूर्ण क्रांति का पूरा एक आंदोलन व दर्शन ही खड़ा कर दिया.

छोकर साहब से इस तरह की बात कई मौकों पर हुई. चुनाव प्रणाली का ऐसा केंद्रीकरण बना रहे और सत्ता उसका दुरुपयोग न करेयह सोचना नादानी भी है और किसी हद तक फलहीन भी. वे दो-एक बार मुझसे उलझे भी फिर यह कह कर बात खत्म की कि मैं नया कुछ बनाने जैसी बात कहने की योग्यता नहीं रखता हूं. मेरी कोशिश तो जो चल रहा है उसमें पैबंद लगाने की ही है. 

यह दर्जीगिरी भी खासे महत्व का उपक्रम है. संसदीय लोकतंत्र को बनाने का काम जितना चुनौतीपूर्ण हैउतना ही चुनौतीपूर्ण है उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने का काम . सत्ता को उतना ही लोकतंत्र चाहिए होता है जितने से उसकी सत्ता सुचारू चलती रहे. लोकतंत्र के चाहकों को विकासशील लोकतंत्र से कम कुछ पचता नहीं है. लोकतंत्र का आसमान लगातार बड़ा करते चलने की जरूरत हैक्योंकि जो नागरिक के पक्ष में विकसित न होता रहेवह लोकतंत्र नहीं है. जगदीप छोकर ऐसे विकासशील लोकतंत्र के सिपाही थे. वे अब नहीं रहे ! लोकतंत्र रहा क्या पुतिन वाला लोकतंत्र भी तो हैया जिनपिंग वाला या फिर नेतान्हू वाला ! मोदी मार्का लोकतंत्र भी तो है ही न जो यूएपीए की बैसाखी लगा कर ही चल पाता है  - वह भी घुटनों के बल ! 

  लोकतंत्र रहेगा क्या यह सवाल व यह चुनौती हमें सौंप कर जहां छोकर साहब गए हैंवहां भी वे लोकतंत्र की लड़ाई ही लड़ते मिलेंगे. ( 14.09.2025)          

10 और 5 का शर्मनाक खेल

     कलम में जितनी संभव है शर्म की उतनी स्याही भर कर, अपने देश ने नाम जितने संभव हैं उतने खून के आंसू पी कर, और भारतीय न्यायपालिका की तरफ पछतावे से भरी आंखों से जितना देखना संभव है, उतना देखते  हुए मैं यह लेख लिख रहा हूं. रात के 3 बज रहे हैं लेकिन मैं चाह कर भी आंखें बंद नहीं कर पा रहा हूं, क्योंकि यह सारा माहौल खुली आंखों से जितना सर्द व घुटता हुआ लगता है, बंद आंखों में वह उससे भी भयावह व दमघोटूं बन जाता है. आपने कभी महसूस किया है कि जब अंधकार सामने आ कर आपको घूरने लगता है तब वह कितना अंधेरा होता है ! वह अंधकार से भी अंधेरा हो जाता है, क्योंकि तब वह बोलने भी लगता है.

   आज ही दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने देश के उन 10 नागरिकों को जमानत देने से मना कर दिया जो पिछले 5 सालों से जेलों में बंद हैं. न्यायमूर्ति नवीन चावला व शालिंदर कौर की बेंच ने जमानत रद्द करते हुए जो कहा उससे मुझे ख्याल आया कि सचमूर्तियां भी कहीं न्याय करती हैं क्या ! कर सकती हैं क्या करें तो वे मूर्तियां न रहें ! कौन हैं ये 10 लोग नाम ही काफी है : सरजिल इमामउमर ख़ालिदगुफिशा फातिमाअख़्तर खानअब्दुल ख़ालिद सैफीमुहम्मद सलीम खानशिफा-उर रहमानमीरान हैदर और शादाब अहमद. 10वें अपराधी तसलीम अहमद की जमानत रद्द करने का श्रेय न्यायमूर्ति सुब्रमोनियम प्रसाद तथा हरीश वैद्यनाथन शंकर की बेंच को जाता है. इन दसों का अपराध एक ही है कि इन सबने सोच-समझ करबखूबी बनाई योजना के तहत 2020 में राजधानी दिल्ली में दंगों को अंजाम दिया !”  

   क्या मैं इन दसों को याकि इनमें से किसी एक को भी जानता हूं नहींहर्गिज नहीं ! लेकिन मैं इनमें से एक-एक को जानता हूंक्योंकि जीवन के जो 75 से अधिक वसंत मैंने अभी तक बिताए हैंउनमें ये ही लोग मेरे अग़ल-बगल रहेबोलेचलेखेले हैं. मैं अगर इन 10 लोगों के नाम आपको फिर से बताऊं तो मेरी बात समझना शायद आसान हो जाए आपके लिए - शिवशंकर प्रसादराज कुमार जैनशरद यादवमीरा कुमारीसुब्रमण्यम स्वामीसदानंद सिंहकार्तिक उरांवबिशन सिंह बेदीकुंती मुर्मू और प्रकाश झा. ये 10 लोग हैं जिन्होंने 75 से ज्यादा सालों से बड़े हो चुके हमारे गणतंत्र की जड़ें खोदने की योजनाबद्ध साजिश की. ये 10 यदि सप्रमाण पकड़े न गए होते तो हमारे सामने हमारा गणतंत्र नहींउसका मलबा पड़ा होता आज !  

