हमारे तथाकथित अख़बार एक ग़ज़ब की बात बता रहे हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप से फ़ोन पर बात की और उनसे कहा कि आप जो कह रहे हैं, कहते आ रहे हैं वह झूठ है: मैंने भारत-पाकिस्तान युद्ध के बारे में न कभी आपसे बात की, न कभी आपसे युद्धबंदी की बात की और न कभी आपसे मध्यस्थता का अनुरोध किया. बता रहे हैं कि मोदीजी ने उस दिन बहुत कड़क रवैया अपनाया और आगे कहा कि मैं आगे भी कभी ऐसा कोई अनुरोध आपसे करने वाला नहीं हूं. हमारे देश में इस बारे में सर्वसम्मति है कि हम किसी तीसरे की मध्यस्थता कभी स्वीकार नहीं करेंगे. भक्त कह रहे हैं कि इधर मोदी ने यह कहा और उधर सारी दुनिया में सन्नाटा छा गया.
किसी को याद आया कि नहीं पता नहीं कि इन्हीं ट्रंप साहब को दोबारा राष्ट्रपति बनवाने के लिए इन्हीं मोदी साहब ने कभी अमरीका जा कर चुनाव प्रचार किया था. लेकिन तब दोनों हार गए थे. यह हार ट्रंप को इतनी नागवार गुजरी कि इस बार जब वे जीते तो उन्होंने मोदीजी को अपनी ताजपोशी के कार्यक्रम में नहीं बुलाया. समारोह में मोदीजी को न बुला कर ट्रंप ने उन्हें व उनकी भक्त-मंडली को उनकी औकात बता दी. यह बात मोदीजी को बहुत नागवार गुजरी. वे इस अभियान में जुट गए कि ट्रंप महोदय, आपको मुझे बुलाना तो पड़ेगा ही. सारी तिकड़म के बाद उन्हें ट्रंप ने उन्हें बुला लिया. मोदीजी तुरंत ही पहुंचे और वहां पहुंच कर उन्होंने ट्रंप साहब के उन तमाम गुणों को सार्वजनिक रूप से याद किया जिनका पता न अमरीका को था, न ट्रंप को. वे ट्रंप साहब की बहादुरी की याद करते हुए बहुत विह्वल भी होते रहे. लेकिन तभी ट्रंप ने उन्हें सामने बिठा कर बताया कि भारत जिस तरह अब तक अमरीका को लूटता आया है, वह आगे संभव नहीं होगा. मैं ‘टैरिफ’ के हथियार से आपको आपकी औकात बता दूंगा.
अब आप बताइए कि ऐसा रिश्ता क्या कहलाता है ? यह न तो मित्रता का रिश्ता है, न सम्मान का, न बराबरी का. यह वह रिश्ता है जिसमें ‘ इस्तेमाल कर लो, फिर फेंक दो’ का चलन चलता है. ट्रंप और मोदी, दोनों इसके उस्ताद हैं. आज ट्रंप का पलड़ा भारी है.मोदी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं.
मोदी की राजनीतिक शैली में बात कुछ ऐसी बना दी गई है कि देश के बारे में, फौज के बारे में, युद्ध के बारे में, देश की सुरक्षा के बारे में कुछ भी न बोलो, न पूछो, न सोचो ! और पांचवें हैं नरेंद्र मोदी, जिनके बारे में कुछ भी पूछना हिंदुत्व वालों को नागवार गुजरता है. आप सोचिए, कि पहलगांव के बाद तमाम विपक्ष ने कह दिया कि हम सरकार के साथ हैं ! यह घबराई हुई, जड़विहीन, राजनीतिक दृष्टि से कायर विपक्ष की सोच है. संकट का आसमान रचना और फिर उस आसमान में अपने शिकार करना सरकारों का पुराना हथकंड्डा है. इसलिए स्थिति चाहे कैसी भी हो, हम ताश के सारे 52 पत्ते सरकार के हाथ में कैसे दे सकते हैं ? विपक्ष की एक ही भूमिका होनी चाहिए, घोषित की जानी चाहिए कि हम हर हाल में देश के साथ खड़े रहेंगे. हमारी इस भूमिका से सरकार को जितनी मदद, जितना समर्थन मिलता है, उससे हमें एतराज़ भी नहीं है लेकिन सरकार की आंखों हम देखें, सरकार के कानों हम सुनें तथा सरकार के पांवों हम चलें, यह कैसे हो सकता है ? यह तो बौनों का बला का संकट है और इससे घिरा हमारा विपक्ष बौने-से-बौना हुआ जा रहा है.
