Sunday 28 January 2018

गांधी का हिमालय

      
     कभी गहरी पीड़ा अौर तीखे मन से जयप्रकाश नारायण ने कहा था : दिल्ली एक नहीं कई अर्थों में बापू की समाधि-स्थली है !’ देखें कि यह समाधि कहां है अौर कैसे बनी है ? … एक तो यही कि गांधी की हत्या इसी दिल्ली में हुई थी. लेकिन कहानी उससे पहले से शुरू होती है. 

यही दिल्ली थी कि जहां प्रार्थना करते गांधी पर, 20 जनवरी 1948 को बम फेंका गया था. वह बम उनका काम तमाम नहीं कर सका. उसका निशाना चूक गया. उनकी हत्या की  यह पांचवीं कोशिश थी. गांधी इनसे अनजान नहीं थे. उन्हें पता था कि उनकी हत्या की कोशिशें चल रही हैं, कि उनके प्रति कई स्तरों पर गुस्सा-क्षोभ-शिकायत का भाव घनीभूत होता जा रहा है. लेकिन वह दौर था कि जब इतिहास की अांधी इतनी तेज चल रही थी कि हमारी नवजात अाजादी उसमें सूखे पत्तों-सी उड़ जाएगी, ऐसा खतरा सामने था. इसकी फिक्र में जवाहरलाल, सरदार अौर पूरी सरकार ही रतजगा कर रही थी. गांधी भी अपना सारा बल लगा कर इतिहास की दिशा मोड़ने में लगे थे अौर यहां भी वे सेनापति की अपनी चिर-परिचित भूमिका थे. 
    
  ऐसे में ही अाई थी 29 जनवरी 1948 ! नई दिल्ली का बिरला भवन ! … सब तरफ लोग-ही-लोग थे … थके-पिटे-लुटे अौर निराश्रित !! … इतने लोग यहां क्यों हैं ? क्या पाने अाए हैं ? क्या मिल रहा है यहां ?… ऐसे सवाल यहां बेमानी हैं. कोई किसी से ऐसा कोई सवाल पूछ नहीं रहा है ! बस, सभी इतना जानते हैं कि यहां कोई है जो खुद से ज्यादा उनकी फिक्र करता है ! … अाजाद भारत की पहली सरकार के सारे सरदार भी यहां इनकी ही तरह बैठे-भटकते-बातें करते मिल जाते हैं. वे यहां क्यों हैं ? उन्हें यहां से क्या मिलता है ? वे भी ऐसा सवाल नहीं करते हैं. वे भी यहां इसी भाव से अाते हैं कि यहां कोई है जिसे उनसे ज्यादा उनकी फिक्र है. ईमान की शांति से पूरा परिसर भरा है… 

अौर जो यहां है वह ? …  80 साल का बूढ़ा … जिसका क्लांत शरीर अभी उपवास के उस धक्के से संभला भी नहीं है जो लगातार 6 दिनों तक चल कर, अभी-अभी 18 जनवरी को समाप्त हुअा है… 20 जनवरी को उस पर बम फेंका जा चुका है… तन की फिक्र फिर भी हो रही है लेकिन ज्यादा गहरा घाव तो मन पर लगा है. वह तार-तार हो चुका है…अपना तार-तार मन लिए वह अपने राम की प्रार्थना-सभा में बैठा, वह सब कुछ जोड़ना-बुनना-सीना चाहता है जो टूट गया है, उधड़ गया है, फट गया है. यह प्रार्थना-सभा उसके जीवन की अंतिम प्रार्थना अौर अंतिम सभा बनने जा रही है, यह कौन जानता था ? 

