Wednesday, 12 March 2025

इतिहास के औरंगजेब

इतिहास तीन ही काम करता है - दर्ज करता हैभूलता है और आगे चलता है ! जो लोगसमुदाय या देश ऐसा नहीं कर पाते हैंवे खुद की तरह ही इतिहास को भी कूड़ाघर बना डालते हैं. हमारा देश आज ऐसा ही कूड़ाघर बनता जा रहा है. चरित्रत: इतिहास न सहृदय होता हैन क्रूरन किसी के पक्ष में झुका होता हैन किसी की तरफ़ तना होता है. वह सिर्फ होता है ताकि हम उसके आईने में अपनी बीती सूरतें देख करअपनी आज की सूरत सजा व संवार सकें. हम यह कर्तव्य जितनी शिद्दत से निभा पाते हैंइतिहास हमारे भविष्य को वैसा ही आकार देता है. मतलबइतिहास भूत-वर्तमान-भविष्य के तिहरे धागे से हमें जोड़ने वाली वह जीवंत शक्ति है जिसे हम पहचानने में अक्सर चूक जाते हैं.

इतिहास की त्रासदी यह है कि यह बनता है कितनी ही जानी-अनजानी ताकतों के सम्मिलित प्रभाव व प्रवाह से लेकिन हमेशा लिखा जाता है किसी एक आदमी की समझ व आकलन से. यह अत्यंत खतरनाक बात है. इसलिए इतिहास कभी एक स्रोत से न तो पढ़ा जाना चाहिएन समझा जाना चाहिए. इतिहास के हर अध्येता के लिए जरूरी है गंभीर तटस्थताखोज करने की बालसुलभ व्यापक उत्सुकता तथा उद्देश्य के बारे में साफ समझ. यह न हो तो आप इतिहास के अध्येता या जानकार न हो कर इतिहास के विदूषक बन कर रह जाते हैं. हमारे यहां पिछले दसेक वर्षों में कुकुरमुत्तों की तरह इतिहासकारों की जो फसल पैदा हुई हैवह विदूषकों को भी शर्माने की कूवत रखती है. इनमें से कई नया इतिहास लिख रहे हैं तो कई ऐतिहासिक फिल्में बना रहे हैं. सच यह है कि ये दोनों अपना व्यवसाय कर रहे हैं. 

इतिहास के इस बाज़ार में सबसे ताजा व्यापारी बन कर उतरे हैं दिनेश विजयन ! उनकी फिल्म छावा’ बक़ौल प्रधानमंत्री छा गई है. छावा’ के निर्देशक हैं लक्ष्मण उत्तेकर. मराठी कथा-लेखक शिवाजी सावंत की इसी नाम की किताबइस फिल्म का आधार हैऐसा निर्देशक का दावा है. बताया जा रहा है कि छावा’ ने भी वैसी ही कमाई की है जैसी तरह-तरह की फाइलों के नाम से बनी फिल्मों ने की है. अभी तक यह खबर कहीं देखी तो नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ छावा’ देखने बैठे. वैसे यह जरूरी हैक्योंकि प्रधानमंत्री ऐसी फिल्मों से ही अपना इतिहास जान पाते हैं. उन्होंने ही तो देश को बताया था कि जब तक रिचर्ड एटनबरो ने गांधी’ फिल्म नहीं बनाई थीतब तक दुनिया गांधी को जानती नहीं थी. यह सच है या नहींइसकी बहस हम करते रहें लेकिन प्रधानमंत्री के लिए यह बिल्कुल सच हैयह हमें मान लेना चाहिए. 

हम अब छावा’ और औरंगजेब-विवाद की ओर आते हैं. 1526 में मुगल साम्राज्य बाबर के साथ शुरू होता है और अकबरजहांगीरशाहजहां से होता हुआ औरंगजेब के हाथ आता है. हम देखते हैं कि बाबर से शाहजहां तक मुगल साम्राज्य अपेक्षाकृत सहजता से पिता से पुत्र तक पहुंचता रहा है लेकिन शाहजहां के वक्त इसमें पहली बार बड़ा व्यवधान पड़ता है. जैसी राजतंत्र की रवायत थीशाहजहां अपने बड़े बेटे दाराशिकोह को राजगद्दी सौंपना चाहते हैं. लेकिन दूसरे नंबर के बेटे औरंगजेब को यह गंवारा नहीं है. उसे लगता है कि वह गद्दी का असली व सबसे योग्य अधिकारी है. वह असहमत पिता से बगावत करता हैदाराशिकोह को युद्द के मैदान में परास्त करता है और फिेर उसकी हत्या करपिता शाहजहां को मृत्यु तक के लिए जेल में डाल कर गद्दी पर कब्जा करता है. छावा’ जैसी फिल्म व दूसरे माध्यमों सेसरकारी समर्थन व प्रोत्साहन से यह प्रचारित करने की घुआंधार कोशिश की जा रही है कि औरंगजेब मदांधक्रूरधर्मांध तथा कई दूसरे कुटैवों का सिरमौर था. मेरे लिए यह समझना असंभव की हद तक कठिन है कि यदि औरंगजेब ऐसा था तो उससे कौन-सा ऐसा रहस्योद्घाटन होता है जिससे हमें आज अपना जीवन जीने या अपना देश चलाने में मदद मिलेगी मैं ऐसा कहता हूं तो सामने से तपाक से एक ‘ असली इतिहासकार’ बोल उठता है : “ तो आपको इतिहास की सच्चाई जानने-बताने में कोई दिलचस्पी नहीं है ? … अगर ऐसा है तो आपसे क्या बात की जाए… आप इतिहासकार ही नहीं हैं.”  

मैं पूरी विनम्रता व दृढ़ता से कहता हूंकहना चाहता हूं कि मैं वैसा इतिहासकार नहीं हूं जिसकी रोजी-रोटी सत्ताधीशों की भृकुटि से मिलती या छिनती है. ऐसा इतिहास उन्हें ही मुबारक हो जिनका जीवन-व्यापार इसी से चलता है. मैं उस इतिहास को खोलता-पढ़ता-समझता व समझाता हूं जो बताता है कि मेरा देश व मेरी दुनिया की ऐसी शक्ल-ओ-सूरत बनाने वाले प्रवाह कौन-कौन-से रहे हैंवे कब व कैसे बने और उनसे हम क्या सीखें कि आज से बेहतर देश व दुनिया बना सकें. समय की इस आंधी में सूखे पत्तों जैसे उड़ते-गिरते अनेक पात्र भी आते ही हैं. वे अपने वक्त के आका नहीं होतेअधिकांश: उसके शिकार होते हैं. इतिहास पर इससे ज्यादा उनका प्रभाव होता नहीं है. मैं जानना चाहता हूंऔर अपने समाज को बताना चाहता हूं कि औरंगजेब से पहले जो मुगल राजा हुए वे सब भी उतनी ही मनमानी करने वाले दमनकारी थे. कोई भी सत्ता बगैर दमन व कठोरता के न चलती हैन टिकती है. 

मैं उसे बताना चाहता हूं कि बाबर से अकबर ( 1526-1605) के बीच के 79 वर्षों में यदि भारत में एक ऐसा बड़ा साम्राज्य खड़ा हुआ जैसा देश ने इससे पहले कभी देखा नहीं थातो वह वैसे ही खड़ा तो नहीं हुआ होगा. साम-दाम-दंड-भेद सबका का पूरा इस्तेमाल हुआ होगाहत्याएं करवाई गई होंगीषडयंत्र रचे गए होंगेविभीषणों को पाला-पोसा गया होगा. नवरत्न बना कर उनकी वफादारी सुनिश्चित की गई होगी. राज्य के हित व विस्तार के लिए रोटी-बेटी के संबंध बनाए गए होंगे. तब कोई भी साम्राज्य बनाने-टिकाने के लिए यह सब करना जरूरी होता थासहज माना जाता था. आज अपनी सरकार बनाने-चलाने-टिकाने के लिए यही सारे मोहरे नहीं चले जाते हैं क्या फिर औरंगजेब का इतना जाप क्यों हो रहा है यह क्यों नहीं बताते हैं कि आरंगजेब से पहले क जहांगीर भी था जिसने सिख गुरु अर्जनदेव को मरवाया था. यह भी तो याद रखें हम कि अकबर ने अपने ही बेटे को काबू में करने के लिए हर हिंसक उपाय किए थे. उसने बेटे के समर्थक सरदारों को मरवाया नहीं था अनारकली की कहानी फिल्मी है कि सच्चीइस पर थोड़ा विवाद है लेकिन इस पर भी कोई विवाद कर सकता है क्या कि राजमहल के भीतर ऐसी कितनी की लड़कियों की जिंदगी दफ्न होती रही है ताकि साम्राज्य निष्कलंक चलता रहे 

