Saturday 29 June 2024

यह चुप्पी टूटनी चाहिए

जिसे जनता ने बहुमत नहीं दियाउसने अपनी सरकार बना लीजिसे देश ने स्वीकार नहीं किया वह देश को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने के बहाने इटली घूम आया ताकि दुनिया को बता सके कि मैं वहीं हूंजहां था. रात-दिन वही पिछला माहौल बनाने में सारी सरकारी मशीनरी झोंकी जा रही जो माहौल अब कहीं बचा नहीं है. देश ने जिस गोदी मीडिया’ को गोद से उतार दिया हैवह अपने लिए फेयर एंड लवली’ खोजतानई जोड़-तोड़ में लग गया है. कितना शर्मनाक है यह देखना कि कल तक यानी 3 जून की रात तक हर संभव हथियार से स्वतंत्र मीडिया की हत्या करने में जो जुटे थेप्रधानमंत्री की खैरख्वाही में लोटपोट हुए जा रहे थेवे ही मीडिया-व्यापारी 4 जून की शाम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतंत्र की नींव बताते हुए पता नहीं किसेक्यों संबोधित कर रहे हैं. अवसरवादिता आप गिरगिट से सीखेंगे कि गिरगिट आपसेयह  समझना कठिन है. 

जिन्हें याद होगा उन्हें याद होगा कि ऐसा ही लिजलिजा माहौल 1977 के आम चुनाव के बाद भी बना था. कायर व स्वार्थी लोग तब भी बहादुरी का तमगा धारण कर सबसे पहले सड़क पर उतरे थे. जिन्हें लोगों ने इस तरह खारिज कर दिया था जिस तरह देश के लोकतांत्रिक इतिहास में कभीकिसी को खारिज नहीं किया था फिर भी लगातार यह तिकड़म की जा रही थी कि इस अस्वीकृति को कैसे स्वीकृति का जामा पहनाया जाए. जो तब कांग्रेस ने और इंदिरा गांधी ने किया थावही सब आज भारतीय जनता पार्टी व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. तब इमर्जेंसी घोषित की गई थीआज अघोषित इमर्जेंसी से देश जूझ रहा है. इतिहास बताता है कि जो कायर थेवे कायर ही रहेंगे.

ऐसे माहौल में आज देश में कोई जयप्रकाश नहीं हैं. वह नैतिक अंकुश नहीं है जो पक्ष-विपक्ष दोनों को उनकी मर्यादा बताए भी और उसे लागू करने के हालात पैदा भी करे. 1977 में इंदिरा गांधी को हटा कर जयप्रकाश ने जिस सरकार को दिल्ली सौंपी थीउस सरकार को पहले दिन ही यह भी बता दिया था कि सिर्फ 1 साल का समय है आपके पास : “ इस 1 साल में मैं कुछ बोलूंगा नहींआप अपना काम करिएलेकिन आप मेरी गहरी निगरानी में हैंयह कभी भूलिएगा नहीं. एक साल बाद मैं आपका मूल्यांकन भी करूंगा और आगे का रास्ता भी बताऊंगा.” 

जिन्हें पता था वे समझ रहे थे कि यही वह भूमिका थी जिसकी जमीन बनाने में30 जनवरी 1948 को गोली खाने से पहले तक गांधी लगे थे. इतिहास इस तरह भी खुद को दोहराता है. हिंदुत्ववादियों ने गांधी को वह करने का मौका नहीं दियाजयप्रकाश किसी हद तक वह काम कर पाए. 

 1977 की पराजय के बाद जयप्रकाश बिना बुलाए इंदिरा गांधी के घर पहुंचे थे और उन्हें प्यार से समझाया था कि हार-जीत लोकतंत्र के खेल का हिस्सा है. लेकिन लोगों की सच्ची सेवा कर तुम अपना पुराना मुकाम फिर से हासिल कर सकती हो. वैसा ही हुआ. दूसरी तरफ जनता पार्टी के एक साल के कामकाज काएक शब्द में जयप्रकाश का मूल्यांकन था : निराशाजनक ! उन्होंने जनता पार्टी के तब के अध्यक्ष चंद्रशेखर व तब के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को एक खुला पत्र लिखा जिसका लब्बोलुआब यह था कि देश में उभरा आशा का ज्वारआप सबके करतबों से निराशा के भाटे में बदलने लगा है. उन्होंने मोरारजी देसाई को यह भी लिखा था कि उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली कर देनी चाहिए ताकि कोई दूसरा उपयुक्त व्यक्ति सामने लाया जा सके. जयप्रकाश इससे आगे बात  नहीं ले जा सके. मौत की लक्ष्मण-रेखा कौन पार कर सका है !