   इस सूची को देखते ही मेरी तरह आपके मन में भी तक्षण यह सवाल पैदा होगा कि क्या कभी ऐसा संभव है कि कोई 10 लोग मिल करकरोड़ों की आबादी वाले इस महान देश की जड़ें खोद दें अगर ऐसा कभी हुआ तो मैं कहूंगा कि इसकी जड़ थी ही नहीं ! फिर मेरी तरह आपके जहन में भी ख्याल आएगा कि यदि इतना बड़ा षड्यंत्र रचा गया तो इस बहुधर्मी देश में यह कैसे संभव हुआ कि सिर्फ हिंदू ही इसमें लिप्त थे यह बात तो अब तक बड़ी मजबूत लगती आ रही थीबड़े-बुजुर्गों द्वारा हमें समझाई जा रही थी कि अपराध व अपराधी की जाति-धर्म का ठिकाना नहीं होता है. तो फिर यह कैसे हुआ कि इस मामले में यह ठिकाना पक्का व पुख्ता हो गया ?  लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है ! कोई उन्मत्त हो कर कहेगा कि ( एक भद्दी-सी गाली देते हुए जैसी गोली मारो …’ का नारा खुलेआम लगाते हुए हमारे एक-दो-तीन-चार ….सत्ताधारी कुंवरों व बादशाह ने दी थीदेते ही रहते हैं ! ) कि सबको फांसी चढ़ा दो ! मैं कहूंगा : क्या बात कही हैएकदम मेरे मन की बात है ! लेकिन आप कहेंगे कि नहींनहींजरा जांच-परख लो ! फांसी का क्या हैवह तो अपने कानून के हाथ में आज भी हैकल भी रहेगा ! लेकिन संविधान है न हमाराऔर उसकी बनाई न्यायपालिका है नतो उसे अपना काम करने दोइन सारे अपराधियों पर आज-के-आज मुकदमा चलेइनका अपराध प्रमाण सहित देश जान ले और फिर इनको फांसी दे दी जाए ! मैं कहता हूं कि भाईक्या बात कही है आपने ! एक सभ्य समाज मेंजिसमें इंसान बसते हैंवहां ऐसा ही होना चाहिए ! 

   आप ऐसा कहेंगे तो इन 10 में से कोई एक ( याकि सभी-के-सभी ! ) कह उठेंगे कि हम तो पिछले 5 सालों से जेल में बंद हैं. न कभी मुकदमा चला है इन सालों मेंन हमारी पेशी हुई हैन उधर से कभी वकील खड़ा हुआ हैन इधर से ! हम पर जो भी आरोप हैंजो पुलिस के कागजात हैंवे सब हमें दिए जाएं ताकि हम भी और हमारे वकील भी उसे देख कर यह तो समझ सकें कि आरोप क्या हैंऔर हमारा जवाब क्या है मुकदमा चले और माननीय न्यायमूर्ति उसे सुनेंदेश भी जानेसंविधान भी उसे परखे और फिर साबित हो कि फांसी पड़नी चाहिए तो पड़े !! हम जो मांग रहे हैं वह रिहाई नहीं हैजमानत है. आपने ही हमें बताया-सिखाया है कि हमारे लोकतंत्र में जमानत नागरिक का स्वाभाविक अधिकार हैजेल अंतिम अपवाद है ! तो हमारे मामले में यह क्यों नहीं हो रहा है संविधान कहता है कि बिना मुकदमा चलाए किसी को जेल में बंद रखना उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है. इस हनन को रोकने के लिए ही तो हमने न्यायपालिका नाम का इतना बड़ा सफेद हाथी पाल रखा है. यह खाता बहुत हैकरता क्या हैयह समझना अब भारी हुआ जाता है. 

   आपको भी लग रहा है न कि इस दूसरी सूची के अपराधियों का यह कहना एकदम खरा है ! आज ही मुकदमा चलाओ और कल फांसी दे दोकोई एतराज नहीं करेगा ! लेकिन जब हम यही बात दूसरी नहींपहली सूची के लिए कहते हैंसब पलट जाते हैं. तो बात ऐसी बनती है कि अपराध व अपराधी का फैसला हम नाम देख कर करते हैं. यह शर्मनाक हैयह अंधेरा हैयह दमघोंटू है. यह लोकतंत्र की हत्या है. 

   क्या हमारे न्यायमूर्तियों को कभी इसका अहसास होता है कि जितनी बार वे पहली सूची के लोगों की जमानत रद्द करते हैंउतनी-उतनी बार न्यायपालक की उनकी छवि धूमिल होती जाती है क्या हमारी न्यायपालिका को इसका अहसास है कि भारतीय नागरिक के मन में आज अपने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता जिस गतालखाने में चली गई हैन्यायपालिका की विश्वसनीयता उसके आसपास ही है 

   बहुमत के नशे में चूर कोई सरकार ऐसा कानून बना देती है जिसमें व्यवस्था यह बनाई गई है कि यूएपीए के मामले में की गई गिरफ्तारी न्यायपालिका की समीक्षा के भीतर नहीं आएगीऐसा चुनाव आयोग बनाया जाता है कि जो हमेशा सरकार की तरफ ही झुका रहेगाऐसा कानून बनाया जाता है कि चुनाव आयुक्तों पर कभीकिसी अदालत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है आदि और हमारी न्यायपालिका देखती रह जाती हैतो वह अपने अस्तित्व का मतलब ही खो देती है. 

