Friday 5 July 2024

यह जो हमारी संसद है !

 हमारी नई लोकसभा अभी बनी ही है लेकिन चल नहीं पा रही है. चल पाएगी, इसमें शक है. चल कर भी क्या कर पाएगी, कह नहीं सकते. कहावत बहुत पुरानी है जो हर अनुभव के साथ नई होती रहती है कि  पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं. जो पांव दीख रहा है, वह शुभ नहीं है. यदि मैं भूलता नहीं हूं तो कवि विजयदेव नारायण साही ने इस कहावत में एक दूसरी मार्मिक पंक्ति जोड़ दी थी :  पूत के पांव पालने में मत देखो/ वह पिता के फटे जूते पहनने आया है. इस लोकसभा के बारे में यही पंक्ति बार-बार मन में गूंज रही है. 

   जिस पार्टी नेजिन पार्टियों के साथ जोड़ बिठा कर सरकार बनाई हैउन सबको मालूम है कि यह वक्ती व्यवस्था है. कौनपहलेकिसे और कब लंगड़ी मारता हैइसी पर इस लोकसभा का भविष्य टिका हैऔर यह तो सारे संविधानतज्ञ जानते हैं कि लोकसभा के भविष्य पर ही सांसद नाम के निरीह प्राणियों का भविष्य टिका होता है. निरीह इसलिए कह रहा हूं कि पिछले कम-से-कम 10 सालों से हमारे सांसदों का एक ही काम रहा हैजिसे वे बड़ी शिद्दत से निभाते हैं : सरकार ही दी हुई सामने की मेज बजाना या भगवान की दी हुई हथेलियों से तालियां बजाना. प्रधानमंत्री जबजहां कहेंवे अपना काम ईमानदारी से करते हैं. विपक्ष भी ऐसा ही करता है. फर्क है तो बस इतना कि उसके पास कोई प्रधानमंत्री नहीं होता है. इस बार उसके पास एक छाया प्रधानमंत्री’ जरूर है जिसकी छाया कब तककहां तक रहती हैदेखना बाकी है. हम दुआ करते हैं कि अंग्रेजी के शैडो प्राइमिनिस्टर’ का मक्खीमार अनुवाद भले उसे छाया प्रधानमंत्री’ कहेनेता प्रतिपक्ष कभी इस प्रधानमंत्री की छाया न बनें. न उनकी छाया में रहेंन उनको छाया दें. 

   लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव हुआ ही नहींसंख्या बल से उसे लोकसभा पर थोप दिया गया. विपक्ष ने अपनी तरफ से भी एक उम्मीदवार का नाम आगे बढ़ाया जरूर था जिसे ऐन वक्त पर पीछे  खींच लिया गया. जब ऐसा ही करना था तब उसकी घोषणा करने की जरूरत ही क्या थी कांग्रेस ने बाद में तर्क दिया कि हम सहयोग व सद्भावना का माहौल बनाना चाहते थेइसलिए चुनाव टाल गए. भाईजो आपके बीच कहीं है ही नहींवह आप बनाना ही क्यों चाहते थेऔर जो है ही नहींवही बनाना था तो अपना उम्मीदवार आगे ही क्यों करना था प्रतिबद्धताविहीन ऐसे निर्णय दूसरों को मजबूत बनाते हैं और आपकी किरकिरी करवाते हैं. 

   ओम बिरला को दोबारा लोकसभा का अध्यक्ष बनाने के पीछे प्रधानमंत्री का एक ही मकसद थाव है : विपक्ष को अंतिम हद तक अपमानित करना ! बिरला कभी इस पद के योग्य नहीं थेआज भी नहीं हैं. विद्वताकार्यकुशलताव्यवहार कुशलतावाकपटुता तथा सदन में गरिमामय माहौल बनाए रखने जैसे किसी भी गुण से उनका नाता नहीं रहा हैयह हमने पिछले पांच सालों में देखा है. पता नहीं विपक्ष ने उनका इतना स्वागत व गुणगान क्यों किया ! वह सब जो किया गया वह बहुत खोखला था और जो खोखला होता है वह जल्दी ही टूट व बिखर जाता है. वही अब हो रहा है. 

   बिरलाजी का यह गुण जरूर हम जानते हैं कि वे प्रधानमंत्री की धुन पर सतत नाचते रह सकते हैं. लेकिन यह गुण तो सारे सरकारी सांसदों में है. आप प्रसाद’ से त्रिवेदी’ तक किसी की भी परीक्षा ले कर देख सकते हैं. लेकिन ओम बिरला ने पिछली संसद में जिस तरह विपक्ष को तिरस्कृत व अपमानित किया थाउसे ही दोहराने के लिए इस बार भी उन्हें ही प्रधानमंत्री ने आगे किया है ताकि विपक्ष व देश समझे कि कहींकुछ भी बदला नहीं है. इसलिए नई लोकसभा के पहले ही दिन वे अपने पुराने अवतार में दिखाई दिए. जिस असभ्यता से उन्होंने दीपेंद्र हुड्डा को अपमानित कियाशशि थरूर के जय संविधान’ कहने से तिलमिलाएविपक्ष के सांसदों को कब उठना-कब बैठना सिखाने की फब्ती कसी वह सब यह समझने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें क्या करने का निर्देश हुआ है. 