अौर फिर उसकी थकी लेकिन मजबूत; क्षीण लेकिन स्थिर अावाज उभरी : “ कहने के लिए चीजें तो काफी पड़ी हैं, मगर अाज के लिए 6 चुनी हैं. 15 मिनट में जितना कह सकूंगा, कहूंगा. देखता हूं, मुझे अाने में थोड़ी देर हो गई है, वह नहीं होनी चाहिए थी… एक अादमी थे. मैं नहीं जानता कि वे शरणार्थी थे या अन्य कोई, अौर न मैंने उनसे पूछा ही. उन्होंने कहा : ‘ तुमने बहुत खराबी कर दी है. क्या अौर करते ही जाअोगे? इससे बेहतर है कि जाअो. बड़े महात्मा हो तो क्या हुअा ! हमारा काम तो बिगड़ता ही है. तुम हमें छोड़ दो, हमें भूल जाअो, भागो !’ मैंने पूछा : ‘ कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा;’ हिमालय जाअो !’ … मैंने हंसते हुए कहा:’ क्या मैं अापके कहने से चला जाऊं ? किसकी बात सुनूं ? कोई कहता है, यहीं रहो, तो कोई कहता है, जाअो ! कोई डांटता है, गाली देता है, तो कोई तारीफ करता है. तब मैं क्या करूं ? इसलिए ईश्वर जो हुक्म करता है, वही मैं करता हूं. अाप कह सकते हैं कि हम ईश्वर को नहीं मानते, तो कम-से-कम इतना तो करें कि मुझे अपने दिल के अनुसार करने दें… दुखियों का वली परमेश्वर है लेकिन दुखी खुद परमात्मा तो नहीं है… किसी के कहने से मैं खिदमतगार नहीं बना हूं. ईश्वर की इच्छा से मैं जो बना हूं, बना हूं. उसे जो करना है, करेगा… मैं समझता हूं कि मैं ईश्वर की बात मानता हूं. मैं हिमालय क्यों नहीं जाता ? वहां रहना तो मुझे पसंद पड़ेगा. ऐसी बात नहीं कि वहां मुझे खाना-पीना, अोढ़ना नहीं मिलेगा. वहां जा कर शांति मिलेगी. लेकिन मैं अशांति में से शांति चाहता हूं. नहीं तो उसी अशांति में मर जाना चाहता हूं. मेरा हिमालय यहीं है.” 

अगले दिन हमने उनकी हत्या कर दी ! हमने अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. उसके बाद शुरू हुई अाजाद भारत की एक ऐसी यात्रा जिसमें कदम-कदम पर उनकी हत्या की जाती रही. यह उन लोगों ने किया जो गांधी के दाएं-बाएं हुअा करते थे. कम नहीं था उनका मान-स्नेह गांधी के प्रति अौर न कम था उनका राष्ट्र-प्रेम ! लेकिन गांधी का रास्ता इतना नया था कि उसे समझने अौर उस पर चलने की समझ अौर साहस कम पड़ती गई अौर फिर एकदम चूक ही गई! इसलिए केंद्रित पंचवर्षीय योजनाअों का सिलसिला शुरू हुअा. गांधी ग्रामाधारित विकेंद्रित योजना, स्थानीय साधन व देशी मेधा से क्रियान्वयन की वकालत करते हुए गये. सरकार ने उसकी तरफ पीठ कर दी. गांधी ने कहा था कि सरकार क्या करती है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह कैसे रहती है अौर कैसे काम करती है. इसलिए गांधी ने कहा कि वाइसरॉय भवन को सार्वजनिक अस्पताल में बदल दो अौर देश के राष्ट्रपति को मय उसकी सरकार के छोटे घरों में रहने भेजो. सारा मंत्रिमंडल एक साथ होस्टलनुमा व्यवस्था में रहे ताकि सरकारी खर्च कम हो अौर मंत्रियों की अापसी मुलाकात रोज-रोज होती रहे, वे अापस में सलाह-मश्विरा करते रह सकें. लेकिन सरकार ने किया यह कि वाइसरॉय भवन का नाम बदल कर राष्ट्रपति भवन रख दिया अौर प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री बड़े-बड़े बंगलों में रहने चले गये. सरकार ने कहा : देश की छवि का सवाल है ! उस दिन से सरकारी खर्च जो बेलगाम हुअा सो अाज तक बेलगाम दौड़ा ही जा रहा है. विनोबा ने गांधी की याद दिलाई कि उद्धार में उधार रखने की बात न करे सरकार,  लेकिन सरकार ने ‘चाहिएवाद’ का रास्ता पकड़ा. जिसे करना था वह चाहने लगा, जिसे चाहना था वह गूंगा हो गया. एक-दूसरे पर जवाबदेही फेंकने का फुटबॉल ऐसा शुरू हुअा कि असली खेल धरा ही रह गया. सामाजिक समता अौर अार्थिक समानता की गांधी की कसौटी थी- समाज का अंतिम अादमी ! उन्होंने सिखाया था; जो अंतिम है वही हमारी प्राथमिकताअों में प्रथम होगा. हमने रास्ता उल्टा पकड़ा : संपन्नता ऊपर बढ़ेगी तो नीचे तक रिसती-रिसती पहुंचेगी. बस, ऊपर संपन्नता का अथाह सागर लहराने लगा अौर व्यवस्था ने नीचे रिसने के सारे रास्ते बंद कर दिए. गांधी का अंतिम अादमी न तो योजना के केंद्र में रहा अौर न योजना का कसौटी बन सका. गरीबी की रेखाएं भी अमीर लोग ही तै करने लगे. गांधी ने कहा कि शिक्षा सबके लिए हो, समान हो अौर उत्पादक हो. सरकार ने तै किया कि सभी अपनी अार्थिक हैसियत के मुताबिक शिक्षा खरीद सकते हैं अौर सबसे अच्छी शिक्षा वह जो सामाजिक जरूरतों से सबसे कटी रहे. भारतीय समाज का सबसे बड़ा अौर सबसे समर्थ वर्ग उसी दिन से दूसरों के कंधों पर बैठ कर, पूर्ण गैर-जिम्मेवारी से जीने का अादी बन गया. हमारी शिक्षा करोड़ों-करोड़ युवाअों को न वैभव दे पा रही है, न भैरव ! दुनिया का सबसे युवा देश ही दुनिया का सबसे बूढ़ा देश भी बन गया है. 

