Wednesday 15 November 2023

कबीर दास की उल्टी वाणी

 चुनावी बुखार ऐसा ही होता है ! आप हमेशा ही सन्निपात में होते हैं. फिर आपको अहसास ही नहीं होता है कि आप जो कह रहे हैं वह कहने लायक है या नहीं; और यह भी कि आप जिनका गर्व से, अपनी उपलब्धि बना कर बखान कर रहे हैं, वह गर्व करने जैसी उपलब्धि है भी या नहीं ! चुनावी बुखार ऐसा ही होता है जिसका मरीज, बकौल विनोबा भावे, तीन ही बात बकता है : आत्मस्तुति, परनिंदा, मिथ्या-भाषण ! इन दिनों इनकी पराकाष्ठा हुई जा रही है. और आजकल के चलन के मुताबिक प्रधानमंत्री ही इन सबके सिरमौर हैं. 

अयोध्या मेंसरयू नदी के तट पर एक ही दिनएक ही वक्त में 22 लाख दीपों को प्रज्ज्वलित किया गया ! क्यों यह थी हिंदुओं की ताकत की घोषणा व वोटों को कमल का रास्ता दिखाने की प्रधानमंत्री की योजना ! इसके तुरंत बाद हमने देखा कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व राज्यपाल गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड के किसी अधिकारी से यह प्रमाण-पत्र ले रहे हैं कि यह एक साथ सबसे अधिक दीप जलाने का विश्व कीर्तिमान हुआ ! यह सब सन्निपात का जीता-जागता उदाहरण है. 

22 लाख दीपों से पता क्या-क्या चला पहली बात तो यही पता चली कि ये 22 लाख दीप सरकारी थे. इनमें सरकारी तेल इनमें भरा गया था और जिनकी भी ड्यूटी लगाई गई होगीउन सबने इसे जलाया था. इन दीपों के पीछे अयोध्या के लोग नहीं थे. अगर लोगों की स्वस्फूर्त भागीदारी से ये दीप जुड़े व जले होते तो मुख्यमंत्री-राज्यपाल इसका प्रमाण-पत्र लेने क्यों अवतरित होते तो मिथ्याचार का पहला बैलून तो यही फूटा ! गिनीज वाले ऐसे व्यापारी हैं जो लोगों की सनक व बहक का व्यापार करते हैं. सरकार का मुखिया जब उनसे प्रमाणपत्र लेने की कतार में खड़ा हो जाता है तब समझ में आता है कि सरकार कैसी हैउसकी प्राथमिकताएं कैसी हैं. मुख्यमंत्री की समझ का यह दूसरा बैलून फूटा ! गिनीज वालों को बुलडोजर से सबसे ज्यादा घर गिराने वाली सरकारों की प्रतियोगिता करवानी चाहिए. इस श्रेणी में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जरूर आला साबित होंगे. जब तक आपका घर बुलडोजर के सामने न हो तब तक इस अपराध की नृसंशता आपकी समझ में नहीं आएगी.  

जो अंधभक्ति का रोगी न हो व जिसकी दिमागी हालत ठीक हो वह तुरंत पूछेगा कि 22 लाख दीपों में कितना तेल जला होगा उनसे कितना प्रदूषण फैला होगा 22 लाख दीपों का कितना कचरा सड़कों पर जमा हुआ होगा उन्हें अयोध्या में कहां दफनाया जाएगा आज सारी दुनिया जिन संकटों से घिरती जा रही हैये 22 लाख दीप उन्हें और भी गहरा करेंगे. ये रोशनी वाली दीपों की दीपावली नहींमूढ़ता का अंधेरा फैलाने वाली सरकारी योजना थी. पराली जलाने वाले किसानों पर दिल्ली के प्रदूषण का ठीकरा फोड़ने वालों को यह समझना चाहिए कि 22 लाख दीपों ने उससे कई गुना ज्यादा जहर पर्यावरण में फैलाया है.  