   राहुल गांधी ने जब यह कहा कि उनका माइक बंद क्यों किया गया हैतो अध्यक्ष का जवाब आया कि मैंने पहले भी यह व्यवस्था दी हैऔर आपको फिर से कहता हूं कि मेरे पास माइक का कोई बटन नहीं है. अध्यक्ष का बटन कहां हैयह तो सभी जानते हैं  लेकिन अभी जवाब तो यह आना था न कि माइक बंद कैसे हुआ और किसने किया ?  क्या अध्यक्ष की जानकारी व अनुमति के बगैर ही कोईकहीं से बैठ कर लोकसभा की काररवाई में दखल दे रहा है लोकसभा न हुईईवीएम मशीन हो गई ! अगर ऐसा है तो अध्यक्ष चाहिए ही क्यों जो अनदेखा- अनजाना आदमी बटन बंद कर सकता हैवही लोकसभा चला भी सकता है. इंडिया गठबंधन को तब तक न लोकसभा जाना चाहिएन राज्यसभा जब तक कि यह बता न दिया जाए कि माइक बंद किसने किया थाकिसकी अनुमति या निर्देश से किया था और यह भी व्यवस्था बना दी जाए कि सांसदों को बोलने से रोका तो जा सकता हैमाइक बंद नहीं किया जा सकता है. यह सांसदों का अपमान व तिरस्कार है जिसे किसी भी हाल में परंपरा में बदलने नहीं देना चाहिए. 

   परंपरा की बात है तो यह समझना जरूरी है कि विपक्ष के नेता की भी परंपराएं हैं.  इस अध्यक्ष को न वे परंपराएं पता हैंन विपक्ष के नेता का मतलब इसे मालूम है. जिस सांसदों का जन्म ही 10 साल पहले हुआ हैउनकी यह त्रासदी स्वाभाविक है. उनकी तो आंखें जब से खुली हैं तब से उन्होंने यही देखा-जाना है कि लोकसभा का मतलब एक ही आदमी होता है. भाईयह एकदम सच नहीं है. जैसे यह परंपरा है कि अध्यक्ष जब खड़ा हो जाए तो सभी सांसदों को बैठ जाना चाहिएप्रधानमंत्री जब बोल रहा हो तब सांसदों को शांति से उसे सुनना चाहिएवैसी ही परंपरा यह भी है कि विपक्ष का नेता जब बोल रहा हो तब उसे अध्यक्ष द्वारा बार-बार टोकनाबार-बार समय का भान करानाक्या बोलेंक्या न बोलें आदि का निर्देश देना गलत हैअशिष्टता हैलोकतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन है. आखिर परंपराएं बनती कैसे हैं और उन्हें ताकत कहां से मिलती है परंपराएं कानूनी प्रावधानों से भी अधिक मान्य क्यों होती हैं सिर्फ इसलिए कि कोई भी उन्हें तोड़ता नहीं है. संविधान प्रदत्त शक्तिवान भी उनका शालीनता से पालन करउसे और अधिक मजबूत व काम्य बनाते हैं. राष्ट्रगान चल रहा हो तब राष्ट्रपति के सामने से धड़फड़ाते हुए निकल कर अपनी कुर्सी पकड़ने वाला लोकसभा अध्यक्ष हो कि राष्ट्रपति प्रवेश करें तब भी अपनी कुर्सी पर बैठा रहने वाला प्रधानमंत्री होये सब परंपराओं को ठेस पहुंचाती हैं. निश्चित अवधि में समय निकाल कर प्रधानमंत्री का राष्ट्रपति से मिलना व उन्हें देश-दुनिया के बारे में सरकारी रवैये की जानकारी देना भी एक स्वस्थ परंपरा है जिसका पालन सिरे से बंद है. वैसे यह बात भी अपनी जगह है ही कि राष्ट्रपति जब व्यक्तित्वहीन कठपुतली की भूमिका से संतुष्ट कुर्सी पर बैठा हो तब ऐसी परंपरा कोई निभाए भी क्यों ?   

   यह लंगड़ी व पतनशील गठबंधनों की संसद है जो जब तक रहेगीराष्ट्र व लोकतंत्र को शर्मसार करती रहेगी. विपक्ष के नेता व संपूर्ण विपक्ष को लगातार यह दबाव बनाए रखना चाहिए कि यह संसद सुधरे या टूटे ! 