3 दिन के युद्ध के बाद, युद्ध से पहले और बाद की किसी भी स्थिति की गंभीर चर्चा व समीक्षा की हर संभावना को खत्म करते हुए प्रधानमंत्री ने संसदीय विपक्ष की आवाजों को चुन-चुन कर विदेश-यात्रा पर भेज दिया. कहा : विश्व मंच पर भारत सरकार का पक्ष अच्छी तरह रखने का राष्ट्रीय कर्तव्य निभाने की चुनौती है, सो आप सब तैयार हो जाएं. आख़िर पाकिस्तान को जवाब देना है न ! सीमा पर हमारे जवान अंतिम बलिदान दे रहे हैं, तो क्या हम विदेश जा कर अपनी आवाज़ भी नहीं दे सकते ? कहने की देर थी कि सभी तैयार हो गए. किसी ने नहीं कहा कि हमें अपनी पार्टी की सहमति लेनी पड़ेगी ! जब राष्ट्रीय कर्तव्य निभाना हो, तो पार्टी की क्या बात है. पार्टी से राष्ट्र बड़ा होता है कि नहीं ! सब अटैची के साथ एयरपोर्ट पर थे. कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रतिनिधियों के नाम भेजे तो थे लेकिन सरकार को तो कोई और ही खेल खेलना था. उसने वे सारे नाम रद्दी में फेंक दिए और प्रतिनिधि मंडल में कांग्रेस के ‘अपने प्रतिनिधि’ नियुक्त कर दिए. अब कांग्रेस के सामने दो ही रास्ते थे : इस संसदीय पिकनिक पर न जाने का ‘व्हिप’ जारी करे व इसका उल्लंघन करने वालों को पार्टी से बाहर करे या फिर चुप्पी साध ले. कांग्रेस ने दूसरा विकल्प चुना, तो तृणमूल कांग्रेस ने पहला विकल्प चुना. इस तरह सभी अपने-अपने हिस्से का विदेश घूम आए. जहां जिसे जैसा मौका मिला, उसने वहां वैसा सरकार का पक्ष रखा. लौटने पर सबने पाया कि वे तो विदेश से लौट आए हैं लेकिन उनकी आवाज कहीं विदेश में ही रह गई है. आज हमारे संसदीय विपक्ष के पास न चेहरा है, न आवाज़ ! सूरतविहीन, गूंगे विपक्ष से सरकार को क्या खतरा हो सकता है ?
जो सरकार व राष्ट्र का फर्क नहीं समझते; जो सत्ता प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द इसलिए ही घूमते-मंडराते रहते हैं कि कब, कहां, कैसे मौका मिले कि हम भीतरखाने दाखिल हो सकें; जो विपक्ष की भूमिका चुनते नहीं हैं बल्कि उसे सजा काटने की तरह देखते हैं और पहले मौके पर उधर भाग खड़े होते हैं वे कहीं भी आदर-मान नहीं पाते हैं - न विपक्ष में, न सत्तापक्ष में. वे होते हैं किसी कुर्सी की शक्ल में, बस ! हमारा अधिकांश विपक्ष इसी शर्मनाक त्रासदी से गुज़र रहा है. हमारा मतदाता इसलिए ही उसे किसी विकल्प की तरह न देख पा रहा है, न स्वीकार कर पा रहा है.
