Thursday, 9 October 2025

एक जूते से जो बात शुरू हुई …

 जूता चलाने वाले ने जब अपना काम कर दिया तब, जिन पर जूता फेंका गया था उन्होंने जूते को जूते की जगह दिखा कर, अपूर्व संयम दिखाते हुए अपना सामान्य काम शुरू कर दिया. हमारे सर्वोच्च न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई ने ऐसा करके हम सबका सर गर्व से ऊंचा कर दिया. हमारे देश की बड़ी कुर्सियों पर आज जैसी क्षुद्रता से भरे लोग बैठे हैं, उसमें गवई साहब का यह स्थिरचित्त व्यवहार स्वप्नवत् लगता है. 

गुलीवर को लिलिपुट में भी ऐसे छोटे’ लोग नहीं मिले होंगेजैसे हमें मिले हैं. छोटा या नाटा होने में और क्षुद्र’ होने में बहुत बड़ा फर्क है जिस फर्क को इन दिनों जुमलेबाजी से ढकने की चातुरी दिखाई जा रही है. लेकिन क्षद्म भी इतना चरित्रशून्य नहीं होता है कि बहुत वक्त तक क्षद्म चलने दे. देखिए नआज एक जूते ने उसे तार-तार कर दिया है. अब जो नंग सामने आई है उसे प्रधानमंत्री का मौका देख करबड़ी देरी से एक्सपर जारी किया बयान भी नहीं ढक पा रहा है. वह जूता और प्रधानमंत्री का यह बयान कि “ यह हर हाल में निंदनीय है और इससे हर भारतीय क्रुद्ध हो उठा है और ऐसे काम की कोई जगह नहीं है” एक सा-ही दिखाई देता है. आज से आधी शति पहले1973 में लोकनायक जयप्रकाश ने जो कहा था वह आज की सरकार से ऐसे चिपकता है जैसे इनके लिएकल ही कहा गया हो : “ देश के राजनीतिक नेतृत्व की नैतिक हैसियत जब एकदम से बिखर जाती है तब सभी स्तरों पर अनगिनत बीमारियां पैदा हो जाती हैं.

इसलिए ही सारे देश को क्षुद्रता का डेंगू हुआ है. क्यों देश के आज के राजनीतिक नेतृत्व की नैतिक हैसियत एकदम बिखर गई है याकि देश के आज के राजनीतिक नेतृत्व ने नैतिकता को जूता समझ कर किसी पर फेंक दिया है. अब उसके पास न नैतिकता बची हैन जूता ! वह नंगे सर व नंगे पांव सारे देश मेंसभी स्तरों पर अनगिनत बीमारियां फैलाने में जुटा है. यह जूता किसी दलित पर नहीं फेंका गया है. जिस पर फेंका गया वह संयोग से दलित है. सच यह है कि यह असहमति पर फेंका गया वह जूता है जो इस सरकार व इस पार्टी के सभी लोग देश पर लगातार फेंकते आ रहे हैं. घृणा इनके दर्शन की संजीवनी बूटी है. इनकी रोज-रोज की जुमलेबाजी देश को मूर्ख बनाने की बाजीगरी है.     

गवई साहब हमारे सर्वोच्च न्यायाधीश हैं. सभी कह रहे हैंलिख रहे हैं कि वे दलित हैं. कोई यह क्यों नहीं कह रहा है कि न न्याय की कोई जाति होती हैन न्यायाधीश की जब दिल व दिमाग से जाति-धर्म-संप्रदाय-लिंग-भाषा-प्रांत की लकीरें मिट जाती है तब न्याय का ककहरा लिखने की शुरुआत होती है. इसलिए हमें कहना चाहिए कि हमारे गवई साहब न दलित हैंन सवर्ण हैं. वे हमारी न्यायपालिका के सर्वोच्च न्यायमूर्ति हैं. हम इतना ही जानते हैं और उनकी योग्यता का मान करते हैं. हम संपूर्ण न्यायपालिका को भी ऐसे ही देखना चाहते हैं. हमारी चाह आप जानना चाहें तो वह यह है कि सारा देशसंसार के सारे इंसान ऐसे ही होंन हों तो ऐसे ही बनेंऔर उन्हें ऐसा बनाने में हम सब अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगाएं. 

हमें गहरा खेद है कि जिसका जूता था उन वकील राकेश किशोर के पास अब वह जूता भी नहीं रहा. एक वही जूताग्रस्त मानसिकता तो थी उन जैसों के पास ! पिछले 10-12 सालों में इस सरकार ने देश के हर नागरिक के हाथ में यही मानसिकता तो थमाई है कि अपना जूता दूसरों पर फेंको ! प्रधानमंत्री से ले कर उनका पूरा मंत्रिमंडल यही करता हैउनकी पार्टी का अध्यक्ष अपनी पूरी पार्टी को साथ ले कर यही करता है. अपना-अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरे कई छुटभैय्ये भी हैं जो इनके साथ हो लिए हैं. बात पुरानी है लेकिन एकदम खरी है कि तुम वही होते हो जिनके साथ तुम रहते हो. 

यह गवई साहब पर भी उतना ही लागू होता है जितना चंद्रचूड़ साहब पर होता था.  चंद्रचूड़ साहब ने प्रधानमंत्री के साथ मिल कर गणपति वंदना करना जरूरी समझा तो गणपति ने उन्हें मूषक’ बना दिया. अब वे यहां-वहांहर जगह यह बताते-कहते घूम रहे हैं कि मैं मूषक’ नहीं बना था. लेकिन सौ-सौ चूहे वाली बिल्ली हमने-आपने भी देखी तो होगी ! सो चंद्रचूड़ साहब कहते कुछ हैंहमें सुनाई कुछ दूसरा ही देता हैदिखाई कुछ तीसरा देता है. 

गवई साहब ने मुख्य न्यायाधीश बनते ही कहा था कि वे आंबेडकर को माथे पर धर कर चलते हैं. हमने कोई एतराज नहीं कियाहालांकि होना तो यह चाहिए कि उनके व दूसरे किसी भी न्यायमूर्ति के माथे पर संविधान ही हो- न गांधी होंन आंबेडकर ! लेकिन अब हमें दिखाई कुछ और भी देता है. गवई साहब सरकारी मूषकों’ के साथउनके उड़नखटोले में या उनकी गाड़ी में यहां-वहां बेज़रूरत घूमते हैंसरकारी होने का कोई भी फायदा वे छोड़ते नहीं हैं. न्यायमूर्ति की सबसे ऊंची कुर्सी से वे भी वैसी ही गोलमोल बातें करते हैं जैसी बातें उस कुर्सी से हम अक्सर ही सुनते रहे हैं. किसी भी मुकदमे के दौरान फैसलों से इतर न्यायाधीश जो टिप्पणियां करते हैंवे बहुत मतलब की नहीं होती हैं. विष्णु की मूर्ति के संदर्भ में गवई साहब की वह टिप्पणी भी न जरूरी थीन निर्दोष थी. 

हमारी न्यायपालिका आज भी ऐसे ही चल रही है जैसे देश में कुछ भी असामान्य नहीं है. जिस संविधान व लोकतंत्र की वजह से ही न्यायपालिका का अस्तित्व हैउस पर रोज-रोज हमले हो रहे हैंयह हमें दिखाई देता हैअदालतों को नहीं. अदालतों के पास समय बहुत थोड़ा है और हमारा लोकतंत्र बहुत नाज़ुक दौर से गुजर रहा है. वह गुजर ही न जाएइसकी तत्परता गवई साहब की न्यायपालिका के व्यवहार व आचार में दिखाई नहीं देती है. 

संवैधानिक महत्व के मुद्दों कोनागरिक स्वतंत्रता के सवालों को प्राथमिकता के आधार पर सुना जाए और न्यायपालिका को जो भी कहना होवह स्पष्ट शब्दों में कहा जाएऐसा नहीं हो रहा है. ऐसा रवैया संविधान को मजबूत नहीं बनाता हैआंबेडकर को जिंदा नहीं करता है. बिहार में केंद्र सरकार के इशारे पर चुनाव आयोग ने सर’ का जो ढकोसला खड़ा किया थाउसने चुनावी न्याय को सर के बल खड़ा कर दिया है. उसे न्यायपालिका की सीधी फटकार क्यों नहीं मिली ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग व सर्वोच्च न्यायालय के बीच चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है. आधार कार्ड को मतदाता का न्यायसम्मत प्रमाण मानने की बात को जिस कठोरता से अंतिम तौर पर कह देने की जरूरत थीगवई साहब की अदालत वैसा नहीं कह सकी. इसलिए आयोग रह-रह कर आधार कार्ड का माखौल उड़ता है और कहता है कि आप आधार दो या न दोहमारे बताए दस्तावेज तो देने ही होंगे ! यह मतदाता का अपमान हैन्यायपालिका की खुली अवमानना है.

अब चुनाव आयोग ने न्यायालय को नया शह’ दिया है. उसने  बिहार के मतदाताओं की अंतिम सूची प्रकाशित करचुनाव की तारीखें घोषित कर दी है. यह अदालत को उसकी औकात बताने की कोशिश है. हम सभी जानते हैं कि ज्ञानेश कुमार के ज्ञान’ के पीछे सरकार अभय-मुद्रा में खड़ी है. यह एक चीफ कीदूसरे चीफ को सीधी चुनौती है. आयोग ने यह भी घोषित कर दिया है कि बिहार को निबटा कर हम देश को भी इसी तरह ठिकाने लगाएंगे. देश के मतदाताओं के सर पर सर’ की तलवार लटकी हुईं है. चुनाव आयोग चंद्रचूड़’ बना हुआ है. वह बात का भात पका भी रहा है व खिला भी रहा है. 

