Tuesday, 16 September 2025

एक और जगदीप !

     जगदीप छोकर नहीं रहे ! खबर चुप से गुजर नहीं जाती है, थरथराती हुई, संग चलती रहती है. एक आदमी की मौत में और एक जुनून की मौत में फर्क होता है न ! जगदीप छोकर की मौत ऐसे ही जुनून की मौत है. जिसने दिल लगा कर, दिलोजान से लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली के संरक्षण व सुधार के उपाय सोचे व किए, उसके दिल ने ही अंततः मुंह फेर लिया. दिल गया तो सब गया; हम गए. इसलिए जगदीप छोकर गए. 

नाम और काम की विरूपता को ले कर स्व. काका हाथरसी ने  कई हास्य कविताएं लिखी थीं. लेकिन ऐसा तो उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि एक ही नाम के दो व्यक्ति इतनी विरूपित भूमिकाओं में हो सकते हैं ! मैं ऐसी तुलना की कभी सोचता भी नहीं लेकिन लापता लेडीज’ वाले अंदाज में पूर्व उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कोई 53 दिनों बाद जिस रोज प्रकट हुएउसी रोज जगदीप छोकर विदा हुए. तो मुझे ख्याल आया कि एक ही नाम के दो व्यक्तियों में कितना गहरा फर्क है ! जगदीप छोकर ने जाते-जाते भी  रीढ़विहीन सत्तापिपासा के खिलाफ जैसे अपना बयान दर्ज करा दिया. 

बड़ी-बड़ी कुर्सियों परबड़े-बड़े जुगाड़ से बैठने वाले धनखड़ साहब ने सत्ता के साथ रहने का पूरा सुख जिया और फिर सत्ता की दुलत्ती ऐसी खाई कि किसी ने पानी भी नहीं पूछा. गुमनामी में बिसुरते हुए उन्हें अब यह अहसास हुआ कि बहुत हो चुका उनका एकांतवाससत्ता के दरबारी को इस तरह सत्ता के आभामंडल से लंबे समय तक दूर नहीं रहना चाहिए. सत्ता का शास्त्र कहता है कि यहां नियम ऐसा है कि कुर्सी से हटे तो साया भी साथ छोड़ देता है. इसलिए शाही समारोह में, ‘शाह’ लोगों के बीच वे अचानक प्रकट हुए. सत्ता के गलियारों में बने रहने के लिए दरबार से अच्छी जगह क्या हो सकती हैऔर वहां चहलकदमी करने से अच्छी जुगत क्या हो सकती है !  

जगदीप छोकर दरबार के आदमी नहीं थे. कभी अहमदाबाद के आइआइएम में प्रोफेसर रहे छोकर साहब ने वहां से निवृत्ति के बाद कुछ सहमना लोगों के साथ जुड़ कर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म या एडीआर नाम का संगठन बनाया तो फिर उसी के होकर रह गए. संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की अपनी खास जगह होती है - ऐसी जगह जो न बदली जा सकती हैन चुराई जा सकती हैन छीनी जा सकती हैन उसे किसी की जेब में छोड़ा जा सकता है. ऐसा कुछ भी हुआ तो संभव है कि लोकतंत्र का तंत्र बना रहे लेकिन उसकी आत्मा दम तोड़ देती है. यह बुनियादी बात है. 

जब देश में संसदीय लोकतंत्र आया-ही-आया थासंसदीय प्रणाली से अपने स्तर पर एक किस्म की अरुचि रखने वाले गांधी भी चुनाव की इस भूमिका को समझ रहे थे और इसे ले कर सावधान भी थे.  वे अलग-अलग शब्दों में यह बात कहते रहे कि जैसा संसदीय लोकतंत्र हमने अपने लिए चुना है उसमें चुनाव की मजबूत निगरानी जरूरी होगीक्योंकि यहीं से लोकतंत्र को धोखा देने का प्रारंभ हो सकता है. इसलिए गोली खाने से पहले वाली रातअपने जीवन का जो आखिरी दस्तावेज उन्होंने लिखा ताकि कांग्रेस व देश उस पर विचार करेउसमें दूसरी कई सारी बातों के साथ-साथ यह भी दर्ज किया कि मतदाता सूची में नाम जोड़ने-काटने-हटाने आदि का काम पूर्णतः विकेंद्रित हो व ग्राम-स्तर पर लोकसेवकों द्वारा किया जाए. चुनाव आयोग जैसे किसी भारी-भरकम सफेद हाथी को पालने की बात उन्हें कभी रास नहीं आई. लोकसेवकों द्वारा ग्राम-स्तर पर बनाई मतदाता सूची ही अंतिम व आधिकारिक मानी जाएगी तथा उसी आधार पर चुनाव होंगेकुछ ऐसी कल्पना उनकी थी. गांधी को दरअसल गोली मारी ही इस वजह से गई कि वे लगातार खतरनाक विकल्पों की तरफ देश को ले जाने में लगे थे.

