सभी दुखी हैं कि हम क्रिकेट का विश्वकप हार गए; मैं दुखी हूं कि हम क्रिकेट ही हार गए. मैच हारना और खेल हारना दो एकदम अलग-अलग बातें हैं. हार वक्ती होती है, पराजय का मतलब मन हारना होता है. हम मन से हारे हैं.
अगर ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि एक लाख से ज्यादा दर्शकों से भरा स्टेडियम इस कदर गूंगा बन जाता. जिन्होंने अपने नाम से इस स्टेडियम का नामकरण करवाया है वे लगातार बेमतलब दहाड़ने के लिए विख्यात हैं. लेकिन इस विश्वकप में हमने उन्हें एकदम गूंगा पाया. वैसे फाइनल का खेल तो अच्छा ही हो रहा था. उतार-चढ़ाव से गुजर रहा था. खेल तो ऐसा ही होता है. लेकिन फेंफड़े के जोर से विश्वगुरू बनने वालों की भीड़ को यह बताया नहीं गया था कि उसे जो तैयार पटकथा दी गई है, उससे अलग कुछ घटने लगे तो उसे क्या करना है. उसे जो नारे सिखाए गए थे, जो जयकारा रटाया गया था, वह सब यह मान कर कि हमारी जीत तो पक्की है. खेल से साथ खेल करने वालों का ऐसा ही हाल होता है.
कोई बताएगा तो नहीं अन्यथा यह पूछा जाना चाहिए और इसका जवाब किसी को देना ही चाहिए कि मैदान के अलावा भारतीय टीम के कपड़ों का रंग किसने बदला व क्यों; और यह भी कि ऐसा करने वालों में कौन-कौन शरीक थे ? खिलाड़ियों को भगवा पहनाने की यह सोच उसी मानसिकता में से पैदा हुई है जो खेल की जीत को प्रधानमंत्री की और हार को खिलाड़ियों की जाति-धर्म का परिणाम बताती है.
खिलाड़ी यदि भाड़े के टट्टू नहीं हैं तो उन्हें भी यह बताना चाहिए, कोच राहुल द्रविड़ को बताना चाहिए कि क्या उन्होंने क्रिकेट के इस भगवाकरण को खुशी-खुशी स्वीकार किया था ? यदि असहमति उठी तो वह कहां दर्ज की गई ? भारतीय क्रिकेट बोर्ड की किस बैठक में तय किया गया था कि विश्वकप का पहला व अंतिम मैच अहमदाबाद में होगा ? विश्वकप की नियंत्रक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संस्थान से इस बारे में कोई विमर्श हुआ ? अहमदाबाद को क्रिकेट का मक्का बनने का यह सरकारी प्रयास अत्यंत गर्हित है, क्योंकि इसके पीछे क्रिकेटप्रेमी नहीं, सत्ता है. दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम बनाने से क्रिकेट-संस्कृति पैदा नहीं होती है. मायावती सरकारी पैसे से अपनी मूर्तियां लगवाएं, हाथी गढ़वाएं या मोदी अपने नाम का स्टेडियम बनवाएं, सरकारी पैसों से जगह-जगह शेर का दहाड़ता हुआ चेहरा लगवाएं, जनता के पैसों से जी-20 का अशोभनीय आत्म-प्रचार करवाएं तो यह सब शर्मनाक अहंकार के प्रदर्शन से अधिक कुछ नहीं है. यह लोकतंत्र से बलात्कार है.
भारत में किया गया यह पूरा आयोजन विश्वकप के दूसरे आयोजनों से बहुत अलग था क्योंकि इसमें खेल को राजनीति का हथियार बनाने की कोशिश की गई थी. यह क्रिकेट का विश्वकप कम, सत्ता का चुनाव-कप बन गया था और इसलिए पराजय से इसे उसी तरह सांप सूंघ गया जैसा चुनावी हार में होता है. सारे मैच कब, कहां और कैसे आयोजित किए जाएंगे, किन्हें माननीय अतिथि की तरह बुलाया जाएगा व किन्हें पूछा भी नहीं जाएगा, कैमरे को कब, क्या दिखाना है और क्या बिल्कुल नहीं दिखाना है, यह भी सत्ताधीश ही तै कर रहे थे. वीसा देने में ऐसी राजनीतिक मनमानी चली कि खेलने वाले देशों के दर्शक, विशेषज्ञ, पत्रकार आदि यहां आ ही नहीं सके. एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन पार्टी का आयोजन बना दिया गया. सब तरफ हम-ही-हम थे : जुटाई हुई भीड़ ! इसलिए खेलबाजी कम, भीड़बाजी ज्यादा थी. मुहम्मद सामी और मुहम्मद सिराज के खेल ने सबकी बोलती बंद कर दी थी अन्यथा उन्हें निशाने पर रखने की कोशिशें कम नहीं हुई थीं. भीड़ ऐसी ही होती है. वह देखने नहीं, दिखाने आती है. ऐसी भीड़ न खेल समझती है, न खिलाड़ी !
