365 दिनों के रिश्ते को एक झटके में तो आप विदा नहीं कह सकते हैं न ! भले ही 2023 का कैलेंडर चुक जाए, ये 365 दिन हमारे साथ रहेंगे. और यह भी याद रखने जैसी बात है कि इन 365 दिनों ने कम-से-कम 365 ऐसे जख्म तो दिए ही हैं जो अगले 365 दिनों तक कसकते रहेंगे. अपनी कहूं तो यह दर्द और यह असहायता मुझे भीतर तक छलनी कर देती है कि हम हैं और मणिपुर भी है; कि हम हैं और कश्मीर भी है; कि हम हैं और उत्तरप्रदेश भी है; कि हम हैं और सार्वजनिक जीवन की तमाम मर्यादाओं को गिराती व संविधान को कुचलती सत्ता की राजनीति भी है. मेरा दम घुटता है कि हम सब हैं और यूक्रेन भी है; कि हम सब हैं और गजा भी है; अफगानिस्तान भी है व म्यांमार भी है; पास का पाकिस्तान भी है, सुदूर के वे सब नागरिक भी हैं जिनका अपना कोई देश नहीं है. जो कहीं, किसी देश के नागरिक नहीं माने जा रहे हैं लेकिन हैं वे हमारी-आपकी तरह ही नागरिक; हमारी-आपकी तरह इंसान ही. इंसान के माप की दुनिया भी तो नहीं बना पाए हैं हम !
तमाम बड़ी-बड़ी संस्थाएं, आयोग, ट्रस्ट और योजनाएं बनी पड़ी हैं कि इंसान को सहारा दिया जाए लेकिन आज दुनिया में जितने बेसहारा लोग ( सिर्फ रोहंग्या नहीं ! ) सड़कों पर हैं, उतने पहले कभी नहीं थे. आज अपनी-अपनी सरकारों के खिलाफ जितने ज्यादा लोग संघर्षरत हैं, उतने पहले कभी नहीं थे. आज असहमति के कारण जितने लोग अपने ही मुल्क की जेलों में बंद हैं, उतने पहले नहीं थे. सरकार बनाने वाली जनता व उनकी बनाई सरकार के बीच की खाई आज जितनी गहरी हुई है, होती जा रही है, उतनी पहले कभी नहीं थी. यह तस्वीर कहीं एक जगह की नहीं, सारे संसार की है. लोकतंत्र का ‘लोक’ अपने ‘तंत्र’ से परेशान है; ‘तंत्र’ अपने ‘लोक’ को मुट्ठी में करने की बदहवासी में दानवी होता जा रहा है. हम यह भी देख रहे हैं कि कल तक प्रगतिशील नारों की तरफ आकर्षित होने वाले लोग, बड़ी तेजी से प्रतिगामी नारों- आवाजों की तरफ भाग रहे हैं; और वहां से मोहभंग होने पर फिर वापस लौट रहे हैं. यह सच में वापसी होती तो भी आशा बंधती लेकिन यह निराशा की वापसी है.
हत्या से ठीक पहले वाली रात यानी अपनी जिंदगी की आखिरी रात को गांधी ने भविष्यवाणी-सी जो बात संसदीय लोकतंत्र के लिए लिखी थी, वह दस्तावेज हमारे बीच धरा हुआ है. कभी लगता है कि दुनिया उस तरफ ही भाग रही है. गांधी ने लिखा था : संसदीय लोकतंत्र के विकास-क्रम में ऐसी स्थिति आने ही वाली है जब लोक व तंत्र के बीच सीधा मुकाबला होगा. क्या हम उस दिशा में जा रहे हैं? लेकिन यह मुकाबला निराशा या भटकाव के रास्ते संभव नहीं है. 2023 निराशा व अनास्था का यह टोकरा 2024 के सर धर कर बीत जाएगा और छीजते-छीजते मानव रीत जाएगा.
यह सब कहते हुए मैं भूला नहीं हूं कि आपाधापी के इस दौर में भी हर कहीं कोई ‘आंग-सू’ भी है. मेरी आंखों में वे अनगिनत लोग भी हैं जो फलस्तीनियों के राक्षसी संहार का विरोध करने इंग्लैंड, अमरीका आदि मुल्कों में सड़कों पर निकले हैं. मैं यह भी देख पा रहा हूं कि फलस्तीनियों व हमास में फर्क करने का विवेक रखा जा रहा है. मैं भूला नहीं हूं कि श्रीलंका के भ्रष्ट व निकम्मे सत्ताधीशों को सिफर बना देने वाला श्रीलंका का वह नागरिक आंदोलन भी इन्हीं 365 दिनों की संतान है, भले वह आज बिखर गया है. इन 365 दिनों में भारत समेत संसार की तथाकथित महाशक्तियां अपने स्वार्थ का तराजू लिए जैसी निर्लज्ज सौदेबाजी में लगी रही हैं, उस बीच भी म्यांमार में नागरिक प्रतिरोध बार-बार अपनी ताकत समेट कर सर उठा रहा है. इन 365 दिनों की चारदीवारी के भीतर बहुत कुछ मानवीय भी घट व बन रहा है जिसे समर्थन व सहयोग की जरूरत है.
