इस बार वह धुर लद्दाख में मिला ! एक वही जगह बाकी थी शायद जहां देशद्रोहियों की पहुंच नहीं थी. लेकिन हम गलती पर थे. वहां भी ये निकल ही आए ! आप देखिए न, कहां-कहां, किस-किस रूप में ये लोग पहुंचे हुए हैं, फैले हुए हैं. यहां वह उपवास की आड़ ले कर बैठा था. वह एक साथ पाकिस्तान, चीन, अमरीका आदि का एजेंट था. हम पहले समझ ही नहीं पाए, क्योंकि हम सहज विश्वासी मन के लोग हैं. लगा शांति की बात करने वाला, उपवास आदि का रास्ता पकड़ने वाला, हमारी राजनीतिक चालबाजी आदि को नहीं समझने वाला एक निरर्थक-सा आदमी है तो उसे करने दो जो करना चाहे. कहां-कहां हम सबको सूंघते फिरें ! आखिर लोकतंत्र भी तो एक रस्म है न कि जिसे भी हमें निभाना पड़ता है. लेकिन अब लगता है कि वे अंग्रेज ही सही थे कि जो उपवास, शांति, अहिंसा आदि का ढोंग समझते थे और गांधी को ज्यादा घास नहीं डालते थे. हमने डाली तो देखिए यह सोनम वांगचुक भी शेर बनने लगा ! अब शेर को उसके जंगल में छोड़ दें तो और खतरा; सो उसे जोधपुर जेल में ला धरा है हमने. अब उसे यहां अपना-सा कुछ भी न मिलेगा — न हवा, न पानी, न लोग, न धरती ! अपनी जमीन से काट दो बड़े-से-बड़ा सूरमा भी चूहा बन जाता है.
यह कहानी है जो पिछले 5-7 दिनों से बेतहाशा लिखी-कही-फैलाई जा रही है. सरकार का आईटी सेल पूरी वफ़ादारी के साथ सोशल मीडिया पर, गोदी मीडिया पर, फोटो मीडिया पर जहां, जो सूझ रहा है वही चेंपे जा रहा है. ‘जी आका’ के उन्माद में वे यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि एक व्यक्ति को एक साथ चीन, अमरीका, पाकिस्तान का एजेंट करार देना आपके ही दिमागी दिवालियापन का प्रमाण है. कोई अमरीकी डीप स्टेट का और चीन की ‘रेड आर्मी’ का काम एक साथ कैसे कर सकता है,यह हमारे अतिशय कुशाग्र विदेशमंत्री जयशंकर के अलावा दूसरा कोई न समझ सकता है, न समझा सकता है.
अब सोनम वांगचुक को बचने-छिपने के लिए कोई जगह नहीं मिलेगी. सत्ता की ऐसी अंधी धमक चला रखी है दिल्ली ने कि कार्यपालिका के जी-हुजूरों की बात कौन करे, दिल्ली अपनी मूल्यविहीन सत्ता-लालसा का सिक्का चलाए रखने के लिए फौज-पुलिस का खुला राजनीतिक इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचक रही है. याद है न कि ऑपरेशन सिंदूर के झूठ को सच बनाने के लिए किस तरह सेना के अधिकारियों का इस्तेमाल किया गया था और किस तरह वायु सेनाध्यक्ष एयर मार्शल ए.पी. सिंह और फिर भारतीय सैन्य सेवा प्रमुख जेनरल अनिल चौधरी ने इनकी पोल खोल दी थी ! इस बार सामने लाए गए हैं लद्दाख के पुलिस महानिदेशक कोई श्रीमान एस.डी.सिंह जामवाल. उनसे कहलवाया जा रहा है कि लद्दाख में हुई हिंसा के प्रेरक-जनक-योजनाकार सोनम वांगचुक थे जिनके तार पाकिस्तान से जुड़े हैं, अमरीकी फंडिंग की ताक़त हैं उनके पास. जामवाल का कहना है कि यदि प्रदर्शनकारियों पर गोली चला कर हमने कुछ लोगों को ढेर नहीं कर दिया होता तो सारा लद्दाख जल कर राख हो जाता. जामवाल ने ही यह रहस्य भी खोला कि उनके 70-80 पुलिसकर्मी घायल पड़े हैं; और यह भी कि उन लोगों को खुफिया जानकारी थी कि वांगचुक व उनके साथी शांति भंग करने की तैयारी कर रहे हैं. वे यह नहीं बताते हैं कि जब उन्हें पता था कि वे ऐसी तैयारी कर रहे हैं तब आप क्या कर रहे थे? निकम्मी सरकार के निकम्मे अधिकारी!
अब हम घटना की तरफ लौटते हैं.