औरंगजेब ने ज्यादा क्रूरता व संकीर्णता से अपना राज चलायाक्योंकि उसे राज आसानी से मिला नहीं था. शाहजहां से उसके सर पर साम्राज्य का मुकुट नहीं धरा थाउसने कितने ही सर काट करपिता को कारावास में धकेल कर मुकुट छीन लिया था. जो छीन कर मिलता हैवह ज्यादा असुरक्षित होता है. उस पर ज्यादा गिद्ध-दृष्टि लगी होती है. इसलिए औरंगजेब को हर वक्त चौकन्ना रहना पड़ता हैऔर कहीं से छाया भी उठे तो उसका सर कलम करने की तैयारी रखनी पड़ती है.  वह छाया हिंदू की है कि मुसलमान की कि किसी दूसरे मतवाद वाले कीयह देखने का अवकाश भी उसके पास नहीं है. लेकिन दूसरे सम्राटों की तरह औरंगजेब को पता है सबको साथ भी रखना जरूरी है. इसलिए उसने भी मंदिरों को दान दिया हैविद्वानों का सम्मान किया हैहिंदू शासकों से समझौते किए हैं. उसके दरबार में बड़ी संख्या में हिंदू अधिकारी व सिपहसालार हैं. सवाई राजा जयसिंह को भूल जाएं आप तो इतिहास का क्या होगा भाई ! और यही जयसिंह हैं जो संभाजी को शरण भी देते हैं. संभाजी को धोखे से कैदी बनवाने वाले कौन हिंदू सिपहसालार थेयह भी याद कीजिए. संभाजी की हत्या के बाद संभाजी का अबोध बेटा साहूजी महाराज किसके यहां पलाऔरंगजेब के यहां ! इस तरह उसकी परवरिश हुई कि औरंगजेब की मृ्त्यु के बाद वह नंगे पांव उनकी कब्र पर जाता रहा. यह सब भी तो इतिहास ही है न! इसे हम नहीं पढ़ें क्या फिर इतिहास पढ़ें ही क्यों ?  

औरंगजेब में जिनकी इतनी दिलचस्पी हैवे अशोक का अध्ययन क्यों नहीं करते वह तो चंडाशोक’ कहलाता था. कहते हैं कि कलिंग-युद्ध से पहले तक उसे अपनी तलवार सूखी देखना बहुत नागवार होता था. वह अपने अनगिनत भाइयों को मरवा कर राजा बना था. राजशाही के इतिहास में भाई सबसे बड़ा खतरा होता था. वह हर तरह से बराबरी की हैसियत रखता थाराज्य में उसके अपने लोग हुआ करते थे. वह हमेशा राज्य के उत्तराधिकारी के सर पर तलवार की तरह लटकता होता था. इसलिए अधिकांश सम्राटों ने अपने भाइयों को साफ़ करअपना रास्ता साफ़ किया है. और आज प्रधानमंत्रियों ने प्रधानमंत्री पद हथियाने के लिए अपनी पार्टी के भीतर कितना ग़दर मचाया हैइसका देश-दुनिया का इतिहास भी पढ़िएफिर क्रूरता आदि का फैसला कीजिए. 

इतिहास ही हमें बताता है कि क्रूरता व वीरता के बीच रत्ती-मासे का फर्क होता है. यह भी होता है कि एक के लिए जो क्रूरता हैदूसरे के लिए वही वीरता है. इसलिए इतिहास तटस्थता की मांग भी करता है और विवेक की भी. उसकी नक़ल करनाउसके प्रेत से लड़नातब का बदला आज चुकाना जहरीली अभद्रता हैअश्लीलता हैसांप्रदायिकता है. यह आदमी को वहशी बनाती हैसमाज को तोड़ती हैराष्ट्रों को धूल में मिला देती है. हम अपना 1947 याद रखें जब हमने अपना ही मुल्क धूल-धूल कर लिया था. उस इतिहास के खलनायकों को खोजिए व पढ़िए ! 

इतिहास सावधान करता है:  देखोमुझे समझे बग़ैर पढ़ते-लिखते-आंकते होप्रचारित व प्रसारित करते हो तो तुम भी औरंगजेब होक्योंकि हम सबके भीतर औरंगजेब नाम का एक सांप पलता है. उसे दूध पिलाना अपने अंतर्मन को जहर से भरना है. इसलिए मैंने जो दर्ज किया हैउसे जरूरी हो तो पढ़ोपढ़ो तो गहराई से समझोऔर समझो तो यह समझो कि आज इससे आगे चलने में क्या मदद मिलती है. आज के भारत राष्ट्र को समेट-संभाल कर आगे ले चलने में छावा’ मदद नहीं करती हैक्योंकि यह इतिहास का व्यापार करती हैइतिहास समझाती नहीं है. ( 11.03.2025)

Saturday, 1 March 2025

बन गया विश्वगुरू क्लब !

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच कोई इस तरह आ खड़ा होगा, न हमने सोचा था, न इन दोनों ने. लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल जं-मीशेल फ्रेडरिक मैक्रों ने ऐसा ही किया. इसलिए मैं चाहता हूं कि भारत की तरफ से उन्हें महावीर चक्र प्रदान किया जाना चाहिए. मैं नहीं कह रहा हूं  भारत सरकार की तरफ़ से”, क्योंकि मैं जानता हूं कि भारत सरकार में ऐसी कूवत नहीं है. देश व सरकार में फर्क होता है; है.

राष्ट्रपति बनते ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जैसी बेसिर-पैर की आंधी बहा रहे हैं डोनल्ड ट्रंपउसकी हवा जिस तरह मैक्रों ने निकाली है वैसी न किसी ने अब तक निकाली हैन ट्रंप ने कभी ऐसा सोचा ही होगा. उस दिन व्हाइट हाउस मेंदोनों राष्ट्रपति साथ बैठ कर प्रेस को संबोधित कर रहे थे और ट्रंप बगैर हिचक के वह सब अनाप-शनाप कहे जा रहे थे जैसा उनके अलावा दूसरा कोई बोल नहीं सकता है. वे कह रहे थे कि यूक्रेन की जैसी सहायता अमरीका ने की हैवैसी यूरोप ने नहीं की. यूरोप ने तो इधर-उधर कुछ दिया भर ! वे अपनी सनक में और कुछ बोलते कि उनकी बगल में बैठे मैक्रों ने उनके कंधे पर हाथ रख कर उन्हें रोका: ‘ आपके पास गलत जानकारी है. मैं सही जानकारी देता हूं. अमरीका ने यूक्रेन को जो भी सहायता दी है वह सब शर्तों से बंधीसौदे व कर्जे के रूप में है. यूरोप ने पिछले दो वर्षों में  यूक्रेन की हर संभव मदद बेशर्त की हैऔर आज भी हम यूक्रेन के प्रति प्रतिबद्ध हैं !’ सारी दुनिया ने यह सुनासारी दुनिया ने यह देखा. हतप्रभ ट्रंप बगलें झांकने लगे. 

ट्रंप ने जब कहा कि युद्ध के खर्च की भरपाई यूक्रेन को करनी होगीतो मैक्रों ने फिर दखल दी और कहा: ‘ हमलावर तो रूस है. भरपाई उसे करनी होगी.’ यूक्रेन का क्या होगाट्रंप उसे कहां तक निचोड़ेंगेयह सब वक्त ही बताएगा लेकिन मैक्रों ने व्हाइट हाउस मेंट्रंप के बगल में बैठ कर उनकी पोल जिस तरह खोलीउसके लिए उन्हें महावीर चक्र मिलना ही चाहिए. 

अमरीका इन दिनों सब दूर छाया हुआ है. यही तो ट्रंप का वादा भी था. कोई जादूगर जैसे हैट से खरगोश निकाल देता हैऔर यह जानते हुए भी कि यह खरगोश हैट से नहींहैट के पीछे छिपे हाथ की सफ़ाई से निकला हैहम हैरान रह जाते हैंठीक वैसे ही ट्रंप के खरगोश लगातार बाहर आ रहे हैं और उनकी सच्चाई जानते हुए भी कभी हमतो कभी वो हैरान रह जाते हैं. मुझे पता नहीं है कि ट्रंप साहब ने यह कला अपने दोस्त’ से सीखी है या दोस्त ने उनसे लेकिन जुगलबंदी ऐसी गजब की है कि दोनों गुरूभाई मालूम देते हैं. विश्वगुरू ने विश्वदादा को सिखलाया है कि विश्वदादा ने विश्वगुरू कोयह पहेली है जिसे वक्त ही सुलझाएगा.

ट्रंप साहब ने अचानक यह शिगूफा उड़ाया कि उनसे पहले जो वहां राष्ट्रपति थेउन बाइडन साहब ने कोशिश की थी कि भारत नरेंद्र मोदी को नहींकिसी दूसरे को प्रधानमंत्री चुने. भारतीय राजनीति में विदेशी हाथ !! एकदम सनसनीखेज खबर एकदम शीर्ष से आईतो भक्तों को उसे हाथोहाथ लेना ही था. ट्रंप साहब ने यह कहा ही नहींइसका ठोस प्रमाण भी दिया कि यूएसएड नामक संस्थान ने 21 मीलियन डॉलर की रकम भारत में झोंकी थी ताकि चुनाव में अधिकाधिक मतदाता मतदान केंद्रों तक लाए जा सकें. अमरीकी राज्य मियामी की एक सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा :“ आख़िर हमें क्या पड़ी है कि हम भारत में मतदाताआों की संख्या बढ़ाने के लिए 21 मीलियन डॉलर खर्च करें बाप रे21 मीलियन डॉलर !! मेरा अनुमान है कि वे कोई ऐसा झोल करने में लगे थे कि भारत में कोई दूसरा आदमी चुना जाए.” 

