Thursday, 9 October 2025

एक जूते से जो बात शुरू हुई …

 जूता चलाने वाले ने जब अपना काम कर दिया तब, जिन पर जूता फेंका गया था उन्होंने जूते को जूते की जगह दिखा कर, अपूर्व संयम दिखाते हुए अपना सामान्य काम शुरू कर दिया. हमारे सर्वोच्च न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई ने ऐसा करके हम सबका सर गर्व से ऊंचा कर दिया. हमारे देश की बड़ी कुर्सियों पर आज जैसी क्षुद्रता से भरे लोग बैठे हैं, उसमें गवई साहब का यह स्थिरचित्त व्यवहार स्वप्नवत् लगता है. 

गुलीवर को लिलिपुट में भी ऐसे छोटे’ लोग नहीं मिले होंगेजैसे हमें मिले हैं. छोटा या नाटा होने में और क्षुद्र’ होने में बहुत बड़ा फर्क है जिस फर्क को इन दिनों जुमलेबाजी से ढकने की चातुरी दिखाई जा रही है. लेकिन क्षद्म भी इतना चरित्रशून्य नहीं होता है कि बहुत वक्त तक क्षद्म चलने दे. देखिए नआज एक जूते ने उसे तार-तार कर दिया है. अब जो नंग सामने आई है उसे प्रधानमंत्री का मौका देख करबड़ी देरी से एक्सपर जारी किया बयान भी नहीं ढक पा रहा है. वह जूता और प्रधानमंत्री का यह बयान कि “ यह हर हाल में निंदनीय है और इससे हर भारतीय क्रुद्ध हो उठा है और ऐसे काम की कोई जगह नहीं है” एक सा-ही दिखाई देता है. आज से आधी शति पहले1973 में लोकनायक जयप्रकाश ने जो कहा था वह आज की सरकार से ऐसे चिपकता है जैसे इनके लिएकल ही कहा गया हो : “ देश के राजनीतिक नेतृत्व की नैतिक हैसियत जब एकदम से बिखर जाती है तब सभी स्तरों पर अनगिनत बीमारियां पैदा हो जाती हैं.

इसलिए ही सारे देश को क्षुद्रता का डेंगू हुआ है. क्यों देश के आज के राजनीतिक नेतृत्व की नैतिक हैसियत एकदम बिखर गई है याकि देश के आज के राजनीतिक नेतृत्व ने नैतिकता को जूता समझ कर किसी पर फेंक दिया है. अब उसके पास न नैतिकता बची हैन जूता ! वह नंगे सर व नंगे पांव सारे देश मेंसभी स्तरों पर अनगिनत बीमारियां फैलाने में जुटा है. यह जूता किसी दलित पर नहीं फेंका गया है. जिस पर फेंका गया वह संयोग से दलित है. सच यह है कि यह असहमति पर फेंका गया वह जूता है जो इस सरकार व इस पार्टी के सभी लोग देश पर लगातार फेंकते आ रहे हैं. घृणा इनके दर्शन की संजीवनी बूटी है. इनकी रोज-रोज की जुमलेबाजी देश को मूर्ख बनाने की बाजीगरी है.     

गवई साहब हमारे सर्वोच्च न्यायाधीश हैं. सभी कह रहे हैंलिख रहे हैं कि वे दलित हैं. कोई यह क्यों नहीं कह रहा है कि न न्याय की कोई जाति होती हैन न्यायाधीश की जब दिल व दिमाग से जाति-धर्म-संप्रदाय-लिंग-भाषा-प्रांत की लकीरें मिट जाती है तब न्याय का ककहरा लिखने की शुरुआत होती है. इसलिए हमें कहना चाहिए कि हमारे गवई साहब न दलित हैंन सवर्ण हैं. वे हमारी न्यायपालिका के सर्वोच्च न्यायमूर्ति हैं. हम इतना ही जानते हैं और उनकी योग्यता का मान करते हैं. हम संपूर्ण न्यायपालिका को भी ऐसे ही देखना चाहते हैं. हमारी चाह आप जानना चाहें तो वह यह है कि सारा देशसंसार के सारे इंसान ऐसे ही होंन हों तो ऐसे ही बनेंऔर उन्हें ऐसा बनाने में हम सब अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगाएं. 