   हम भारत के नागरिकों ने अपने संविधान की संरचना ऐसी बनाई जिसमें हमने अपनी न्यायपालिका में यह आदेश दिया है कि आपको निरंतर चौकन्ना रह कर यह देखना है कि कोई भी विधायिका या कोई भी कार्यपालिका या न्यायतंत्र का कोई भी पुर्जा कहीं सेकभी संविधान पर हाथ न डाल सके ! ऐसा होने से पहलेऐसा होने के बाद या ऐसी संभावना भांप कर न्यायपालिका को संविधान की तलवार ले कर खड़ा हो जाना है. इसलिए संविधान में हमने एक ही ऐसी संरचना बनाई हैन्यायपालिका जिसे सतत विपक्ष में रहना है यानिकी संविधान के पक्ष में रहना है. हमारा संविधान अलिखित नहींलिखित है और उसे सिर्फ वकील साहबान नहींहम भी पढ़ पाते हैं. जब आपकी व्याख्याएं बहुत जटिल होती हैंतब हम आसानी से समझ जाते हैं कि आप संविधान के शब्दों के पीछे छिपी भावना को समझने में चूक रहे हैं या फिर संविधान की अपनी लक्ष्मण-रेखा पर पांव धर रहे हैं. यह वह लोकतांत्रिक अपराध है जिसकी सजा आपकी नहींहमारी अदालत में दी जाती है. सरकारों को भले पांच साल में एक बार ( या जब भी चुनाव हो !) हमारी अदालत में आना पड़ता हैआप तो हर रोज हमारी अदालत में होते हैंयह न हम भूलेंन आप ! 

   2020 का दिल्ली दंगा पूर्वनियोजित था. भारतीय नागरिकों ने उस दौर में अपूर्व एकता व साहस के साथ दिल्ली में ही नहींदेश भर में अपने संविधान के आईने में अपनी छवि खोजी थी. तब की सरकार को वह बहुत बड़ी व गहरी चुनौती थी कि “ किधर से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज / मैं अपना जाम उठता हूंतू किताब उठा !” 30 जनवरी 1948 नहीं आई होती और महात्मा गांधी जीवित होते तो वे भी 2020 में अपने युवकों के साथ उसी तरह खड़े होते जिस तरह सन् 42 में हुए थे. लेकिन इतिहास बताता है कि उस दौर में भी लोग भटके थेगलत रास्तों की ओर गए थे और तब गांधी ने ही अपनी अदालत में उनकी पेशी ली थी. वैसी ही सावधानी आज भी करनी है. इसलिए बगैर पल गंवाए इस लेख की पहली सूची के लोगों पर मुकदमा चलाया जाए व रोज-रोज की सुनवाई के साथ अदालत अपना फैसला सुनाए. फिर संविधान के जाल में फंसता कौन हैकिसे फांसी होती हैयह तमाशा हम सब देखेंगे. इसलिए हमारे लोकतंत्र को आज व अभी जमानत चाहिए.  ( 05.09.2025 )

Monday, 1 September 2025

कैसा है 80 साल बूढ़ा 15 अगस्त

कैसा अजीब मंजर है आंखों के सामने कि लोकतंत्र के पन्ने-पन्ने उखड़ कररद्दी कागजों-से हवा में इधर-उधर उड़ रहे हैं और इन्हीं पन्नों के बल पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सत्ता में बैठी सरकार आंखें मूंदे बैठी है कुछ वैसे ही जैसे बिल्ली सामने से भागते चूहों की तरफ से तब तक आंख मूंदे रहने का स्वांग करती रहती है जब तक कोई चूहा एकदम पकड़ की जद में न आ जाए. दूसरी तरफ़ है नौकरशाही से छांट कर लाई गई वह तिकड़ी बैठी है जिसे हम अब तक चुनाव आयोग कहते आ रहे थे. वह हवा में उड़ते-फटते अपने ही मतदाता सूची के पन्नों को रद्दी बताती हुईसारे मामले को मतदाता’ की नौटंकी करार दे रही है. तीसरी तरफ़ है हमारा सुप्रीम कोर्ट जो इन पन्नों को लोकतंत्र की नहींतथाकथित चुनाव आयोग की संपत्ति बता रहा है और कह रहा है कि भले पन्ने चीथड़े हो गए हैं लेकिन हमें व्यवस्था को बचा कर तो रखना है न ! हरिश्चंद्र’ नाटक के दुखांत-सी इस नाटिका के पीछे कहीं से एक आवाज़ और भी आती है : “ मैं निश्चित देख रहा हूं कि दलीय लोकतंत्र की इस यात्रा में एक वक्त ऐसा आने ही वाला है जब तंत्र व लोक के बीच वर्चस्व की लड़ाई होगीऔर तब यह याद रखना कि लोक के नाम पर बने ये सारे लोकतांत्रिक संवैधानिक संस्थानलोक के नहींतंत्र के साथ जाएंगेक्योंकि वे वहीं से पोषण पाते हैं.” जरा गौर से सुनेंगे तो आप पाएंगे कि यह आवाज़ महात्मा गांधी की है. 

    एकदम गणित में न भी बैठे तो भी 78 साल व 80 साल में कोई ख़ास फर्क नहीं होता हैवह भी तब जब आप व्यक्ति की नहींराष्ट्र-जीवन की बात करते हैं. 1947 के 15 अगस्त को मिली आजादी ( 2014 में मिली आजादी वाला गणित जिनका होवे इसे न पढ़ें !) इस 15 अगस्त को 78 साल की तो हो ही जाएगी. तो मैं दो साल आगे का हाल देखते हुए लिख रहा हूं कि 80 साल में यह आजादी कैसे इतनी बूढ़ी हो गई कि इसके आंचल में अपने ही राष्ट्र की विविधताओं के लिए जगह नहीं बच रही हैइसके आंचल में असहमति की न तो जगह बची हैन सम्मानक्यों ऐसा है कि इसके आंचल में खोजने पर भी देशभक्त कमदेशद्रोही अधिक’ मिल रहे हैंयह क्या हुआ है कि जिधर से देखोइसके आंचल में चापलूस व अधिकांशत: निकम्मी नौकरशाही मिल रही हैडरी हुई व स्वार्थी न्यायपालिका व अयोग्य जज मिल रहे हैंभ्रष्ट व आततायी पुलिस मिल रही हैअंधभक्त व निरक्षर राजनीतिज्ञ मिल रहे हैं वह सब कुछ मिल रहा है जो नहीं मिलना चाहिए था और वह सब खो रहा है जो हर जगहअफरातन मिलना चाहिए था. 