आप ध्यान दें कि विश्वगुरू व विश्वदादा जब भी ऐसी कोई युग परिवर्तनकारी घोषणा करते हैं तब मंच सार्वजनिक सभा का होता हैऔर मुद्रा उस अनाड़ी शिकारी की होती है जो यहां-वहांइधर-उधरदाएं-बाएं तीर चलाता जाता है कि कोई तोकहीं तो निशाने पर लगेगा ! ट्रंप साहब के इस वक्तव्य में कितने तीरकितनी दिशाआों में फेंके जरा इसका अंदाजा कीजिए : बात इस तरह कही गई कि ऐसा लगा कि उनके प्रतिद्वंद्वी जो बाइडन साहब ने यूसएसएड नाम का कोई निजी संस्थान बना रखा था ( पीएम केयर फंड !) जिससे पैसे फेंक कर वे दुनिया की राजनीति को मुट्ठी में करना चाहते थे. तो पहला निशाना यह कि जो बाइडन अपने देश कोअपने कानूनी प्रावधानों को धोखा देने वाले घटिया आदमी थेदूसरा यह कि वे इन पैसों के बल पर दूसरे देशों के चुनावों में टांग अड़ाते थेतीसरा यह कि वे भारत में नरेंद्र मोदी की जगह कोई दूसरा आदमी आगे लाना चाहते थे - “ लेकिन देखो भाइयोमैंने बाइडन का वह सारा खेल मटियामेट कर दिया ! नरेंद्र मोदीसमझ लोमैंनेडोनल्ड ट्रंप ने तुमको ऐसे षड्यंत्र का जाल काट करफिर से गद्दी पर बिठाया है ! 

यह सफेद झूठ है. वह आदमी यह कह रहा है जिसे मालूम है कि यूएसएड संस्थान बाइडन के राष्ट्रपति बनने से बहुत पहले से बना व चल रहा वह संस्थान है जो दुनिया भर मेंदुनिया भर के दान-धंधे करता है. 1961 में राष्ट्रपति केनेडी ने फॉरेन असिस्टेंस एक्ट पारित किया था जिसमें से यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट ( यूएसएड) बना. ट्रंप को भी और हमें भी मालूम है कि अमरीका की सरकारेंऔर दुनिया की सरकारें ऐसे सारे धर्मादा कार्य अपने संकीर्ण राजनीतिक ध्येय हासिल करने के लिए करती हैं. उसमें धर्म’ कम-से-कम, ‘मर्मअधिक-से-अधिक होता है. ट्रंप साहब को ज़रूर बताया गया होगा कि 1954 में भारत के साथ अमरीका का पीएल 480 का समझौता हुआ था जिसे फूड फॉर पीस’ कहा गया था. इस समझौते के तहत भूख की बंदूक में अनाज की गोली भरी गई थी. लंबे समय तक वह गोली खाते-खाते हम यह समझ सके थे कि कैसे अनाज के माध्यम से अमरीका ने हमारी स्वायत्तता पर हाथ डाला है. तब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने भूखे रहेंगे पर पीएल480 का अनाज नहीं खाएंगे’ जैसा राष्ट्र-संकल्प घोषित किया था. 

1950 में इसी अमरीका की पहल पर एक सांस्कृतिक मंच बना था जिसका नाम था कांग्रेस फॉर कल्चरल फ़्रीडम. यह मंच बना और देखते-देखते दुनिया के कोई 40 देशों में काम भी करने लगा. सांस्कृतिक स्वतंत्रता के संवाहक व संरक्षक का मुखौटा लगाए इस मंच सेउस दौर कीदुनिया की तमाम विशिष्ठ हस्तियां जुड़ गई थीं. हमारे जयप्रकाश नारायण इसकी भारतीय शाखा ने मानद अध्यक्ष थे. फिर पर्दाफाश हुआ कि यह साम्यवादी प्रभाव को काटने के लिएअमरीकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए के धनतंत्र से संचालित वह उपक्रम है जो अमरीकी हितों के संरक्षण के लिए काम करता है. यह पर्दाफाश हुआ तो जयप्रकाश समेत सारे नामी-गरामी लोगों ने इस संस्थान से इस्तीफा दे दिया. तो बात फिर खुली कि अमरीका अपने धनबल से अपना राजनीतिक हित छीनने-खरीदने का काम करता आया है. लेकिन यहां जिस 21 मीलियन डॉलर की बात ट्रंप ने की और भक्तों ने जिसे कांग्रेस से जोड़ दिया दरअसल वह रकम बांग्लादेश में चुनावी प्रक्रिया को लोकप्रिय बनाने के लिए भेजी गई थी. भारत का या कांग्रेस का उससे कोई नाता नहीं था. यह बात ट्रंप को भी पता थी लेकिन ऐसे जुमले भारत में ही नहींअमरीका में भी राजनीतिक काम करने के काम आते हैं. इसलिए ट्रंप ने झूठ की गोली दाग दी. भूखबीमारीअशांतियुद्धप्राकृतिक आपदाविशेष अध्ययन व शोध जैसे शीर्षकों की आड़ में अधिकांशत: ऐसे अधार्मिक धार्मिक कार्य किए जाते हैं. इसलिए ट्रंप जो कह रहे हैंवह उन जैसे दादा देशों की पोल खोलता हैशिकार देशों की नहीं. 

लेकिन यहां कमाल यह है कि यह बात वह आदमी कह रहा है जो खुद पिछले राष्ट्रपति चुनाव में अपना पलड़ा भारी करने के लिए नरेंद्र मोदी को मोहरा बना कर अमरीका ले गया था. अमरीका में बसे सुविधापरस्त व सांप्रदायिक भारतीयों को सम्मोहित करउनका वोट हासिल करने का यह शर्मनाक आयोजन था. मोदी भी वहां सहर्ष गए तथा भारतीय प्रधानमंत्री ने अमरीकी चुनाव में खुलेआम दखलंदाजी की. इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने ऐसा करने की कल्पना भी नहीं की थी. उस अमरीकी चुनाव में मोदी व ट्रंप दोनों हारे. इस हार से ही ट्रंप समझ गए मोदी-ढोल की पोल ! इसलिए इस बार उन्होंने चुनाव में न मोदी को बुलायान शपथ ग्रहण में पूछान किसी तरह अमरीका पहुंचे मोदी का किसी अलग उत्साह से स्वागत ही किया. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सब कुछ ऐसा ही वक्ती होता है. 

अब ट्रंप रूस को साथ ले कर चीन को अमरीकी हितों के अनुकूल बनाने का समीकरण साधने में लगे हैं. आंतरिक मामलों के लिए उन्होंने बेलगाम मस्क को लगाम थमा दी है. अब भारत को भी अमरीका की अनदेखी न करते हुएअपने नये समीकरण बनाने हैं जो ट्रंप-पक्षधरता की अपनी छवि के कारण भारत के लिए आसान नहीं होगा. मतलबविश्वगुरू और विश्वदादा के आपसी रिश्ते में कोई विषम कोण बन सकता है. हम उस विषम कोण के लाचार शिकार बनेंगे. ( 28.02.2025)

Wednesday, 19 February 2025

हादसा नहीं, हत्या !

 नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उस दिन टिकट नहीं गिने गए, लाशें गिनी गईं. मानो तो रेलवे स्टेशन पर एक नया कुंभ हुआ. कुंभ की तरह यहां भी सरकार ने सबसे पहले लाशें समेटीं, हादसे के सारे चिन्ह मिटाए, मृतकों की एक संख्या ऐसे घोषित कर दी मानो वहां नोट गिनने जैसी कोई मशीन लगी थी जिसने मृतकों की पक्की संख्या तक्षण बता दी ! इधर संख्या बता दी उधर मौत की कीमत बता दी आौर फिर अगला कार्यक्रम शुरू ! ऐसा ही तो कुंभ में हुआ था. लाशें समेट कर कुंभ फिर चल निकला था. कितनों ने डुबकी लगाई- राष्ट्रपति ने भी, उप-राष्ट्रपति ने भी, प्रधानमंत्री ने भी, पक्ष-विपक्ष के आला लोगों ने भी, समाजसेवियों ने भी, खिलाड़ियों व अभिनेताआों ने भी आौर पता नहीं किन-किन ने; लेकिन कहीं न पढ़ा न सुना कि किसी ने कहा हो कि कुंभ में डुबकी लगा कर मैंने मृतकों की मुक्ति की याचना की आौर अपनी आपराधिक चूक की माफी मांगी ! 

दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भी ऐसा ही हुआ. लाशें समेट करमृतकों की एक संख्या घोषित करभगदड़ को हादसे का ज़िम्मेदार बता कर रेलवे ने जल्दी से प्लेटफॉर्म खोल दिएटिकटों की बिक्री शुरू कर दी है. जो कुछ हुआ उसे उसी तरह मिटा दिया गया जिस तरह बच्चे स्लेट पर अपना लिखा मिटा देते हैं.  बेचारे करते भी क्या ! क्या कुछ लोगों के मर जाने से रेलवे बंद कर देते कुंभ रोक देते इहलोक से परलोक का महात्म कहीं अधिक होता है. व्यवस्था की अपनी एक मशीन है भाईआप उसे मानवीय बनाने की कोशिश न करें. आखिर उसने मृतकों की कीमत तो चुका दी है न ! आप देख ही तो रहे हैं कि सारी दुनिया को ज्ञान बांटने की मुहिम से थके-हारे प्रधानमंत्री ने अभी दिल्ली पहुंच कर सांस भी नहीं ली थी कि उन्हें मृतकों से प्रति गहरी संवेदना का संदेश जारी करने की मशक्कत करनी पड़ी.  जब उनका संदेश आ गया तो फिर रेलमंत्री ने भी अपना संवेदना संदेश जारी किया. ऊपर से हरी झंडी मिली तो एक-एक कर मंत्रियों,मुख्यमंत्रियों सबकी संवेदना का तंत्र झंकृत हो रहा हैआौर हम लगातार होते हादसों में मारे गए अपने लोगों की लाशें समेटते-समेटतेअगले हादसे का इंतज़ार कर रहे हैं. यह नया हिंदुस्तान है !