1977 का अनुभव बताता है और आज 2024 का माहौल भी यही बता रहा है कि जो भी सरकारजैसे भी बनी हैउस पर पहले दिन से ही नजर रखने तथा उसके बेजा इरादों पर अंकुश लगाने की जरूरत है. यह अंकुश सदन के भीतर भी लगे तथा सदन के बाहर भी तभी इस अंधी गली को पार करना संभव होगा.

दिल्ली के बला के असम्मानित लेफ्टिनेंट गवर्नर वी.के.सक्सेना की अनुमति से अरुंधति राय एवं कश्मीरी प्रो. डॉ. शेख शौकत हुसैन पर यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है. इन दोनों पर आरोप है कि 2010 में इन दोनों ने कश्मीर से सवाल पर एक उत्तेजक भाषण दिया था. 2010 के उत्तेजक भाषण से यह सरकार आज तक इतनी उत्तेजित है तो यह जरूरी है कि उसे जितनी तरह से व जितनी ऊंची आवाज में संभव होयह बताया जाए कि यह अब चलेगा नहीं. उसे समझना ही होगा कि वक्त उसके हाथ से निकल गया है. लोकतंत्र का खेल लोकतंत्र की मर्यादा से ही खेला जाएगा. 

मैं अपनी कहूं तो मैं अरुंधति राय के अंग्रेजी लेखन व उनकी भाषा का कायल हूं लेकिन उनकी बातों व स्थापनाअों से मुझे हमेशा ही परेशानी होती है. उनमें कच्चापन भी हैअधकचरापन भी और गैर-जिम्मेवारी भी. लेकिन अरुंधति को किसी मुकदमे में फंसाने का मैं सख्त विरोध करता हूं. उन्हें पूरा हक है कि वे अपनी राय बनाएंउसे जाहिर करें तथा उसे देश में प्रचारित भी करें. ऐसा करते हुए उन पर भी यह संवैधानिक बंदिश है कि वे देश की एकता-अखंडता को कमजोर न करें. अगर सरकार को ऐसा लगता है कि अरुंधति ने यह मर्यादा तोड़ी है तो उसके पास भी अदालत का रास्ता खुला है. वह चोर दरवाजे से अरुंधति पर वार करेयह किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए. पिछले 10 सालों में पनपाई गई यह राजनीतिक संस्कृति न सभ्य हैन लोकतांत्रिक. 

हमें अदालत से बार-बार पूछना चाहिए कि वह संविधान का संरक्षण करने का काम कैसे कर रही है जबकि यूएपीए जैसा कानून संसद ने बना दिया और उसे अदालती समीक्षा के दायरे से बाहर भी कर दिया संविधान कहता है कि देश में संसद ही एकमात्र संवैधानिक संरचना है जिसे कानून बनाने का अधिकार है. वही संविधानउतने ही स्पष्ट शब्दों में यह भी कहता है कि संसद द्वारा बनाए हर कानून की वैधता जांचने का अधिकार जिस एकमात्र संवैधानिक संरचना को है वह है न्यायपालिका. न संसद को अधिकार है कि वह न्यायपालिका का अधिकार छीनेन न्यायपालिका को अधिकार है कि वह संसद के अधिकार पर बंदिश लगाए. फिर न्यायालय देश को बताए कि यूएपीए जैसा कानून उसने कैसे संवैधानिक मान लिया है कितने ही आला लोग इस कानून के तहत सालों से जेलों में बंद हैं. उन्हें दोषमुक्त करना तो दूरउन्हें अदालतें जमानत देने से भी इंकार कर रही हैं. जमानत अदालती कृपा नहीं हैहर नागरिक का अधिकार है बशर्ते कि जमानत के कारण किसी के जीवन पर या राष्ट्र की सुरक्षा पर खतरा न हो. अदालत हमें बताए कि विभिन्न विश्वासों के कारण जिन लोगों को जेलों में बंद रखा गया है उनमें से कौन है जो जेल से बाहर आने पर किसी की हत्या कर देगा या राष्ट्र के खिलाफ षड्यंत्र रचेगा या तो अदालत इस बारे में देश को विश्वास में ले या फिर संविधान के संरक्षण की जिम्मेवारी से अपना हाथ खींच ले. हम इस सफेद हाथी का बोझ क्यों ढोएं यदि यह न चल पाता हैन बोल पाता है ?