हमें इन 22 लाख दीपों के बगल में मुंबई का यह चेहरा रख कर समझना चाहिए कि वहां कैसी आपात स्थिति में विशेष मार्शलों की नियुक्ति करनी पड़ रही है ये मार्शल मुंबई की सड़कों पर उतर कर रात-दिन इसकी निगरानी करेंगे कि कौन-कहां सड़कों पर गंदा बिखेर रहा हैकौन-कहां कूड़ा जला रहा हैऔर कौन-कहां सड़कों पर गंदगी फेंक रहा है. इन मार्शलों को यह अधिकार दिया गया है कि वे कानूनी निर्देशों का उल्लंघन करने वालों को वहीं-के-वहीं दंडित कर सकेंगे. मुंबई कूड़े के एक बड़े ढेर में बदलती जा रही है जिसे हिंदुत्ववादी मनमानी ने और भी बदसूरत बना दिया है. देश की राजनीतिक राजधानी भी और औद्योगिक राजधानी भी डेथ बाई ब्रेथ’ - सांस में छिपी मौत - जैसे संकट से गुजर रही है. एक स्थान परएक साथ जले 22 लाख दीपों ने मौत का सघन आयोजन ही किया हैभक्ति का विवेक नहीं जगाया है. 

हमें यह समझना ही चाहिए कि दीप जलानापटाखे फोड़नाआरती करनाढोल बजानाअजान देनासार्वजनिक तौर पर नमाज पढ़नानए साल का जश्न मनानाविभिन्न झांकियां निकालना आदि सारे आयोजन जब तक सीमित संख्या मेंनिजी विश्वासों की अभिव्यक्ति के तौर पर मनाए जाते थेसमाज में घुल जाते थे. जैसे-जैसे इनकी संख्या विशालतर होती गईइन्हें राजनीतिक हथियार की तरह आयोजित करवाया जाने लगानिजी आस्था की जगह यह भीड़ के उन्माद में बदलने लगी वैसे-वैसे यह असामाजिक होती गई. जैसे प्रकृति को आप अवकाश देते हैं - याद कीजिएकरोना के दौरान की बंदी - तो वह प्रदूषण का इलाज अपने आप कर लेती है. जब आप उसे सांस खींचने का मौका भी नहीं देते हैंतो उसका भीऔर समाज का दम भी घुट जाता है. इसलिए इन सारे सवालों को धार्मिक संकीर्णता के चश्मे से नहींहमारी आधुनिक जीवन-शैली व धार्मिक संकीर्णता से पैदा संकट के रूप में देखना चाहिए और उसका हल खोजना चाहिए. दीप में उन्माद का तेल जलाने सेविवेक का दीपक नहीं जलता है. 

संकट यह है कि इसमें कोई किसी से बेहतर बनना नहीं चाहता है. सभी दूसरे से बढ़ कर पतनशील होने में लगे हैं. राममंदिर की पूरी ठेकेदारी भाजपा ने खुद के लिए घोषित कर रखी है तो कांग्रेस को बड़ी मुश्किल हो रही है. अगर राम पूरे-के-पूरे भाजपा के खेमे में चले गए तो वोट का क्या होगाइसकी चिंता उसे खाए जा रही है. मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का कांग्रेसी चेहरा चीखता है: याद करो कि रामलला का ताला किसने खुलवाया था ! बताओ वहां पूजा-अर्चना की अनुमति किसने दिलवाई थी वह चीख-चीख कर बता रहा है उसने भी दूसरे कई मंदिर बनवाए हैं - भव्य व विराट मंदिरों के निर्माण का काम आज भी चल रहा है. तोहोड़ यह है कि हिंदू केवल आप नहींहम भी हैं. विदेशी हिंदुओं को नैतिक शक्ति देने इन दिनों अमरीका गए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रधान मोहन भागवत यह घोषणा काफी पहले कर चुके हैं कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू हैं. सभी हिंदू हैं तो सभी से एक-सा व्यवहार क्यों नहीं हो रहा है भागवतजी 

एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री ने बड़े गर्व से घोषणा की कि देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन की जिस सुविधा का अंत अभी होने जा रहा थाउसे मैं 5 साल के लिए आगे बढ़ाने की घोषणा करता हूं. ऐसी घोषणाएं तो राजा-महाराजा करते थेलोकतंत्र में ऐसी घोषणा कोई प्रधानमंत्री तभी कर सकता है जब इसकी चर्चा व इसकी स्वीकृति मंत्रिपरिषद में हो चुकी हो. यदि संसद चल रही हो तो इसकी चर्चा संसद में होनी चाहिए. लेकिन यहां आलम तो यह है कि न मंत्रियों को न अपनीन अपने मंत्रालयों की हैसियत से सरोकार हैन मंत्रिपरिषद का कोई वैधानिक मतलब रहने दिया गया है. सारी व्यवस्था हुआं-हुआं करने वाले सियारों के झुंड में बदल दी गई है. लेकिन सियार कितना भी हुआं-हुआं करेंप्रधानमंत्री की एक इस राज-घोषणा ने उनके 9 वर्षों को खोखला करसड़क पर खड़ा कर दिया है. 

पिछले 9 सालों से विकास के जो तमाम दावे चीख-चीख कर किए जा रहे हैंआंकड़ों की बमबारीसबसे तेज अर्थ-व्यवस्था का नाराखरबों की अर्थ-व्यवस्था का आसमान छूने की घोषणासारी दुनिया को राह दिखाने का दमसंसार के हर कोने को छू आने की बाजीगरीक्या वह इन 80 करोड़ भारतीयों को छोड़ कर किया जाने वाला कारनामा है 80 करोड़ लोग यदि इतने विपन्न हैं कि मुफ़्त सरकारी अनाज ही उनका पेट भर सकता है तो इससे दो बातें साबित होती हैं. भारतीय ऐसी निकम्मी कौम के लोग हैं जो अपना पेट भरने लायक मेहनत भी नहीं करते हैंभारत सरकार इतनी निकम्मी है कि तमाम मनमानी व्यवस्था बनाने के बाद भी देश के 80 करोड़ लोग ऐसी विपन्नता के शिकार हैं कि सरकार खिलाएगी तो खाएंगेनहीं तो भूखे सो जाएंगे. यह आँकड़ा भूखे 80 करोड़ लोगों का कम80 करोड़ का वोट पा कर बनी सरकार के चरित्र का ज्यादा परिचय देता है. यह आंकड़ा नित नई काट व चमक वाले कपड़ों में सजे-धजे प्रधानमंत्री की छवि का विद्रूप बनाता है. हम किसी का चूल्हा ठंडा नहीं रहने देंगे जैसी दावेदारी के पीछे न ईमानदारी हैन अपनी विफलता का अहसास !  

किसी भी सरकार या व्यवस्था की कसौटी यह है कि उसके लोग भूखनंगछत से वंचित तो नहीं हैं और जीने की न्यूनतम सुविधाओं से महरूम तो नहीं हैं आप इस संदर्भ में सवाल क्या पूछेंगेयह सरकार खुद ही कह रही है कि 9 सालों से लगातार सत्ता में रहने तथा अमृतकाल की घोषणा करने के बाद भी 80 करोड़ लोग खाने को मोहताज हैं. यह उपलब्धि नहींशर्म का विषय है. कबीर को पता था कि ऐसे लोग आ सकते हैं. इसलिए उन्होंने कुछ उलटबासियां लिख छोड़ी हैं : बरसे कंबलभींगे पानी ! सूरदास बना राष्ट्र कबीरदास को देखे-समझे कैसे 

चेहरा   बता   रहा   था   कि   मारा है भूख ने

हाकिम ने कह दिया कि कुछ खा के मर गया।

13 नवंबर 2023

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