अंधकार की भी आंखें होती हैं ! इतिहास उन्हीं आंखों से अंधकार के पार देखता है और नया इतिहास लिखता है. आपातकाल हमारे लोकतांत्रिक इतिहास का ऐसा ही अंधेरा है, भारत का मतदाता जिसके पार देख सका था और नया इतिहास रच भी सका था. लेकिन अंधकार को भेदने वाली आंखों का एक सच यह भी है कि वे अंधी न हों. भला सोचिए न, अंधी आंखें क्या तो देखेंगी, क्या तो समझेंगी !
26 जून 1975 को आपातकाल का अंधेरा सारे देश का आसमान लील गया था. ऐसा अंधेरा देश ने देखा नहीं था कभी. भारतीय लोकतंत्र को आपातकाल की चादर तले ढक कर, उसका दम घोंटने की यह अत्यंत गर्हित कोशिश श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने की थी; याकि पार्टी को शून्य बना कर इंदिराजी ने की थी. कांग्रेस ने तो अपना नाम भी बदल कर कांग्रेस (इं) कर लिया था ताकि आंखों की शर्म भी क्यों रहे.
उस आपातकाल के 50 साल पूरे हुए. इसे देखने के भी दो नजरिये हैं : एक कहता है कि आपातकाल के 50 साल पूरे हुए; मैं कहता हूं कि एकाधिकारवादी राजनीतिक ताकतों को चुनौती दे कर परास्त करने के 50 साल पूरे हुए. न लोकतंत्र पर वैसा हमला हुआ था पहले कभी, न पार्टियों को पीछे छोड़ती हुई जनता ने कभी उठ कर अपने लोकतंत्र के संरक्षण की वैसी लड़ाई लड़ी थी कभी. ये दो तस्वीरें नहीं हैं, एक ही तस्वीर को देखने की दो नजर है. यह तस्वीर है संपूर्ण क्रांति आंदोलन की !
यह भूलना राजनीतिक अंधता है कि आपातकाल आसमान से टपका नहीं था बल्कि एक अभूतपूर्व जनांदोलन का मुकाबला करने के लिए, संविधान को तोड़-मरोड़ कर निकाला गया वह हथियार था जिसकी धार इस देश के अनपढ़, अशिक्षित व असंगठित मतदाता ने पहला मौका मिलते ही कुंद कर दी. कोई 15 महीने चले इस आंदोलन को भूल कर या भुला कर आपातकाल के विषय में निकाला गया हर निष्कर्ष रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक है.
सत्ताधीशों के लिए 1947 में भी जरूरी हो चला था कि गांधी की लोकक्रांति की अवधारणा को जनता की नज़र से हटा कर, एक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि गांधी दीवार पर लटके फ़्रेम से बाहर न आ सकें. यह काम उन लोगों ने किया जो गांधी को अपराधी नहीं मानते थे, उनको अपमानित नहीं करते थे, दिल से उनकी इज़्ज़त करते थे लेकिन उन्हें आज़ाद भारत के लिए अनुपयोगी मानते थे.
1977 में भी सत्ताधीशों के लिए जरूरी हो गया कि जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति की अवधारणा को जनता की नजर से ओझल कर, एक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि वे लोकविहीन लोकनायक भर रह जाएं. यह तुलना जयप्रकाश को गांधी बनाने की फूहड़ कोशिश नहीं है बल्कि क्रांति व सत्ता के रिश्ते को सफ़ाई से समझने का उद्यम है.