प्रधानमंत्री जिस तरह अहमदाबाद का फाइनल देखने अवतरित हुए, वह हमारी हार की सारी कलई खोल गया. यदि भारत की मजबूत स्थिति होती तो वे एकदम शुरू में ही स्टेडियम में आ बैठते. कैमरा भी जानता कि उसे कब, कैसे व कितनी देर तक वहीं टिके रहना है जहां वे बैठे हैं. लेकिन यहां तो कैमरे ने जैसे आंखें ही बंद कर लीं. बहुत पहले अहमदाबाद पहुंच चुके प्रधानमंत्री को बता दिया गया था कि हमारी सारी योजना के बाद भी खेल में हमारी हालत बिगड़ी हुई है, सो प्रधानमंत्री तुरंत नहीं, घंटों बाद स्टेडियम पहुंचे. कब पहुंचे, कैमरे ने बताया भी नहीं. स्टेडियम में पहुंचाई गई भक्त-मंडली भी एकदम खामोश हो गई. आस्ट्रेलियाई कप्तान ने मैच से पहले ही कह दिया था कि भारतीय टीम के लिए चीखती भीड़ को खामोश कर देने जैसा आनंद हमारे लिए दूसरा नहीं होगा ! सो, वह सन्नाटा ही हमारी पराजित मानसिकता का गवाह बन कर स्टेडियम में गूंजता रहा. फिर लोगों के खिसकना भी शुरू कर दिया. किसी को यह आंकड़ा भी बताना चाहिए कि जब भारत हारा तब स्टेडियम में कितने लोग मौजूद थे ? जो तब थे वे ही क्रिकेट के लिए थे, बाकी जुटाए गए सब तो खिसक चुके थे.
विजेता टीम को विश्वकप सौंपने प्रधानमंत्री जब आस्ट्रेलियाई उप-प्रधानमंत्री के साथ मंच पर पहुंचे तब तो इतनी हास्यास्पद स्थिति बनी कि खुदा खैर करे ! प्रधानमंत्री खेल-भावना का निर्वाह करने की शालीनता भी नहीं निभा सके, उनके ध्यान में यह भी नहीं रहा कि उनके साथ आस्ट्रेलिया के उप-प्रधानमंत्री भी हैं जो विजेता-भाव से भरे हैं. अपना फूला मुंह लिए उन्होंने किसी तरह आस्ट्रेलियाई कप्तान पैट कमिंस को कप थमाया और उल्टे पांव मंच से उतर चले. उन्होंने न जीत की बधाई में आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों से एक शब्द ही कहा, न उल्लास से उन्हें सराहा, न अपने समवर्ती उप-प्रधानमंत्री की गरिमा का ख्याल रखा. जब मन पराजित होता है तब वह इतना ही बेजायका हो जाता है. उनकी दूर जाती पीठ को देख कर कमिंस ने चेहरे पर वही भाव नाच उठा जो पस्त-पराजित को देख कर विजेता के चेहरे पर आता है. कहते हैं कि वहां से प्रधानमंत्री भारतीय ड्रेसिंगरूम गए व खिलाड़ियों से कहा कि वे जीत-हार भूल कर, अपने उम्दा खेल को याद करें, हम आपके साथ हैं. लेकिन यह सब खोखली, राजनीतिक चाल भर रह गयी क्योंकि इससे ठीक पहले आपने जो किया, वही आपकी चुगली खा रहा था. वैसे एक जवाब क्रिकेट बोर्ड को देना चाहिए कि प्रधानमंत्री भारतीय ड्रेसिंगरूम में कैसे प्रवेश पा गए ? नियम कहता है कि वहां खिलाड़ियों के अलावा किसी का भी प्रवेश नहीं होना चाहिए. नियम में प्रधानमंत्री अपवाद हैं, ऐसा नहीं लिखा है. कितना स्वाभाविक होता कि हमारी टीम स्वंय मैदान में आ कर प्रधानमंत्री से मिलती ! यह प्रधानमंत्री के लिए शानदार होता और खिलाड़ियों के लिए पराजित मानसिकता से बाहर आने का मौका बन जाता.