सोनम अनशन पर पांचवीं बार उतरे थे. केंद्र सरकार लद्दाख के नागरिक संगठन को दिया अपना कोई वाद पूरा करने को तैयार नहीं थी. वह लद्दाख जन संगठन से बातचीत करने को भी तैयार नहीं थी. बातचीत की हर बातचीत किसी-न-किसी बहाने भटका दी जा रही थी. गुस्सा व निराशा गहरा रही थी. उसे एक मोड़ दे कर क़ाबू में रखने के लिए और सरकार पर दवाब बढ़ाने के लिए सोनम अनशन पर उतरे. आपको याद है न कि लद्दाख से चल कर सैकड़ों नागरिक कुछ माह पहले ही सोनम के साथ दिल्ली पहुंचे थे. दिल्ली में उन्हें घोर उपेक्षा मिली थी.
यह यात्रा व इससे पहले के सारे अनशन व संवाद के प्रयास इसी कोशिश में थे कि सरकार बातचीत करे, लद्दाख की सुने ताकि वहां का तनाव ढीला पड़े और बात आगे बढ़े. शुरू से ही सोनम वांगचुक की सोच व उनकी पहल इसी दिशा में रही है कि सत्ता से संवाद कर, समस्याओं का रास्ता निकाला जाए. लेकिन यह सरकार भी शुरू से ही लोगों की मांग पर बातचीत करने व लोगों का कहा सुनने को अपनी हेठी समझती रही है. एक खास विचारधारा की सरकार का मिजाज ऐसा होता है. भूमि अधिग्रहण से ले कर किसान आंदोलन, बेरोजगार आंदोलन, शिक्षक आंदोलन, पूर्व सैनिक आंदोलन जैसे अनेक उदाहरण हैं जब यह सरकार सुनने व बातचीत करने में अपनी हेंकड़ी दिखाती रही है. वैसा ही लद्दाख के साथ भी होता रहा.
सोनम व लद्दाख का कहना क्या है ? ठीक वही जो हिमालय का कहना है कि हम लोग प्राकृतिक बनावट व भौगोलिक संरचना में बाकी देश से सर्वथा भिन्न व अत्यंत नाजुक पर्यावरण के वाशिंदे हैं. हमारी जरूरतें अलग हैं, हमारी प्राथमिकताएं अलग हैं. इसलिए दिल्ली की सोच व दिल्ली का मिजाज हम पर थोपिए मत ! हमसे बात कीजिए और हमें जिसकी जितनी जरूरत है, उतना हमें दे कर आप देश का दूसरा काम कीजिए. इतनी सरल-सी, सीधी लोकतांत्रिक आकांक्षा है हिमालय व लद्दाख की. लेकिन कोई राज्य, कोई समाज अपनी आकांक्षा हमसे पूछे बग़ैर तय करे और हमें उसे पूरा करना पड़े, ऐसा लोकतंत्र सरकारों ने पढ़ा कब है ! इसलिए वह अपने एजेंट छोड़ती है ताकि वे हिमालय या लद्दाख में जा कर, अंदमान जा कर वहां के लोगों की एकता को तोड़ें व दिल्ली की घुसपैठ का रास्ता बनाएं. कौन हैं ये एजेंट ? नौकरशाही, पार्टी व पुलिस-फौज. यही खेल सब जगह चलता है.
सोनम शिक्षा से जुड़े सज्जन व्यक्ति रहे हैं. वे बताते हैं कि वे विज्ञान में - ऑप्टिक्स, लाइट, मिरर में डूबे रहने वाले विज्ञान की धरा के युवा थे जिसे पारिवारिक वजहों से अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए बच्चों को पढ़ाने का काम करना पड़ा; और लद्दाखी बच्चों को पढ़ाते हुए उनकी अपनी शिक्षा भी हुई और वे पहचानने लगे कि यह शिक्षा नहीं, भूसा है जो वे और दूसरे सारे शिक्षक बच्चों के दिमाग में भरते जा रहे हैं. इसी अनुभव में से नए सोनम वांगचुक का जन्म हुआ. दुनिया देखी, विदेशी शिक्षण संस्थानों को देखा-समझा और फिेर अपने लद्दाख को अपने बच्चों के लिए बनाने में जुट गए. अपनी संस्था बनाई, विज्ञान की अपनी पढ़ाई व अपनी मौलिकता का इस्तेमाल कर वह बहुत कुछ बनाया जिसकी चर्चा तब भी और अब भी सब तरफ़ होती है. लद्दाख की बर्फानी प्रकृति से जूझते भारतीय फौजियों को देखा तो उनके लिए ऐसे हल्के व आरामदेह टेंट बनाए की फौज धन्य हो गई. लद्दाखी बच्चों के लिए पाठ्यक्रम बनाया, उसके लिए योग्य शिक्षक तैयार किए, वहां के नाज़ुक पर्यावरण के अनुकूल विकास के कितने ही नए ढांचे खड़े किए. देश-दुनिया से तमाम सम्मान व पुरस्कार बरस पड़े, बरसते ही रहे. हर सरकार का स्नेह पाया, हर सरकार के स्नेही रहे. कभी कोई एक उदाहरण भी नहीं खोज पाएंगे आप जब किसी सवाल पर सोनम ने सरकार की मुखालफत की हो. उनकी यह कच्ची समझ यहां तक गई कि जब जम्मू-कश्मीर को तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर, धारा 370 खत्म कर दी गई और पूरा राज्य एक बड़ी जेल में बदल दिया गया, तो उसका सबसे मुखर स्वागत सोनम ने किया. लद्दाख के लिए स्वतंत्र प्रांत की अपनी मांग के रास्ते में वे धारा 370 को सबसे बड़ी बाधा मानते थे. इसलिए वह धारा खत्म की गई तो सोनम ने यह समझा कि अब लद्दाख का रास्ता खुल जाएगा. वे यह सीधी व सच्ची बात नहीं समझ सके कि दूसरे का घर लूटने वाले, पड़ोस का घर नहीं भरते हैं बल्कि उसी पड़ोस को लूटते हैं जिसने पहला घर लूटने में मदद की थी. लद्दाख के साथ यही हुआ.