2023 के अंतिम दिनों में, 12-28 नवंबर के दौरान मौत की सुरंग में घुटते 41 लोग जिस तरह 400 घंटों की मेहनत के बाद, जीवन की डोर पकड़ कर हमारे बीच लौट आए, वह भूलने जैसा नहीं है. यह चमत्कार, किसी नेता या सरकार ने नहीं किया, आदमी के भीतर के आदमी ने किया. यह कहना भी बेजा बात है कि मशीनों ने नहीं, मनुष्य के हाथों ने ही अंतत: उन श्रमिकों को बचाया. सच का सच यह है कि मशीनों ने जहां तक काम कर दिया था यदि उतना न किया होता तो इन श्रमिकों का बचना कठिन था; उतना ही सच यह भी है कि जहां पहुंच कर मशीनें हार गई थीं वहां से आगे का काम हाथों ने न किया होता तो इन श्रमिकों का बचना असंभव था. मशीनों व इंसानों के बीच यही तालमेल व संतुलन चाहिए. जब गांधी कहते हैं कि आदमी को खारिज करने वाली मशीनें मुझे स्वीकार नहीं हैं लेकिन आदमी की मददगार मशीनें हमें चाहिए, तो वे वही कह रहे थे जो सिल्कयारा-बारकोट सुरंग में फंसे श्रमिकों को बचाने में साबित हुआ.
उन सबको सलाम जो यह कठिन काम अंजाम दे सके लेकिन उन सवालों को उसी सुरंग में दफना नहीं दिया जाना चाहिए जिनके कारण यह त्रासदी हुई. दुर्घटनाओं के पीछे असावधानियां होती हैं. निजी असावधानी की कीमत व्यक्ति भुगत लेता है लेकिन जिस असावधानी का सामाजिक परिणाम हो, वह न छोड़ी जानी चाहिए, न भुलाई जानी चाहिए. उसका खुलासा होना चाहिए तथा असावधानी की जिम्मेवारी तय होनी चाहिए. कोई बताए कि खोखले दावों व जुमलेबाजियों के प्रकल्प के अलावा हमारे सरकारी प्रकल्पों को पूरा होने में इतना विलंब क्यों चल रहा है ? सुरंगों की ऐसी खुदाई में श्रमिकों को असुरक्षित उतारने वाले ठेकेदार व अधिकारी कौन थे ? उनको क्या सजा मिल रही है ? ऐसी खुदाइयों के जो सुनिश्चित मानक बने हुए हैं, यहां उनका पालन क्यों नहीं किया गया ? इसके जिम्मेवार कौन थे व उनकी क्या सजा तय हुई ? न धरती मुर्दा है, न पहाड़ ! इनके साथ व्यवहार की तमीज न हो तो आपको इनसे दूर रहना चाहिए. पूरा हिमालय हमारी मूढ़ता व संवेदनशीलता का पहाड़ बन गया है. उत्तरकाशी का यह हादसा भी भुला दिया जाएगा क्योंकि विकास के जहरीले सांप ने हमें बेसुध कर रखा है. तो 2024 का एक संकल्प यह भी हो सकता है : सांप से बचो तो हिमालय बचेगा भी और हमें बचाएगा भी.
मैं यह भी देख रहा हूं कि समाज का अर्द्ध-साक्षर लेकिन बेहद सुविधा प्राप्त वह वर्ग, जो ‘न हींग लगे व फिटकरी लेकिन रंग आए चोखा’ वाली शैली में जीवन जीने के आसान, कायर रास्तों की खोज में रहता है; जिसने आजादी की लड़ाई में बमुश्किल कोई भूमिका अदा की लेकिन जो आजादी का भोग सबसे ज्यादा भोगता रहा है; जिसने हमेशा एकाधिकारशाही का मुदित मन स्वागत किया है; जिसने पिछले वर्षों में हिंदुत्व की लहर पर चढ़ कर, अपनी खास हैसियत का लड्डू खाने का सपना देखा है, अब मोहभंग जैसी स्थिति में पहुंच रहा है. उसे लगने-लगा है कि उसके हाथ मनचाहा लग नहीं रहा है. आजादी के तुरंत बाद ही सत्ता व स्वार्थ की जैसी आपाधापी मची उससे हैरान गांधी ने कहा था: समाज भूखा है यह तो मैं जानता था लेकिन वह भूख ऐसी अजगरी है, इसका मुझे अनुमान नहीं था. सांप्रदायिकता-जातीयता-एकाधिकारशाही हमेशा ही वह दोधारी तलवार है जो इधर-उधर, दोनों तरफ बारीक काटती है. जब तक दूसरे कटते हैं, हम ताली बजाते हैं; जब हम कटते हैं तब ताली बजाने की हालत में भी नहीं बचते हैं. अब कहीं, कोई ताली नहीं बची है. सर धुनने की आवाजें आ रही हैं. यह सन्निपात की स्थिति है और सामाजिक सन्निपात हिटलरी मानसिकता को बढ़ावा देता है.
नये साल की दहलीज पर खड़ा हमारा देश अपनी निराशा से निकले, सन्निपात की आवाजों को सुने-समझे तो नये साल में कोई नई संभावना पैदा हो सकती है. संभावना सिद्धि नहीं है. उसे सिद्धि तक पहुंचाने के लिए मानवीय पुरुषार्थ का कोई विकल्प नहीं है. हमें याद रखना चाहिए कि चेहरे बदलने से, ‘म्यूजिकल चेयर’ खेलने से विकल्प नहीं बनते हैं. उनके पीछे गहरी समझ व संकल्प की जरूरत होती है. नया साल हमारे नये पुरुषार्थ का साल बने इस कामना के साथ हम पुराने 365 दिनों को विदा दें तथा नये 365 दिनों का स्वागत करें.
मुश्किल से जो लब तक आई है एक कहानी वह भी है
और जो अब तक नहीं कही है एक कहानी वह भी है.
( 19.12.23)
No comments:
Post a Comment