गांधी के विद्रूप का यह सिलसिला अंतहीन चला. वह सब कुछ अाधुनिक अौर वैज्ञानिक हो गया जो गांधी से दूर व गांधी के विरुद्ध जाता था. 2 अक्तूबर अौर 30 जनवरी से अागे या अधिक का गांधी किसी को नहीं चाहिए था. यह मोहावस्था जब तक टूटी, बहुत पानी बह चुका था. वृद्ध-बीमार जवाहरलाल ने अपने अंतिम दिनों में लोकसभा में कबूल किया कि हमने सबसे बड़ी भूल तभी की जब गांधी का रास्ता छोड़ा… अौर अाज ? अाज तो हमने गांधी की अांख छोड़ दी है अौर उनका चश्मा भर कागज पर रख लिया है. गंदे मन से लगाया स्वच्छता का नारा सफाई नहीं, गंदगी फैला रहा है. अब नारा ‘मेक इंडिया’ का नहीं, ‘मेक इन इंडिया’ का है; अब बात ‘स्टैंडअप इंडिया’ की नहीं, ‘स्टार्टअप इंडिया’ की होती है. अब अादमी को नहीं, ‘एप’ को तैयार करने में सारी प्रतिभा लगी है. ‘नया गांव’ बनाने की बात अब कोई नहीं करता, सारी ताकतें मिल कर गांवों को खोखला बनाने में लगी हैं, क्योंकि बनाना तो ‘स्मार्ट सिटी’ है. देशी व छोटी पूंजी अब पिछड़ी बात बन गई है, विदेशी व बड़ी पूंजी की खोज में देश भटक रहा है. खेती की कमर टूटी जा रही है, उद्योगों का उत्पादन गिर रहा है, छोटे अौर मझोले कारोबारी मैदान से निकाले जा रहे हैं अौर तमाम अार्थिक अवसर, संसाधन मुट्ठी भर लोगों को पहुंचाए जा रहे हैं.  देश की 73% पूंजी मात्र 1% लोगों के हाथों में सिमट अाई है. सामाजिक समरसता नहीं, सामाजिक वर्चस्व अाज की भाषा है. अब चौक-चौराहों पर कम, राजनीतिक हलकों में ज्यादा असभ्यता-अश्वलीलता-अशालीनता की जाती है. लोकतंत्र के चारो खंभों का हाल यह है कि वे एक-दूसरे को संभालने की जगह, एक-दूसरे से टकराते-टूटते नजर अाते हैं. सारा देश जैसे सन्निपात में पड़ा है. 


गांधी अपना हिमालय छोड़ कर न तब गए थे अौर न अब गये हैं. वे साधनारत हैं क्योंकि देश को लौटना तो हिमालय की तरफ ही है.  ( 28.01.2018) 

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