आजादी के साथ ही जिनके लिए लोकतंत्र, संविधान, जनता, समता, समानता, सादगी, मितव्ययिता आदि किताबी अवधारणाएं मात्र रह गईं और एकमात्र सच सत्ता ही बची, उनकी एक नजर है; दूसरी नजर उनकी है जो लोकतंत्र को लोक के संदर्भ में संविधान से बंधी निरंतर विकासशील वह अवधारणा मानते-समझते व जीते हैं जिसके लिए कैसी भी सत्ता व किसी की भी सत्ता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है. ऐसी अविचलित आस्था की घोषणा जयप्रकाश ने 1974 में नहीं, 1922 में कर दी थी: “ स्वतंत्रता मेरे जीवन का आकाश-दीप बन गई. वह आज तक वैसी ही बनी हुई है. समय जैसे-जैसे बीतता गया वैसे-वैसे स्वतंत्रता का अर्थ केवल अपने देश की स्वतंत्रता नहीं रहा बल्कि उससे आगे बढ़ कर, उसका अर्थ हो गया मनुष्य मात्र की सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति ! इससे भी आगे बढ़ कर वह मानवीय व्यक्तित्व की स्वतंत्रता में, विचारों की और आत्मा की स्वतंत्रता में परिणत हो गया. स्वतंत्रता मेरे लिए ऐसी जीवन-निष्ठा बन चुकी है जिसका सौदा मैं कभी भी रोटी, सत्ता, सुरक्षा, समृद्धि, राज्य प्रदत्त मान-सम्मान अथवा दूसरी किसी भी चीज के लिए नहीं कर सकता.” तो सिर्फ आपातकाल के नहीं, इस आस्था से जीने व लड़ने के भी 50 साल पूरे हुए, यह भूला कैसे जा सकता है !
इसलिए आपातकाल के 50 साल पूरा होने का जश्न जिस तरह मनाया गया, अखबारों ने उसे जिस तरह प्रस्तुत किया, वह हमें बता गया कि अंधी आंखों से देखा गया इतिहास कितना खोखला व अर्थहीन होता है. मजा यह भी देखिए कि आपातकाल एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सत्ता पक्ष व विपक्ष एक ही स्वर में बोलते हैं : आपातकाल की भर्त्सना ! 1977 के बाद से, इसकी आड़ में सभी तीसमारखां बने जाते हैं जबकि इनमें से अधिकांश न संपूर्ण क्रांति के आंदोलन से सहमत थे, न उसके सिपाही थे; न आपातकाल से भिड़े थे, न उससे किसी स्तर पर समझौता न करने का जिनका प्रण था. बरसाती मेंढकों का ऐसा प्रहसन पहली बार नहीं हो रहा है. 1947 न आए, इसके लिए रात-दिन काम करने वाले कितने की ‘योग्य’ जन थे जिन्होंने 1947 के आते ही कपड़े बदल कर, आजादी के नारे लगाने शुरू कर दिए. हमने देखा कि जवाहरलाल गुलामी के मनकों से आजादी का बंदनवार सजाने में जुट गए, सरदार गुलामी को पुख्ता बनाने में जुटी नौकरशाही की फौज ले कर आजादी का राजमार्ग बनाने में लग गए. फिर जो बना, वह कहानी फिर कभी.
1977 में आई ‘दूसरी आजादी’ की पहली सुबह ही बीमार व इंच-इंच मौत की तरफ़ खिसकते जयप्रकाश ने सर्वोदय के अपने साथियों से जो कहा सो कहा, नई सरकार में कुर्सी संभालने जा रहे लोगों को सामने बिठा कर दो बातें कहीं : सत्ता की कुर्सी बहुत खतरनाक होती है. इसलिए जब कभी आपकी सत्ता व जनता के बीच आमने-सामने की स्थिति बने, तो इंदिराजी ने जैसा व्यवहार किया, मैं आशा करता हूं कि मोरारजी देसाई वैसा व्यवहार नहीं करेंगे. यह व्यक्तिगत शील भर की बात नहीं थी, सीधा संदेश था कि संवैधानिक शक्तिओं का इस्तेमाल करते हुए, वे सारी व्यवस्थाएं आप कीजिए जिससे भविष्य में कोई आपातकाल की तलवार जनता पर न चला सके. दूसरी बात उन्होंने इनसे बाद में कही : एक साल के लिए देश के सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर दीजिए और ऐसी योजना बनाइए कि पढ़ने व पढ़ाने वाले दोनों ही भारत के लाखों गांवों में बिखर जाएं, असली भारत को देखें-पहचानें तथा उसके साथ जीना व चलना सीखें. दूसरी तरफ, इसी अवधि में देश भर के शिक्षाविद् सर जोड़ कर बैठें व हमारी शिक्षा की नई व्यवस्था का खाका तैयार करें. जिन्हें याद न हो, उनको याद कराता हूं कि ‘शिक्षा में क्रांति’ संपूर्ण क्रांति की संकल्पना का एक अहम आयाम था. आजाद भारत में नये मन का, नया नागरिक तैयार करने की यह वही तड़प थी जिससे बेचैन गांधी ने 2 फरवरी 1948 को अपने सेवाग्राम आश्रम में ‘अपने ख़ास सिपाहियों का सम्मेलन’ बुलाया था जिसमें आज़ाद भारत की सरकार का एक भी व्यक्ति उन्होंने शरीक नहीं किया था. लेकिन 2 फरवरी के आने से पहले आई 30 जनवरी और 3 गोलियों से गांधी को चुप करा दिया गया; 1977 के आते ही जयप्रकाश को प्रधानमंत्री ने सावधान कर दिया : जयप्रकाश बाहर के आदमी हैं. हम उनके प्रति जवाबदेह नहीं हैं.