कोई आश्चर्य नहीं कि देश में आज एक ही विपक्ष बचा है और उसका नाम है राहुल गांधी ! लेकिन आप देखिए कि यह एक आदमी का विपक्ष भी हर कदम पर ठिठकता, भटकता और असमंजस में पड़ा दिखाई देता है, तो इसलिए कि वह हर तरफ़ से अकालग्रस्त है - अकाल संख्या का नहीं, प्रतिभा, प्रतिबद्धता का अकाल है ! किसी भी नेता के लिए निर्णायक भूमिका निभाने या उसकी जिम्मेवारी लेने के लिए कुछ आला सहकर्मियों की ज़रूरत होती है. ऐसे सहकर्मी बने-बनाए नहीं मिलते हैं. बनाने पड़ते हैं. राहुल के पास वे नहीं हैं, क्योंकि अब तक का अनुभव बताता है कि उन्हें ग़लत सहकर्मियों को चुनने में महारत हासिल है. नरेंद्र मोदी के पास भी ऐसे सहकर्मी नहीं हैं. लेकिन नेताओं की एक प्रजाति ऐसी होती है जो दोयम दर्जे के चापलूसों से घिरे रहने में ही सुख व सुरक्षा पाती है. नरेंद्र मोदी उसी प्रजाति के हैं. उनके पास अभी सत्ता की छाया भी है.
जब विपक्ष के ऐसे हाल हों और सत्तापक्ष के भीतर सत्ता-सुख व अहंकार के अलावा कुछ हो ही नहीं, तो यह सवाल कौन पूछे कि अंगुलियों पर गिने जाने जैसे आतंकवादी हमारी सीमा में घुस आए और उन्होंने हमारे 26 मासूम नागरिकों की हत्या कर दी, इतने से सारा देश कैसे खतरे में आ गया ? किसी चौराहे पर वाहनों की टक्कर हो जाए और 26 लोग मारे जाएं, तो क्या देश खतरे में आ जाता है ? आप समझ रहे हैं न कि मैं वाहनों की टक्कर व आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या को एक पलड़े पर नहीं रख रहा हूं, मैं देश पर खतरा कब आता है, इसे पहचानने की बात कर रहा हूं. पहलगांव में घुस आए उन आतंकवादियों व उन मासूम नागरिकों की हत्या से देश खतरे में नहीं आया था बल्कि वह खतरे में इसलिए आया कि आप कश्मीर की सीमा की सुरक्षा में विफल रहे थे. केंद्र सरकार की सीधी निगरानी में जो कश्मीर है, चोर उसकी दीवार में सेंध लगा लेता है तो यहां खतरा आतंकवादी नहीं है, आपका निकम्मापन है. खतरा यहां है कि आप उस आतंकी कार्रवाई का जवाब देने के लिए ऐसा रास्ता अख़्तियार करते हैं जो काइंया अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को अपना खेल खेलने के लिए उकसाता है; खतरा यहां है कि आप देश में ऐसा माहौल बनाते हैं मानो यह जंग भारत-पाकिस्तान के बीच नहीं, हिंदू-मुसलमान के बीच हो रही है; खतरा यहां है कि आपको फौज की आला अधिकारी सोफिया कुरैशी अंतत: मुसलमान ही दिखाई देती है और आप उसे दुश्मन की बहन बताते हैं; खतरा यहां है कि इसी संकट की आड़ ले कर आप कश्मीर में वैसे कितने ही घर गिरा देते हैं जिन्हें आपने आतंकवादियों का घर करार दिया है; खतरा यहां है कि बुलडोज़र से किसी का घर गिरा देने की योगी-मार्का प्रशासन की जिस शर्मनाक शैली पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर टिप्पणी की है और योगी-सरकार को कठघरे में खड़ा किया है, आप भी वही कर रहे हैं. यह अदालत की अवमानना तो है ही, संविधान से बाहर जाने की निंदनीय कार्रवाई है. खतरा यहां है कि आप फौज का क्षुद्र राजनीतिक इस्तेमाल करते आ रहे हैं जो आग से खेलने जैसी मूर्खता है.