जूते की बात छोड़िएलोकतंत्र पर सीधा हमला खरीदे व जुटाए जिस बहुमत की आड़ में हो रहा हैवह बहुमत है ही नहीं. इसके जितने प्रमाण कोई नागरिक जुटा सकता हैउतने प्रमाण सामने रख दिए गए हैं. अब जो काम बचा है वह न्यायपालिका का हैक्योंकि संविधान ने उसे ही यह जिम्मेवारी दी है तथा यही उसके होने की सार्थकता भी है कि वह लोकतंत्र के साथ खड़ा रहे. आज के दौर में यह सबसे आसान काम है. आसान इसलिए है कि आपके पास एक किताब है जिसे आंबेडकर का लिखा संविधान कहते हैं. बस उस किताब को खोलिए और उसके आधार पर सही या गलत का फैसला कीजिए. न एक शब्द बदलना है आपकोन कुछ अलग या नया लिखना है. 

आप वह मत करिए जो आपके कमजोर प्रतिनिधियों ने पहले किया है. संविधान ने नहीं कहा है कि आपको संतुलन साधना हैकि आपको बीच का रास्ता निकालना है. सत्य या न्याय संतुलन से नहींसंविधान के पालन से सिद्ध होता है. चंद्रचूड़ साहब ने अपनी असलियत ढकने के लिए एक बौद्धिक तीर चलाया कि हमारा संविधान नहीं कहता है कि हमारे जजों की निजी आस्थाएं नहीं होनी चाहिए. हांहमारे संविधान ने ऐसा नहीं कहा है लेकिन चंद्रचूड़ साहब बड़ी चतुराई से यह छिपा गए कि संविधान ने साफ शब्दों में कहा है कि आपकी निजी आस्थाओं की छाया भी आपके फैसलों पर नहीं पड़नी चाहिए. यह आसान नहीं हैतो जज बनाना इतना आसान कहां है ! जिस तरह सड़क पर चलता हर ऐरा-गैरा जज नहीं बन सकताठीक उसी तरह बड़ी शिक्षा पा कर या विदेशों से डिग्री ला कर या किसी पूर्व जज का परिजन होने से कोईं जज नहीं बन जाता. जज की कुर्सी पर बैठने से भी लोग जज नहीं बन जाते. यह योग्यता व पात्रता संविधान के साथ खड़े होने की आपकी हिम्मत से आती है. चंद्रचूड़ साहब याद करें तो उन्हें याद आएगा कि आपातकाल में उनके पिता समेट 5 जज थे जिनमें से 4 ने संविधान को रद्दी की टोकरी में फेंक करसरकार की खैरख्वाही की थी. भारतीय न्यायपालिका का मुंह उस दिन जो काला हुआवह दाग आज तक नहीं धुला है. चन्द्रचूड़ों ने उसे और भी कला कर दिया है. किसी सरकार के पक्ष या विपक्ष में फैसला देने की बात नहीं हैजो लिखा हुआ संविधान देश की जनता ने आपको सौंपा हैउसका पालन करने की बात है. 

जूता चला यह बहुत बुरा हुआ. लेकिन यही जूता वरदान बन जाएगा यदि इसने हमारी न्यायपालिका को नींद से जगा दिया. जूता चलाने की असहिष्णुता जिसने समाज का स्वभाव बना दिया हैवह अपराधी पकड़ा जाएइसके लिए सन्नद्ध व प्रतिबद्ध न्यायपालिका अपनी कमर सीधी कर खड़ी होतो जूते का क्यावह फिर से पांव में पहुंच जाएगा. 

( 08.10.2025) 

Sunday, 5 October 2025

आइए, गांधी से मिलते हैं !

 आज 2 अक्तूबर है - महात्मा गांधी का जन्मदिन जो इस वर्ष दशहरे की पोशाक पहन कर आया है. हम दशहरे में दशानन को याद करें या गांधी को, बात एक ही है. इंसान है, इंसान की कमजोरियां हैं लेकिन मां दुर्गा हैं तो इंसान की कमजोरियों का शमन भी है; गांधी हैं तो कमजोरियों से ऊपर उठने का इंसानी अभिक्रम भी है. देख रहे हैं न आप, हर तरफ़ मां दुर्गा की झांकी नानाविध सजी हुई है लेकिन सारी झांकियां बात एक ही कह रही हैं : अपनी कमजोरियों से लड़ो, अपनी कमजोरियों से ऊपर उठो ! 

ऐसा ही तो गांधी के साथ भी है.    

हमारे देश के हर नगर-महानगर-कस्बे-गांव-पंचायत में एक-न-एक ऐसा एक चौराहा जरूर होगा जिस पर एक बूढ़े की घिसी-टूटी-बदरंग मूर्ति लगी होगी- झुकी कमर व हाथ में लाठी कहीं चश्मा होगा कहीं टूट गया होगा. आप चेहरा आदि मिलाने-खोजने जाएंगे तो फंस जाएंगेक्योंकि नए-पुराने सारे लोग जानते होंगे कि यह गांधी-चौक है और यह बूढ़ा दूसरा कोई नहींमहात्मा गांधी हैं. बहुत उपेक्षित होगा वह चौक लेकिन मैंने कई जगह देखा है कि किसी 2 अक्तूबर या 30 जनवरी को किसी ने आ कर वहां कुछ गंदगी साफ कर दी हैदो-चार फूल रख दिए हैं. 

ये देश के गांधी हैं ! लेकिन हमारे गांधी कौन हैं कभी न सोचा हो तो अभीइस 2 अक्तूबर को सोच कर देखिए. यह इसलिए भी जरूरी है कि देख रहा हूं कि इधर आ कर बात कुछ बदली है और देश के युवा — संख्या की बात नहीं है यहां ! — जब घिरते हैं अपने सवालों से और  जवाब मांगने सड़कों पर उतरते हैं तो गांधी को खोज कर साथ रखते हैं.

यह भी देश के गांधी हैं - ग्रेटा थनबर्ग की आवाज में कहूं तो दुनिया के गांधी हैं. इतने जाने-पहचाने हैं गांधी कि हमारे लिए एकदम अजनबी हो गए हैं. इसलिएआइएफिर से उनसे मिलते हैं.   

 उनका जीवन जिन रास्तों पर चलाजिन मोड़ों से गुजरा-मुड़ा और जिस मंजिल पर ताउम्र उनकी नजर रहीउन सबकी पर्याप्त चर्चा भी नहीं कर सके हैं हम अब तकआकलन तो दूर की बात है. इसलिए सबसे आसान रास्ता हमने अपनाया है कि 30 जनवरी और 2 अक्तूबर को उनका फोटो सजा लेना व कुछ अच्छी लेकिन गांधीजी के संदर्भ में अर्थहीन-सी बातें कर लेना. दिल्ली के राजघाट पहुंच कर सत्ताधारी सर झुका आते हैं और कुछ लोग ऐसे निकल ही आते हैं कि जो अपनी गहरी समझ का प्रमाण-सा देते हुए गांधीजी से अपनी असहमति जाहिर करते हैं. वह असहमति भी अधिकांशतः अर्थहीन होती हैक्योंकि जिसे हम ठीक से जानते भी नहीं हैंउससे सहमति या असहमति कितना ही मानी रखती है ! जयप्रकाश नारायण ने कभी बड़ी मार्मिक एक बात कही थी : “ गांधी की पूजा ऐसा एक खतरनाक खेल है जिसमें आपको पराजय ही मिलने वाली है.” पूजा नहींगांधी के पास पहुंचने के लिए साधना की जरूरत है - गुफा वाली आसान साधना नहींसमाज के बीच की जाने वाली निजी व सामूहिक कठिन साधना ! 

यह बात सबसे पहले पहचानी थी रूसी साहित्यकार-दार्शनिक लियो टॉल्सटॉय ने. तब बैरिस्टर गांधी दक्षिण अफ्रीका में अपनी साधना की धरती बनाने में लगे थे और टॉल्सटॉय की किताबें पढ़ कर चमत्कृत-से थे. उन्हें लगा कि वे जो रास्ता खोज रहे हैंयह आदमी उस दिशा में कुछ दूर यात्रा कर चुका हैसो बैरिस्टर साहब ने उन्हें पत्र लिखा. जिसने पत्र लिखाउसे रूसी नहीं आती थीजिसे पत्र लिखा उसे रूसी भाषा के अलावा दूसरी कोई भाषा नहीं आती थी. संप्रेषण-संवाद कितना कठिन रहा होगा ! लेकिन इस अजनबी हिंदू युवक’ का अंग्रेजी में लिखा पत्र किसी से अनुवाद करवा कर जब पढ़ा टॉल्सटॉय ने तो वे चमत्कृत रह गए. अपने एक मित्र को गांधी का परिचय देते हुए लिखा : इस हिंदू युवक पर नजर रखना ! यह कुछ अलग ही इंसान मालूम देता है. हम सब अपनी साधना के लिए कहीं एकांत मेंगांव-पहाड़-गुफा आदि में जाते हैं. देखते ही हो कि मैं भी नगर से निकल कर दूर देहात में आ गया हूं. लेकिन यह आदमी लोगों की भीड़ के बीच बैठ कर अपनी साधना कर रहा है.

तब गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग शहर में अपना टॉल्सटॉय फार्म बनाया ही था. 1910 में बना यह कृषि-केंद्र अहिंसक सत्याग्रहियों का प्रशिक्षण-स्थल था.       

गांधी अत्यंत सरल व्यक्ति थे लेकिन वे अविश्वसनीय हद तक कठिन व्यक्ति थे. उनके साथ जीना भी बहुत कठिन थाउन जैसा होना तो असंभव-सा ही है. ऐसा क्यों है 

इसलिए है कि गांधी ने अपनी जैसी कठोर कसौटी कीअपने प्रति वैसी कठोरता निभाना बहुत मुश्किल है. वे दूसरों के लिए बेहद उदार हैंएकदम कमलवत् ! अपने बनाए सारे कड़े नियम-कायदे भी बाजवक्त दूसरों के लिए ढीले करते ही रहते हैं. अपने सेवाग्राम आश्रम में बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान के लिए मांसाहारी भोजन का प्रबंध करने का आदेश उन्होंने ही दिया था : “ यह बेचारा तो भूखा ही रह जाएगा ! उसका यही भोजन है!”; यह बात दूसरी है कि बादशाह खान ने वैसी व्यवस्था के लिए न केवल मना कर दिया बल्कि यह भी कह दिया कि अब मैं भी शाकाहारी हूं. जवाहरलाल हवाना से लौटे तो वहां मिले उपहार गांधीजी को दिखला रहे थे. हवाना की बेशकीमती सिगार भी उसमें थी. गांधीजी ने लपक कर उसे अलग निकाल लिया : “ अरे यह ! … यह तो मौलाना को दे दूंगा ! उन्हें सिगार बहुत पसंद है.” 