आजादी के बाद और गांधी के बाद लोकतंत्र के संवर्धन की तरफ सबसे ज्यादा ध्यान किसी ने दिया व काम किया तो वे जयप्रकाश नारायण थे. तब थे वे समाजवादी पार्टी के सिरमौर नेता व देश मन-ही-मन उन्हें जवाहरलाल का विकल्प मानता था. लेकिन चुनाव में पराजय के बादउनके ऐसे प्रयासों को पराजित विपक्ष का रुदन भी माना गया. लेकिन बात इससे गहरी थीक्योंकि जयप्रकाश इन सबकी थाह से ज्यादा गहरे थे. इसलिए आज़ादी के बाद पहली बार वे जयप्रकाश ही थे कि जिन्होंने चुनाव सुधार पर सम्यक विचार कर अपनी सिफारिशें देने के लिए एक समिति का गठन किया. यह भी लोकतंत्र के संदर्भ में एक नया ही प्रयोग था कि केवल सरकारी नहींनागरिक समितियां भी बनाई जाएंनागरिकों के भी जांच आयोग गठित किए जाएं. जब हम गुलाम थे तब भी गांधी की पहल से जालियांवालाबाग हत्याकांड की जांच के लिए नागरिक समिति बनी थी जिसके गांधी स्वयं भी सदस्य थे. जयप्रकाश ने ऐसे अनेक आयोगों का गठन किया - प्रशासनिक सुधार पर भीशिक्षा-व्यवस्था पर भीचुनाव सुधार पर भीपंचायती राज पर भी. बाद में तो लोकतंत्र का सवाल उन्होंने इतना अहम बना दिया कि संपूर्ण क्रांति का पूरा एक आंदोलन व दर्शन ही खड़ा कर दिया.

छोकर साहब से इस तरह की बात कई मौकों पर हुई. चुनाव प्रणाली का ऐसा केंद्रीकरण बना रहे और सत्ता उसका दुरुपयोग न करेयह सोचना नादानी भी है और किसी हद तक फलहीन भी. वे दो-एक बार मुझसे उलझे भी फिर यह कह कर बात खत्म की कि मैं नया कुछ बनाने जैसी बात कहने की योग्यता नहीं रखता हूं. मेरी कोशिश तो जो चल रहा है उसमें पैबंद लगाने की ही है. 

यह दर्जीगिरी भी खासे महत्व का उपक्रम है. संसदीय लोकतंत्र को बनाने का काम जितना चुनौतीपूर्ण हैउतना ही चुनौतीपूर्ण है उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने का काम . सत्ता को उतना ही लोकतंत्र चाहिए होता है जितने से उसकी सत्ता सुचारू चलती रहे. लोकतंत्र के चाहकों को विकासशील लोकतंत्र से कम कुछ पचता नहीं है. लोकतंत्र का आसमान लगातार बड़ा करते चलने की जरूरत हैक्योंकि जो नागरिक के पक्ष में विकसित न होता रहेवह लोकतंत्र नहीं है. जगदीप छोकर ऐसे विकासशील लोकतंत्र के सिपाही थे. वे अब नहीं रहे ! लोकतंत्र रहा क्या पुतिन वाला लोकतंत्र भी तो हैया जिनपिंग वाला या फिर नेतान्हू वाला ! मोदी मार्का लोकतंत्र भी तो है ही न जो यूएपीए की बैसाखी लगा कर ही चल पाता है  - वह भी घुटनों के बल ! 

  लोकतंत्र रहेगा क्या यह सवाल व यह चुनौती हमें सौंप कर जहां छोकर साहब गए हैंवहां भी वे लोकतंत्र की लड़ाई ही लड़ते मिलेंगे. ( 14.09.2025)          

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