यह सब तो पराजित मन की बात हुई लेकिन हम खेल में भी हारे. टीम राहुल द्रविड़ ने पूरे अभियान में एक अजीब रवैया अपनाया जैसे जीत मुट्ठी में बंद कोई जुगनू है कि जो मुट्ठी खोलते ही उड़ जाएगा. यही राहुल द्रविड़ थे जिन्होंने कोच बनने के बाद से भारतीय टीम का सही स्वरूप सुनिश्चित करने के लिए कितने ही खिलाड़ियों को आजमाया, उनका बैटिंग-क्रम बदला, कितनी रणनीतियां बनाई-बदलीं, खिलाड़ियों की निश्चित भूमिकाएं तय कीं और उन पर जोर डाला कि वे वैसी ही भूमिका में खेलें. ऐसा सब बार-बार करने के बाद वे 15 खिलाड़ी छांटे गए जिनसे हर मैच की जरूरत के हिसाब से भारतीय टीम बनानी थी. लेकिन आस्ट्रेलिया के साथ हमारा पहला मैच जैसे ही संकट में पड़ा, और हम किसी तरह जीत सके, टीम राहुल को जैसे लकवा मार गया. उसने मैचों के हिसाब से कोई प्रयोग किया ही नहीं. जो टीम बन गई वही अंत तक बनी रही. वो तो हार्दिक पंड्या घायल हो गए तो मुहम्मद समी को टीम में जगह मिली. टीम जिस तरह लगातार जीतती गई, उसने सुरक्षित रहने का मानस बना दिया. आपने ‘टीम में कोई परिवर्तन नहीं’ का सूत्र भले बना लिया, स्थान, मैच, विपक्ष, खेल की मांग तो परिवर्तित होती रही. आपने कुछ भी बदलाव नहीं किया. अगर नाव को नदी के वेग से ही बहना था तो नाविक की जरूरत क्या थी ?
अश्विन को पहले मैच में आस्ट्रेलिया के खिलाफ मौका मिला और हमेशा की तरह उन्होंने बेहतरीन गेंदबाजी की. अश्विन अपनी शैली के विश्व के नायाब स्पिनर हैं. उनकी हर गेंद विकेट लेने ही लपकती है. इसलिए आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों ने उनके सामने हर अनुशासन का पालन किया. अश्विन के हाथ उस मैच में 1 विकेट लगा. इसके साथ ही अश्विन का खेल पूरा मान लिया गया जबकि हम देख रहे थे कि कुलदीप व जाडेजा दोनों उतना प्रभाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं और विपक्ष धीरे-धीरे उन्हें पढ़ता भी जा रहा है. इससे बचने के लिए भी जरूरी था कि अश्विन-कुलदीप-जडेजा की तिकड़ी को खूब फेंटा जाता. फाइनल में आस्ट्रेलिया आया तो जरूरी था कि अश्विन को सिराज या जडेजा की जगह लाया जाता. अश्विन का बल्ला भी मजबूत है, तो यह प्रयोग किया ही जाना था. लेकिन टीम राहुल को अजीब-सी जड़ता ने जकड़ लिया. ऐसा ही सूर्यकुमार यादव के साथ हुआ. एक तरफ वे लगातार विफल हो रहे थे, तो दूसरी तरफ उन्हें खेलने का मौका भी कम मिल रहा था. फाइनल में, जब हम कमजोर हालत में पहुंच चुके थे और जरूरत थी कि आस्ट्रेलिया का तिलस्म छिन्न-भिन्न किया जाए, सूर्यकुमार को बल्लेबाजी में ऊपर ला कर देखना ही चाहिए था. वे चल जाते तो आस्ट्रेलिया की पकड़ टूट जाती, नहीं चलते तो भी कुछ जाता नहीं हमारा. उन्हें जाडेजा के बाद बैटिंग के लिए भेजना कैसी रणनीति थी ? जाडेजा पहले आ कर कई बेशकीमती गेंदें खा कर लौट गए तथा सूर्यकुमार भी कुछ कर तो नहीं सके.
ओपनिंग में आक्रामकता की रोहित-रणनीति बहुत मोहक थी लेकिन हर गेंद पर छक्का ! फाइनल में टॉस हारने के बाद भारत की रणनीति तो यही होनी चाहिए थी कि सावधानी से खेलते हुए ज्यादा-से-ज्यादा रन जमा करें हम ताकि उसके बोझ तले आस्ट्रेलियाई उसी तरह टूट जाएं जैसे न्यूजीलैंड टूटा था ! हमें पता था कि विश्वकप में भारतीय पारी की रीढ़ रोहित के बल्ले से बनी है. रोहित अपनी लय में खेल भी रहे थे, फिर उस अंधाधुंधी का मतलब क्या था जबकि उस ओवर में 10 से अधिक रन बन ही चुके थे. हम यह भी देख रहे थे कि आस्ट्रेलियाई भूखे चीते की तरह फील्डिंग कर रहे थे, तो विशेष सावधानी की जरूरत थी. रोहित के खेल में वह सावधानी नहीं दीखी. गिल जैसे शॉट पर आउट हुए वह टेस्ट स्तर का कोई बल्लेबाज फाइनल में मारेगा क्या ? खेल तो खेल है लेकिन उसके पीछे एक योजना होती है जो खेल का चेहरा बदल देती है. फाइनल में वह योजना सिरे से गायब थी.
तो हम चौतरफा हारे ! हमें अब चौतरफा वापसी करनी होगी. पहले क्रिकेट लौटेगा, फिर सफलता भी लौटेगी. ( 23.11.2023)
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