 न,आप उबल मत पड़िएन बांहें चढ़ा कर हमसे पूछिए कि क्या इससे पहले की सरकारों के दौर में हादसे नहीं होते थे हम मानते हैं कि हादसे पहले भी होते थे लेकिन हादसों का राज्य प्रायोजित आयोजन नहीं होता था. 

दिल्ली में जो हादसा हुआ क्या वह लोगों की असावधानीवश हुआ नहींलोगों ने कोई असावधानी नहीं की थी. अगर की थी तो इतनी ही कि सरकारी प्रचार में बह कर वे सब कुंभ जाने को व्यग्र हो उठे थे. ऐसी व्यग्रता अज्ञानकुशिक्षा आौर अंधविश्वास में से पैदा होती है जिसकी आंधी उठाने में सत्ता एक दशक से पूरा जोर लगा रही है. हाल ऐसा है कि हवाई जहाजों में धनवान आौर सत्ताधीश उमड़े हुए हैं. धनसंपन्न मध्यम वर्ग भी उचक-उचक कर इसी जमात में शामिल होने का सुख ले रहा है. हवाई कंपनियां मनमाना दाम वसूल करइन्हें कुंभ पहुंचा रही हैं. रेलवे ने विशेष गाड़ियां चला रखी हैं जो लाद-लाद कर लोगों को कुंभ पहुंचा रही हैं.  बसेंटैक्सियां सब इसी काम में जोत दी गई हैं. ऐसा कभी देखा था कि लोगों के धार्मिक विश्वास को सत्ता के हवन कुंड में इस तरह होम किया जा रहा हो 

दिल्ली रेलवे स्टेशन के अधिकारियों से ले कर कुलियों तक को पता था कि भीड़ बेतहाशा बढ़ती चली जा रही है. प्लेटफॉर्म पर खड़े होने की जगह नहीं बची थी.  न टिकटों की बिक्री रोकी गईन लोगों को प्लेटफॉर्मों पर पहुंचने से रोका गया. वहां कुंभ जाने वाली कई गाड़ियों का जमावड़ा था. इसलिए अफरा-तफरी चरम पर थी. कोई बताए कि यह योजना किसने बनाई थीसामने ऐसी भीड़ को देखने के बाद भी अधिकारियों ने प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा कर दी.  इससे बड़ी जाहिली की कल्पना नहीं की जा सकती है ! सामान्य अवसरों पर भी जब रेलवे अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा करती है तब भी हम देखते हैं कि कैसी अफरा-तफरी मच जाती है. उस दिन जैसी भीड़ थी उसमें अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा आपराधिक कृत्य था.  अंतिम समय में प्लेटफॉर्म बदलने की यह वृत्ति बढ़ती जा रही है जो रेलवे अधिकारियों के खराब आयोजनअकुशलता तथा संवेदनहीनता का प्रमाण है. रेल अधिकारी कौन हैं सरकारी रवैये की प्रतिछाया !  किसी तरह नये प्लेटफॉर्म पर पहुंच करगाड़ी में अपनी जगह लेने की बदहवास होड़ में वह सब हुआ जिसका स्यांपा अब किया जा रहा है. आौर हद तो यह कि हादसे की जांच के लिए रेलवे के ही अधिकारियों की समिति बना दी गई ! अपने अपराध की जांच भी अपराधी स्वयं करें तथा अपनी सजा भी ख़ुद ही तय करेंयह तो ऐसी कीमिया न है जिससे महात्मा गांधी भी हतप्रभ रह जाएंगे.  

लेकिन यहां एक दूसरा सवाल भी है. लोगों को भीड़ बनाने की इस वृत्ति के पीछे कौन है हमारे लोग अधिकांशत: अशिक्षितकुशिक्षित तथा अंधविश्वासी हैं. इस सरकार ने अपना सारा छल-दल-बल लगाकरसारे देश में इसका जश्न मनाने का अभियान चला रखा है. यह कुंभ उसी अभियान का हिस्सा है. हमारी परंपरा में जिस कुंभ की महिमा ऐसी रही है कि उसकी सबसे बड़ी अध्यात्मिक शक्ति उसकी स्वस्फूर्ति में रही है न कि राज्य की धोखाधड़ी में. अनगिनत सालों से न कोई किसी को बुला या फुसला कर कुंभ में लाता थान अकूत धन उड़ेल कर उनकी डुबकी की व्यवस्था होती थी. यह अप्रायोजित आयोजन मन:पूर्वक होता था. लोग अपनी-अपनी श्रद्धासुविधा व हैसियत के मुताबिक कुंभ या ऐसे आयोजनों में जाते थे. अब ऐसी हर सांस्कृतिक परंपरा का राजनीति इस्तेमाल किया जा रहा है. अंदरखाने की एक आवाज़ यह भी कहती है कि यह मोदी व योगी के बीच की वर्चस्व की लड़ाई का मुद्दा बन गया जिसमें योगी ने ख़ुद के लिए वैसी राजनीतिक कमाई कर ली जैसी प्रधानमंत्री नहीं कर सके. लेकिन यह तो भाजपा का आंतरिक मामला है. 

सरकार कुंभ का आयोजन क्यों करे भला भारतीय संविधान के मुताबिक़ चलने वाली  किसी सरकार का यह काम हो सकता है क्या क्यों यह बात उछाली गई कि जो कुंभ नहीं जाएगाउसकी देशभक्ति संदेह के घेरे में होगी किस परंपरा के मुताबिक इसे महाकुंभ कहा गया ऐसा कोई शब्द कुंभ की परंपरा में तो है नहीं !  खबर यह भी है कि राज्यों को कोटा दिया गया कि कितने भक्त उसे कुंभ में भेजने हैं. धार्मिक उन्माद खड़ा कर जब आप करोड़ों की भीड़ जुटाते हैं तब आप दूसरा कुछ नहीं करतेहादसों का आयोजन करते हैं.  अगर आपका दावा सही मान लें हम कि 50 करोड़ लोगों ने कुंभ में डुबकी लगाई तो कोई हमें बताए कि इतनी बड़ी उन्मादी भीड़ को कौन-सी व्यवस्था संभाल सकती है भीड़ की एक परिभाषा यह भी तो है न कि उसके पास सर होता हैसमझ नहीं ! सत्ता के लिए यह सर ही अंतिम कसौटी हैसमझ से उसका वास्ता रहा ही कब  है इसलिए आदमी नहींउसे हर सर एक वोट दिखाई देता है जिसे उन्मादित कर अपने खाते तक पहुंचाना उसका चरम धार्मिक कर्तव्य होता है. 

कोई हिसाब लगा कर बताए कि कुंभ आने मेंकुंभ से जाने में आौर कुंभ-स्थल पर अब तक कितने हादसे हुए हैं आौर कितनी जानें गई हैं ऐसा हिसाब लगाएंगे आप तो हमेशा आपको दो आंकड़े  मिलेंगे : सरकारी व सामाजिक ! दोनों के बीच इतनी गहरी विषमता होगी कि आप हैरान रह जाएंगे. जब कभी ऐसा हो तो मान लेना चाहिए कि लाशों के आंकड़े नहींमनोवृत्ति को आंकना जरूरी है. वह अगर हम पहचान सके तो आगे लाशें गिनने की नौबत नहीं आएगी. ( 19.02.2025)  

Friday, 22 November 2024

खाली संविधान !

         तो राहुल गांधी के सबसे धारदार हथियार की धार भोथरी करने के लिए प्रधानमंत्री ने एक ऐसा झूठ बोला कि जिस बराबरी का झूठ खोजना उनके संसार में भी मुश्किल है. झूठ की शिफत यही है कि उसे हर बार पिछले से ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बोलना चाहिए अन्यथा उसकी तासीर बेअसर हो जाएगी. प्रधानमंत्री इस कला के माहिर उस्ताद हैं. वे झूठ भी बोलते हैं - याकि झूठ ही बोलते हैं ! - और सार्वजनिक विमर्श का स्तर इतना गिराते जाते हैं कि शालीनता, विवेक, ज्ञान आदि के खड़े होने की जगह ही न बचे. जवाब में फिर दूसरी तरफ से भी उसी स्तर की बातें आती हैं.   

लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी अपने भाषणों में भारतीय संविधान की लाल रंग की एक आवृत्ति दिखाते घूमते रहे. उनका कहना है कि भारतीय संविधान में वह सब कुछ है जो आंबेडकरजीगांधीजीफुलेजी आदि के दर्शन में है. वे समझाते हैं कि जनता के अधिकारजनता की शिक्षाजनता का आरक्षणजनता का रोजगारजनता की आजादी आदि सभी इसी संविधान से निकलती है और प्रधानमंत्री इसी संविधान को समाप्त करना चाहते हैं. बक़ौल राहुल गांधी प्रधानमंत्री व भारतीय जनता पार्टी ऐसा इसलिए चाहती है कि उसे समता व बराबरी का समाज नहीं चाहिए. वे इससे जुड़ी तमाम दूसरी बातें भी कहते हैं. राहुल गांधी जो कर रहे हैंवह सब सही हैऐसा तो कैसे कहें हम लेकिन हम यह कहना जरूर चाहते हैं कि राहुल जो कह रहे हैंउस पर गहराई से विचार होना चाहिए. 

लेकिन किसी विचार की बात तो दूरप्रधानमंत्री ने राहुल गांधी को ऐसा जवाब दिया कि जिसका सर हैन पांव ! प्रधानमंत्री दहाड़ कर बोलेबार-बार बोले और हर बार नई मुद्रा में बोले कि राहुल गांधी संविधान की जो किताब दिखाते हैं उसके भीतर कुछ लिखा ही नहीं है. वह खाली है. राहुल गांधी ने अपनी अगली सभा में फिर किताब दिखाई लेकिन इस बार उसे खोल कर भी दिखाया. उसमें बाजाप्ता लिखा हुआ था. वह खाली नहीं थी. अभी तक किसी ने उस किताब की ऐसी कोई प्रति सार्वजनिक भी नहीं की है जो ऊपर से लाल हो लेकिन भीतर से खाली हो. 

हमारा संविधान प्रधानमंत्री ने पढ़ा हो कि नहींदेखा तो जरूर होगा. उसके सामने दंडवत होते वक्त भी उन्हें अनुमान तो हुआ ही होगा कि वह एक खासा भारी-भरकम ग्रंथ है. उतना बड़ा ग्रंथ उस गुटके में समा ही नहीं सकता है. तो संविधान का सार बताने वाला वह प्रतीक संस्करण है. कांग्रेस ने तुरंत ही वह फोटो भी छाप दिया जिसमें प्रधानमंत्री स्वंय ही तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविद को वही लाल संस्करण भेंट कर रहे हैं. तो क्या प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को कोरा गुटका दे कर झांसा दिया था. अगर नहींतो राहुल गांधी ऐसा झूठा काम क्यों करेंगे जो तभी-के-तभीवहीं-के-वहीं पकड़ा जा सके ! पप्पू कैसा भी पप्पू होऐसा फेंकू तो नहीं हो सकता ! 

अब अपना अमृत-प्रवचन दे कर प्रधानमंत्री देश से बाहर चले गए. भारतीय जनता पार्टी उनके इस झूठ को सन्नाटे में डुबो कर ही झेल सकती है. वह झेल रही है. लेकिन इससे भारतीय जनता पार्टी को हासिल क्या हुआ राहुल गांधी ने भारतीय राजनीति में अब अपनी ऐसी जगह तो बना ही ली है कि उन्हें प्रधानमंत्री वापस पप्पू साबित नहीं कर सकते. सहमति-असहमतियोग्यता-अयोग्यता सब अपनी जगह है लेकिन कांग्रेस को भी राहुल को उसी तरह ढोना है जिस तरह भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र मोदी को ढोना है. यह दोनों पार्टियों का अंदरूनी मामला है. लेकिन किसी को यह हक कैसे मिल सकता है कि वह मतदाता को ऐसा मूर्ख माने और चुनाव-प्रचार को इतनी फूहड़ता से ले !    

चुनाव प्रचार को झूठ का बवंडर और अर्थहीन जुमलों का ऐसा जंगल बना दिया गया है कि वहां लोकशिक्षण की जगह ही बाकी नहीं रही है.  चुनाव प्रचार मतदाता को जागरूक करने का नहींउसके ही पैसे से उसे मूर्ख बनाने का सबसे बड़ा संवैधानिक आयोजन बन गया है. सारी संवैधानिक संस्थाएं इस शर्मनाक प्रहसन की मूक दर्शक भर हैं. देश के सार्वजनिक व वैधानिक जगत का ऐसा पतन संविधान निर्माताओं की कल्पना में नहीं रहा होगा. 1977 के अत्यंत नाजुक लोकसभा चुनाव के वक्त भी कम नहीं थे ऐसे ज्ञानी-धुरंधर जो जयप्रकाश नारायण को समझाते रहे थे कि साधारण लोग कहां समझेंगे आपकी यह लोकतंत्र व तानाशाही की बात ! “ दो में से एक चुनना है : लोकतंत्र या तानाशाही !” का सीधा नारा दे करवे यह कहते हुए आगे निकल गए कि आप लोग अपनी समझ की फिक्र कीजिएजनता की नहीं! साधारण मतदाता ने वह चुनौती समझी और लोकतंत्र उभर आया.     

संविधान की किताब दिखा कर चुनाव की तासीर बदलने की राहुल की कोशिश आज भी जारी है. कांग्रेस संगठन में कोई राजनीतिक समझ होती तो वह इसी का बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती थी. जब सामने वैचारिक शून्यता का घटाटोप रचा जा रहा होतब आपकी सामान्य वैचारिक बातें भी जड़ जमा लेती हैं. लेकिन कांग्रेस में ऐसी समझ होती तो उसका ऐसा हाल होता ही क्यों! कोई चिढ़ कर जवाब देता है कि जहां राहुल गांधी की अपनी सरकारें हैंवहां भी तो वह सब नहीं हो रहा है जो राहुल गांधी कह रहे हैं. बात गलत नहीं है लेकिन यह राहुल गांधी की बात का जवाब नहीं है. जिस तरह मतदाताओं को नंगों-कंगलों-भीखमंगों की भीड़ समझ कर रुपये बांटने की नई शैली चली हैजिसमें कांग्रेस-भाजपा में एक-दूसरे को मात देने की होड़ चल रही हैवह भी इस बात का जवाब नहीं है कि संविधान में कैसा भारत बनाने का सपना दर्ज हैऔर वैसा भारत बनाने का क्या रास्ता संविधान बताता है. सबसे बड़ा क्षद्म यह है कि अब सभी संविधान की शपथ लेते हैंउसे पढ़ता कोई नहीं है. अभी-अभी सेवानिवृत हुए हमारे सर्वोच्च न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ साहब ने तो बाकायदा घोषणा ही कर दी कि संविधान पढ़ना ईश्वर का काम हैन्यायपालिका का काम ईश्वर से पूछ लेना भर है. 

देश इतना खोखला बना दिया गया हैमतदाता इतनी बारइतनी तरह से छला गया है कि आज सारा कुछ संविधान में सिमट आया है. प्रधानमंत्री भले खिल्ली उड़ाएं कि राहुल गांधी खाली संविधान दिखा रहे हैंदेश को आज जरूरत खाली संविधान की ही है. खाली संविधान की कसौटी पर विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका को कसने की ताकत देश एक बार पा ले तो गाड़ी पटरी पर लौट सकती है. मीडिया संस्थानों का विष-दंत भी संविधान ही तोड़ सकता है. मतदाता को यह ताकत व यह दृष्टि खाली संविधान से ही मिल सकती है. हम सब अपनी-अपनी जगह पर इसके औजार बनें तो 1977 का चमत्कार फिर दोहराया जा सकता है. ( 20.11.2024)  

Sunday, 17 November 2024

हारते अमरीका की हार

जोनाथन स्विफ्ट की अमर कृति गुलिवर की यात्राएं’ पढ़ी है आपने ! उसमें गुलिवर घूमते-खोजते एक ऐसे मुल्क में पहुंच जाता हैजहां बौनों का राज है. लगता है,हमारा इतिहास भी घूमते-घूमते ऐसी ही दुनिया में पहुंच गया है जहां सब तरफ बौनों का बोलबाला है भीहोता भी जा रहा है - पुतिनजिनपिंगनेतन्याहू,मोदी,मैक्रोंस्टारमर,शोल्ज आदि-आदि. इस सूची के सबसे नये सदस्य हैं डोनल्ड ट्रंप ! वैसे इस अर्थ में ट्रंप नये नहीं हैं कि उनका बौनापन अमरीका भी और दुनिया भी पहले देख व भुगत चुकी है. शोक है तो इस बात का उन्होंने आम अमरीकी को भी अपनी तरह ही बौना बना दिया है. इसमें भी उनकी कोई शिफत नहीं है. इतिहास बताता है कि इंसान व उसका समाज फिसलन की तरफ आसानी से ले जाया जा सकता हैऔर फिसलन निष्प्रयास नीचे-से-नीचे ही जाती जाती है. ट्रंप फिसलते अमरीका की फिसलन को न केवल तेज करेंगे बल्कि उसे बहुत कुरूप व कर्कश बना देंगे. यह अनुमान नहीं हैअनुभव है. इसलिए मुझे यह लिखना पड़ रहा है कि ट्रंप की यह जीत हारते अमरीका की हार है. किसी व्यक्ति की जीत किसी समाज की हार कैसे बन जाती हैयह अमरीका भी समझेगा और हम भी.      