उनके पास सबके लिए सब कुछ थाअपने लिए अल्पतम ! जो सबके लिए नहीं हैवह मेरे लिए भी नहीं हैइस बारे में वे लगातार सावधान रहे. ऐसे गांधी के साथ किसकी निभेगी जो अपने को कोई छूट न देने का संकल्प साधने में लगा होवही गांधी की छाया छूने की आशा कर सकता है. यह पेंच समझने लायक है न कि गांधी संभव हद तक कम कपड़े पहनते थे लेकिन कांग्रेस के लिए उन्होंने कभी यह आग्रह नहीं किया कि सभी घुटने तक की धोती पहनें. खादी पहनने व कातने का आग्रह कभी किया जरूर लेकिन सम्मति नहीं मिली तो वह भी छोड़ दिया. लेकिन अपने लिए नियम ही बना रखा था कि हर दिन निश्चित सूत काते बिना सोना नहीं है.

दिन भर की देहतोड़ दिनचर्या के बाद जब सभी सोने जाते थेगांधी अपना चर्खा ले कर बैठते थे : कताई का अपना लक्ष्यांक पूरा कर तो लूं !… अपने लिए कभी यह तय कर दिया कि मेरे भोजन में पांच से अधिक चीजें नहीं होंगीतो फिर गिनती के बगैर खाना नहींफिर यह भी बता दिया कि मेरे भोजन का खर्च इससे अधिक नहीं होना चाहिए. दूसरे गोलमेज सम्मेलन में लंदन पहुंचे तो भोजन की थाली सामने आने पर अपने मेजबान से दो ही सवाल पूछते थे : इस थाली की कीमत कितनी है इस थाली में से कितनी चीजें इंग्लैंड में पैदा हुईं हैं कमखर्ची व स्वदेशी ! उनके लिए ये दोनों जीवन-मंत्र थे. आज संसार का हर पर्यावरणवादी इन्हीं दो मूल्यों की बात करता है. मतलब क्या हुआ 83 साल पहले हमने जिस इंसान को मार डाला थाउसका जीवन-मंत्र ही आज के इंसान का जीवन-मंत्र बने तो धरती बचेप्राण बचे. कितना कठिन रहा होगा यह आदमी ! 

इस गांधी से हम जितनी दोस्ती कर सकेंगेउतने ही इंसान बन सकेंगे.  

तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो 

उम्मीद इंसानों से लगा कर शिकायत खुदा से करते हो 

( 30.09.2025)

जीजी: एक कर्मयोगी

     जिस आदमी ने महात्मा गांधी को देख कर अपनी सामाजिक समझ की आंखें खोली थी, उसने महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर के दिन अपनी आंखें बंद कर लीं; और इन दोनों के बीच उसने 101 साल का लंबा सफर भी तय कर लिया; और यह लंबा सफर शुचिता, सक्रियता, आत्मीयता से भरा रहा; और हमेशा परिवर्तनकारियों के साथ खड़ा रहा. है न हैरानी की बात !

   1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बादमुंबई में सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा था. मुंबई का चेहरा कैसा डरावना हो गया था ! उसका ऐसा चेहरा हमने पहले देखा नहीं था. मुंबई के मणि भवन में हम कई रंग के गांधीजन उस रात जमा हुए थे. मणि भवन यानी बंबई में गांधीजी का घर ! 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा करने के बादइसी मणि भवन से गांधीजी की गिरफ्तारी हुई थी. 

   गांधीजी की उस गिरफ्तारी के ठीक आधी सदी बादउसी मणि भवन में विचलित व मुरझाए-से हम कुछ गांधीजन जमा हुए थे यह सोचने के लिए कि हम मुट्ठी भर लोग उस सांप्रदायिकता के जहर से लड़ने के लिए क्या कर सकते हैं जिसने बंबई में और सारे देश में आग लगा दी है. जान देने की तैयारी से कम में इसका मुकाबला संभव नहीं हैयह सभी जानते थे. लेकिन यह जानना व इसकी तैयारी करना दो भिन्न बातें हैंयही बात हमारी बात में से बार-बार उभर रही थी. राय यह ही बन रही थी कि इस विकराल स्थिति में हमारे बस का खास कुछ है नहींइसलिए सरकार जो कर रही है उससे ही हम भी जुड़ जाएं व शांति व राहत का काम करें.

   ऐसे रूख से मैं परेशान था. मैंने शांति सैनिक की भूमिका में पहले भी कई सांप्रदायिक दंगों में काम किया था. वहां की लाचारी मुझे पच नहीं रही थी. मैंने अंत में इतना ही कहा कि हम अभी हारे नहीं हैंबंबई को यह बताने के लिए कल सुबह से ही हमें दंग्राग्रस्त इलाकों में पहुंच जाना चाहिए. हम वहां पहुंचेंगे तभी हमें आगे का रास्ता समझ में आएगा. यह अंधेरे में आंख खोल कर छलांग लगाने की बात थी. 

   सब उठे और अकेले-अकेले घर गए. जीजी बेआवाज-से मेरे पास आएऔर आश्वस्ति से भरी धीमी आवाज में बोले : आपने जो कहावही असली बात है. मैं आपके साथ हूं.” 

   उस दिन से उनके साथ परस्पर विश्वास कास्नेह-सम्मान का वह रिश्ता बना जो अंत तक बना रहा. जीजी समाजवादी पृष्ठभूमि से आते थेमैं उस समाजवाद को कहीं पीछे छोड़ करगांधी के रास्ते चलने वाले विनोबा-जयप्रकाश के रास्ते का यात्री था. यह भेद थाप्रकट भी होता था लेकिन हम दोनों इसे संभाल लेते थे.  

   1974 के संपूर्ण क्रांति के जयप्रकाश-आंदोलन ने देश में तब जैसी खलबली मचाई थी उसमें बहुत कुछ टूटा थातो बहुत कुछ जुड़ा भी था. जो सबसे कीमती जुड़ाव हुआ था वह तब के राजनीतिक दलों में बचे ईमानदार व आदर्शवादी तबके का गांधीजनों से जुड़ाव था. ऐसे समाजवादियों के सिरमौर थे जीजी. उनके आसपास समाजवादगांधी और जयप्रकाश का बड़ा अनोखा त्रिभुज बनता था.       

         लगता है न कि दूसरा कुछ न भी हो तो भी ऐसे आदमी के बारे में हमें ज्यादा जानना चाहिए अगर मैं यह कहूं कि यह डॉ. गुणवंतराय गणपतलाल पारीख की बात हैतो शायद ही कोई इस आदमी को पहचान सकेगाक्योंकि ताउम्र उनका अपना शहर मुंबईउनका अपना प्रांत महाराष्ट्र और उनका अपना देश हिंदुस्तान उन्हें एक ही नाम से जानता आया है : जीजी ! वे सबके जीजी थे. इससे बड़े नाम का बोझ उनका सरल व्यक्तित्व उठाता ही नहीं था. 

   गांधी से गांधी तक की अपनी इस यात्रा में जीजी को साम्यवादी मिलेसमाजवादी मिलेजयप्रकाश नारायणराममनोहर लोहियामहाराष्ट्र के पहले दौर के कई विलक्षण समाजवादी नायक मिले. गांधी ने तरुण जीजी को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में 10 महीनों की जेल-यात्रा करवाईतो उम्र के उतार के दौर में जयप्रकाश ने उन्हें आपातकाल में 15 महीनों की जेल यात्रा करवाई. “ मैं तो इसी तरह बना हूं !” दोनों जेलों की याद करते हुए जीजी बोले, “ जब हम आजादी के लिए लड़ रहे थे तब नहीं जानते थे कि आजादी पाने के लिए ही नहींआजादी कायम रखने के लिए भी जेल जाना पड़ता है. लेकिन वह हुआ. मुझे अंग्रेज पुलिस ने भी जेल में डाला और भारतीय पुलिस ने भी. तब से ही मैं मानता हूं कि सच बोलना और सच बोलने की जो भी कीमत देनी पड़े वह देनालोकतंत्र के सिपाहियों का धर्म है. गांधीजी ने यही तो सिखाया था हमें कि न अहिंसा कभी छोड़नी हैन लड़ाई लड़ना कभी छोड़ना है. 

   वे ऐसे ही थे. उनकी दो खास विशेषताएं थीं : वे संघर्ष व रचना के दोनों गांधी-तत्वों को समान कुशलता से साध पाते थे व युवकों के साथ संवाद बनाने से कभी हिचकिचाते नहीं थे. उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा लेकिन समाजवादियों के साथ चलने में कभी पीछे नहीं रहे. मुझे नहीं लगता है कि मुंबई व महाराष्ट्र में कोई भी समाजवादी पहल ऐसी रही होगी कि जिसमें जीजी शामिल न रहे हों या जिसके संयोजन में उनकी भूमिका न रही हो. समाजवादियों की पत्रिका जनता’ गुमनामी में खो नहीं गई या संसाधनों के अभाव में दम नहीं तोड़ गई तो इसके पीछे जीजी की अपूर्व प्रतिबद्धता व कुशलता थी. वे भागते-दौड़ते कहीं-न-कहीं से संसाधन जोड़ते ही रहते थे. मुझे नहीं याद आता है दूसरा कोई नाम जिसने समाज के हर संभव तबकों से धन संग्रह करअपनी हर गतिविधि को जीवंत बनाए रखा. गांधी  कहते थे : “ समाज अपने सच्चे सेवकों के लिए संसाधन जुटाने में कभी कंजूसी नहीं करता है.” जीजी गांधी के इस विश्वास की सबसे उम्दा मिसाल थे. 