    ऐसा नहीं है कि पहले सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था और अचानक ही यह बिगाड़ आ गया है. लंबी गुलामी सबसे अधिक मन को बीमार करती है. गुलाम मन आजादी के सपने भी गुलामी के कपड़ों में ही देखता है. हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ. एक आदमी था जरूर कि जिसमें ऐसा आत्मबल था कि वह भारत राष्ट्र सेमन-वचन-कर्म तीनों स्तरों पर आजादी की साधना करवा सकता था. लेकिन आजादी के बाद हमने सबसे पहला काम यह किया कि अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. आजादी के सबसे उत्तुंग शिखर का सपना दिखाने वाले महात्मा से छुटकारा पा कर हमने आजाद भारत का सफर शुरू किया. तो ग़ुलाम मन से घिरी आजादी की कच्ची समझगफ़लत,दिशाहीनताबेईमानी सबके साथ हम चले. गांधी ने जिन्हें बहुत वर्ष जिओ  और हिंद के जवाहर बने रहो” का आशीर्वाद दिया था वे जवाहरलाल बहुत वर्ष जिए’ ज़रूर लेकिन जवाहर’ कम, ‘नेहरू’ अधिक बनते गए. लेकिन एक बहुत बड़ा फर्क था - बहुत बड़ा ! - कि नेहरू थे तो यह आस भी थी कि शीर्ष पर कमजोरी है लेकिन बेईमानी नहीं है. गाड़ी पटरी पर लौटेगी. नेहरू के बाद यह आस भी टूटती गई.    

    दुष्यंत कुमार ने यह नजारा पहले ही देख लिया था. इसलिए लिखा : “ कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए / कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए…” लिखा और सिधार गएक्योंकि 80 साल की बूढ़ी इस आजादी के साथ जीना बहुत कलेजा मांगता है. 

    हमारी आजादी की कौन-कौन-सी पहचान ऐसी है कि जिससे आप पहचानते हैं कि यह जवां होती आजादी है आज के सरकारी फैशन के मुताबिक हमारी आजादी की एक ही पहचान है : हमारी फौज ! एक सुर से सारे दरबारी गीदड़ हुआं-हुआं करते हैं कि हमारा जवान बहादुरी से सीमा पर खड़ा हैइसलिए हम सीमा के भीतर चैन की बंसी बजाते हैं. हमें पंडित नेहरू ने बताया था कि सीमा पर हमारा जवान अकेलेसारी प्रतिकूलताओं के बीच भी इसलिए खड़ा रह पाता है कि उसके पीछे सारा देश एकताबद्ध अनुशासन में सक्रिय खड़ा रहता है. फौज में बहादुरी व भरोसा हथियारों से नहींहथियारों के पीछे के आदमी के मनोविज्ञान से आता है. फौजी को जब यह भरोसा होता है कि वह सही लोगों के लिएसही नेतृत्व मेंसही कारणों के लिए लड़ रहा है तब वह जान की परवाह नहींतिरंगे की परवाह करता है. लेकिन नेहरू जो भी कह रहे थेजो भी कर रहे थेजो भी सोच रहे थे वह सब गलतनकली व देश का अहित करने के लिए थाऐसा बता कर जो आज नकली नेहरू’ बन रहे हैंवे फौज को गुलामी वाली पलटन में बदल रहे हैं. 

    आज सीमा पर खड़ा हर जवान जानता है कि उसे अग्निवीर बना करउसके भविष्य की सारी अग्नि किसी ने डकार ली है. ऐसे छोटे व टूटे मन से वह कौन-सी लड़ाई लड़ेगा तो हम आज यह पहचान पाएं कि नहीं लेकिन सच यही है कि जैसे दुनिया में दूसरी जगहों पर है वैसा ही हमारे यहां भी हो रहा है कि फौज नहींहथियार लड़ रहे हैं. इसलिए हम भी दुनिया भर से हथियार खरीदने की होड़ में उतरे हुए हैं और अपनी फौज अग्निवीरों से बनाई जा रही है. भाड़े के सिपाहियों से भी लड़ाई लड़ी जाती हैयह इतिहास में दर्ज तो है ही.  

    आजादी के बाद से अब तक फौज का ऐसा राजनीतिक इस्तेमाल नहीं हुआ था जैसा आज आए दिन हो रहा है. फौज के बड़े-बड़े अफ़सरान रोज़ सरकारी झूठ को फौजी सच बनाने के लिए उतारे जा रहे हैं. बंदूक चलाने वाले जब ज़बान चलाने लगें तब समझिए कि आजादी बूढ़ी हो रही है. अभी-अभी हमारे वायुसेना प्रमुख ने ऑपरेशन सिंदूर के सिंदूर की रक्षा के लिएउस ऑपरेशन के महीने भर बाद यह रहस्य खोलने हमारे सामने आए कि हमने पाकिस्तान के कितने विमान मार गिराएउसे कितनी क्षति पहुंचाई और कैसे उसे युद्धविराम के लिए लाचार किया. हम कितने ख़ुश व आश्वस्त होते यदि उनके इस बयान से सरकार की बू नहीं आती होती ! यह तो हमने पूछा ही नहीं कि पाकिस्तान के कितने विमान गिरेक्योंकि हमें यह पता है कि जैसा हमारे बीच के हर युद्ध में हुआ वैसा ही इस बार भी हुआ कि पाकिस्तान की हमने बुरी हालत की. हम पूछ तो बार-बार यह रहे हैं कि भारतीय सेना का कितना नुकसान हुआ हमारे कमजोर राजनीतिक नेतृत्व के कारणहमारी कमजोर रणनीति के कारण हमारे कितने विमान गिरेकितने जवान हत हुएहम जानना चाहते हैं कि कश्मीर में कितना नागरिक नुक़सान हुआ और सरकार ने उनकी क्षतिपूर्ति के लिए क्या किया ?                     

