Monday 19 September 2022

इतिहास के चीते

 70 साल बाद चीते भारत में दिखाई दिए; और वह भी प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर, प्रधानमंत्री के साथ जन्मदिन मनाते हुए; और यह भी कि प्रधानमंत्री ने खुद नामीबिया से चीतों को भारत ला कर मध्यप्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में बसाया है. बना न इतिहास !! ऐसे बनता है इतिहास; और यहां तो रोज-रोज ही बनाए जा रहे हैं इतिहास. आपने नहीं देखा, राजपथ को कर्तव्यपथ बना कर अभी-अभी तो इतिहास बनाया गया. इतने इतिहास बनाए जा रहे हैं कि गिनने की फुर्सत नहीं है कि कौन-सा इतिहास कहां से निकला और कब बे-इतिहास हुए, इतिहास के गर्त में समा गया ! 

      इतिहास के साथ यही परेशानी है. जिसके काल में वह बना दिखाई देता हैउसी के काल में बनता नहीं है. इतिहास की जंजीर काल की सातत्यता से ही बनती है. अब इन चीतों की बात ही लीजिए. 2010 में तब की सरकार ने चीतों के देश से विलुप्त होने की बात पर ध्यान दिया था और बाहर से चीतों को भारत ला कर बसाने की योजना बनाई थी. गुजरातराजस्थानमध्यप्रदेश से जुड़ी जंगलों की वह पट्टी भी तभी चुनी गई थी जिसमें कूनो भी आता है. अब चीते भले बिजली की गति से दौड़ने वाले प्राणी होंसरकारी योजनाएं तो कछुए की गति से भी चलें तो तेज मानी जाती हैं. सो अब जा कर चीते आए हैं. सच्चा इतिहास तो तब बनता न जब यह सारा इतिहास देश के सामने रखा जाता. लेकिन इतिहास के नये चीते इतनी सच्ची-सरल चाल कैसे चलें तो ऐसी तस्वीर बनाई जा रही है मानो सारा कुछ चीते की चाल से 2014 से ही दौड़ने लगा है. 

      ऐसी अंधी दौड़ में यह जरूरी सवाल न कोई पूछ रहा हैन कोई बता रहा कि अपने देश से चीते लुप्त हुए ही क्यों अभी दूसरे लुप्त व लुप्तप्राय प्राणियों-पौधों की बात नहीं करता हूं लेकिन एशियाई चीतों की हमारे यहां अच्छी फसल होती थी. कहा यह जा रहा है कि कोरिया रियासत के महाराज रामानुज प्रताप सिंह देव ने 1947 में उन तीन चीतों का शिकार कर डाला था जो भारत में चीतों के आखिरी वंशज थे. लेकिन क्या यही अंतिम सच है भारत सरकार ने 1952 में कबूल किया कि अब भारत में कोई एशियाई चीता नहीं बचा है. तो कोई पूछे तो कि 1947-52 तक भारत सरकार क्या कर रही थी और उससे पहले क्या कर रही थीऔर उसके बाद क्या करती रही चीता बहुत तेजी से भले भागता है लेकिन है बेहद नाजुक प्राणी - बिल्ली-परिवार के विशालकाय व खतरनाक 7 सदस्यों में चीता ही है कि जो मनुष्यों पर हमलावर नहीं होता हैजंगल में भी बहुत बच-छिप कर रहता हैपालतू बनाया जाता रहा हैऔर घने घास-झाड़ी-झंखाड़ से जुड़े जंगल जिसका सहज निवास हैं. 

      यह सरकार आज जिसे चीख-चीख  कर विकास कहती हैजिसका घटाटोप सब तरफ दिखाई देता हैउस विकास की तेज आंधी में सबसे पहले ऐसे ही जंगलों का विनाश हुआ. चीतों के स्वाभाविक घर नहीं रहे तो उनका छिपना-बचना कठिन होने लगा. उस पर से राज-परिवार केसरकारी-परिवार के कानूनी व पेशेवर गैर-कानूनी शिकारी भी उनके पीछे पड़े थे ही. चीते इनसे तेज नहीं दौड़ सकेतो दम तोड़ गए. विकास की वही अवधारणा आज भी चल रही हैतो चीते नामीबिया से लाएं कि दक्षिण अफ्रीका सेवे बचेंगे कैसेफले-फूलेंगे कैसे प्रधानमंत्री को यदि इतनी फुरसत है कि वे चीतों को जंगल में छोड़ने व उनका फोटो खींचने में वक्त लगा सकेंतो उन्हें थोड़ा वक्त यह सोचने पर भी लगाना चाहिए कि चीते के साथ तालमेल बिठा कर चलने वाला विकास का मॉडल क्या हो सकता है और कैसे चलाया जा सकता हैतब उन्हें यह रहस्य भी समझ में आएगा कि सहज मानवीय ऊष्मा से भरा इंसान ही प्रकृति को भी बचा व संवार सकता है. उस इंसान के संरक्षण का कौन-सा पार्क है हमारे यहां ?  