लेकिन यह सच भी अजब-सी शै है. यह कहीं-न-कहीं से अपना सर उठा ही लेता है. भारत सरकार जो कह रही है, उसे हम न मानें तो ट्रंप साहब ने जो कह रहे हैं उसे हम कैसे मान लें ? ट्रंप साहब की असलियत यह है, और सारी दुनिया उसे जानती है कि सच, ईमानदारी, नैतिकता आदि से वे ज्यादा निस्बत नहीं रखते. इसलिए उनके हर कहे व किए को हम उनकी औकात से ही तौलते हैं. लेकिन हमारे वायु सेना प्रमुख एयरमार्शल ए.पी. सिंह और बाद में सैन्य सेवा प्रमुख जेनरल अनिल चौधरी की बात ऐसी नहीं है कि हम उसे नजरंदाज करें. ये वे फौजी अधिकारी हैं जिनका यह सरकार अब तक राजनीतिक इस्तेमाल करती आई है. अब वे कह रहे हैं कि 3 दिनों का यह युद्ध दोनों तरफ़ को बेहद नुक़सान पहुंचा गया है. पाकिस्तान का नुक़सान ज्यादा हुआ है लेकिन उसने हमारा जितना नुक़सान किया है, वह स्थिति को ख़तरनाक बनाता है. पाकिस्तान ने हमारे विमान भी गिराए और सैनिक अड्डों को भी नुक़सान पहुंचाया. यह युद्ध रुकना ही चाहिए था, क्योंकि इस युद्ध से हासिल कुछ नहीं हो सकता था. परिस्थिति का यह आकलन व अंतरराष्ट्रीय शक्तियों का दवाब हमें युद्धविराम तक ले आया. यह मुख़्तसर में वह है जो इन दो आला फौजी अधिकारियों ने कहा है.
हमें यह सच्चाई समझनी चाहिए कि हथियार के व्यापारियों से खरीद-खरीद कर जो जखीरा हम भी और पाकिस्तान भी जमा करता रहता है, वह हर देश को करीब-करीब एक ही धरातल पर ला खड़ा करता है. इसलिए आज की दुनिया में कोई लड़ाई अंतिम तौर पर किसी को जीत नहीं दिलाती है. जीत नहीं, विनाश ही आज के युद्ध का सच है. आप रूस-यूक्रेन का दो बरस से ज्यादा लंबा युद्ध देखिए. कौन जीत रहा है ? दोनों बर्बाद हो रहे हैं. अमरीका व यूरोप की फौजी मदद से लड़ रहा यूक्रेन और हथियारों का अकूत जखीरा रखने वाला पुतिन- दोनों का दम फूल रहा है. दोनों का देश बर्बाद हो रहा है. फौजी भी मारे जा रहे हैं, नागरिक भी; शहर-गांव-कस्बे सब मलबों में बदल रहे हैं. ऐसे में आप जीत-हार की बात क्या पूछेंगे ! पूछने वाला सवाल यही है कि बताइए, कितना विनाश हो चुका है, और कितना विनाश कर के आप रुकेंगे ? इसराइल ने ईरान पर हमला कर किया क्या ? या फिर ट्रंप ने वहां अपनी नाक घुसेड़ कर क्या किया ? आप सोचिए, अगर ईरान ने अमरीका पर हमला बोला तो क्या होगा ? जीत या हार होगी ? नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. विश्वयुद्ध भी नहीं होगा, वैश्विक विनाश होगा - शायद वैसा, जैसा दुनिया ने अब तक देखा नहीं है. हिंसा में से वीरता तो पहले ही निकली चुकी है, अब युद्ध में से जीत-हार भी निकल गई है. बची है विशुद्ध हैवानियत- क्रूरता, अश्लीलता और अपरिमित विनाश !
कोई राहुल गांधी यदि पूछता है कि हमें बताइए कि 3 दिनों के इस युद्ध में हमारा कितना नुक़सान हुआ, कितने विमान गिरे, कितने जवान मरे तो यह देशभक्ति की कमी या अपनी सेना की क्षमता पर भरोसे की कमी जैसी बात नहीं है. यही सवाल है जो पाकिस्तान में भी पूछा जाना चाहिए, इसराइल में भी, यूक्रेन और गजा व ईरान में भी. आज किसी भी कारण जो जंग का रास्ता चुनते हैं या जबरन किसी को जंग में खींच लाते हैं उन सबके संदर्भ में यही सबसे अहम सवाल है जो आंखों में आंखें डाल कर पूछा जाना चाहिए. लेकिन कौन पूछे ? जिस विपक्ष की ज़ुबान खो गई है वह पूछे भी तो कैसे ? ( 23.06.2025)