यूसुफ पठान क्रिकेट के बहुत आला खिलाड़ी नहीं रहे हैं. अब तो उनका वह खेल भी समाप्त हो चुका है. पता नहींममता बनर्जी ने क्यों यूसुफ पठान को राजनीति में उतारा और यूसुफ पठान ने क्यों राजनीति में उतरना कबूल किया ! राजनीति का यह खेल न तो बहुत सम्मानजनक हैन बहुत अहम. लेकिन बहुत सारे लोग यह खेल खूब खेल रहे हैं तो ममता बनर्जी व यूसुफ पठान को भी यह खेलने का अधिकार तो है ही. तो यूसुफ पठान ने वह खेल खेला और चुनाव जीत कर अब वे सांसद भी बन गए हैं. वडोदरा में रहने वाले इस मुस्लिम-परिवार काबंगाल से भाजपा को हरा कर संसद में पहुंचना संघ परिवार को रास नहीं आया. उनका छूंछा क्रोध फूटा यूसुफ पठान और वडोदरा के उनके घर पर. गुजरात संघ परिवार की घोषित प्रयोगशाला है. वहां से यूसुफ पठान जैसा विभीषण पैदा हो तो संघ-परिवारी उन्माद में आ गए और उनके घर पर पत्थरबाजी हुईयूसुफ पठान को धमकाते हुएउन्हें उनकी औकात बताई गई. यह तो उनका काम हुआ लेकिन इस मामले में राजनीतिक दलों तथा समाज के सभी तबकों में जैसी चुप्पी छाई रही हैवह शर्मनाक भी है और खतरनाक भी ! कोई यह बताना चाह रहा है कि चुनाव का नतीजा भले जैसा भी रहा होहमारी हैसियत में कोई फर्क नहीं आया है. मुसलमान आज भी हमारे निशाने पर हैं. तो यह चुपचाप पी जाने वाला मामला नहीं है. इंडिया गठबंधन को और भारतीय समाज को हर स्तर पर इसकी भर्त्सना करनी चाहिए तथा यूसुफ पठान किस राजनीतिक दल से जुड़े हैंइसका ख्याल किए बगैर उनके साथ खड़ा होना चाहिए. 

चुप्पी लोकतंत्र को कायर व गूंगा बनाती है. यह चुप्पी हर वक्त और हर मामले में टूटनी चाहिएतोड़ी जानी चाहिए. ( 27.06.2024)

4 comments:

  1. Ekdam sahi Kahan aapney. Arundhuti Roy key saath sahmati ho na ho, unki likhney ki ajadi ko chinna bhoyankar hain. Yusuf Pathan Paschimbanga mein kafi challenge ley kar jitey hain, karon kuch bhi ho. Lekin abhi Jo unkey sath horahey iska strong protest hona joruri, kiun ki ab sidhey sidhey samprodayikta par aa gaye.

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  2. आज गांधी और जय प्रकाश नहीं है,
    लेकिन कुमार प्रशान्त जैसे
    लोग
    हमारे बीच
    है यही बहुत बड़ी राहत
    है
    बहुत तथ्यात्मक सटीक
    आकलन और विष्लेषण

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  3. घायल प्राणी और अधिक बलशाली होने का प्रयास करता है परंतु वह भीतर से डरा हुआ होता है । कुछ ऐसी ही स्थिति सत्ता पक्ष के लोगों की हो रही है।
    आप के लेखन, कथन और बातचीत से हमेशा ही बल मिलता रहा है।
    शुक्रिया !
    रीता

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  4. अंजुम आमिर खान1 July 2024 at 09:05

    इससे पहले भी कई ऐसे मामले रहे हैं, जैसे नूंह का मामला, जिस पर बड़े राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने पूरी तरह चुप्पी साधी। अब चुनाव के बाद कुछ खास बदलाव हो जाएगा, हमें ऐसी उम्मीद किससे है ?!!

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