दुनिया में धन और दमन की कलई जैसे-जैसे खुलती जा रही हैअमरीका बौना होता जा रहा है. उसके पास यही दो हथियार रहे हैं जिनसे उसने अपनी पहचान व ताकत बनाई थी. अब दुनिया के बाजार में उसके डॉलर का वह डर नहीं रहाऔर यह भी जाहिर होता जा रहा है कि हथियारों की मारक शक्ति से कहीं बड़ी है इंसानों की संकल्प शक्ति ! यह वही बात जिसे महात्मा गांधी ने दुनिया की महाशक्तियों को बताने-समझाने की कोशिश की थी. 

गांधी दुनिया के अंगुली भर देशों में भी नहीं गए थे लेकिन दुनिया देखी बहुत थी. इसलिए बहुत कुछ ऐसा कहते-समझाते रहे थे जिसे समझने में हमें सदियां लग गईं.  अभी भी हम उन्हें लेकर भटकते ही रहते हैं. वे कभी अमरीका नहीं गए. कई बारकई विशिष्ट अमरीकियों नेजिनमें अलबर्ट आइंस्टाइन भी थेआग्रह किया था कि वे अमरीका आएं. गांधी ने कभी कुछ कह करतो कभी कुछ और कह कर बात टाल दी थी. आइंस्टाइन को लिख दिया कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं कि जब अपने सेवाग्राम आश्रम में मैं आपका स्वागत कर सकूंगा. मतलब यह कि आप यहां आएंमैं अमरीका आने की नहीं सोचता हूं.                   

दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए जब गांधी इंग्लैंड आए तो यह दवाब कई तरफ से बनाया गया कि अब जब आप यहां तक आ ही गए हैं तो अमरीका भी आ जाइए. अमरीका में गांधी के कई चाहक व प्रिय भी थेतो उनका अमरीका होते आना कतई असंगत नहीं होता. लेकिन गांधी ने कहा तो इतना ही कि मैंने अपने देश में ही कोई सिद्धि हासिल नहीं की है अब तकतो अमरीका को वहां आ कर क्या दे सकूंगा ! फिर यह भी जोड़ दिया कि जब तक अमरीका दौलत के पीछे की अपनी अंधी दौड़ से बाहर नहीं आता हैमेरे वहां आने का कोई मतलब नहीं होगा. 

अमरीका उस अंधी दौड़ से बाहर तो कभी नहीं आयाउसने सारी दुनिया को अपने जैसी ही अंधी दौड़ में दौड़ा दिया. जिन्हें ट्रंप अवैध अप्रवासी कहते हैंजिन दूसरे मूल के वैध अमरीकियों को श्वेत अमरीकी जलती आंखों से देखते हैंवे सब इसी अंधी दौड़ के धावक हैं. अमरीका ने सारी दुनिया से साम-दाम-दंड-भेद के बल पर जो दौलत निचोड़ी हैये सब उसमें हिस्सेदारी मांगते हैं. अगर दौलत लूट लाना वैध है तो उसमें हिस्सेदारी अवैध कैसे हैयह समझना बहुत टेढ़ी खीर तो नहीं है. 

इस अंधी दौड़ में दौड़ते-दौड़ते अब अमरीका का भी और दुनिया का भी दम टूट रहा है. यह स्थिति इसलिए भी ज्यादा घातक बन गई है क्योंकि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों की अयोग्यता की वजह से हर देश में निराशा व्याप्त है. सामान्य जीवन जीना इतना कठिन व खतरों से भरा बन गया है कि इंसान हर नई आवाज की तरफ लपक रहा है. यदि उदार-लोकतांत्रिक ताकतों ने ईमानदारी से अपने-अपने देशों की वैकल्पिक ताकतों को संयोजित कर वह कुछ हासिल किया होता जिसकी ललक आम आदमी को होती हैतो दक्षिणपंथी-तानाशाही ताकतें इस तरह वापसी नहीं कर पातीं. लेकिन सत्ता को अंतिम प्राप्य मान कर बैठ जाने वाला तथाकथित उदार-लोकतांत्रिक नेतृत्व व्यापक निराशा व असंतोष का जनक बन गया है. बाइडन जैसों को एक दिन के लिए भी राष्ट्रपति क्यों बनना चाहिए था कमला हैरिस को हारना ही था क्योंकि वे बाइडन से अलग थी ही नहीं. इसलिए राष्ट्रपति बदलते हैंअमरीका नहीं बदलता है. बराक ओबामा जैसा आदमी आया तो वह भी कुछ बदल नहीं सका. तो फिर ट्रंप से कैसी शिकायत ! लेकिन शिकायत है - गहरी व तीखी शिकायत है. 

कमजोर होने में और कमजोर करने में बहुत बड़ा फर्क है. ट्रंप बिरादरी के बौनों की हकीकत यह है कि उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है - न दिशान साहसन सपनेन उदारता. उनके पास कहने के लिए भी कुछ उदारकुछ मानवीयकुछ उदात्त नहीं है. उनके पास सत्ता का दंभ व मनमानापन हैअकूत सार्वजनिक धन हैअसहमति से घृणा हैअसहमतों के प्रति क्रूरता है. बौनों की जो सूची मैंने शुरू में दी हैवे सब इन्हीं ताकतों के बल पर टिके हैं. 

ट्रंप कमजोर होते अमरीका को जल्दी व ज्यादा कमजोर कर देंगे क्योंकि उनके पास महंगाईबेरोजगारी को हल करने की कूवत नहीं है. वे अवैध अप्रवासियों का भूत उसी तरह खड़ा कर रहे हैं जिस तरह हमारे यहां अल्पसंख्यकों का भूत खड़ा किया जाता है. इसमें बदला लेने की मनुष्य की हीन भावना को उकसाया जाता है. यह उकसावा आसान भी है तथा यह आपको दूसरी जिम्मेवारियों से बच निकलने की गली भी देता है. अपने पिछले पांच साल के राष्ट्रपति-काल में ट्रंप ने अमरीकी समाज की एक भी मुसीबत का हल नहीं निकालाअमरीका को हर तरह से उपहास का पात्र जरूर बनाया. उनमें अपनी हार स्वीकार करने की शालीनता भी नहीं रही. उन्होंने अमरीकी समाज के गुंडा-तत्वों को ललकार कर बुनियादी लोकतांत्रिक शील की भी खटिया खड़ी कर दी. वे आगे भी ऐसा ही करेंगेक्योंकि इसके अलावा वे कुछ जानते नहीं हैं

. हमारा हाल यह है कि हमें प्रिय मित्र ट्रंप’ की जीत ऐसी लग रही है मानो डोनल्ड ट्रंप ने अमरीका के राष्ट्रपति का नहींभारत के राष्ट्रपति का चुनाव जीता है. उनके चुनाव जीतने से जितने खुश अमरीकी नहीं हैंउससे ज्यादा भारत के सत्ताधारी व उस मानसिकता के लोग खुश हैं. अपने यहां के लोकसभा चुनाव मेंउनके तईं जो कसर रह गई थीमानो अमरीका ने ट्रंप जो चुन कर वह कसर पूरी कर दी है. यह भारत के अमरीका बनने का नया अध्याय है. यह हारते अमरीका के हारने के नये अध्याय का प्रारंभ है. ( 09.11.2024)

Thursday, 31 October 2024

आपका आभार चंद्र्चूड साहब!

   भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने हम परकई बारकई तरह के उपकार किए हैं. जाते-जाते एक और बड़ा उपकार कर गए वे कि हमें बता गए कि न्यायपालिका के फैसले जज साहबान नहींभगवान करते हैं. बेचारे संविधान निर्माताओं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे जिस न्यायपालिका का खाका खींच रहे हैंउसे भगवान इस तरह ‘ हाइजैक’ कर लेंगे. चंद्रचूड़ साहब ने ही हमें यह भी बताया कि कैसे ऐसा किया जा सकता है कि अपराधियों को कोई सजा न दी जाए लेकिन उनके अपराध को असंवैधानिक बता कर वाहवाही लूटी जाए ! और यह भी कि एक सरकार को असंवैधानिक रास्तों से बनी सरकार करार दे कर भी वैध घोषित कर दिया जाए !    

