जोनाथन स्विफ्ट की अमर कृति ‘गुलिवर की यात्राएं’ पढ़ी है आपने ! उसमें गुलिवर घूमते-खोजते एक ऐसे मुल्क में पहुंच जाता है, जहां बौनों का राज है. लगता है,हमारा इतिहास भी घूमते-घूमते ऐसी ही दुनिया में पहुंच गया है जहां सब तरफ बौनों का बोलबाला है भी, होता भी जा रहा है - पुतिन, जिनपिंग, नेतन्याहू,मोदी,मैक्रों, स्टारमर,शोल्ज आदि-आदि. इस सूची के सबसे नये सदस्य हैं डोनल्ड ट्रंप ! वैसे इस अर्थ में ट्रंप नये नहीं हैं कि उनका बौनापन अमरीका भी और दुनिया भी पहले देख व भुगत चुकी है. शोक है तो इस बात का उन्होंने आम अमरीकी को भी अपनी तरह ही बौना बना दिया है. इसमें भी उनकी कोई शिफत नहीं है. इतिहास बताता है कि इंसान व उसका समाज फिसलन की तरफ आसानी से ले जाया जा सकता है, और फिसलन निष्प्रयास नीचे-से-नीचे ही जाती जाती है. ट्रंप फिसलते अमरीका की फिसलन को न केवल तेज करेंगे बल्कि उसे बहुत कुरूप व कर्कश बना देंगे. यह अनुमान नहीं है, अनुभव है. इसलिए मुझे यह लिखना पड़ रहा है कि ट्रंप की यह जीत हारते अमरीका की हार है. किसी व्यक्ति की जीत किसी समाज की हार कैसे बन जाती है, यह अमरीका भी समझेगा और हम भी.
दुनिया में धन और दमन की कलई जैसे-जैसे खुलती जा रही है, अमरीका बौना होता जा रहा है. उसके पास यही दो हथियार रहे हैं जिनसे उसने अपनी पहचान व ताकत बनाई थी. अब दुनिया के बाजार में उसके डॉलर का वह डर नहीं रहा, और यह भी जाहिर होता जा रहा है कि हथियारों की मारक शक्ति से कहीं बड़ी है इंसानों की संकल्प शक्ति ! यह वही बात जिसे महात्मा गांधी ने दुनिया की महाशक्तियों को बताने-समझाने की कोशिश की थी.
गांधी दुनिया के अंगुली भर देशों में भी नहीं गए थे लेकिन दुनिया देखी बहुत थी. इसलिए बहुत कुछ ऐसा कहते-समझाते रहे थे जिसे समझने में हमें सदियां लग गईं. अभी भी हम उन्हें लेकर भटकते ही रहते हैं. वे कभी अमरीका नहीं गए. कई बार, कई विशिष्ट अमरीकियों ने, जिनमें अलबर्ट आइंस्टाइन भी थे, आग्रह किया था कि वे अमरीका आएं. गांधी ने कभी कुछ कह कर, तो कभी कुछ और कह कर बात टाल दी थी. आइंस्टाइन को लिख दिया कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं कि जब अपने सेवाग्राम आश्रम में मैं आपका स्वागत कर सकूंगा. मतलब यह कि आप यहां आएं, मैं अमरीका आने की नहीं सोचता हूं.
दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए जब गांधी इंग्लैंड आए तो यह दवाब कई तरफ से बनाया गया कि अब जब आप यहां तक आ ही गए हैं तो अमरीका भी आ जाइए. अमरीका में गांधी के कई चाहक व प्रिय भी थे, तो उनका अमरीका होते आना कतई असंगत नहीं होता. लेकिन गांधी ने कहा तो इतना ही कि मैंने अपने देश में ही कोई सिद्धि हासिल नहीं की है अब तक, तो अमरीका को वहां आ कर क्या दे सकूंगा ! फिर यह भी जोड़ दिया कि जब तक अमरीका दौलत के पीछे की अपनी अंधी दौड़ से बाहर नहीं आता है, मेरे वहां आने का कोई मतलब नहीं होगा.
अमरीका उस अंधी दौड़ से बाहर तो कभी नहीं आया, उसने सारी दुनिया को अपने जैसी ही अंधी दौड़ में दौड़ा दिया. जिन्हें ट्रंप अवैध अप्रवासी कहते हैं, जिन दूसरे मूल के वैध अमरीकियों को श्वेत अमरीकी जलती आंखों से देखते हैं, वे सब इसी अंधी दौड़ के धावक हैं. अमरीका ने सारी दुनिया से साम-दाम-दंड-भेद के बल पर जो दौलत निचोड़ी है, ये सब उसमें हिस्सेदारी मांगते हैं. अगर दौलत लूट लाना वैध है तो उसमें हिस्सेदारी अवैध कैसे है, यह समझना बहुत टेढ़ी खीर तो नहीं है.