वायुसेना प्रमुख को सफ़ाई देने के काम पर सरकार ने क्यों लगाया यह समझना कठिन नहीं है. हमारी सेना के दो सबसे बड़े अधिकारियों ने ऑपरेशन सिंदूर के तुरंत बाद ही, कहीं विदेश में यह खुलासा कर दिया था कि प्रारंभिक नुक़सान हमें इतना हुआ था कि हमें अपनी रणनीति बदलनी पड़ी और तब कहीं जा कर हम परिस्थिति पर काबू पा सके. उन्होंने यह भी बताया था कि विमान हमारे भी गिरे और जवान हमारे भी हत हुए. इसमें अजूबा कुछ भी नहीं है, क्योंकि यही तो युद्ध है. लेकिन सरकार तो यह बताने में जुटी रही कि हमें खरोंच भी नहीं आई और पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए. लोकसभा में हमारे रक्षामंत्री ने भी जो कहा उसका सार यही है. यह तो उस डॉनल्ड ट्रंप की पगलाहट ऐसी है कि उसने परममित्र का कोई लिहाज़ नहीं किया और बताया कि भारत के बड़े विमान भी गिरे हैं. अब हम ऐसे हैं कि अपने परममित्र की किसी भी बात को काटते नहीं हैं.  

    इसलिए इतने दिनों बाद फौजी सफ़ाई की जरूरत पड़ी. जब वायुसेना प्रमुख सफ़ाई देने आए तो बात ज्यादा सफ़ाई से होनी चाहिए थी: पाकिस्तान के विमान कहां-कहां गिरे यह भी बतातेविमान के मलबों की तस्वीर फौज ने ज़रूर ही रखी होगी तो वह भी दिखातेजवाबी कार्रवाई में हमारा नुक़सान कितना व कहां-कहां हुआइसका ब्योरा देतेनागरिकों को कहांक्या झेलना पड़ा और कहांराहत का काम कैसे किया गयायह बताते. ये सारी जानकारियां देश पर उधार हैं जिन्हें वायुसेना प्रमुख को उतारना चाहिए था. अगर यह उधार बना कर ही रखना था तब वायुसेना प्रमुख को सामने लाने की जरूरत ही क्या थी कैसे दयनीय स्थिति है यह कि वायुसेना प्रमुख भी इतनी हिम्मत नहीं रखता है कि अपना राजनीतिक इस्तेमाल होने से मना कर सके आख़िर परमवीर चक्र वाले लोग कैसे चक्कर में पड़ गए हैं ! सेना की तरफ बहादुरी से देखने वाला जो भाव हमें मिला हैहमारी आज की पीढ़ी को वह कैसे मिलेगा उनके लिए तो हमारी फौज की छवि भी माटी की ही हो जाएगी ! 

आजादी लाल किले से बोलने से मजबूत व परिपूर्ण नहीं हो जाती है. आप लाल किले से बोल क्या रहे हैंउससे लाल किला मज़बूत होता है. नेहरू ने लाल किले से जब जय हिंद !’ का नारा तीन बार उठाया था तब उनकी आवाज के पीछे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आवाज सुनाई देती थी.एक तड़प सुनाई देती थी. आज उसी नारे की गूंज एकदम खोखली सुनाई देती है. 80 सालों में यह फर्क क्यों हो गया इसलिए कि आज लाल किले से पार्टी का प्रचार और आत्मप्रशंसा का आयोजन होता है. आप आत्ममुग्धता में कितनी भी बातें करेंउनका नकलीपन देश पकड़ ही लेता है. अब लाल क़िला से राष्ट्र को कोई संबोधित नहीं करता है. अब वहां से लोग अपनी मंडली को संबोधित करते हैं. 

    हमारी प्रगतिविकासअपराधजनसंख्या आदि-आदि से ले कर प्राकृतिक आपदा आदि तक के आंकड़े भी जिस तरह लुप्त हो गए हैं उस तरह तो कभी गधे के सर से सींग भी लुप्त नहीं हुई थी. हमारा वह विभाग ही लुप्त हो गया है जो सरकारों से इतर अपना अध्ययन करता था व आंकड़े जारी करता था. आंकड़ों के सच के आईने में मुल्कों को अपना चेहरा देखना व संवारना होता है. लेकिन आप लाल किले से हर बार वही आंकड़े सुना रहे हैं जिनका कोई आधार-अध्ययन नहीं है. आंकड़ों की सरकारी फसल चाहे जितनी जरखेज हो रही होलोकतंत्र की धरती तो बंजर होती जा रही है. 

    अकल्पनीय विविधता से भरा यह देश संस्कृति की जिस डोर से बंधा हैवह बहुत मज़बूत है लेकिन है बहुत बारीक ! तोड़ोगे नहीं तो अटूट बनीमज़बूत होती जाएगीवार करोगे तो टूट जाएगीटूटती जाएगी. यह हजारों सालों की अध्यात्मिक परंपरा व साधना से पुष्ट हुई है. इसके पीछे सभी हैं - संत-सूफी-गुरू-भजनिक-उद्दात्त चिंतन वाले सामाजिक नेतृत्वकर्ता-गांव-नगर-शहर. सब रात-दिन सावधानी से इसे सींचते रहे तो यह अजूबा साकार हुआ है. ऐसा समाज संसार में कहीं है नहीं दूसरा. यह हमारा समाज ऐसा इसलिए है कि हमारे नेतृत्व ने रहीम को सुना व गुना था : रहिमन धागा प्रेम का / मत तोड़ो चटकाए/ टूटे ता फिर ना जुड़े/ जुड़े गांठ लग जाए. 