आपातकाल के अंधेरे में इतिहास के ये दोनों पन्ने खो न जाएं, इसकी सावधानी हमें रखनी है.
1977 के बाद से हम देख रहे हैं कि आपातकाल को 26 जून में महदूद कर दिया गया है. हर साल 26 जून को इसकी आड़ में कांग्रेस पर निशाना साधा जाता है. 2014 के बाद से यह खेल ज्यादा ही वीभत्स व फूहड़ हो चला है. कांग्रेस की इतिहास की समझ ऐसी पैदल है कि वह या तो चुप्पी साध बैठती है या आपातकाल से पहले की एनार्की की तस्वीर खींच कर, आपातकाल का औचित्य बताने लगती है. दोनों ही कांग्रेस की पराजित मनोभूमिका की चुगली खाते हैं. क्या कांग्रेस को याद नहीं है कि इंदिरा गांधी ने भी, राजीव व मनमोहन सिंह ने भी ‘आपातकाल’ को अपनी की तरह क़बूल किया था. आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहने वाले विनोबा भावे ने भी, आपातकाल के बाद अपने साथियों के साथ बैठ कर कहा था कि बाबा से भी कई गलतियां हुई हैं. आप उसे भूल कर आगे बढ़िए !
कांग्रेस के मन में यदि चोर नहीं है तो उसे पूरे विश्वास से, हर बार संघ परिवार के झूठे तेवर का खंडन करना चाहिए और कहना चाहिए कि 50 साल पहले लिया गया वह निर्णय हमारी चूक थी जिससे हम बहुत दूर निकल आए हैं. यह एकदम वैसी ही चूक है जैसी वामपंथियों की गांधी-आंदोलन को साम्राज्यवाद की दलाली बताने व उसे कमजोर करने वाली चूक थी याकि संघ परिवार की आजादी के आंदोलन को लगातार धोखा देने और सांप्रदायिकता को उभार कर सत्ता पाने की चालबाजी थी. ऐसी ही चूक सीपीआई ने की; सर्वोदय के गिनती भर के उन लोगों ने की जिन्होंने विनोबा की आड़ में सत्ता से तालमेल बिठाया. इन सारी बातों को किनारे कर यदि हम आगे चल रहे हैं, तो कांग्रेस को उसकी चूक की याद दिला कर आगे चलने में क्या गलत है? आगे चल रहे हैं इसका मतलब यह नहीं है कि आपके पिछले कारनामों को भूल गए हैं. आपको हर नाजुक परिस्थिति में यह साबित करना होगा कि आप अपनी उस गलती से सीख कर आगे निकल आए हैं. इतिहास ने ऐसे सभी लोगों के कंधों पर यह उधार रख छोड़ा है.