   मिसाल ही देखनी हो तो हम महाराष्ट्र के पनवेल में जीजी का यूसुफ मेहरअली सेंटर देख सकते हैं. जीजी न होते तो यूसुफ मेहरअली जैसा समाजवादी सितारा हमारी स्मृति से शायद खो ही जाता. आज हमने अपना देश जैसा बना दिया हैउसमें किसी यूसुफ मेहरअली के नाम से अपना सार्वजनिक काम शुरू करना संभव ही न हो शायद लेकिन जीजी ने रचनात्मक कामों का बड़ा संसार ही इस नाम से खड़ा कर दिया. रचनात्मक कामों के अधिकांश प्रकार आपको यूसुफ मेहरअ ली सेंटर पर जीवंत मिलेंगे. सहकारी भंडारों की अपनी श्रृंखला से उन्होंने खादी-ग्रामोद्योग को आगे बढ़ाने का लंबा प्रयोग चलाया. इतना सारा कुछ करते हुए भी डॉक्टर जीजी पारीख अपने दवाखाने में नियमित बैठ कर इलाज भी करते रहे. यह क्रम तभी टूटा जब शरीर ने इसकी इजाजत देनी बंद कर दी. 

   जीजी की मृ्त्यु के साथ एक ऐसी जीवन-गाथा का पटाक्षेप हो गया जिस पर से पर्दा उठा कर उसे बार-बार पढ़ने-जानने व उस दिशा में चलने के बिना भारतीय समाज का टिकना मुश्किल होगा. ( 05.10.2025)  

Tuesday, 30 September 2025

आपातकाल का अंधेरा

अंधकार की भी आंखें होती हैं ! इतिहास उन्हीं आंखों से अंधकार के पार देखता है और नया इतिहास लिखता है. आपातकाल हमारे लोकतांत्रिक इतिहास का ऐसा ही अंधेरा हैभारत का मतदाता जिसके पार देख सका था और नया इतिहास रच भी सका था. लेकिन अंधकार को भेदने वाली आंखों का एक सच यह भी है कि वे अंधी न हों. भला सोचिए नअंधी आंखें क्या तो देखेंगीक्या तो समझेंगी ! 

      26 जून 1975 को आपातकाल का अंधेरा सारे देश का आसमान लील गया था. ऐसा अंधेरा देश ने देखा नहीं था कभी. भारतीय लोकतंत्र को आपातकाल की चादर तले ढक करउसका दम घोंटने की यह अत्यंत गर्हित कोशिश श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने की थीयाकि पार्टी को शून्य बना कर इंदिराजी ने की थी. कांग्रेस ने तो अपना नाम भी बदल कर कांग्रेस (इं) कर लिया था ताकि आंखों की शर्म भी क्यों रहे. 

      उस आपातकाल के 50 साल पूरे हुए. इसे देखने के भी दो नजरिये हैं : एक कहता है कि आपातकाल के 50 साल पूरे हुएमैं कहता हूं कि एकाधिकारवादी राजनीतिक ताकतों को चुनौती दे कर परास्त करने के 50 साल पूरे हुए. न लोकतंत्र पर वैसा हमला हुआ था पहले कभीन पार्टियों को पीछे छोड़ती हुई जनता ने कभी उठ कर अपने लोकतंत्र के संरक्षण की वैसी लड़ाई लड़ी थी कभी.  ये दो तस्वीरें नहीं हैंएक ही तस्वीर को देखने की दो नजर है. यह तस्वीर है संपूर्ण क्रांति आंदोलन की ! 

      यह भूलना राजनीतिक अंधता है कि आपातकाल आसमान से टपका नहीं था बल्कि एक अभूतपूर्व जनांदोलन का मुकाबला करने के लिएसंविधान को तोड़-मरोड़ कर निकाला गया वह हथियार था जिसकी धार इस देश के अनपढ़अशिक्षित व असंगठित मतदाता ने पहला मौका मिलते ही कुंद कर दी. कोई 15 महीने चले इस आंदोलन को भूल कर या भुला कर आपातकाल के विषय में निकाला गया हर निष्कर्ष रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक है. 

      सत्ताधीशों के लिए 1947 में भी जरूरी हो चला था कि गांधी की लोकक्रांति की अवधारणा को जनता की नज़र से हटा करएक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि गांधी दीवार पर लटके फ़्रेम से बाहर न आ सकें. यह काम उन लोगों ने किया जो गांधी को अपराधी नहीं मानते थेउनको अपमानित नहीं करते थेदिल से उनकी इज़्ज़त करते थे लेकिन उन्हें आज़ाद भारत के लिए अनुपयोगी मानते थे. 

      1977 में भी सत्ताधीशों के लिए जरूरी हो गया कि जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति की अवधारणा को जनता की नजर से ओझल करएक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि वे लोकविहीन लोकनायक भर रह जाएं. यह तुलना जयप्रकाश को गांधी बनाने की फूहड़ कोशिश नहीं है बल्कि क्रांति व सत्ता के रिश्ते को सफ़ाई से समझने का उद्यम है. 

      आजादी के साथ ही जिनके लिए लोकतंत्रसंविधानजनतासमतासमानतासादगीमितव्ययिता आदि किताबी अवधारणाएं मात्र रह गईं और एकमात्र सच सत्ता ही बचीउनकी एक नजर हैदूसरी नजर उनकी है जो लोकतंत्र को लोक के संदर्भ में संविधान से बंधी निरंतर विकासशील वह अवधारणा मानते-समझते व जीते हैं जिसके लिए कैसी भी सत्ता व किसी की भी सत्ता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है. ऐसी अविचलित आस्था की घोषणा जयप्रकाश ने 1974 में नहीं1922 में कर दी थी: “ स्वतंत्रता मेरे जीवन का आकाश-दीप बन गई. वह आज तक वैसी ही बनी हुई है. समय जैसे-जैसे बीतता गया वैसे-वैसे स्वतंत्रता का अर्थ केवल अपने देश की स्वतंत्रता नहीं रहा बल्कि उससे आगे बढ़ करउसका अर्थ हो गया मनुष्य मात्र की सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति ! इससे भी आगे बढ़ कर वह मानवीय व्यक्तित्व की स्वतंत्रता मेंविचारों की और  आत्मा की स्वतंत्रता में परिणत हो गया. स्वतंत्रता मेरे लिए ऐसी जीवन-निष्ठा बन चुकी है जिसका सौदा मैं कभी भी रोटीसत्तासुरक्षासमृद्धिराज्य प्रदत्त मान-सम्मान अथवा दूसरी किसी भी चीज के लिए नहीं कर सकता.” तो सिर्फ आपातकाल के नहींइस आस्था से जीने व लड़ने के भी 50 साल पूरे हुएयह भूला कैसे जा सकता है !  

      इसलिए आपातकाल के 50 साल पूरा होने का जश्न जिस तरह मनाया गयाअखबारों ने उसे जिस तरह प्रस्तुत कियावह हमें बता गया कि अंधी आंखों से देखा गया इतिहास कितना खोखला व अर्थहीन होता है. मजा यह भी देखिए कि आपातकाल एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सत्ता पक्ष व विपक्ष एक ही स्वर में बोलते हैं : आपातकाल की भर्त्सना ! 1977 के बाद सेइसकी आड़ में सभी तीसमारखां बने जाते हैं जबकि इनमें से अधिकांश न संपूर्ण क्रांति के आंदोलन से सहमत थेन उसके सिपाही थेन आपातकाल से भिड़े थेन उससे किसी स्तर पर समझौता न करने का जिनका प्रण था. बरसाती मेंढकों का ऐसा प्रहसन पहली बार नहीं हो रहा है. 1947 न आएइसके लिए रात-दिन काम करने वाले कितने की योग्य’ जन थे जिन्होंने 1947 के आते ही कपड़े बदल करआजादी के नारे लगाने शुरू कर दिए. हमने देखा कि जवाहरलाल गुलामी के मनकों से आजादी का बंदनवार सजाने में जुट गएसरदार गुलामी को पुख्ता बनाने में जुटी नौकरशाही की फौज ले कर आजादी का राजमार्ग बनाने में लग गए. फिर जो बनावह कहानी फिर कभी.   

      1977 में आई दूसरी आजादी’ की पहली सुबह ही बीमार व इंच-इंच मौत की तरफ़ खिसकते जयप्रकाश ने सर्वोदय के अपने साथियों से जो कहा सो कहानई सरकार में कुर्सी संभालने जा रहे लोगों को सामने बिठा कर दो बातें कहीं : सत्ता की कुर्सी बहुत खतरनाक होती है. इसलिए जब कभी आपकी सत्ता व जनता के बीच आमने-सामने की स्थिति बनेतो इंदिराजी ने जैसा व्यवहार कियामैं आशा करता हूं कि मोरारजी देसाई वैसा व्यवहार नहीं करेंगे. यह व्यक्तिगत शील भर की बात नहीं थीसीधा संदेश था कि संवैधानिक शक्तिओं का इस्तेमाल करते हुएवे सारी व्यवस्थाएं आप कीजिए जिससे भविष्य में कोई आपातकाल की तलवार जनता पर न चला सके. दूसरी बात उन्होंने इनसे बाद में कही : एक साल के लिए देश के सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर दीजिए और ऐसी योजना बनाइए कि पढ़ने व पढ़ाने वाले दोनों ही भारत के लाखों गांवों में बिखर जाएंअसली भारत को देखें-पहचानें तथा उसके साथ जीना व चलना सीखें. दूसरी तरफइसी अवधि में देश भर के शिक्षाविद् सर जोड़ कर बैठें व हमारी शिक्षा की नई व्यवस्था का खाका तैयार करें. जिन्हें याद न होउनको याद कराता हूं कि शिक्षा में क्रांति’ संपूर्ण क्रांति की संकल्पना का एक अहम आयाम था. आजाद भारत में नये मन कानया नागरिक तैयार करने की यह वही तड़प थी जिससे बेचैन गांधी ने 2 फरवरी 1948 को अपने सेवाग्राम आश्रम में अपने ख़ास सिपाहियों का सम्मेलन’ बुलाया था जिसमें आज़ाद भारत की सरकार का एक भी व्यक्ति उन्होंने शरीक नहीं किया था. लेकिन 2 फरवरी के आने से पहले आई 30 जनवरी और 3 गोलियों से गांधी को चुप करा दिया गया1977 के आते ही जयप्रकाश को प्रधानमंत्री ने सावधान कर दिया : जयप्रकाश बाहर के आदमी हैं. हम उनके प्रति जवाबदेह नहीं हैं. 