    पिछले दिनों में बहुत गांठ लग गई है. पैबंद लगे कपड़े की भी कोई शान होती है क्या ऐसा ही हमारा लोकतंत्र हो गया है. लेकिन हमारा है न तो हम पर यह पुरुषार्थ उधार है कि इसे फिर से तरोताजा खड़ा करें. 

वो  खड़ा है एक  बाबे-इल्म की  दहलीज़ पर 

मैं ये कहता हूं उसे इस ख़ौफ़ में दाखिल न हो. 

( 13.08.2025)

Wednesday, 6 August 2025

इस चुनाव में आप हिस्सा क्यों ले रहे हैं श्रीमान !

    बिहार के बहाने जो चुनाव आयोग सारे देश को धमका रहा है, हमारा सर्वोच्च न्यायालय उसे गुदगुदा रहा है; और हमारे राजनीतिक दल चुटकुले सुना रहे हैं. यह बड़ी पतित घड़ी है. 

बिहार में चुनाव आयोग की सक्रियता ऐसी है कि वह किसी भी राजनीतिक दल को शर्मिंदा कर दे; किसी भी सरकारी विभाग को ईर्ष्या से भर दे. सरकारी अधिकारी ऐसी ताबड़तोड़ गति से काम करते या तो नोटबंदी के वक्त मिले थे या अब वोटबंदी का काम करते मिल रहे हैं. होगा क्या, कोई नहीं जानता लेकिन सब ऐसी मुद्रा धारे हैं मानो सारे ही डोनल्ड ट्रंप से ट्यूशन ले कर आए हैं. 

चुनाव की गंध हवा में घुली नहीं कि राजनीतिक दलों के मुंह में लार घुलने लगती है. चुनाव की यही गली तो है जो सत्ता तक अथवा सत्ता पाने के ख्याली सुख तक उन्हें ले जाती है. पक्ष-विपक्ष का विभाजन एक अलग स्तर पर है लेकिन सत्ता सत्ताकांक्षी के बीच खास बड़ा कोई विभाजन नहीं है. मिला-जुला मामला है. बकौल दुष्यंत कुमार : 

पक्ष   प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं 

बात इतनी है कि कोई पुल बना है 

यही पुल है जिससे ये राजनीतिक लोग इधर-से-उधर या उधर-से-इधर आते-जाते हैं और ऐसे आराम से कि पुल पर आत्मा का कोई भार भी नहीं पड़ता ! जब इधर थे तब जो बोलते थे उसका कोई नैतिक मूल्य नहीं था, अब उधर से जो बोलते हैं उसकी कोई नैतिक भित्ति नहीं है. फिर बोलने वाला कोई श्रीमंत सिंधिया हो कि कोई निशिकांत दुबे. इसलिए मतदाता यदि इनको अलग-अलग पहचानने से मना कर देता है तो वह उसके अज्ञान का नहीं, उसकी अदृश्य समझदारी की गवाही है. 

चुनाव के नाम से ही जो लार इन सबके मुंह में घुलने लगती है, वह धीमे-धीमे जहर की तरह जनता -मतदाता- की रगों में उतरने लगती है. जहर फैलता जाता है. तब पुल पर आवाजाही करते पक्ष-विपक्ष के ये ही लोग, मौका अपनी स्थिति देख कर समवेत हुआं-हुआं करने लगते हैं कि समाज अनैतिक हो गया है, उसे लोकतंत्र, संविधान, सांप्रदायिक सद्भाव आदि से कोई मतलब नहीं रह गया है. अब यह भी कहा जा रहा है कि लोगों पर हिंदू वर्चस्व का नशा ऐसा चढ़ा है कि वे दूसरा सब कुछ भूल बैठे हैं. बार-बार संविधान की कसमें उठाने शोर मचाने वाले कौन हैं ये लोग ? जो अभी तक विपक्षी दलों में हैं और नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करने में जिनका दम फूला जा रहा है, वे सबसे मुखर हैं. फिर वे भी हैं जो जनता से एकदम कटे, तथाकथित बुद्धिवादी गिरोह के सदस्य हैं. इनका पिछला इतिहास देखेंगे आप तो पाएंगे कि राजनीतिक-सामाजिक नैतिकता, समता-समानता के संघर्ष, लोकतंत्र, संविधान, सांप्रदायिक सद्भाव आदि के प्रयासों से इन सबका दूर का नाता भी नहीं रहा है.  

लोकविहीन लोकतंत्र की यह त्रासदी सारी दुनिया में एक-सी है. कहीं यूक्रेन में, कहीं गजा में, कहीं कंबोडिया में, कहीं भारत-पाक के बीच में, कहीं ईरान में यानी ग्लोब में जहां-जहां आज गहरे जख्म नजर रहे हैं, उन सबके पीछे लोकविहीन लोकतंत्र का दानव अट्टहास कर रहा है. लेकिन अभी मैं बात तो बिहार में मतदाता परीक्षण के बहाने नागरिकता की की जा रही गहरी पड़ताल की कर रहा हूं . यह संविधान को एकदम उलट देने वाली बात है. संविधान कहता है कि नागरिक अपनी सरकार का चुनाव करेंगे; चुनाव आयोग कह रहा है कि सरकार अपने नागरिक का चुनाव करेगी और चुनाव आयोग इस पुनीत कार्य में सरकार का एजेंट बनेगा. 