इस अंधी दौड़ में दौड़ते-दौड़ते अब अमरीका का भी और दुनिया का भी दम टूट रहा है. यह स्थिति इसलिए भी ज्यादा घातक बन गई है क्योंकि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों की अयोग्यता की वजह से हर देश में निराशा व्याप्त है. सामान्य जीवन जीना इतना कठिन व खतरों से भरा बन गया है कि इंसान हर नई आवाज की तरफ लपक रहा है. यदि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों ने ईमानदारी से अपने-अपने देशों की वैकल्पिक ताकतों को संयोजित कर वह कुछ हासिल किया होता जिसकी ललक आम आदमी को होती है, तो दक्षिणपंथी-तानाशाही ताकतें इस तरह वापसी नहीं कर पातीं. लेकिन सत्ता को अंतिम प्राप्य मान कर बैठ जाने वाला तथाकथित उदार-लोकतांत्रिक नेतृत्व व्यापक निराशा व असंतोष का जनक बन गया है. बाइडन जैसों को एक दिन के लिए भी राष्ट्रपति क्यों बनना चाहिए था ? कमला हैरिस को हारना ही था क्योंकि वे बाइडन से अलग थी ही नहीं. इसलिए राष्ट्रपति बदलते हैं, अमरीका नहीं बदलता है. बराक ओबामा जैसा आदमी आया तो वह भी कुछ बदल नहीं सका. तो फिर ट्रंप से कैसी शिकायत ! लेकिन शिकायत है - गहरी व तीखी शिकायत है.
कमजोर होने में और कमजोर करने में बहुत बड़ा फर्क है. ट्रंप बिरादरी के बौनों की हकीकत यह है कि उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है - न दिशा, न साहस, न सपने, न उदारता. उनके पास कहने के लिए भी कुछ उदार, कुछ मानवीय, कुछ उदात्त नहीं है. उनके पास सत्ता का दंभ व मनमानापन है, अकूत सार्वजनिक धन है, असहमति से घृणा है, असहमतों के प्रति क्रूरता है. बौनों की जो सूची मैंने शुरू में दी है, वे सब इन्हीं ताकतों के बल पर टिके हैं.
ट्रंप कमजोर होते अमरीका को जल्दी व ज्यादा कमजोर कर देंगे क्योंकि उनके पास महंगाई, बेरोजगारी को हल करने की कूवत नहीं है. वे अवैध अप्रवासियों का भूत उसी तरह खड़ा कर रहे हैं जिस तरह हमारे यहां अल्पसंख्यकों का भूत खड़ा किया जाता है. इसमें बदला लेने की मनुष्य की हीन भावना को उकसाया जाता है. यह उकसावा आसान भी है तथा यह आपको दूसरी जिम्मेवारियों से बच निकलने की गली भी देता है. अपने पिछले पांच साल के राष्ट्रपति-काल में ट्रंप ने अमरीकी समाज की एक भी मुसीबत का हल नहीं निकाला, अमरीका को हर तरह से उपहास का पात्र जरूर बनाया. उनमें अपनी हार स्वीकार करने की शालीनता भी नहीं रही. उन्होंने अमरीकी समाज के गुंडा-तत्वों को ललकार कर बुनियादी लोकतांत्रिक शील की भी खटिया खड़ी कर दी. वे आगे भी ऐसा ही करेंगे, क्योंकि इसके अलावा वे कुछ जानते नहीं हैं
. हमारा हाल यह है कि हमें प्रिय मित्र ट्रंप’ की जीत ऐसी लग रही है मानो डोनल्ड ट्रंप ने अमरीका के राष्ट्रपति का नहीं, भारत के राष्ट्रपति का चुनाव जीता है. उनके चुनाव जीतने से जितने खुश अमरीकी नहीं हैं, उससे ज्यादा भारत के सत्ताधारी व उस मानसिकता के लोग खुश हैं. अपने यहां के लोकसभा चुनाव में, उनके तईं जो कसर रह गई थी, मानो अमरीका ने ट्रंप जो चुन कर वह कसर पूरी कर दी है. यह भारत के अमरीका बनने का नया अध्याय है. यह हारते अमरीका के हारने के नये अध्याय का प्रारंभ है. ( 09.11.2024)