आपातकाल की याद हमें इस तरह करनी चाहिए कि सत्ताएं हमेशा सारी शक्ति अपने हाथ में समेटने की युक्ति खोजती रहती हैं. लोकतंत्र, संविधान आदि नहीं, सत्ता उनकी निष्ठा की पहली व अंतिम कसौटी होती है. इसलिए यह याद रखने की ज़रूरत है कि यदि जयप्रकाश नाम का यह एक आदमी न होता तो 1974 से शुरू हुआ सारा संघर्ष, लोकतंत्र में उजागर हुई लोक की भूमिका, वोट को हथियार की तरह बरतने का तेवर, संपूर्ण क्रांति के संदर्भ में समाज परिवर्तन के आयामों को समझने की दृष्टि, दलों की नहीं, निर्दलीय शक्ति की लोकतांत्रिक भूमिका, एक व्यापक लोकतांत्रिक संघर्ष के मद्देनजर गांधी की सामयिकता, युवाओं की गत्यात्मकता, शांतिमयता से अहिंसा तक की यात्रा आदि-आदि कितने ही अमूल्य मोती जो हमें मिले, नहीं मिले होते. अगर जयप्रकाश नहीं होते तो संसदीय लोकतंत्र की आड़ में मुंह छिपाए बैठी तानाशाही, सत्ता व पूंजी की आपसी साठगांठ व अपरिमित भ्रष्टाचार, निहित स्वार्थों का भयंकर क्रूर व काइयां गंठजोड़, हमारे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे में तथाकथित उच्च जातियों व पुरुष-वर्चस्व आदि को हर स्तर पर वैसी चुनौती नहीं मिलती जिससे बिलबिला कर आपातकाल की तोप दागी गई थी. जो आपातकाल को विपक्ष व इंदिरा गांधी के बीच की रस्साकशी की तरह देखना व समझना चाहते हैं, वे जड़ को भूल कर पत्ते गिन रहे हैं. आराम से वक्त काटने का यह तरीका हमारे तथाकथित बौद्धिकों को रास आता है लेकिन यह अर्थहीन है. इसलिए तो आपातकाल का पहला नतीजा हमने देखा कि यह वर्ग सबसे पहले शरणागत हुआ फिर चाहे व कलमधारी रहा हो कि रंग-ब्रश वाला कि अखबारी कि सभ्यता-संस्कृति का झंडाबरदार ! इन सबके ही सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे न जो प्रतिनिधिमंडल ले कर इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की बधाई देने पहुंचे थे; और इनमें से ही कई थे जो 1977 में जनता पार्टी की सफलता के बाद जयप्रकाश को बधाई देने भी पहुंचे थे.ऐसे लोग लोकतंत्र के लोक के साथ नहीं, तंत्र के साथ रहने में सुख पाते हैं. यदि जयप्रकाश नहीं होते तो 1974 को मुट्ठी भर ऊधमी छात्रों का तमाशा बता कर दबा-बिखरा दिया गया होता, पटना व दिल्ली की सत्ता हमें झांसा देकर, ख़रीद कर, डरा कर सब कुछ डकार गई होती. इतिहास में हमारे हिस्से दो पंक्तियां भी दर्ज नहीं होतीं.
जयप्रकाश ने हमारे छोटे-से, आधे-अधूरे प्रयास को अपनी हथेली पर इस तरह संभाला कि वह विराटतर होता गया और हम आसमान में उतने ऊपर उड़ सके जितना इंसान उड़ सकता है. यह काव्य नहीं है. कभी जयप्रकाश ने विह्वल हो कर बताया था कि कैसे गांधी नाम के उस एक आदमी ने सारे देश की सामूहिक चेतना को झकझोर कर, उसे उस दिशा में सक्रिय कर दिया था जिसे आजादी की दिशा कहते हैं - राष्ट्र की आजादी से ले कर मानव-मात्र की आजादी ! ऐसी संपूर्ण आजादी का अहसास भी तब कहां था ?
एक आदमी ! यहीं पहुंच कर तो जयप्रकाश अपनी आस्था के दर्शन मार्क्सवाद से विलग हुए थे जो एक आदमी की भूमिका को खारिज करता है और व्यक्ति की विशिष्ठ क्षमता व अवदान को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की वेदी पर बलि चढ़ा देता है. अगर भौतिकता की गति से ही सब कुछ निर्धारित होता है, तब व्यक्ति की अपनी भूमिका का, उसके पुरुषार्थ का कोई मतलब बचता ही कहां है ? जयप्रकाश ने ही पूछा था कि अगर ऐसा है तो फिर किसी आदमी के भीतर अच्छाई की प्रेरणा का आधार क्या है ? मार्क्स ने जवाब नहीं दिया, गांधी ने दिया - अपनी शांत किंतु अकंपित आवाज में उन्होंने कहा : इतिहास की गति भी इंसान ही तय करता है. इसलिए इतिहास के सर्जन में, संस्कृति के संस्कार में, समाज की चेतना को आकार देने में व्यक्ति के अभिक्रम की निश्चित व निर्णायक भूमिका है. बस, सावधानी यह रखनी है कि व्यक्ति का सारा अभिक्रम सामाजिक अभिक्रम को उत्प्रेरित करने वाला हो. वह नहीं हो तो व्यक्तिपूजा व एकाधिकारशाही पनपती है; वह हो तो लोक की हैसियत बनती व बढ़ती है.