      आपातकाल के अंधेरे में इतिहास के ये दोनों पन्ने खो न जाएंइसकी सावधानी हमें रखनी है.     

      1977 के बाद से हम देख रहे हैं कि आपातकाल को 26 जून में महदूद कर दिया गया है. हर साल 26 जून को इसकी आड़ में कांग्रेस पर निशाना साधा जाता है. 2014 के बाद से यह खेल ज्यादा ही वीभत्स व फूहड़ हो चला है. कांग्रेस की इतिहास की समझ ऐसी पैदल है कि वह या तो चुप्पी साध बैठती है या आपातकाल से पहले की एनार्की की तस्वीर खींच करआपातकाल का औचित्य बताने लगती है. दोनों ही कांग्रेस की पराजित मनोभूमिका की चुगली खाते हैं. क्या कांग्रेस को याद नहीं है कि इंदिरा गांधी ने भीराजीव व मनमोहन सिंह ने भी आपातकाल’ को अपनी की तरह क़बूल किया था. आपातकाल को अनुशासन पर्व’ कहने वाले विनोबा भावे ने भीआपातकाल के बाद अपने साथियों के साथ बैठ कर कहा था कि बाबा से भी कई गलतियां हुई हैं. आप उसे भूल कर आगे बढ़िए ! 

      कांग्रेस के मन में यदि चोर नहीं है तो उसे पूरे विश्वास सेहर बार संघ परिवार के झूठे तेवर का खंडन करना चाहिए और कहना चाहिए कि 50 साल पहले लिया गया वह निर्णय हमारी चूक थी जिससे हम बहुत दूर निकल आए हैं. यह एकदम वैसी ही चूक है जैसी वामपंथियों की गांधी-आंदोलन को साम्राज्यवाद की दलाली बताने व उसे कमजोर करने वाली चूक थी याकि संघ परिवार की आजादी के आंदोलन को लगातार धोखा देने और सांप्रदायिकता को उभार कर सत्ता पाने की चालबाजी थी. ऐसी ही चूक सीपीआई ने कीसर्वोदय के गिनती भर के उन लोगों ने की जिन्होंने विनोबा की आड़  में सत्ता से तालमेल बिठाया. इन सारी बातों को किनारे कर यदि हम आगे चल रहे हैंतो कांग्रेस को उसकी चूक की याद दिला कर आगे चलने में क्या गलत हैआगे चल रहे हैं इसका मतलब यह नहीं है कि आपके पिछले कारनामों को भूल गए हैं. आपको हर नाजुक परिस्थिति में यह साबित करना होगा कि आप अपनी उस गलती से सीख कर आगे निकल आए हैं. इतिहास ने ऐसे सभी लोगों के कंधों पर यह उधार रख छोड़ा है.  

      आपातकाल की याद हमें इस तरह करनी चाहिए कि सत्ताएं हमेशा सारी शक्ति अपने हाथ में समेटने की युक्ति खोजती रहती हैं. लोकतंत्रसंविधान आदि नहींसत्ता उनकी निष्ठा की पहली व अंतिम कसौटी होती है. इसलिए यह याद रखने की ज़रूरत है कि यदि जयप्रकाश नाम का यह एक आदमी न होता तो 1974 से शुरू हुआ सारा संघर्षलोकतंत्र में उजागर हुई लोक की भूमिकावोट को हथियार की तरह बरतने का तेवरसंपूर्ण क्रांति के संदर्भ में समाज परिवर्तन के आयामों को समझने की दृष्टिदलों की नहीं,  निर्दलीय शक्ति की लोकतांत्रिक भूमिकाएक व्यापक लोकतांत्रिक संघर्ष के मद्देनजर गांधी की सामयिकतायुवाओं की गत्यात्मकताशांतिमयता से अहिंसा तक की यात्रा  आदि-आदि कितने ही अमूल्य मोती जो हमें मिलेनहीं मिले होते. अगर जयप्रकाश नहीं होते तो संसदीय लोकतंत्र की आड़ में मुंह छिपाए बैठी तानाशाहीसत्ता व पूंजी की आपसी साठगांठ व अपरिमित भ्रष्टाचारनिहित स्वार्थों का भयंकर क्रूर व काइयां गंठजोड़हमारे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे में तथाकथित उच्च जातियों व पुरुष-वर्चस्व आदि को हर स्तर पर वैसी चुनौती नहीं मिलती जिससे बिलबिला कर आपातकाल की तोप दागी गई थी. जो आपातकाल को विपक्ष व इंदिरा गांधी के बीच की रस्साकशी की तरह देखना व समझना चाहते हैंवे जड़ को भूल कर पत्ते गिन रहे हैं. आराम से वक्त काटने का यह तरीका हमारे तथाकथित बौद्धिकों को रास आता है लेकिन यह अर्थहीन है. इसलिए तो आपातकाल का पहला नतीजा हमने देखा कि यह वर्ग सबसे पहले शरणागत हुआ फिर चाहे व कलमधारी रहा हो कि रंग-ब्रश वाला कि अखबारी कि सभ्यता-संस्कृति का झंडाबरदार ! इन सबके ही सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे न जो प्रतिनिधिमंडल ले कर इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की बधाई देने पहुंचे थेऔर इनमें से ही कई थे जो 1977 में जनता पार्टी की सफलता के बाद जयप्रकाश को बधाई देने भी पहुंचे थे.ऐसे लोग लोकतंत्र के लोक के साथ नहींतंत्र के साथ रहने में सुख पाते हैं. यदि जयप्रकाश नहीं होते तो 1974 को मुट्ठी भर ऊधमी छात्रों का तमाशा बता कर दबा-बिखरा दिया गया होतापटना व दिल्ली की सत्ता हमें झांसा देकरख़रीद करडरा कर सब कुछ डकार गई होती. इतिहास में हमारे हिस्से दो पंक्तियां भी दर्ज नहीं होतीं. 

      जयप्रकाश ने हमारे छोटे-सेआधे-अधूरे प्रयास को अपनी हथेली पर इस तरह संभाला कि वह विराटतर होता गया और हम आसमान में उतने ऊपर उड़ सके जितना इंसान उड़ सकता है. यह काव्य नहीं है. कभी जयप्रकाश ने विह्वल हो कर बताया था कि कैसे गांधी नाम के उस एक आदमी ने सारे देश की सामूहिक चेतना को झकझोर करउसे उस दिशा में सक्रिय कर दिया था जिसे आजादी की दिशा कहते हैं - राष्ट्र की आजादी से ले कर मानव-मात्र की आजादी ! ऐसी संपूर्ण आजादी का अहसास भी तब कहां था ?  

      एक आदमी ! यहीं पहुंच कर तो जयप्रकाश अपनी आस्था के दर्शन मार्क्सवाद से विलग हुए थे जो एक आदमी की भूमिका को खारिज करता है और व्यक्ति की विशिष्ठ क्षमता व अवदान को  द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की वेदी पर बलि चढ़ा देता है. अगर भौतिकता की गति से ही सब कुछ निर्धारित होता हैतब व्यक्ति की अपनी भूमिका काउसके पुरुषार्थ का कोई मतलब बचता ही कहां है जयप्रकाश ने ही पूछा था कि अगर ऐसा है तो फिर किसी आदमी के भीतर अच्छाई की प्रेरणा का आधार क्या है मार्क्स ने जवाब नहीं दियागांधी ने दिया - अपनी शांत किंतु अकंपित आवाज में उन्होंने कहा : इतिहास की गति भी इंसान ही तय करता है. इसलिए इतिहास के सर्जन मेंसंस्कृति के संस्कार मेंसमाज की चेतना को आकार देने में व्यक्ति के अभिक्रम की निश्चित व निर्णायक भूमिका है. बससावधानी यह रखनी है कि व्यक्ति का सारा अभिक्रम सामाजिक अभिक्रम को उत्प्रेरित करने वाला हो. वह नहीं हो तो व्यक्तिपूजा व एकाधिकारशाही पनपती हैवह हो तो लोक की हैसियत बनती व बढ़ती है. 

      यही भूमिका तब जयप्रकाश ने निभाई. हमने भी कहां कभी देखा-सुना-पढ़ा याकि अनुभव किया था कि एक आदमी अपने वक्त की हवा बना भी देता हैबदल भी देता है. धर्मवीर भारती ने अंधायुग में इसे पहचानने की कोशिश की थी: भगवान श्रीकृष्ण ने “ विशादग्रस्त अर्जुन से कहा - मैं हूं परात्पर ! / जो कहता हूं करो/ सत्य जीतेगा / मुझसे लो सत्यमत डरो ! … जब भी कोई मनुष्य / अनासक्त हो कर चुनौती देता है इतिहास को/ उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है /नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित/ उसको हर क्षण  मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है.” 

      अंधायुग जब मैंने जयप्रकाश को एक रेलयात्रा के दौरान पढ़ कर सुनाई. कृष्ण का जैसा रूपाकार भारतीजी ने उभारा हैउससे वे एकदम आर्द्र हो उठे थे. दूसरी सुबह किताब मांग करखुद उसे फिर से पढ़ा और फिर किताब मुझे सौंपते हुए स्वत: ही बुदबुदाए … पता नहीं इंसान में ऐसी क्षमता कैसे आती है … 

      हमने अपनी आंखों देखा और अपने प्राणों उसे जिया कि कैसे एक आदमी के नि:स्वार्थ अभिक्रम से समाज में अनीति व अन्याय के प्रतिकार की क्षमता पैदा होती है. संपूर्ण क्रांति का पूरा दर्शन व उसकी रणनीति जयप्रकाश की निष्कलुष साधना व साहसिक प्रयोग का अभियान था. इसी अभियान के दौरान हमारी समझ में आया कि दलों की जीत-हार से आगे भी कोई लोकतंत्र होता हैऔर उस लोकतंत्र को साकार करने का काम बड़ा ही पित्तमार है. गांधी अपनी आत्मा का अंतिम सत्व होम कर जिन लोगों तक यह स्वप्न पहुंचा सकेजयप्रकाश उनमें सबसे निराले व आकर्षक थे. इसलिए गांधी ने लिखा भी कि “ मैं जयप्रकाश को हज़म करना चाहता हूं… क्यों कि मैं जानता हूं कि मेरे बाद वह मेरी भाषा बोलेगा.” 