हमें गहरा खेद है कि जिसका जूता था उन वकील राकेश किशोर के पास अब वह जूता भी नहीं रहा. एक वही जूताग्रस्त मानसिकता तो थी उन जैसों के पास ! पिछले 10-12 सालों में इस सरकार ने देश के हर नागरिक के हाथ में यही मानसिकता तो थमाई है कि अपना जूता दूसरों पर फेंको ! प्रधानमंत्री से ले कर उनका पूरा मंत्रिमंडल यही करता हैउनकी पार्टी का अध्यक्ष अपनी पूरी पार्टी को साथ ले कर यही करता है. अपना-अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरे कई छुटभैय्ये भी हैं जो इनके साथ हो लिए हैं. बात पुरानी है लेकिन एकदम खरी है कि तुम वही होते हो जिनके साथ तुम रहते हो. 

यह गवई साहब पर भी उतना ही लागू होता है जितना चंद्रचूड़ साहब पर होता था.  चंद्रचूड़ साहब ने प्रधानमंत्री के साथ मिल कर गणपति वंदना करना जरूरी समझा तो गणपति ने उन्हें मूषक’ बना दिया. अब वे यहां-वहांहर जगह यह बताते-कहते घूम रहे हैं कि मैं मूषक’ नहीं बना था. लेकिन सौ-सौ चूहे वाली बिल्ली हमने-आपने भी देखी तो होगी ! सो चंद्रचूड़ साहब कहते कुछ हैंहमें सुनाई कुछ दूसरा ही देता हैदिखाई कुछ तीसरा देता है. 

गवई साहब ने मुख्य न्यायाधीश बनते ही कहा था कि वे आंबेडकर को माथे पर धर कर चलते हैं. हमने कोई एतराज नहीं कियाहालांकि होना तो यह चाहिए कि उनके व दूसरे किसी भी न्यायमूर्ति के माथे पर संविधान ही हो- न गांधी होंन आंबेडकर ! लेकिन अब हमें दिखाई कुछ और भी देता है. गवई साहब सरकारी मूषकों’ के साथउनके उड़नखटोले में या उनकी गाड़ी में यहां-वहां बेज़रूरत घूमते हैंसरकारी होने का कोई भी फायदा वे छोड़ते नहीं हैं. न्यायमूर्ति की सबसे ऊंची कुर्सी से वे भी वैसी ही गोलमोल बातें करते हैं जैसी बातें उस कुर्सी से हम अक्सर ही सुनते रहे हैं. किसी भी मुकदमे के दौरान फैसलों से इतर न्यायाधीश जो टिप्पणियां करते हैंवे बहुत मतलब की नहीं होती हैं. विष्णु की मूर्ति के संदर्भ में गवई साहब की वह टिप्पणी भी न जरूरी थीन निर्दोष थी. 

हमारी न्यायपालिका आज भी ऐसे ही चल रही है जैसे देश में कुछ भी असामान्य नहीं है. जिस संविधान व लोकतंत्र की वजह से ही न्यायपालिका का अस्तित्व हैउस पर रोज-रोज हमले हो रहे हैंयह हमें दिखाई देता हैअदालतों को नहीं. अदालतों के पास समय बहुत थोड़ा है और हमारा लोकतंत्र बहुत नाज़ुक दौर से गुजर रहा है. वह गुजर ही न जाएइसकी तत्परता गवई साहब की न्यायपालिका के व्यवहार व आचार में दिखाई नहीं देती है. 

संवैधानिक महत्व के मुद्दों कोनागरिक स्वतंत्रता के सवालों को प्राथमिकता के आधार पर सुना जाए और न्यायपालिका को जो भी कहना होवह स्पष्ट शब्दों में कहा जाएऐसा नहीं हो रहा है. ऐसा रवैया संविधान को मजबूत नहीं बनाता हैआंबेडकर को जिंदा नहीं करता है. बिहार में केंद्र सरकार के इशारे पर चुनाव आयोग ने सर’ का जो ढकोसला खड़ा किया थाउसने चुनावी न्याय को सर के बल खड़ा कर दिया है. उसे न्यायपालिका की सीधी फटकार क्यों नहीं मिली ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग व सर्वोच्च न्यायालय के बीच चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है. आधार कार्ड को मतदाता का न्यायसम्मत प्रमाण मानने की बात को जिस कठोरता से अंतिम तौर पर कह देने की जरूरत थीगवई साहब की अदालत वैसा नहीं कह सकी. इसलिए आयोग रह-रह कर आधार कार्ड का माखौल उड़ता है और कहता है कि आप आधार दो या न दोहमारे बताए दस्तावेज तो देने ही होंगे ! यह मतदाता का अपमान हैन्यायपालिका की खुली अवमानना है.