   अंधभक्त अपनी फिक्र आप करें लेकिन हम-आप तो सोचें कि ऐसा क्यों है कि सत्तापक्ष के सारे शब्द इतने खोखले लगते हैं शिक्षामंत्री ठीक ही तो कह रहे थे कि नीट’ के बारे में हम विपक्ष के सारे सवालों का जवाब देने को तैयार हैं. वे कह तो रहे थे लेकिन उनके हाव-भाव व तेवर यह कहते सुनाई यह दे रहे थे कि कर लो जो करना होहम कोई चर्चा नहीं करेंगे. ऐसा इसलिए था कि इसी मंत्री नेइसी नीट’ के बारे में लगातार यही कहा था कि न कोई लीक हुआ हैन कोई घोटाला हुआ हैसब विपक्ष का कराया हुआ है. न कोई घुसा थान कोई घुसा है”, वाला प्रधानमंत्री का बयान इसी तरह चीन में कुछ दूसरा ही सुनाई दियाऔर वे हमारी सीमा के भीतर ज्यादा खुल कर अपना काम करने लगे. यह वह संसद है जिसके शब्दों का कोई मोल ही नहीं रह गया है. शेरो-शायरी भी हो रही हैकहावतें भी दोहराई जा रही हैंप्रधानमंत्री बड़े-बड़े विचारकों-दार्शनिकों के उद्धरण भी ला-ला कर पढ़ते हैं लेकिन सब-के-सब इतने प्रभावहीन क्यों हो जाते हैं इसलिए कि उनके पीछे विश्वसनीयता का बल नहीं है. आस्थाहीन प्रवचन आत्माहीन कंकाल की तरह होता है. 

   राहुल गांधी चाहें न चाहेंवे कसौटी पर हैं. कभी रहा होगा लेकिन आज नेता विपक्ष शोभा का पद नहीं है. आज यह पद विकल्प खड़ा करने की चुनौती का पद है. विपक्ष को वक्त की सीधी चुनौती यह है कि क्या पंडित जवाहरलाल के दौर वाली संसद वापस लाने की कूवत उसमें है नेहरू वाली संसद इसलिए कह रहा हूं कि हमने वहीं से अपना सफर शुरू किया था और लगातार फिसलते हुए यहां आ पहुंचे हैं. तो कैसे कहूं कि उस दौर से भी बेहतर संसद बनानी चाहिए ! पहले  वहां तक तो पहुंचोजहां से गिरे थेफिर उससे ऊपर उठने की बात करेंगे.  

   राहुल गांधी व इंडिया गठबंधन ने संविधान की किताब दिखा-दिखा कर प्रधानमंत्री को जिस तरह चुनाव में पीटाउसकी काट उन्होंने यह निकाली कि लोकसभा अध्यक्ष को मोहरा बना कर आपातकाल की निंदा का प्रस्ताव पारित करवाया. यह उस घटिया विज्ञापन की तरह था कि “ उसकी कमीज मुझसे सफेद कैसे ?” लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि कांग्रेस को इससे बौखलाने की क्या जरूरत थी कोई 50 साल पहले हुई चूकजिसे इंदिरा गांधी नेकांग्रेस अध्यक्ष ने कई बार सार्वजनिक रूप स्वीकार किया हैउसे ले कर कांग्रेस अब क्यों बिलबिलाती है वह इतिहास की बात हो गई. उसके बाद से कांग्रेस ने संविधान से वैसा कोई खेल खेलने की कोशिश तो की नहीं है. यह भी याद रखना चाहिए कि जनता पार्टी की अल्पजीवी सरकार ने 1977 में ऐसी संवैधानिक व्यवस्था खड़ी भी कर दी है कि किसी सरकार के लिए आपातकाल लगाना असंभव-सा है. फिर आपातकाल का जिक्र आने पर इतना मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. एक गलती हुई जिससे हम दूर निकल आए हैंकांग्रेस यह क्यों नहीं कहती है 

   इतिहास का जवाब देना हो तो संघ परिवार को देना है कि जिस संविधान में इसकी कभी आस्था नहीं रहीजिस तिरंगे को इसने कभी स्वीकार नहीं कियाजिस राष्ट्रगान को इसने कभी माना नहींजिस राष्ट्रपिता को इसने कभी मान नहीं दियाजिस भारतीय समाज की संरचना को यह हमेशा तोड़ने में लगी रहीउसी की आड़ में यह सत्ता में आ कर बैठी हैतो इसमें कैसी नैतिकता व ईमानदारी है कांग्रेस की तरह यह सरकार नहीं कह सकती है कि 50 साल पहले हमारे तब के नेतृत्व से एक चूक हुई थी. यह तो आज भी उसी सावरकरी एजेंडा को मानती हैऔर उसी को लागू करने का मौका ढूंढ़ती रहती है. इस कठघरे में विपक्ष सरकार को खड़ा कर सकेगा तभी अपनी भूमिका निभा सकेगा.  (01.07.2024)

1 comment:

  1. एकदम अंत में जो बातें आपने रखीं हैं मुद्दा वही है,विपक्ष को उसे उठाना ही चाहिए।

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