यही भूमिका तब जयप्रकाश ने निभाई. हमने भी कहां कभी देखा-सुना-पढ़ा याकि अनुभव किया था कि एक आदमी अपने वक्त की हवा बना भी देता है, बदल भी देता है. धर्मवीर भारती ने अंधायुग में इसे पहचानने की कोशिश की थी: भगवान श्रीकृष्ण ने “ विशादग्रस्त अर्जुन से कहा - मैं हूं परात्पर ! / जो कहता हूं करो/ सत्य जीतेगा / मुझसे लो सत्य, मत डरो ! … जब भी कोई मनुष्य / अनासक्त हो कर चुनौती देता है इतिहास को/ उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है /नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित/ उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है.”
अंधायुग जब मैंने जयप्रकाश को एक रेलयात्रा के दौरान पढ़ कर सुनाई. कृष्ण का जैसा रूपाकार भारतीजी ने उभारा है, उससे वे एकदम आर्द्र हो उठे थे. दूसरी सुबह किताब मांग कर, खुद उसे फिर से पढ़ा और फिर किताब मुझे सौंपते हुए स्वत: ही बुदबुदाए … पता नहीं इंसान में ऐसी क्षमता कैसे आती है …
हमने अपनी आंखों देखा और अपने प्राणों उसे जिया कि कैसे एक आदमी के नि:स्वार्थ अभिक्रम से समाज में अनीति व अन्याय के प्रतिकार की क्षमता पैदा होती है. संपूर्ण क्रांति का पूरा दर्शन व उसकी रणनीति जयप्रकाश की निष्कलुष साधना व साहसिक प्रयोग का अभियान था. इसी अभियान के दौरान हमारी समझ में आया कि दलों की जीत-हार से आगे भी कोई लोकतंत्र होता है, और उस लोकतंत्र को साकार करने का काम बड़ा ही पित्तमार है. गांधी अपनी आत्मा का अंतिम सत्व होम कर जिन लोगों तक यह स्वप्न पहुंचा सके, जयप्रकाश उनमें सबसे निराले व आकर्षक थे. इसलिए गांधी ने लिखा भी कि “ मैं जयप्रकाश को हज़म करना चाहता हूं… क्यों कि मैं जानता हूं कि मेरे बाद वह मेरी भाषा बोलेगा.”
1974 से हम जयप्रकाश को खोजने-पहचानने बैठैंगे तो भूल भी करेंगे व विफल भी होंगे. जयप्रकाश ने गांधी की वह भाषा सीखी-समझी ही नहीं, उसे उन्नत व सर्वग्राही भी बनाया. 1974 आते-आते उन्हें यह अहसास हो चला था कि वक्त की छन्नी में उनके लिए बहुत थोड़ी रेत बची है. वह पूरी तरह खाली हो जाए इससे पहले वे अपने समानधर्मा तरुणों को यह अहसास करा देना चाहते थे कि लोकशक्ति लोकतंत्र की मूल शक्ति है जिसे संगठित व सक्रिय करना क्रांति की सही दिशा है.
इतने संदर्भों में जो आपातकाल को नहीं देख व समझ सकेंगे वे किसी दूसरे आपातकाल में डरते-भटकते या फिर किसी की चरणवंदना करते मिलेंगे जैसे आज मिल रहे हैं. हम इनमें शामिल नहीं हैं, यह वह उपलब्धि है जो जयप्रकाश को काम्य थी. ( 17.07.2025)
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