   न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने हमें स्वंय ही बताया कि रामजन्मभूमि विवाद ( या बाबरी मस्जिद विवाद ?) का क्या हल निकाला जाएजब महीनों तक उन्हें यह सूझ ही नहीं रहा था, “ तब मैं ईश्वर की शरण में गया. मैंने उनसे प्रार्थना की कि अब आप ही कोई रास्ता बताइए….और रास्ता उन्होंने बताया. मेरा पक्का विश्वास है कि जब भी आप आस्था के साथ भगवान की शरण में जाते हैंतो वे रास्ता बताते ही हैं.” जिसे हम-आप सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के रूप में जानते हैंवह फैसला भगवान की तरफ से सीधे चंद्रचूड़ साहब को सुझाया गया थायह जानते ही मेरे मन में पहला सवाल यह आया कि यह सुनवाई तो पांच जजों की बेंच ने की थीतो भगवान ने सीधे चंद्रचूड़ साहब को ही रास्ता बताने के लिए क्यों चुना देखता हूं कि तब इस बेंच में सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगईबाद में सर्वोच्च न्यायाधीश बने एस.ए. बोरडेअब के सर्वोच्च न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़जो सर्वोच्च तक नहीं पहुंच सके वे अशोक भूषण तथा एस.अब्दुल नजीर थे. क्या ये सारे न्यायमूर्ति भगवान की शरण में नहीं गए क्या गोगई साहब को भगवान ने ही बताया कि वत्सधैर्य धरोतुम्हारे लिए राज्यसभा का रास्ता बनाता हूं बोरडे साहब को बताया कि बच्चाखामोश रहोगे तो यह सर्वोच्च कुर्सी तुम्हारी होगी यदि देश की सबसे बड़ी अदालत में यही नजीर है तो नजीर साहब भी तो अपने खुदा की रहमत में गए होंगे न ! क्या उन्हें खुदा ने कहा कि मुझे जो फैसला देना थावह मैंने तुम्हारे चंद्रचूड़ साहब के भगवान को बता दिया है. खुदा व भगवान का झगड़ा खड़ा किए बिना वह चंद्रचूड़ जो कहेतुम उसे मान लेना मुझे नहीं पता कि भगवान या खुदा ने एक-एक से बात करने की इतनी जहमत क्यों उठाई ! उन्हें कहना ही था तो चंद्रचूड़ साहब सहित पूरी बेंच से सिर्फ इतना ही कहते कि संविधान ठीक से देख लेना क्योंकि वही तुम्हारा भगवान है. न इसे कम कुछन इसे ज्यादा कुछ ! वैसे मुझे अब लग रहा है कि चंद्रचूड़ साहब ठीक ही कह रहे हैं कि रामजन्मभूमि का फैसला भगवान का बताया फैसला है. भगवान के फैसले अक्सर इंसानों की समझ में नहीं आते हैं. इस फैसले के साथ भी ऐसा ही है.   

   चंद्रचूड़ साहब व हमारे जज साहबान की दिक्कत यह है कि वे मामले की सुनवाई नहीं करते हैंवे हालात के भगवान होने के भ्रम में जीते हैं. वे इंसान हैं और उन्हें एक संविधान दिया गया है जो उनकी गीताकुरानबाइबलजपुजीगुरुग्रंथ साहब या अवेस्ता आदि है. इस संविधान के पन्नों के बाहर का जगत उनके लिए मिथ्या है. यह थोड़ा कठिन तो है लेकिन उनकी संवैधानिक सच्चाई यही है कि वे आज और अभी में जीने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उनके अधिकार-क्षेत्र में यह आता ही नहीं है कि वे यह देखें कि उनका निर्णय संतुलन बिठा कर चलता है या नहीं. यह देखना जिनका काम है वे जब बेड़ा गर्क कर देते हैं तब तो देश आपके पास आता हैऔर चाहता है कि आप बेड़ा गर्क करने वाले ( करने वालों ) का बेड़ा गर्क करें. हर मामले में संविधान क्या कहता हैऔर क्या करने को कहता हैदेश आपसे इतना ही जानना चाहता है. 

   हरियाणा के चुनाव में संवैधानिक व्यवस्थाओं से बाहर जाने की जितनी शिकायतें चंद्रचूड़ साहब की अदालत में पेश की गईंउनकी पड़ताल कर उन्हें लगा कि ये बेबुनियाद हैंतो एक आदेश से उसे खारिज कर देना था. चंद्रचूड़ साहब ने वैसा नहीं किया. उन्होंने आपत्ति उठाने वालों पर तंज कसा कि क्या आप चाहते हैं कि हम जीती हुई सरकार को शपथ-ग्रहण करने से रोक दें हांचंद्रचूड़ साहबमैं कहना चाहता हूं कि यदि संविधान की कसौटी पर कसने के बाद आपको लगता है कि यह जो सरकार बनने जा रही है वह असंवैधानिक रास्ते से सत्ता में पहुंचना चाह रही हैतो आपको उसे शपथ लेने से रोकना ही चाहिए. यह संवैधानिक दायित्व है जिसके निर्वाह में ही आपके होने की सार्थकता है. अगर आपको लगता है कि इस सरकार को शपथ ग्रहण करने से रोकना असंवैधानिक होगातो आरोप को रद्द कर देना भर काफी है. जो सवाल आपने पूछा वह पैदा ही नहीं होता है कि “ क्या हम जीती हुई सरकार को शपथ-ग्रहण करने से रोक दें ?” यह संविधान प्रदत्त आपके अधिकार-क्षेत्र से बाहर की बात है. ऐसा ही मामला महाराष्ट्र की उस सरकार की वैधानिकता के बारे में भी है जो बगैर संवैधानिक जांच-पड़ताल के चलती चली गईऔर आज वहां दूसरा चुनाव आ गया है लेकिन आपकी अदालत में मामला खिंचता ही चला जा रहा है. अब आपके फैसले का आनान आना अर्थहीन हो गया है. लेकिन अगर यह सरकार असंवैधानिक साबित हुई तो महाराष्ट्र की जनता की अदालत में आप व आपकी अदालत हमेशा के लिए अपराधी बन खड़ी रहेगी. न्याय में देरी अन्याय के बराबर होती हैयह आप कैसे भूल सकते हैं ! 

   आप अपने घर में किसकी व कैसे पूजा करते हैंयह आपका अधिकार भी हैआपकी निजी स्वतंत्रता भी है. लेकिन उसका सार्वजनिक प्रदर्शन यह न तो शोभनीय हैन संस्कारीन भारत के धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक जीवन से मेल खाता है. यह धर्मनिरपेक्षता हमारे यहां आसमान से नहीं टपकी है बल्कि उस संविधान से हमें मिली है जिसके संरक्षण की शपथ आप खाते हैं. फिर अपने धार्मिक विश्वासों का सार्वजनिक प्रदर्शनघर के गणपति-पूजन का राष्ट्रीय प्रसारण कैसे आपके गले उतर सकता है यह तर्क बहुत छूंछा है कि न्यायपालिका व विधायिका के लोग आपस में मिलते-जुलते रहते ही हैं. उनका सार्वजनिक समारोहों में मिल जाना एक बात हैपारिवारिक व निजी अनुष्ठांनों में एक-दूसरे से गलबहियां करना दूसरी बात है. संविधान चीख-चीख कर कहता है कि न्यायाधीशों की संवैधानिक प्रतिबद्धता होनी ही नहीं चाहिएइस तरह दीखनी भी चाहिए कि समाज मान्य हो. सत्ता की ऊंगलियों पर नाचने वाले जजों के उदाहरण जब आम होंजब संविधान द्वारा सत्ता व अधिकारों के स्पष्ट बंटवारे के बावजूद विधायिका-कार्यपािलका-न्यायपालिका अपनी लोकतंत्रसम्मत भूमिका समझने में इस कदर भटकती होतब सर्वोच्च न्यायाधीश का प्रधानमंत्री के साथ अपने घर में गणेश-पूजा करना गणेश-शील के एकदम विपरीत जाता है. यह सवाल किसी व्यक्ति का किसी व्यक्ति से नाते-रिश्ते का नहीं हैलोकतंत्र की लक्ष्मण-रेखा को पहचानने व उसकी मर्यादा में रहने का है. 

   संविधान कानून की किताब मात्र नहीं हैलोकतंत्र का आईना भी है. उस आईने में न तो इस सरकार की छवि उज्ज्वल हैन आपकी न्यायपालिका की.  इसलिए तो राष्ट्र विकल हो कर हर नये सर्वोच्च न्यायाधीश के पास जाता है कि शायद इसके पास संविधान की तराजू के अलावा दूसरा कुछ न हो. पता नहीं कैसे यह धारणा बनी थी कि धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ऐसे न्यायाधीश हैंकि उनके पास वह संवैधानिक अनुशासन है कि जो न्यायपालिका की छवि निखार सकता है. आपने वह भ्रम तोड़ दियाइसके लिए हम भारी मन से आपके आभारी हैं. (31.10.2024)

Sunday, 25 August 2024

लड़की किसे चाहिए ?

             पूरा कोलकाता पहले गुस्से से लाल हुआ, फिर जल-भुन कर राख हुआ ! अस्पताल में ही नहीं, वह राख कोलकाता शहर में भी सब दूर फैली. जुलूस-धरना-प्रदर्शन चला तो लगातार चलता ही रहा. उसे भाजपा समेत विपक्षी दलों ने उकसाया-भड़काया जरूर लेकिन वह जल्दी ही कोलकाता के भद्रजनों के आक्रोश में बदल गया. ऐसा जब भी होता है, बंगाल से ज्यादा खतरनाक भद्रजन आपको खोजे नहीं मिलेंगे. ममता बनर्जी यह अच्छी तरह जानती हैं क्योंकि इसी भद्रजन के आक्रोश ने, उन्हें मार्क्सवादी साम्यवादियों का पुराना गढ़ तोड़ने में ऐसी मदद की थी कि वे तब से अब तक लगातार सत्ता में बनी हुई हैं. लेकिन सत्ता ऐसा नशा है एक जो जानते हुए भी आपको सच्चाई से अनजान बना देता है. ममता भी जल्दी ही बंगाल के भद्रजनों की इस ताकत से अनजान बनती गईं. 