ऐसी आदमी की संरचना में आप देशद्रोही का एक धागा भी खोज नहीं पाएंगे. 2020 सरकार की चीन से अनचाही तनातनी हो गई तो लद्दाख से पहली आवाज सोनम की ही उठी कि हमें नागरिक स्तर पर भी चीन को हराना है, सो हर नागरिक अपने ‘पर्स का हथियार’ चलाए व चीनी सामान नहीं खरीदने का संकल्प ले ! सोनम को सरकार ने हाथोंहाथ लिया. कितना प्रचार व समर्थन मिला तब सोनम को.
लेकिन बात बिगड़ी तब जब प्रधानमंत्री की लक्ष्मण-रेखा जाने-अनजाने में सोनम ने पार की. यह अपने गुजरात के साबरमती में जिनपिंग को झूला झुलाने व गले लगाने बाद का हादसा है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति को गले लगाने का खेल समझने वाले प्रधानमंत्री को अचानक जिनपिंग ने दिखा दिया कि यहां गला काटने में देर नहीं लगती है. मोदी सरकार डर गई और हर डरे हुए आदमी की तरह उसने इस खतरे को झूठ की चादर से ढकना चाहा. प्रधानमंत्री ने भरी संसद में कहा कि न सीमा पार से कोई आया है, न कोई घुसा था, न कोई घुसा है. प्रधानमंत्री देश की आंख में धूल झोंक रहे थे; लद्दाख में सोनम खुली आंखों से देख रहे थे कि चीन भीतर आ घुसा है, कि लद्दाखी चरवाहों की धरती उसने कब्जा कर ली है, कि जानवरों को चराने की जगह नहीं बची है, लद्दाखी लोगों का अपनी ही धरती पर आना-जाना दूभर हो गया है. उन्होंने यह सच देश को बता दिया.
उस दिन से सोनम सरकार की नजर से गिर गए. उनकी छवि खराब करने का काम चलने लगा. उनकी उपेक्षा होने लगी और यह सावधानी बरती जाने लगी कि उनको कैसी भी, कोई भी सफलता न मिले. यह सरकार हमेशा चौकन्ना रहती है कि कहीं, कोई भी ऐसा व्यक्तित्व न उभर सके कि जो कभी, किसी भी मौके पर सरकार से- प्रधानमंत्री से - सवाल-जवाब की हैसियत में आ जाए. सोनम यह करने लगे थे.
अब लद्दाख को अकेला कर सरकार उसे चुप कराना चाहती है. सोनम उसकी सबसे स्पष्ट व मुखर आवाज थे. उसे उसने ऐसी धारा में पकड़ कर अंदर कर दिया है जिसमें जमानत मिलना आसान नहीं है. जब सर्वोच्च अदालत हर जिम्मेवारी से कंधा झटकने में लगी हो तब तो सोनम का बाहर आना ज्यादा ही मुश्किल है. अब रास्ता एक ही है कि सारा देश लद्दाख की साथ बोले व सोनम की रिहाई की मांग करे. यह सब सोनम के रास्ते से ही हो लेकिन कमजोर या प्राणहीन न हो. हमें खुल कर और बुलंद आवाज में कहना चाहिए कि जब देश में देशद्रोहियों की संख्या इस कदर बढ़ जाए तब लोगों को नहीं, सरकार को पकड़ना चाहिए.
( 29.09.2025)
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