जिस आदमी ने महात्मा गांधी को देख कर अपनी सामाजिक समझ की आंखें खोली थी, उसने महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर के दिन अपनी आंखें बंद कर लीं; और इन दोनों के बीच उसने 101 साल का लंबा सफर भी तय कर लिया; और यह लंबा सफर शुचिता, सक्रियता, आत्मीयता से भरा रहा; और हमेशा परिवर्तनकारियों के साथ खड़ा रहा. है न हैरानी की बात !
1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, मुंबई में सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा था. मुंबई का चेहरा कैसा डरावना हो गया था ! उसका ऐसा चेहरा हमने पहले देखा नहीं था. मुंबई के मणि भवन में हम कई रंग के गांधीजन उस रात जमा हुए थे. मणि भवन यानी बंबई में गांधीजी का घर ! 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा करने के बाद, इसी मणि भवन से गांधीजी की गिरफ्तारी हुई थी.
गांधीजी की उस गिरफ्तारी के ठीक आधी सदी बाद, उसी मणि भवन में विचलित व मुरझाए-से हम कुछ गांधीजन जमा हुए थे यह सोचने के लिए कि हम मुट्ठी भर लोग उस सांप्रदायिकता के जहर से लड़ने के लिए क्या कर सकते हैं जिसने बंबई में और सारे देश में आग लगा दी है. जान देने की तैयारी से कम में इसका मुकाबला संभव नहीं है, यह सभी जानते थे. लेकिन यह जानना व इसकी तैयारी करना दो भिन्न बातें हैं, यही बात हमारी बात में से बार-बार उभर रही थी. राय यह ही बन रही थी कि इस विकराल स्थिति में हमारे बस का खास कुछ है नहीं, इसलिए सरकार जो कर रही है उससे ही हम भी जुड़ जाएं व शांति व राहत का काम करें.
ऐसे रूख से मैं परेशान था. मैंने शांति सैनिक की भूमिका में पहले भी कई सांप्रदायिक दंगों में काम किया था. वहां की लाचारी मुझे पच नहीं रही थी. मैंने अंत में इतना ही कहा कि हम अभी हारे नहीं हैं, बंबई को यह बताने के लिए कल सुबह से ही हमें दंग्राग्रस्त इलाकों में पहुंच जाना चाहिए. हम वहां पहुंचेंगे तभी हमें आगे का रास्ता समझ में आएगा. यह अंधेरे में आंख खोल कर छलांग लगाने की बात थी.
सब उठे और अकेले-अकेले घर गए. जीजी बेआवाज-से मेरे पास आए, और आश्वस्ति से भरी धीमी आवाज में बोले : “आपने जो कहा, वही असली बात है. मैं आपके साथ हूं.”
उस दिन से उनके साथ परस्पर विश्वास का, स्नेह-सम्मान का वह रिश्ता बना जो अंत तक बना रहा. जीजी समाजवादी पृष्ठभूमि से आते थे; मैं उस समाजवाद को कहीं पीछे छोड़ कर, गांधी के रास्ते चलने वाले विनोबा-जयप्रकाश के रास्ते का यात्री था. यह भेद था, प्रकट भी होता था लेकिन हम दोनों इसे संभाल लेते थे.
1974 के संपूर्ण क्रांति के जयप्रकाश-आंदोलन ने देश में तब जैसी खलबली मचाई थी उसमें बहुत कुछ टूटा था, तो बहुत कुछ जुड़ा भी था. जो सबसे कीमती जुड़ाव हुआ था वह तब के राजनीतिक दलों में बचे ईमानदार व आदर्शवादी तबके का गांधीजनों से जुड़ाव था. ऐसे समाजवादियों के सिरमौर थे जीजी. उनके आसपास समाजवाद, गांधी और जयप्रकाश का बड़ा अनोखा त्रिभुज बनता था.
लगता है न कि दूसरा कुछ न भी हो तो भी ऐसे आदमी के बारे में हमें ज्यादा जानना चाहिए ? अगर मैं यह कहूं कि यह डॉ. गुणवंतराय गणपतलाल पारीख की बात है, तो शायद ही कोई इस आदमी को पहचान सकेगा, क्योंकि ताउम्र उनका अपना शहर मुंबई, उनका अपना प्रांत महाराष्ट्र और उनका अपना देश हिंदुस्तान उन्हें एक ही नाम से जानता आया है : जीजी ! वे सबके जीजी थे. इससे बड़े नाम का बोझ उनका सरल व्यक्तित्व उठाता ही नहीं था.