      ऐसा ही मामला कर्तव्यपथ का भी है. उस दिन भी कहा गया कि हम दासता के इतिहास से मुक्त होएक नए इतिहास का सर्जन कर रहे हैंक्योंकि हम राजपथ का साइनबोर्ड बदल कर कर्तव्यपथ का साइनबोर्ड लगा रहे हैं. साइनबोर्ड बदलने का यह खेल नया नहीं है. इसका इतिहास और वर्तमान भी उलट कर देखना चाहिए. सड़कों-नगरों-संस्थानों-विभागों आदि-आदि के नाम बदलने की दिशाहीन आंधी ही देश में बहाई जा रही है जिसमें इतिहासपरंपराजनबोध सभी बहे जा रहे हैं. सत्ता के जोर पर वक्त की कठपुतलियों को वक्त का जादूगर बता कर स्थापित करने की कोशिश देश का इतिहास-बोध धुंधला व विस्मृत कर रही है. 

      औपनिवेशिक दासता के मानसिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक चिन्हों से मुक्त होने की तुमुल आवाज जिसने उठाई ही नहीं थी बल्कि मुक्ति की उस दिशा में देश को साथ ले कर जो चल पड़ा था उस महात्मा गांधी की हत्या करने का पुण्य कर्तव्य किसने निभाया थावह इतिहास भले आप याद न करिएयह सावधानी तो रखिए कि उस हत्या काउस हत्यारे का व उस हत्यारी मानसिकता का महिमामंडन न हो ! लेकिन परेशानी यह है कि उस हत्या से चला इतिहास सीधा आप तक पहुंचता है तो क्यों आप उसे गले लगाते हैं तो क्यों आपके यहां उनके मंदिर बनते हैं तो क्यों जब वे ही लोग आपके सांसद-विधायक हैंतो आप संविधान व इतिहास के साथ खड़े कैसे हो सकते हैं आपका सारा शासन उसी औपनिवेशिक दासता के पदचिन्हों पर पांव धर-धर कर चलता है. राष्ट्रपतिप्रधानमंत्रीराज्यपालमंत्रिमंडल की सारी अवधारणा व उसका सारा तामझाम दासता के पदचिन्हों को चूमता ही तो है. मुक्ति मन से होती है तब तन परव्यवहार में दिखाई देती है. 

      जिस छतरी पर किंग जार्ज की प्रतिमा स्थापित थीउसी छतरी पर नेताजी सुभाष की प्रतिमा की स्थापनाऔर वह भी फौजी लिबास मेंकिस मानसिकता का प्रतीक है वह फौजी लिबास नेताजी का सामान्य लिबास नहीं थाएक दौर का लिबास था जैसे गांधी भी एक दौर में टाई-सूट में मिलते हैं. देश नेताजी को इस रूप में तब पाता है जब वे आजादी की हमारी सामूहिक लड़ाई से उकता कर निकले थे और दूसरी औपनिवेशिक ताकतों से जा मिले थे. तब गांधी ने उनसे यही तो पूछा था कि एक औपनिवेशिक ताकत से जूझते हुए हम दूसरी औपनिवेशिक ताकत को गले लगाएं यह कैसी बुद्धिमत्ता है सुभाष न तब उसका जवाब दे सके थेन बाद में ही. उनकी उस चूक को आज हम जन-मानस में स्थापित कर क्या किसी आजाद मानसिकता का परिचय दे रहे हैं युद्धों को आल्हादकारी बनाने वाला राष्ट्रीय समर स्मारक संस्कृति का नहींविकृति का प्रतीक बन जाता है क्यों कि उसमें से वीरता व बलिदान का संदेश नहीं मिलता हैन युद्ध के अंत की लालसा पैदा होती है. भारत राष्ट्र का मान तो कल्याण व बलिदान से भरा बनाना है. 

      सत्ता-तालियां-उन्माद-जयजयकार-चाटुकारिता आदि से ऊपर उठ कर जो हासिल होता है उसे विवेक कहते हैं. स्वतंत्र मन का गहरा नाता इसी विवेक से होता है. व्यक्ति और समूह में वह विवेक खोता जा रहा है. विवेकहीनता न दासता से मुक्ति हैन आजादी का सयानापन है. विवेकहीनता गुलामी का ही दूसरा नाम है. मनुष्यों का अपमान-तिरस्कार होता रहे और हम चीतों के स्वागत में खड़े हो जाएंतो यह क्षद्म विवेकहीनता का चरम है. 

      नामीबिया के चीते भारत के कूनो में फले-फूलें और हमें विवेकवान बनाएंआज तो हम इतनी ही प्रार्थना कर सकते हैं. ( 18.09.2022)

                                                                                                                                     

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