      1974 से हम जयप्रकाश को खोजने-पहचानने बैठैंगे तो भूल भी करेंगे व विफल भी होंगे. जयप्रकाश ने गांधी की वह भाषा सीखी-समझी ही नहींउसे उन्नत व सर्वग्राही भी बनाया. 1974 आते-आते उन्हें यह अहसास हो चला था कि वक्त की छन्नी में उनके लिए बहुत थोड़ी रेत बची है. वह पूरी तरह खाली हो जाए इससे पहले वे अपने समानधर्मा तरुणों को यह अहसास करा देना चाहते थे कि लोकशक्ति लोकतंत्र की मूल शक्ति है जिसे संगठित व सक्रिय करना क्रांति की सही  दिशा है. 

      इतने संदर्भों में जो आपातकाल को नहीं देख व समझ सकेंगे वे किसी दूसरे आपातकाल में डरते-भटकते या फिर किसी की चरणवंदना करते मिलेंगे जैसे आज मिल रहे हैं. हम इनमें शामिल नहीं हैंयह वह उपलब्धि है जो जयप्रकाश को काम्य थी.  ( 17.07.2025)

एक और देशद्रोही !

इस बार वह धुर लद्दाख में मिला ! एक वही जगह बाकी थी शायद जहां देशद्रोहियों की पहुंच नहीं थी. लेकिन हम गलती पर थे. वहां भी ये निकल ही आए ! आप देखिए नकहां-कहांकिस-किस रूप में ये लोग पहुंचे हुए हैंफैले हुए हैं. यहां वह उपवास की आड़ ले कर बैठा था. वह एक साथ पाकिस्तानचीनअमरीका आदि का एजेंट था. हम पहले समझ ही नहीं पाएक्योंकि हम सहज विश्वासी मन के लोग हैं. लगा शांति की बात करने वालाउपवास आदि का रास्ता पकड़ने वालाहमारी राजनीतिक चालबाजी आदि को नहीं समझने वाला एक निरर्थक-सा आदमी है तो उसे करने दो जो करना चाहे. कहां-कहां हम सबको सूंघते फिरें ! आखिर लोकतंत्र भी तो एक रस्म है न कि जिसे भी हमें निभाना पड़ता है. लेकिन अब लगता है कि वे अंग्रेज ही सही थे कि जो उपवासशांतिअहिंसा आदि का ढोंग समझते थे और गांधी को ज्यादा घास नहीं डालते थे. हमने डाली तो देखिए यह सोनम वांगचुक भी शेर बनने लगा ! अब शेर को उसके जंगल में छोड़ दें तो और खतरासो उसे जोधपुर जेल में ला धरा है हमने. अब उसे यहां अपना-सा कुछ भी न मिलेगा — न हवान पानीन लोगन धरती ! अपनी जमीन से काट दो बड़े-से-बड़ा सूरमा भी चूहा बन जाता है.   

यह कहानी है जो पिछले 5-7 दिनों से बेतहाशा लिखी-कही-फैलाई जा रही है. सरकार का आईटी सेल पूरी वफ़ादारी के साथ सोशल मीडिया परगोदी मीडिया परफोटो मीडिया पर जहांजो सूझ रहा है वही चेंपे जा रहा है. जी आका’ के उन्माद में वे यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि एक व्यक्ति को एक साथ चीनअमरीकापाकिस्तान का एजेंट करार देना आपके ही दिमागी दिवालियापन का प्रमाण है. कोई अमरीकी डीप स्टेट का और चीन की रेड आर्मी’ का काम एक साथ कैसे कर सकता है,यह हमारे अतिशय कुशाग्र विदेशमंत्री जयशंकर के अलावा दूसरा कोई न समझ सकता हैन समझा सकता है. 

अब सोनम वांगचुक को बचने-छिपने के लिए कोई जगह नहीं मिलेगी. सत्ता की ऐसी अंधी धमक चला रखी है दिल्ली ने कि कार्यपालिका के जी-हुजूरों की बात कौन करेदिल्ली अपनी मूल्यविहीन सत्ता-लालसा का सिक्का चलाए रखने के लिए फौज-पुलिस का खुला राजनीतिक इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचक रही है. याद है न कि ऑपरेशन सिंदूर के झूठ को सच बनाने के लिए किस तरह सेना के अधिकारियों का इस्तेमाल किया गया था और किस तरह वायु सेनाध्यक्ष एयर मार्शल ए.पी. सिंह और फिर भारतीय सैन्य सेवा प्रमुख जेनरल अनिल चौधरी ने इनकी पोल खोल दी थी ! इस बार सामने लाए गए हैं लद्दाख के पुलिस महानिदेशक कोई श्रीमान एस.डी.सिंह जामवाल. उनसे कहलवाया जा रहा है कि लद्दाख में हुई हिंसा के प्रेरक-जनक-योजनाकार सोनम वांगचुक थे जिनके तार पाकिस्तान से जुड़े हैंअमरीकी फंडिंग की ताक़त हैं उनके पास. जामवाल का कहना है कि यदि प्रदर्शनकारियों पर गोली चला कर हमने कुछ लोगों को ढेर नहीं कर दिया होता तो सारा लद्दाख जल कर राख हो जाता. जामवाल ने ही यह रहस्य भी खोला कि उनके 70-80 पुलिसकर्मी घायल पड़े हैंऔर  यह भी कि उन लोगों को खुफिया जानकारी थी कि वांगचुक व उनके साथी शांति भंग करने की तैयारी कर रहे हैं. वे यह नहीं बताते हैं कि जब उन्हें पता था कि वे ऐसी तैयारी कर रहे हैं तब आप क्या कर रहे थेनिकम्मी सरकार के निकम्मे अधिकारी! 

अब हम घटना की तरफ लौटते हैं.

सोनम अनशन पर पांचवीं बार उतरे थे. केंद्र सरकार लद्दाख के नागरिक संगठन को दिया अपना कोई वाद पूरा करने को तैयार नहीं थी. वह लद्दाख जन संगठन से बातचीत करने को भी तैयार नहीं थी. बातचीत की हर बातचीत किसी-न-किसी बहाने भटका दी जा रही थी. गुस्सा व निराशा गहरा रही थी. उसे एक मोड़ दे कर क़ाबू में रखने के लिए और सरकार पर दवाब बढ़ाने के लिए सोनम अनशन पर उतरे. आपको याद है न कि लद्दाख से चल कर सैकड़ों नागरिक कुछ माह पहले ही सोनम के साथ दिल्ली पहुंचे थे. दिल्ली में उन्हें घोर उपेक्षा मिली थी. 

यह यात्रा व इससे पहले के सारे अनशन व संवाद के प्रयास इसी कोशिश में थे कि सरकार बातचीत करेलद्दाख की सुने ताकि वहां का तनाव ढीला पड़े और बात आगे बढ़े. शुरू से ही सोनम वांगचुक की सोच व उनकी पहल इसी दिशा में रही है कि सत्ता से संवाद करसमस्याओं का रास्ता निकाला जाए. लेकिन यह सरकार भी  शुरू से ही लोगों की मांग पर बातचीत करने व लोगों का कहा सुनने को अपनी हेठी समझती रही है. एक खास विचारधारा की सरकार का मिजाज ऐसा होता है. भूमि अधिग्रहण से ले कर किसान आंदोलनबेरोजगार आंदोलनशिक्षक आंदोलनपूर्व सैनिक आंदोलन जैसे अनेक उदाहरण हैं जब यह सरकार सुनने व बातचीत करने में अपनी हेंकड़ी दिखाती रही है. वैसा ही लद्दाख के साथ भी होता रहा. 

सोनम व लद्दाख का कहना क्या है ठीक वही जो हिमालय का कहना है कि हम लोग प्राकृतिक बनावट व भौगोलिक संरचना में बाकी देश से सर्वथा भिन्न व अत्यंत नाजुक पर्यावरण के वाशिंदे हैं. हमारी जरूरतें अलग हैंहमारी प्राथमिकताएं अलग हैं. इसलिए दिल्ली की सोच व दिल्ली का मिजाज हम पर थोपिए मत ! हमसे बात कीजिए और हमें जिसकी जितनी जरूरत हैउतना हमें दे कर आप देश का दूसरा काम कीजिए. इतनी सरल-सीसीधी लोकतांत्रिक आकांक्षा है हिमालय व लद्दाख की. लेकिन कोई राज्यकोई समाज अपनी आकांक्षा हमसे पूछे बग़ैर तय करे और हमें उसे पूरा करना पड़ेऐसा लोकतंत्र सरकारों ने पढ़ा कब है ! इसलिए वह अपने एजेंट छोड़ती है ताकि वे हिमालय या लद्दाख में जा करअंदमान जा कर वहां के लोगों की एकता को तोड़ें व दिल्ली की घुसपैठ का रास्ता बनाएं. कौन हैं ये एजेंट नौकरशाहीपार्टी व पुलिस-फौज. यही खेल सब जगह चलता है. 