गांधी से गांधी तक की अपनी इस यात्रा में जीजी को साम्यवादी मिले, समाजवादी मिले, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, महाराष्ट्र के पहले दौर के कई विलक्षण समाजवादी नायक मिले. गांधी ने तरुण जीजी को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में 10 महीनों की जेल-यात्रा करवाई, तो उम्र के उतार के दौर में जयप्रकाश ने उन्हें आपातकाल में 15 महीनों की जेल यात्रा करवाई. “ मैं तो इसी तरह बना हूं !” दोनों जेलों की याद करते हुए जीजी बोले, “ जब हम आजादी के लिए लड़ रहे थे तब नहीं जानते थे कि आजादी पाने के लिए ही नहीं, आजादी कायम रखने के लिए भी जेल जाना पड़ता है. लेकिन वह हुआ. मुझे अंग्रेज पुलिस ने भी जेल में डाला और भारतीय पुलिस ने भी. तब से ही मैं मानता हूं कि सच बोलना और सच बोलने की जो भी कीमत देनी पड़े वह देना, लोकतंत्र के सिपाहियों का धर्म है. गांधीजी ने यही तो सिखाया था हमें कि न अहिंसा कभी छोड़नी है, न लड़ाई लड़ना कभी छोड़ना है. ”
वे ऐसे ही थे. उनकी दो खास विशेषताएं थीं : वे संघर्ष व रचना के दोनों गांधी-तत्वों को समान कुशलता से साध पाते थे व युवकों के साथ संवाद बनाने से कभी हिचकिचाते नहीं थे. उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा लेकिन समाजवादियों के साथ चलने में कभी पीछे नहीं रहे. मुझे नहीं लगता है कि मुंबई व महाराष्ट्र में कोई भी समाजवादी पहल ऐसी रही होगी कि जिसमें जीजी शामिल न रहे हों या जिसके संयोजन में उनकी भूमिका न रही हो. समाजवादियों की पत्रिका ‘जनता’ गुमनामी में खो नहीं गई या संसाधनों के अभाव में दम नहीं तोड़ गई तो इसके पीछे जीजी की अपूर्व प्रतिबद्धता व कुशलता थी. वे भागते-दौड़ते कहीं-न-कहीं से संसाधन जोड़ते ही रहते थे. मुझे नहीं याद आता है दूसरा कोई नाम जिसने समाज के हर संभव तबकों से धन संग्रह कर, अपनी हर गतिविधि को जीवंत बनाए रखा. गांधी कहते थे : “ समाज अपने सच्चे सेवकों के लिए संसाधन जुटाने में कभी कंजूसी नहीं करता है.” जीजी गांधी के इस विश्वास की सबसे उम्दा मिसाल थे.
मिसाल ही देखनी हो तो हम महाराष्ट्र के पनवेल में जीजी का यूसुफ मेहरअली सेंटर देख सकते हैं. जीजी न होते तो यूसुफ मेहरअली जैसा समाजवादी सितारा हमारी स्मृति से शायद खो ही जाता. आज हमने अपना देश जैसा बना दिया है, उसमें किसी यूसुफ मेहरअली के नाम से अपना सार्वजनिक काम शुरू करना संभव ही न हो शायद लेकिन जीजी ने रचनात्मक कामों का बड़ा संसार ही इस नाम से खड़ा कर दिया. रचनात्मक कामों के अधिकांश प्रकार आपको यूसुफ मेहरअ ली सेंटर पर जीवंत मिलेंगे. सहकारी भंडारों की अपनी श्रृंखला से उन्होंने खादी-ग्रामोद्योग को आगे बढ़ाने का लंबा प्रयोग चलाया. इतना सारा कुछ करते हुए भी डॉक्टर जीजी पारीख अपने दवाखाने में नियमित बैठ कर इलाज भी करते रहे. यह क्रम तभी टूटा जब शरीर ने इसकी इजाजत देनी बंद कर दी.
जीजी की मृ्त्यु के साथ एक ऐसी जीवन-गाथा का पटाक्षेप हो गया जिस पर से पर्दा उठा कर , उसे बार-बार पढ़ने-जानने व उस दिशा में चलने के बिना भारतीय समाज का टिकना मुश्किल होगा. ( 05.10.2025)
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