अब चुनाव आयोग ने न्यायालय को नया शह’ दिया है. उसने  बिहार के मतदाताओं की अंतिम सूची प्रकाशित करचुनाव की तारीखें घोषित कर दी है. यह अदालत को उसकी औकात बताने की कोशिश है. हम सभी जानते हैं कि ज्ञानेश कुमार के ज्ञान’ के पीछे सरकार अभय-मुद्रा में खड़ी है. यह एक चीफ कीदूसरे चीफ को सीधी चुनौती है. आयोग ने यह भी घोषित कर दिया है कि बिहार को निबटा कर हम देश को भी इसी तरह ठिकाने लगाएंगे. देश के मतदाताओं के सर पर सर’ की तलवार लटकी हुईं है. चुनाव आयोग चंद्रचूड़’ बना हुआ है. वह बात का भात पका भी रहा है व खिला भी रहा है. 

जूते की बात छोड़िएलोकतंत्र पर सीधा हमला खरीदे व जुटाए जिस बहुमत की आड़ में हो रहा हैवह बहुमत है ही नहीं. इसके जितने प्रमाण कोई नागरिक जुटा सकता हैउतने प्रमाण सामने रख दिए गए हैं. अब जो काम बचा है वह न्यायपालिका का हैक्योंकि संविधान ने उसे ही यह जिम्मेवारी दी है तथा यही उसके होने की सार्थकता भी है कि वह लोकतंत्र के साथ खड़ा रहे. आज के दौर में यह सबसे आसान काम है. आसान इसलिए है कि आपके पास एक किताब है जिसे आंबेडकर का लिखा संविधान कहते हैं. बस उस किताब को खोलिए और उसके आधार पर सही या गलत का फैसला कीजिए. न एक शब्द बदलना है आपकोन कुछ अलग या नया लिखना है. 

आप वह मत करिए जो आपके कमजोर प्रतिनिधियों ने पहले किया है. संविधान ने नहीं कहा है कि आपको संतुलन साधना हैकि आपको बीच का रास्ता निकालना है. सत्य या न्याय संतुलन से नहींसंविधान के पालन से सिद्ध होता है. चंद्रचूड़ साहब ने अपनी असलियत ढकने के लिए एक बौद्धिक तीर चलाया कि हमारा संविधान नहीं कहता है कि हमारे जजों की निजी आस्थाएं नहीं होनी चाहिए. हांहमारे संविधान ने ऐसा नहीं कहा है लेकिन चंद्रचूड़ साहब बड़ी चतुराई से यह छिपा गए कि संविधान ने साफ शब्दों में कहा है कि आपकी निजी आस्थाओं की छाया भी आपके फैसलों पर नहीं पड़नी चाहिए. यह आसान नहीं हैतो जज बनाना इतना आसान कहां है ! जिस तरह सड़क पर चलता हर ऐरा-गैरा जज नहीं बन सकताठीक उसी तरह बड़ी शिक्षा पा कर या विदेशों से डिग्री ला कर या किसी पूर्व जज का परिजन होने से कोईं जज नहीं बन जाता. जज की कुर्सी पर बैठने से भी लोग जज नहीं बन जाते. यह योग्यता व पात्रता संविधान के साथ खड़े होने की आपकी हिम्मत से आती है. चंद्रचूड़ साहब याद करें तो उन्हें याद आएगा कि आपातकाल में उनके पिता समेट 5 जज थे जिनमें से 4 ने संविधान को रद्दी की टोकरी में फेंक करसरकार की खैरख्वाही की थी. भारतीय न्यायपालिका का मुंह उस दिन जो काला हुआवह दाग आज तक नहीं धुला है. चन्द्रचूड़ों ने उसे और भी कला कर दिया है. किसी सरकार के पक्ष या विपक्ष में फैसला देने की बात नहीं हैजो लिखा हुआ संविधान देश की जनता ने आपको सौंपा हैउसका पालन करने की बात है. 

जूता चला यह बहुत बुरा हुआ. लेकिन यही जूता वरदान बन जाएगा यदि इसने हमारी न्यायपालिका को नींद से जगा दिया. जूता चलाने की असहिष्णुता जिसने समाज का स्वभाव बना दिया हैवह अपराधी पकड़ा जाएइसके लिए सन्नद्ध व प्रतिबद्ध न्यायपालिका अपनी कमर सीधी कर खड़ी होतो जूते का क्यावह फिर से पांव में पहुंच जाएगा. 

( 08.10.2025) 

No comments:

Post a Comment