सोनम शिक्षा से जुड़े सज्जन व्यक्ति रहे हैं. वे बताते हैं कि वे विज्ञान में - ऑप्टिक्सलाइटमिरर में डूबे रहने वाले विज्ञान की धरा के युवा थे जिसे पारिवारिक वजहों से अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए बच्चों को पढ़ाने का काम करना पड़ाऔर लद्दाखी बच्चों को पढ़ाते हुए उनकी अपनी शिक्षा भी हुई और वे पहचानने लगे कि यह शिक्षा नहींभूसा है जो वे और दूसरे सारे शिक्षक बच्चों के दिमाग में भरते जा रहे हैं. इसी अनुभव में से नए सोनम वांगचुक का जन्म हुआ. दुनिया देखीविदेशी शिक्षण संस्थानों को देखा-समझा और फिेर अपने लद्दाख को अपने बच्चों के लिए बनाने में जुट गए. अपनी संस्था बनाईविज्ञान की अपनी पढ़ाई व अपनी मौलिकता का इस्तेमाल कर वह बहुत कुछ बनाया जिसकी चर्चा तब भी और अब भी सब तरफ़ होती है. लद्दाख की बर्फानी प्रकृति से जूझते भारतीय फौजियों को देखा तो उनके लिए ऐसे हल्के व आरामदेह टेंट बनाए की फौज धन्य हो गई. लद्दाखी बच्चों के लिए पाठ्यक्रम बनायाउसके लिए योग्य शिक्षक तैयार किएवहां के नाज़ुक पर्यावरण के अनुकूल विकास के कितने ही नए ढांचे खड़े किए. देश-दुनिया से तमाम सम्मान व पुरस्कार बरस पड़ेबरसते ही रहे. हर सरकार का स्नेह पायाहर सरकार के स्नेही रहे. कभी कोई एक उदाहरण भी नहीं खोज पाएंगे आप जब किसी सवाल पर सोनम ने सरकार की मुखालफत की हो. उनकी यह कच्ची समझ यहां तक गई कि जब जम्मू-कश्मीर को तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित करधारा 370 खत्म कर दी गई और पूरा राज्य एक बड़ी जेल में बदल दिया गयातो उसका सबसे मुखर स्वागत सोनम ने किया. लद्दाख के लिए स्वतंत्र प्रांत की अपनी मांग के रास्ते में वे धारा 370 को सबसे बड़ी बाधा मानते थे. इसलिए वह धारा खत्म की गई तो सोनम ने यह समझा कि अब लद्दाख का रास्ता खुल जाएगा. वे यह सीधी व सच्ची बात नहीं समझ सके कि दूसरे का घर लूटने वालेपड़ोस का घर नहीं भरते हैं बल्कि उसी पड़ोस को लूटते हैं जिसने पहला घर लूटने में मदद की थी. लद्दाख के साथ यही हुआ.               

ऐसी आदमी की संरचना में आप देशद्रोही का एक धागा भी खोज नहीं पाएंगे. 2020 सरकार की चीन से अनचाही तनातनी हो गई तो लद्दाख से पहली आवाज सोनम की ही उठी कि हमें नागरिक स्तर पर भी चीन को हराना हैसो हर नागरिक अपने पर्स का हथियार’ चलाए व चीनी सामान नहीं खरीदने का संकल्प ले ! सोनम को सरकार ने हाथोंहाथ लिया. कितना प्रचार व समर्थन मिला तब सोनम को. 

लेकिन बात बिगड़ी तब जब प्रधानमंत्री की लक्ष्मण-रेखा जाने-अनजाने में सोनम ने पार की. यह अपने गुजरात के साबरमती में जिनपिंग को झूला झुलाने व गले लगाने बाद का हादसा है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति को गले लगाने का खेल समझने वाले प्रधानमंत्री को अचानक जिनपिंग ने दिखा दिया कि यहां गला काटने में देर नहीं लगती है. मोदी  सरकार डर गई और हर डरे हुए आदमी की तरह उसने इस खतरे को झूठ की चादर से ढकना चाहा. प्रधानमंत्री ने भरी संसद में कहा कि न सीमा पार से कोई आया हैन कोई घुसा थान कोई घुसा है. प्रधानमंत्री देश की आंख में धूल झोंक रहे थेलद्दाख में सोनम खुली आंखों से देख रहे थे कि चीन भीतर आ घुसा हैकि लद्दाखी चरवाहों की धरती उसने कब्जा कर ली हैकि जानवरों को चराने की जगह नहीं बची हैलद्दाखी लोगों का अपनी ही धरती पर आना-जाना दूभर हो गया है. उन्होंने यह सच देश को बता दिया.

उस दिन से सोनम सरकार की नजर से गिर गए. उनकी छवि खराब करने का काम चलने लगा. उनकी उपेक्षा होने लगी और यह सावधानी बरती जाने लगी कि उनको कैसी भीकोई भी सफलता न मिले. यह सरकार हमेशा चौकन्ना रहती है कि कहींकोई भी ऐसा व्यक्तित्व न उभर सके कि जो कभीकिसी भी मौके पर सरकार से- प्रधानमंत्री से - सवाल-जवाब की हैसियत में आ जाए. सोनम यह करने लगे थे.

अब लद्दाख को अकेला कर सरकार उसे चुप कराना चाहती है. सोनम उसकी सबसे स्पष्ट व मुखर आवाज थे. उसे उसने ऐसी धारा में पकड़ कर अंदर कर दिया है जिसमें जमानत मिलना आसान नहीं है. जब सर्वोच्च अदालत हर जिम्मेवारी से कंधा झटकने में लगी हो तब तो सोनम का बाहर आना ज्यादा ही मुश्किल है. अब रास्ता एक ही है कि सारा देश लद्दाख की साथ बोले व सोनम की रिहाई की मांग करे. यह सब सोनम के रास्ते से ही हो लेकिन कमजोर या प्राणहीन न हो. हमें खुल कर और बुलंद आवाज में कहना चाहिए कि जब देश में देशद्रोहियों की संख्या इस कदर बढ़ जाए तब लोगों को नहींसरकार को पकड़ना चाहिए. 

( 29.09.2025)   

Friday, 26 September 2025

राहुल गांधी से मत पूछो !

    राहुल गांधी ने एक अजीब-सी हवा पकड़ ली है. वे बोलते जा रहे हैं लगातार, बिना इस फिक्र के कि उन्हें कौन सुन व समझ रहा है. सत्ता की राजनीति की मुश्किल ही यह है कि यहां लोग अपनी ही प्रतिध्वनि सुनते हैं और खुश होते रहते हैं कि जमाना सुन रहा है. लेकिन राहुल गांधी के मामले में बात कुछ अलग-सी भी है. राहुल गांधी राजनीतिज्ञ हैं, तो राजनीति तो कर ही रहे हैं - वह भी सत्ता की राजनीति ! - लेकिन वे जो कह रहे हैं वह सत्ता की संकीर्ण राजनीति से अलग है. वे बोल भर नहीं रहे हैं, लोगों के बीच घुस-घुस कर बोल रहे हैं, चलते-चलते बोल रहे हैं, उनका चलना ही बोलने में बदल गया है. 

    राहुल गांधी जो कह रहे हैंहम उसे अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर सुनें तो हम समझ पाएंगे कि वे जो कह रहे हैंवह बात नहींआवाज है जिसकी प्रतिध्वनि हमारे भीतर उठनी चाहिए. यदि नहीं उठती है तो राहुल गांधी तो निश्चित ही विफल हो जाएंगे लेकिन उससे कहीं बड़ी व भयंकर बात यह होगी कि हमारा लोकतंत्र विफल हो जाएगासंविधान व्यर्थ हो जाएगा और आजादी का वह सारा संघर्षजो गांधी की अंगुली पकड़ कर लड़ा गया थाअपनी अर्थवत्ता खो देगा. इसलिए मैं कह रहा हूं कि राहुल गांधी से सवाल मत पूछो. राहुल गांधी को सुनो और ख़ुद से पूछो भी और खुद को जवाब भी दो कि तुम क्या करोगेक्या कर सकोगे और  क्या करना जरूरी है.  

    भारतीय राजनीति में आज राहुल गांधी यदि हमारे पुराणकालिक किसी पात्र की भूमिका से मिलती-जुलती भूमिका में दिखाई देते हैं तो वह अभिमन्यु की भूमिका है. 

   महाभारत की कथा बताती है कि कौरव सेनापति गुरु द्रोण ने महाभारत के 13वें दिन चक्रव्यूह की रचना की थी ताकि धर्मराज युधिष्ठिर को बंदी बना करयुद्ध समाप्त किया जा सके. वे जानते थे कि पांडवों में केवल अर्जुन ही हैं जिन्हें चक्रव्यूह को बिखेरने की कला आती है. इसलिए उस दिन युद्ध-स्थल की संरचना ऐसी की गई थी कि अर्जुन को चक्रव्यूह से कहीं दूरदूसरे किसी युद्ध में उलझा कर रखा जाए और इधर युधिष्ठिर को चक्रव्यूह में फंसाया जाए. खबर पांडवों तक पहुंची तो उनके खेमे में सन्नाटा छा गया : अर्जुन तो हैं नहीं लेकिन तो चक्रव्यूह सामने है ! इस चुनौती से कैसे निबटें ?  जवाब अभिमन्यु ने दिया : मैं चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश करना जानता हूं. वह मैं करूंगा लेकिन मुझे उससे बाहर निकलना नहीं आता है. पांडव-महारथियों ने उसे आश्वासन दिया कि तुम चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश करोगे तो हम तुम्हारे पीठ से लगे-लगे ही भीतर घुस आएंगेऔर एक बार हम सब भीतर आ गए तो फिर क्या द्रोणाचार्य और क्या चक्रव्यूहसब छिन्न-भिन्न कर देंगे. 

   लेकिन ऐसा हो न सका. अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश तो कर लिया लेकिन उसके महारथी लाख कोशिश कर के भीउसकी पीठ से लगे-लगे चक्रव्यूह के भीतर न जा सके और कौरव महारथियों ने घेर करनिहत्थे अभिमन्यु का वध कर डाला. आज ही की तरह तब भी युद्ध में सबसे पहला बलिदान नैतिकता व शील का होता था. 

   राहुल संघ परिवार मार्का चक्रव्यूह में प्रवेश कर चुके हैं. अब लोकतंत्र के दूसरे महारथी नहीं आ गए तो संभव है कि महाभारत की कथा दुहराई जाए. 

