Sunday, 5 October 2025

आइए, गांधी से मिलते हैं !

 आज 2 अक्तूबर है - महात्मा गांधी का जन्मदिन जो इस वर्ष दशहरे की पोशाक पहन कर आया है. हम दशहरे में दशानन को याद करें या गांधी को, बात एक ही है. इंसान है, इंसान की कमजोरियां हैं लेकिन मां दुर्गा हैं तो इंसान की कमजोरियों का शमन भी है; गांधी हैं तो कमजोरियों से ऊपर उठने का इंसानी अभिक्रम भी है. देख रहे हैं न आप, हर तरफ़ मां दुर्गा की झांकी नानाविध सजी हुई है लेकिन सारी झांकियां बात एक ही कह रही हैं : अपनी कमजोरियों से लड़ो, अपनी कमजोरियों से ऊपर उठो ! 

ऐसा ही तो गांधी के साथ भी है.    

हमारे देश के हर नगर-महानगर-कस्बे-गांव-पंचायत में एक-न-एक ऐसा एक चौराहा जरूर होगा जिस पर एक बूढ़े की घिसी-टूटी-बदरंग मूर्ति लगी होगी- झुकी कमर व हाथ में लाठी कहीं चश्मा होगा कहीं टूट गया होगा. आप चेहरा आदि मिलाने-खोजने जाएंगे तो फंस जाएंगेक्योंकि नए-पुराने सारे लोग जानते होंगे कि यह गांधी-चौक है और यह बूढ़ा दूसरा कोई नहींमहात्मा गांधी हैं. बहुत उपेक्षित होगा वह चौक लेकिन मैंने कई जगह देखा है कि किसी 2 अक्तूबर या 30 जनवरी को किसी ने आ कर वहां कुछ गंदगी साफ कर दी हैदो-चार फूल रख दिए हैं. 

ये देश के गांधी हैं ! लेकिन हमारे गांधी कौन हैं कभी न सोचा हो तो अभीइस 2 अक्तूबर को सोच कर देखिए. यह इसलिए भी जरूरी है कि देख रहा हूं कि इधर आ कर बात कुछ बदली है और देश के युवा — संख्या की बात नहीं है यहां ! — जब घिरते हैं अपने सवालों से और  जवाब मांगने सड़कों पर उतरते हैं तो गांधी को खोज कर साथ रखते हैं.

यह भी देश के गांधी हैं - ग्रेटा थनबर्ग की आवाज में कहूं तो दुनिया के गांधी हैं. इतने जाने-पहचाने हैं गांधी कि हमारे लिए एकदम अजनबी हो गए हैं. इसलिएआइएफिर से उनसे मिलते हैं.   

 उनका जीवन जिन रास्तों पर चलाजिन मोड़ों से गुजरा-मुड़ा और जिस मंजिल पर ताउम्र उनकी नजर रहीउन सबकी पर्याप्त चर्चा भी नहीं कर सके हैं हम अब तकआकलन तो दूर की बात है. इसलिए सबसे आसान रास्ता हमने अपनाया है कि 30 जनवरी और 2 अक्तूबर को उनका फोटो सजा लेना व कुछ अच्छी लेकिन गांधीजी के संदर्भ में अर्थहीन-सी बातें कर लेना. दिल्ली के राजघाट पहुंच कर सत्ताधारी सर झुका आते हैं और कुछ लोग ऐसे निकल ही आते हैं कि जो अपनी गहरी समझ का प्रमाण-सा देते हुए गांधीजी से अपनी असहमति जाहिर करते हैं. वह असहमति भी अधिकांशतः अर्थहीन होती हैक्योंकि जिसे हम ठीक से जानते भी नहीं हैंउससे सहमति या असहमति कितना ही मानी रखती है ! जयप्रकाश नारायण ने कभी बड़ी मार्मिक एक बात कही थी : “ गांधी की पूजा ऐसा एक खतरनाक खेल है जिसमें आपको पराजय ही मिलने वाली है.” पूजा नहींगांधी के पास पहुंचने के लिए साधना की जरूरत है - गुफा वाली आसान साधना नहींसमाज के बीच की जाने वाली निजी व सामूहिक कठिन साधना ! 

यह बात सबसे पहले पहचानी थी रूसी साहित्यकार-दार्शनिक लियो टॉल्सटॉय ने. तब बैरिस्टर गांधी दक्षिण अफ्रीका में अपनी साधना की धरती बनाने में लगे थे और टॉल्सटॉय की किताबें पढ़ कर चमत्कृत-से थे. उन्हें लगा कि वे जो रास्ता खोज रहे हैंयह आदमी उस दिशा में कुछ दूर यात्रा कर चुका हैसो बैरिस्टर साहब ने उन्हें पत्र लिखा. जिसने पत्र लिखाउसे रूसी नहीं आती थीजिसे पत्र लिखा उसे रूसी भाषा के अलावा दूसरी कोई भाषा नहीं आती थी. संप्रेषण-संवाद कितना कठिन रहा होगा ! लेकिन इस अजनबी हिंदू युवक’ का अंग्रेजी में लिखा पत्र किसी से अनुवाद करवा कर जब पढ़ा टॉल्सटॉय ने तो वे चमत्कृत रह गए. अपने एक मित्र को गांधी का परिचय देते हुए लिखा : इस हिंदू युवक पर नजर रखना ! यह कुछ अलग ही इंसान मालूम देता है. हम सब अपनी साधना के लिए कहीं एकांत मेंगांव-पहाड़-गुफा आदि में जाते हैं. देखते ही हो कि मैं भी नगर से निकल कर दूर देहात में आ गया हूं. लेकिन यह आदमी लोगों की भीड़ के बीच बैठ कर अपनी साधना कर रहा है.