दो सवाल हैं : मतदाता सूची में यदि अपात्र घुस गए हैं तो जवाबदेह कौन है ? मतदाता सूची बनाने, सुधारने, संवारने का काम हमारे संविधान ने सिर्फ चुनाव आयोग को दे रखा है. जो आपका एकाधिकार है, उसे पूरा करने में आप विफल रहे हैं, तो उसकी सजा सामूहिक तौर पर मतदाताओं को कैसे देंगे आप ? सजा तो आपको -चुनाव आयोग को - मिलनी चाहिए - तुरंत आज ही मिलनी चाहिए. मतदाता सूची को अद्यतन पात्रसम्मत बनाए रखने की संवैधानिक जिम्मेवारी के निर्वाह में आप विफल हुए हैं, तो पद से हटिए. नये चुनाव आयोग का गठन होना चाहिए. ऐसा करने के बजाए आप मतदाता को उसके अधिकार से वंचित कैसे कर सकते हैं ? वह संविधान का जनक भी है और हमारे चुनावी तंत्र का आधार भी. उसे खारिज कौन कर सकता है ? आप ? आपकी औकात इस मतदाता की वजह से ही है, यह भी भूल गए आप ? 

अदालत ने कहा: आप बड़े पैमाने पर नाम काटेंगे तो हम दखल देंगे. अरे भाई अदालत, एक का नाम भी कटा तो लोकतंत्र कटा ! क्या अदालत यह कहना चाहती है कि एक के साथ अन्याय हो तो वह मुंह फेर लेगी ? फिर तो वह अदालत नहीं, सरकारी महकमा हो जाएगा. संविधान ने अदालत को निर्देश दे रखा है कि एक-एक मतदाता के मतदान के अधिकार के संरक्षण की पहरेदारी आपको करनी है. मी लॉर्ड, यह मतदाता आपके जीवन-यापन का बोझ इसी कारण ढोता रहता है. 

दूसरा सवाल यह है कि यह मतदाता पैदा कहां से होता है ? क्या कोई सरकार मतदाता पैदा करती है ? नहीं, मतदाता की हमारी यह हैसियत संविधानप्रदत्त है. भारत में जनमा हर व्यक्ति वयस्क होते ही भारत का मतदाता बन जाता है. आवेदन भी नहीं करना पड़ता है. किन कारणों से ऐसी स्वाभाविक नागरिकता संभव नहीं है, यह भी संविधान ने बता रखा है. संविधान ने यह भी बता रखा है कि जो भारत में नहीं जनमा है, विदेशी है, यदि वह चाहे तो वह भी भारत की नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है. उसकी नागरिकता की अर्जी को सरकार मनमाना खारिज नहीं कर सकती है. उसे इंकार के कारण बताने होंगे. मतलब सीधा साफ है कि हमारी नागरिकता का कोई नाता सरकार से नहीं है. लेकिन आप सरकार में हैं,  इसका सीधा नाता मतदाता से है. वह जब चाहे आपको वहां से हटा सकता है. हटाए तो भी आपकी अधिक-से-अधिक वैधानिक उम्र 5 साल की ही है. आगे के लिए आपकी अर्जी वह खारिज करे कि कबूल, यह मतदाता पर है. ऐसी मजबूत संवैधानिक हैसियत जिस मतदाता की है, उसकी नागरिकता की जांच आप करेंगे ! नागरिकता हमारा अधिकार है, आपकी अनुकंपा नहीं. 

सर्वोच्च न्यायालय इस अयोग्य अक्षम चुनाव आयोग को बर्खास्त करे ( मैं राहुल गांधी की तरह इसेवोट-चोरअभी नहीं कह रहा हूं ) तथा नये चुनाव आयोग की चयन की प्रक्रिया घोषित करे. उस आधार पर नया चुनाव आयोग गठित हो जो अदालत के सामने वे सारे तथ्य रखे कि जिस आधार पर वह मतदाता सूची की गहन समीक्षा करना चाहता है. उसका कैलेंडर बने जो किसी चुनाव से टकराता हो. तब जा कर यह कसरत शुरू होनी चाहिए. 

सरकार ने हमारे अरबों रुपये फूंक कर, हमें मजबूर कर, आधार कार्ड बनवाया. नंदन नीलकेणी क्यों चूहे-से अब किसी बिल में छिपे बैठे हैं जबकि वे इसेक्रांतिकारी अक्षय कार्डकहते थे और हमें समझाते थे कि यह एक कार्ड  भारतीय नागरिक की तमाम पहचान का प्रमाण होगा ? चुनाव आयोग कह रहा है कि यह रद्दी कार्ड है. तो नंदन नीलकेणी बाहर आकर हमारे साथ खड़े हों और हमारी आवाज में आवाज मिला कर पूछें कि हमारे अरबों रुपये कौन वापस करेगा ? कार्ड बनवाने के लिए हमें जबरन जिस जहालत में डाला गया, उसका जिम्मेवार कौन है ? हमारे करोड़ों रुपये खर्च कर चुनाव आयोग के तब के आका शेषण साहब ने मतदाता कार्ड बनवाया था. अगर वह भी रद्दी का टुकड़ा है तो हमारे वे पैसे भी वापस करें आप ! सरकार को या चुनाव आयोग को यह अधिकार किसने दिया कि आप हमारे ही पैसों से मनमानी करें और हमें ही कठघरे में खड़ा करें ? जाति प्रमाण-पत्र, मनरेगा प्रमाण-पत्र आदि सब आपके ही सरकारी कागजात हैं. इन सबकी कोई वकत नहीं ? वैसे यह बात तो है ही कि जब आपके नोट की कोई वकत नहीं तो कार्ड की क्या होगी! याद है कि यह अदालत भी नोटबंदी के सवाल पर मुंह बंद कर बैठ गई थी ? अचानक नहीं, गिराते-गिराते आपने हमारे लोकतंत्र इस मुकाम पर पहुंचाया है. 