   लोकतंत्र की शतरंज में वोट पासा होता है. यह पासा जनता के हाथ में होता है और जनता किसी के हाथ में नहीं होती है. इसलिए जनता को धर्म या जाति या रिश्ते-नाते के नाम पर या अब सीधे ही रेवड़ियां बांट कर अपनी तरफ़ करने का खेल सभी खेलते आए हैं. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आंतरिक कमजोरी है जिसका कोई रास्ता खोजना है. लेकिन राहुल गांधी जो नई बात सामने ले कर आए हैं वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आंतरिक कमजोरी की बात नहीं हैलोकतांत्रिक प्रक्रिया को हाइजैक’ करने की बात हैयह येनकेन प्रकारेण जनता को अपनी तरफ करने की बात नहीं हैजनता को अपने रास्ते से ही हटाने की बात है. राहुल जिसे वोट-चोरी कह रहे हैंवह दरअसल लोकतंत्र का गला घोंटने का षड्यंत्र है. राहुल गांधी ने यह पूरा मामला जितनी खोज व तैयारी के साथ सामने लाया है उसके बाद इसकी तरफ़ से आंख मूंदना सारे देश के लिए शर्मनाक ही नहीं होगाहमारे मुर्दा होने का भी प्रमाण होगा. एक राजनीतिक लड़ाई को उन्होंने लोकतंत्र की लड़ाई में बदल दिया है और इसलिए यह लड़ाई उन सबकी हो गई है जो लोकतंत्र को अपने जीने के एक अविभाज्य मूल्य की तरह देखते व जीते हैं. 

   एक बड़े पत्रकार ने उस रोज़ बड़ी तल्खी से पूछा था : बम फोड़ा तो राहुलजी नेक्या हुआ फुस्स ! अब हाइड्रोजन बम की बात कर रहे हैं !! 

   मैं हैरान रह गया ! राहुल गांधी के पास वह बम तो है नहीं कि जिससे लाशें गिरती हैं. वे जिस बम की बात कर रहे हैं वह लोकतांत्रिक नैतिकता से जुड़ा है. अगर वह आपको छूता नहीं है तो आपको लोकतंत्र छूता नहीं है. लोकतंत्र में एक नागरिक इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह सबको आगाह कर दिखा दे कि देखोयहां इस तरह लोकतंत्र को विफल किया जा रहा है. इसके आगे का काम उन सबको करना चाहिए जिन्हें संविधान ने अलग-अलग भूमिकाएं सौंप रखी हैं. विधायिका हैकार्यपालिका है. न्यायपालिका और मीडिया है जिसे संविधान ने लोकतंत्र की पहरेदारी का काम दे रखा है. ये सब जब अपना काम न करें तो एक नागरिक क्या करे 

   1974 की बात है. जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र का क्षितिज बड़ा करने का संपूर्ण क्रांति का अपना आंदोलन बढ़ाते चले जा रहे थे. मांग थी कि बिहार की विधान सभा भंग की जाए व मंत्रिमंडल इस्तीफा दे. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आक्षेप उठाया कि क्या सड़क से उठ कर कोई कह दे कि विधान सभा भंग करो तो हम कर दें फिर लोकतांत्रिक परंपराओं का क्या होगा जयप्रकाश ने इंदिराजी की बात का यह सिरा पकड़ लिया और आंदोलन ने अगले कई महीने इस आक्षेप का खोखलापन उजागर करने में लगाए. 

   जयप्रकाश के मन में कहीं यह धुंधली-सी आशा थी कि यदि वे बड़े पैमाने आंदोलन की इस मांग के पीछे का जन-समर्थन स्थापित कर देंगे तो किसी सरकार के लिए उसकी उपेक्षा करना कठिन हो जाएगा. इसलिए हर स्तर पर उन्होंने जन-समर्थन उजागर करने वाले कार्यक्रमों का तांता लगा दिया. भारतीय लोकतंत्र में जनता की सहमति व सक्रियता का वैसा प्रदर्शन न कभी हुआ थान फिर कभी हुआ. यहां तक हुआ कि 3 दिनों तक पूरा बिहार प्रांत बंद रहा. 3-5 अक्तूबर 1974 के दौरान हुआ बिहार बंद अकल्पनीय था. कोई नहीं था कि जिसे भरोसा था कि बग़ैर जबरदस्ती व हिंसा के ऐसा व इतना लंबा बंद करवाया जा सकता है. लेकिन वह बंद हुआ. सड़केंदूकानेंस्कूल-कॉलेज आदि तो बंद हुए हीरेलें भी बंद हुईं. सब हुआ और पूरी तरह लोकतांत्रिक व शांतिमय तरीकों से हुआ. देश-दुनिया का मीडिया ऐसे अभूतपूर्व बंद का गवाह बना. 

   लेकिन जयप्रकाश का यह बम भी उसी तरह फुस्स करार दिया गया जिस तरह राहुल का बम फुस्स करार दिया जा रहा है. 18 नवंबर 1974 को पटना के गांधी मैदान की अभूतपूर्व सभा में जयप्रकाश ने इस प्रश्न को इस तरह उठाया : “ कदम-दर-कदम कैसे चला है यह आंदोलन यह देखिए. इन सबका कोई असर नहीं. अब कौन-सी बात का असर होगामेरी समझ में नहीं आता है.” लोकतंत्र जिनके लिए सौदा करने की व्यवस्था नहींआस्था हैउनके लिए बम का मतलब कुछ अलग ही होता है. लोकतांत्रिक व्यवहार से थोड़ा भी विचलन उन्हें विचलित करता है. चुनावी हार नहींचुनाव की ही हार किसी लोकतांत्रिक आस्था वाले को कैसे पचे खेल ही बदल दिया जाए तो खेल कैसे खेला जाए इसलिए जनमत का हर तरह से प्रदर्शन करने के बाद भी जब सत्ता न सुनने-न देखने को तैयार हुईतब झुंझला कर जयप्रकाश ने कहा था  कि अब इतना ही बचा है न कि मैं बच्चों से कहूं कि जाओऔर हाथ पकड़ कर इन लोगों को कुर्सी से उतार दो ! 

   राहुल गांधी ने बात जहां पहुंचा दी है उसके आगे वे,या कोई भी नागरिक क्या कर सकता है विनोबा स्वयं ऐसे ही मुकाम पर 1982 में तब पहुंचे थे जब गो-हत्याबंदी की उनकी मांग पर इंदिराजी कान धरने को भी तैयारी नहीं थीं. मुंबई से ले कर दिल्ली तक हर दरवाजे पर सालों तक दस्तक देने के बाद भी जब कोई दरवाजा नहीं खुला तो विनोबा ने झुंझला कर कहा था कि इंदिरा गांधी का हाथ पकड़ करउन्हें कुर्सी से उतार देना चाहिए.  

   हाथ पकड़ कर कुर्सी से उतारने जैसी बात राहुल गांधी नहीं कह रहे हैं लेकिन आप कह रहे हैं कि बम तो फुस्स हो गया ! जब हमारी लोकतांत्रिक चेतना इतनी संवेदना शून्य हो गई हो कि उस पर किसी बात का असर ही नहीं होता हैतो कोई क्या करे पत्रकार राहुल गांधी से पूछते हैं कि अब आपका अगला कदम क्या होगा पूछना तो उनसे चाहिए नऔर बताना तो उनको चाहिए न कि कल सुबह आपके अखबार का चेहरा कैसा होगा यह खबर कहां व कैसे प्रकाशित होगी चैनलों को बताना चाहिए न कि कल से इस खबर को कैसे प्रसारित किया जाएगा क्या कंधों पर अपना कैमरा उठाए चैनलों के लोग उन जगहों पर उतर पड़ेंगे जिनकी बात राहुल कह रहे हैं ताकि जाना व बताया जा सके कि सच क्या है हर अखबार व चैनल को जा कर घेरना तो चुनाव आयोग को चाहिए न कि जब आपके बारे में ऐसी गंभीर शंका पैदा हो गई है तब आप क्या करने जा रहे हैं हम सबको पूछना तो सर्वोच्च न्यायालय से चाहिए न कि जब राहुल गांधी इतने सारे प्रमाण के साथ वोट चोरी की बात सामने ला रहे हैं तब क्या आपको अपनी पहल से ही इस मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिए ?  

   सवाल राहुल गांधी का नहींसवाल उस संविधान का है जिसकी बनाई कुर्सियों पर ये सभी विराजते हैं. संविधान की रक्षा की शपथ ले कर सारे सांसद संसद के भीतर प्रवेश करते हैं. चुनाव आयोग उसी संविधान की शपथ लेता है और न्यायाधीश उसी संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं. तो यह असामान्य घड़ी है कि हम सबके अस्तित्व का आधार संविधान ही धुंधलके में घिर रहा है. यह अकेले राहुल गांधी की जिम्मेवारी कैसे हो सकती है कि वे संविधान की रक्षा करें अौर बाकी सब संविधान पर चोट करेंयाकि इसका उल्टा हो रहा होतो भी अदालत को या संसद को या चुनाव आयोग को आगे आना तो होगा. 

   कोई पूछ रहा है कि जब हालत इतनी खराब हो गई तब आप बोल रहे हैंपहले क्यों नहीं बोले कोई कह रहा है को वोट चोरी की बात अब कमजोर पड़ती जा रही है. पहले नहीं बोले तो क्या अब भी नहीं बोलें यह कोई तर्क हुआ क्या पत्रकारों को और एंकरों को कभी पता चला था कि इस तरह वोट चोरी हो रही हैकिसी को नहीं पता था की सरकार व आयोग की मिलीभगत से ऐसा हो सकता है. अब राहुल को भी पता चला है और सबको पता चल चुका है. अब जाकर यदि वोट चोरी की बात कमजोर पड़ती जा रही है तो इससे हमें खुश होना चाहिए या दुखी यह बात गलत साबित हो तो हम राहत की सांस लें या फिर इसकी जड़ तक पहुंचने का आज का सिलसिला बना रहेइसकी सावधानी हमें रखनी चाहिए. यह कांग्रेस का सवाल नहीं हैयह भाजपा की चिंता का विषय भी होना चाहिए. लेकिन भाजपा ने चोर-चोर मौसेरे भाई जैसा रवैया रखा है.  

   लोकतंत्र एक मूल्य है जिसमें से हमारे नागरिक होने याकि आदमी होने के अनेक मूल्य निकलते हैं. हम किसी भी पार्टी के हों या किसी के भी भक्त या अंधभक्त होंअंधे तो न हों !  ( 26.09.2025)