   किसी भी अन्य मुख्यमंत्री की तरह सत्ता के तेवर तथा सत्ता की हनक से उन्होंने बलात्कार व घिनौनी क्रूरता के साथ लड़की रेजिंडेंट डॉक्टर की हत्या के मामले को निबटाना चाहा. लेकिन उस मृत डॉक्टर की अतृप्त आत्मा जैसे उत्प्रेरक बन कर काम करने लगी. जैसे हर प्रदर्शन-जुलूस-नारे-पोस्टर के आगे-आगे वह डॉक्टर खुद चल रही थी. ऐसी अमानवीय वारदातों को दबाने-छिपाने-खारिज करने की हर कोशिश को विफल होना ही था. वह हुई  और कोलकाता का आर.जी.कर अस्पतालममता की राजनीतिक साख व संवेदनशील छवि के लिए वाटर-लू साबित हुआ. अब ममता भी हैंउनकी सत्ता भी है लेकिन सब कुछ कंकाल मात्र है. 

   यह आग कोलकाता से निकल कर देश भर में फैल गई. मामला डॉक्टरों का था जो वैसे भी कई कारणों से सारे देश में हैरान-परेशान हैं. सो देश भर की सूखी लकड़ियों में आग पकड़ गई. आंच सुप्रीमकोर्ट तक पहुंच गई. नागरिक अधिकारोंसंवैधानिक व्यवस्थाप्रेस की आजादीअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ले कर सत्ता के मर्यादाविहीन आचरण तक के सभी मामलों में देश में जैसी आग लगी हुई हैउसकी कोई लपट जिस तक नहीं पहुंचती हैउस अदालत को यह लपट अपने-आप कैसे दिखाई दे गईकहना कठिन है. मणिपुर की लड़कियों को जो नसीब नहीं हुआकोलकाता की उस डॉक्टरनी को वह नसीब हुआ- भले आन व जान देने के बाद!  सुप्रीम कोर्ट ने आनन-फ़ानन में अपनी अदालत बिठा दी और कड़े शब्दों में अपनी व्यवस्था भी दे दीएक निगरानी समिति भी बना दी जिसकी निगरानी वह स्वयं करेगी. मैं हैरान हूं कि हमारी न्यायपालिकाजो इसकी निगरानी भी नहीं कर पाती है कि उसके फैसलों का सरकारें कहां-कब व कितना पालन करती हैंवह डॉक्टरों पर हिंसा की जांच भी करेगी व उसकी निगरानी भी रखेगीयह कैसे होगा ! लेकिन अदालत कब सवाल सुनती है ! अगर वह सुनती तो उसे सुनायी दिया होता कि सत्ता की शह से जब समाज में व्यापक कानूनहीनता का माहौल बनाया जाता हैतब राजनीतिक ही नहींसामाजिक-नैतिक-आर्थिक एनार्की का बोलबाला बनता है. कानूनविहीनता का आलम देश में बने तो यह सीधा न्यायपालिका का मामला हैक्योंकि संविधान के जरिये देश ने यही जिम्मेवारी तो उसे सौंपी है. न्यायपालिका के होने का यहीऔर एकमात्र यही औचित्य है. 2014 से अब तक अदालतों को यह दिखाई नहीं दिया तो अंधेरा और किसे कहते हैं बताते हैं कि कोलकाता के अस्पताल में जब वह अनाचार हुआ तो वहां भी अंधेरा था.   

   कोलकाता की घटना के बाद यौनाचार व यौनिक हिंसा की कितनी ही वारदातों की खबरें देश भर से आने लगीं. लगा जैसे कोई बांध टूटा है ! पता नहींऐसा कहना भी कितना सही है. जब घर-घर में ऐसी वारदातें हो रही होंजब सब तरफ हिंसक उन्माद खड़ा किया जा रहा हो तब कोई कैसे कहे कि यह जो सामने हैयह पूरी तस्वीर है !  

   यह सब हुआहोना चाहिए था. आगे भी होता रहेगा. प्रधानमंत्री यूक्रेन की आग बुझा कर लौटेंगे तो चुनावी आग में इस मामले को होम करधू-धू जलाएंगे. लेकिन जो नहीं पूछा गया और जिसका जवाब नहीं मिला वह यह सवाल है कि लड़की किसे चाहिए आर.जी.कर अस्पताल में जो अनाचार व अत्याचार हुआवह डॉक्टर पर नहीं हुआलड़की पर हुआ. वह लड़की डॉक्टर थी और वह जगह अस्पताल थीयह संयोग है. महाराष्ट्र में जो हुआ वह स्कूल थाऔर जिनके साथ हुआ वे छोटी बच्चियां थीं. तो जो यौन हिंसा हो रही हैउसके केंद्र में लड़की है जिसका स्थानजिसकी उम्रजिसका पेशा आदि अर्थहीन है. तो सवाल वहीं खड़ा है कि लड़की किसे चाहिए जवाब यह है कि हर किसी को लड़की चाहिए : व्यक्तित्वविहीन लड़की ! शरीर चाहिए. वह स्त्री-पुरुष के बीच जो नैसर्गिक आकर्षण हैउस रास्ते मिले कि प्यार नाम की जो सबसे अनजानी-अदृश्य भावना हैउस रास्ते मिले या डरा-धमका करछीन-झपट करमार-पीट कर मिले. वह मिल जाएयह हवस हैमिल जाने के बाद हमारे मन में उसकी प्रतिष्ठा नहीं मिलती है. इसलिए घरजो लड़की के बिना न बनता हैन चलता हैलड़की के लिए सबसे भयानक जगह बन जाता है जहां उसकी हस्ती की मजार मिलती है. हर घर में लड़की होती है लेकिन मिलती किसी घर में नहीं है. इसकी अपवाद लड़कियां भी होंगी लेकिन वे नियम को साबित ही करती हैं.   

   इसलिए समस्या को इस छोर से देखने व समझने की जरूरत है. अंधी-कुसंस्कृति की नई-नई पराकाष्ठा छूती राजनीति व जाति-धर्म-पौरुष जैसे शक्ति-संतुलन का मामला यदि न होतो भी स्त्री के साथ अमानवीय व्यवहार होता है. ऐसी हर अमानवीय घटना हमें बेहद उद्वेलित कर जाती है. दिल्ली के निर्भया-कांड के बाद से हम देख रहे हैं कि ऐसा उद्वेलन बढ़ता जा रहा है. यह शुभ है. लेकिन यह भीड़ का नहींमन का उद्वेलन भी बने तो बात बने. स्त्री-पुरुष के बीच का नैसर्गिक आकर्षण और उसमें से पैदा होने वाला प्यार का गहरा व मजबूत भाव हमारे अस्तित्व का आधार है. वह बहुत पवित्र हैबहुत कोमल हैबहुत सर्जक है. लेकिन इसके उन्माद में बदल जाने का खतरा हमेशा बना रहता है. यह नदी की बाढ़ की तरह है. नदी भी चाहिएउसमें बहता-छलकता पानी भी चाहिएबारिश भी चाहिएवह धुआंधार भी चाहिए लेकिन बाढ़ नहीं चाहिए. तो बांध मजबूत चाहिए. कई सारे बांध प्रकृति ने बना रखे हैं. दूसरे कई सारे सांस्कृतिक बांध समाज को विकसित करने पड़ते हैं. समाज जीवंत होप्रबुद्ध हो व गतिशील साझेदारी से अनुप्राणित हो तो वह अपने बांध बनाता रहता है. 

   परिवार में स्त्री का बराबर का सम्मान व स्थानपरिवार के पुरुष को सांस्कृतिक अनुशासन के पालन की सावधान हिदायतसमाज में यौनिक विचलन की कड़ी वर्जनाकानून का स्पष्ट निर्देश व उसकी कठोर पालना से ऐसा बांध बनता है जिसे तोड़ने आसान नहीं होगा. प्यार की ताकत समर्पण में ही नहींउसके अपमान की वर्जना में भी प्रकट होनी चाहिए. नहीं देखता-पढ़ता या सुनता हूं कि किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी कोकिसी पत्नी ने अपने पति कोकिसी मां ने अपने बेटे कोकिसी बहन ने अपने भाई को यानी किसी स्त्री ने अपने दायरे में आने वाले किसी भी पुरुष-संबंध को रिश्ते सेपरिवार से बाहर कर दिया हो क्योंकि उससे यौनिक अपराध हुआ है. बलात्कारी को यदि यह अहसास होउसके आसपास ऐसे उदाहरण हों कि यौनिक हिंसा के साथ ही वह समाज व परिवार से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो जाएगातो यह एक मजबूत बांध बना सकता है. मनुष्य सामाजिक प्राणी है. वह समाज को तब तक ही ठेंगे पर रखता है जब तक उसे विश्वास होता है कि वह समाज को हांक ले जाएगा. ऐसा इसलिए होता है कि आज अधिकांशत: समाज जीवंतसंवेदनशील मनुष्यों की जमात नहींभीड़ भर है. भीड़ में से मनुष्य को निकाल लाना बड़ी दुर्धर्ष मनुष्यता का काम है. लेकिन बांध बनाना कब आसान रहा है ! 

   यह हमारी खुद से लड़ाई है. लड़का डराएगा नहींलड़की लुभाएगी नहींतभी दोनों एक-दूसरे के प्रति सहज-स्वस्थ-सुंदर रिश़्ता बना व निभा पाएंगे. फिर बच जाएंगी दुर्घटनाएं जिन्हें संभालने-सुधारने-स्वस्थ बनाने का काम घर-समाज-कानून मिल कर करेंगे. अगर ऐसा कुछ बोध समाज को हुआ तो कोलकाता के उस अस्पताल की वह डॉक्टर सच में हम सबकी डॉक्टर बन जाएगी. ( 26.08.2024)