ऐसे में सरकारों को भी, चुनाव आयोग को भी, अदालतों को भी तथा इन तमाम छुटभैय्यों को भी यह अहसास कराने की जरूरत है कि मतदाता आपके खिलाफ सत्याग्रह पर उतरने को तैयार हो रहा है. यह सच है कि मतदाता संगठित नहीं है. वह परेशान होता है लेकिन एक आवाज में बोल नहीं पाता है, सामूहिक कार्रवाई नहीं कर पाता है. वह मतदान कर अपना फैसला देता है लेकिन उसके मतों का ऐसा विभाजन हो जाता है कि वह उसकी सामूहिक अभिव्यक्ति का प्रमाण नहीं बन पाता है. गांधी से ले कर जयप्रकाश तक लोकतंत्र में मतदाता की स्थायी संगठित उपस्थिति का रास्ता खोजते सुझाते रहे लेकिन वह अभिक्रम अभी अधूरा है. 

लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि गरीब-कमजोर, अनपढ़ या निरक्षर लाखों-लाख मतदाताओं को चुनाव आयोग ने बिहार में जैसी परेशानी में डाल रखा है, उन्हें अपमानित कर रहा है, जिस तरह उसने मतदाताओं की तरफ से अपने आंख-कान-नाक सब बंद के लिए हैं, उसके बाद भी हमारा विपक्ष चुनाव लड़ने पर इस तरह आमादा क्यों है ? वह बिहार के नागरिकों की मदद करेगा, बिहार के बाद जिन राज्यों की तरफ सरकार की कुदृष्टि है, उन राज्यों के नागरिकों की मदद करेगा, वह अदालत की मदद करेगा यदि वह आज की स्थिति में चुनाव लड़ने से मना कर देगा. 

हमारे विपक्ष की लज्जाजनक स्थिति यह है कि वह शासकों की रद्दी कार्बन कॉपी बन कर रह गया है. वह अपना कोई अलग चरित्र बना पा रहा है, दिखा पा रहा है. वह जनता की बनाईं खिंचड़ी खाना तो खूब चाहता है, अपनी खिंचड़ी बनाने का अभिक्रम नहीं करना चाहता है. मुझे याद आता है कि संपूर्ण क्रांति के अपने आंदोलन में हमने जब बिहार की विधानसभा को भंग करने की मांग की थी तब कांग्रेस सीपीआई को छोड़ कर सारा विपक्ष हमारे साथ खड़ा हुआ था लेकिन जैसे ही लोकनायक जयप्रकाश ने विपक्ष के विधायकों से विधायकी छोड़ने का आह्वान किया, सबको सांप सूंघ गया था. बमुश्किल दो-ढाई दर्जन विधायकों ने इस्तीफा दिया था. इस सवाल पर सारे दलों में विभाजन हो गया था. विपक्ष खुद को कसौटी पर चढ़ाने से बचता है. वह चाहता है कि मतदाता उसके हिस्से की लड़ाई लड़ें, उसके लिए प्रचार की मार-काट करें, उसके लिए वोट डालें और वह तभी बाहर निकले जब उसके गले में जीत का जयमाल हो. 

नहीं, अब देश का लोकतंत्र उस मुकाम पर खड़ा है कि विपक्ष को हिम्मत के साथ अपने मतदाता के साथ खड़ा होना होगा. विपक्ष को यह घोषणा करनी चाहिए कि मतदाता सूची का यह परीक्षण जारी रहा तो वह चुनाव में शरीक नहीं होगा. अदालत अपनी कार्रवाई करे इससे पहले उसके सामने यह नई स्थिति भी खड़ी कर देनी चाहिए कि बिहार का सारा विपक्ष चुनाव में हिस्सा नहीं लेने का निर्णय किए बैठा है. यदि न्यायपालिका विपक्षविहीन चुनाव की तरफदारी करना चाहे तो करे, यह वोट-सत्याग्रह वापस नहीं लिया जाएगा. अब फैसला न्यायपालिका को करना है. 

संविधान भले कहता हो कि विपक्षविहीन चुनाव की स्थिति में क्या करना चाहिए, नैतिकता कहती है कि ऐसा चुनाव अर्थहीन हो जाएगा. इसलिए जिस परिस्थिति की कल्पना संविधान ने नहीं की, सुप्रीम कोर्ट को उस बारे में निर्देश देना है. यही वह काम है जो सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति-राज्यपाल द्वारा अनिश्चित काल के लिए राज्य सरकारों के विधयकों को रोकने के संदर्भ में किया है. इस बारे में संविधान में लिखा कुछ नहीं है लेकिन संविधान बोलता स्पष्ट है. संविधान की उस आवाज़ को सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है. इसके लिए ही तो हमने सुप्रीम कोर्ट बना रखा है. इसलिए अदालत भी कसौटी पर है, चुनाव आयोग भी, सरकार भी और विपक्ष भी. आज बिहार में चुनाव आयोग जो कर रहा है उस खेल में जो भी शामिल होगा, वह जीत कर भी वैसे ही हार जाएगा जैसे महाभारत में सब हारे थे. यह याद रखने की जरूरत हैं कि नैतिक हथियार कभी खाली नहीं जाता है. ( 03.08.2025)