तब गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग शहर में अपना टॉल्सटॉय फार्म बनाया ही था. 1910 में बना यह कृषि-केंद्र अहिंसक सत्याग्रहियों का प्रशिक्षण-स्थल था.       

गांधी अत्यंत सरल व्यक्ति थे लेकिन वे अविश्वसनीय हद तक कठिन व्यक्ति थे. उनके साथ जीना भी बहुत कठिन थाउन जैसा होना तो असंभव-सा ही है. ऐसा क्यों है 

इसलिए है कि गांधी ने अपनी जैसी कठोर कसौटी कीअपने प्रति वैसी कठोरता निभाना बहुत मुश्किल है. वे दूसरों के लिए बेहद उदार हैंएकदम कमलवत् ! अपने बनाए सारे कड़े नियम-कायदे भी बाजवक्त दूसरों के लिए ढीले करते ही रहते हैं. अपने सेवाग्राम आश्रम में बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान के लिए मांसाहारी भोजन का प्रबंध करने का आदेश उन्होंने ही दिया था : “ यह बेचारा तो भूखा ही रह जाएगा ! उसका यही भोजन है!”; यह बात दूसरी है कि बादशाह खान ने वैसी व्यवस्था के लिए न केवल मना कर दिया बल्कि यह भी कह दिया कि अब मैं भी शाकाहारी हूं. जवाहरलाल हवाना से लौटे तो वहां मिले उपहार गांधीजी को दिखला रहे थे. हवाना की बेशकीमती सिगार भी उसमें थी. गांधीजी ने लपक कर उसे अलग निकाल लिया : “ अरे यह ! … यह तो मौलाना को दे दूंगा ! उन्हें सिगार बहुत पसंद है.” 

उनके पास सबके लिए सब कुछ थाअपने लिए अल्पतम ! जो सबके लिए नहीं हैवह मेरे लिए भी नहीं हैइस बारे में वे लगातार सावधान रहे. ऐसे गांधी के साथ किसकी निभेगी जो अपने को कोई छूट न देने का संकल्प साधने में लगा होवही गांधी की छाया छूने की आशा कर सकता है. यह पेंच समझने लायक है न कि गांधी संभव हद तक कम कपड़े पहनते थे लेकिन कांग्रेस के लिए उन्होंने कभी यह आग्रह नहीं किया कि सभी घुटने तक की धोती पहनें. खादी पहनने व कातने का आग्रह कभी किया जरूर लेकिन सम्मति नहीं मिली तो वह भी छोड़ दिया. लेकिन अपने लिए नियम ही बना रखा था कि हर दिन निश्चित सूत काते बिना सोना नहीं है.

दिन भर की देहतोड़ दिनचर्या के बाद जब सभी सोने जाते थेगांधी अपना चर्खा ले कर बैठते थे : कताई का अपना लक्ष्यांक पूरा कर तो लूं !… अपने लिए कभी यह तय कर दिया कि मेरे भोजन में पांच से अधिक चीजें नहीं होंगीतो फिर गिनती के बगैर खाना नहींफिर यह भी बता दिया कि मेरे भोजन का खर्च इससे अधिक नहीं होना चाहिए. दूसरे गोलमेज सम्मेलन में लंदन पहुंचे तो भोजन की थाली सामने आने पर अपने मेजबान से दो ही सवाल पूछते थे : इस थाली की कीमत कितनी है इस थाली में से कितनी चीजें इंग्लैंड में पैदा हुईं हैं कमखर्ची व स्वदेशी ! उनके लिए ये दोनों जीवन-मंत्र थे. आज संसार का हर पर्यावरणवादी इन्हीं दो मूल्यों की बात करता है. मतलब क्या हुआ 83 साल पहले हमने जिस इंसान को मार डाला थाउसका जीवन-मंत्र ही आज के इंसान का जीवन-मंत्र बने तो धरती बचेप्राण बचे. कितना कठिन रहा होगा यह आदमी ! 

इस गांधी से हम जितनी दोस्ती कर सकेंगेउतने ही इंसान बन सकेंगे.  

तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो 

उम्मीद इंसानों से लगा कर शिकायत खुदा से करते हो 

( 30.09.2025)

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