Tuesday 23 January 2018

दावोस का सच



ऐसा कभी-कभार ही होता है कि सच खुद सामने अा कर झूठ का पर्दाफाश कर देता है ! ऐसा ही हुअा था जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक अोबामा अपने पद से विदा हो रहे थे. उन्होंने जाते-जाते कहा कि हमारी दुनिया का सच यह है कि संसार की कुल संपत्ति का 50% केवल 60 लोगों की मुट्ठी में है. दुनिया की सबसे अधिक संपत्ति, सारी दुनिया से समेट कर जिस एक देश ने अपनी मुट्ठी में कर रखी है, उसी के राष्ट्रपति ने जाते-जाते बता दिया कि संसाधनों अौर लोगों के बीच का सच्चा समीकरण क्या है; अौर प्रकारांतर से यह भी कबूल कर लिया कि यह सच इतना टेढ़ा कि इसे सीधा करना दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रपति के भी बस का नहीं है. 

अब जब धन्नासेठ दुनिया के सारे धन्नासेठ सत्ताधीश दावोस में जमा हैं अौर हमारे प्रधानमंत्री उन्हें भारत के विकास की सच्ची कहानी सुना रहे हैं, एक भयानक सच किसी दूसरे रास्ते हमारे अौर दुनिया के सामने अा गया है. ‘सबका साथ, सबका विकास’- यह जो माहौल देश भर में बनाया जाता रहा है, अौर जिसे साकार करने के लिए अनगिनत उपक्रम जोर-जोर से घोषित होते रहे हैं, हमारे हाथ उनका लब्बोलुअाब यह अाया है कि हमारे देश की 73% संपदा देश के केवल 1% लोगों के हाथों में सिमट गई है. इन 1% लोगों की संपत्ति पिछले एक साल में 21 लाख करोड़ बढ़ी है. ये अांकड़े अौर यह तस्वीर हमने नहीं बनाई है. यह किसी रेटिंग एजेंसी का वह अांकड़ा भी नहीं है जो किसी दवाब-प्रभाव से बढ़ाया या घटाया जा सकता है. वैसे तो सत्ताधीशों के हाथों में अांकड़े हमेशा ही खिलौनों-से रहे हैं, अौर हम यह खेल अौर खिलौना काफी समय से देख रहे हैं. लेकिन हमारे देश का यह अांकड़ा दावोस में ही जारी किया गया है अौर यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है. 

पिछले ही साल की बात है जब अॉक्सफेम ने यह अध्ययन जारी किया था कि भारत के 1% फीसदी लोगों की संपत्ति में 58% का इजाफा हुअा है. अौर अगर हम भूलें नहीं तो दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है. कहने का मतलब यह था कि कि अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को पाटने की बात तो अब राष्ट्राध्यक्षों के एजेंडे में ही नहीं है लेकिन यह खाई चौड़ी न हो यह सावधानी रखना धन्नासेठों व सत्ताधीशों के लिए जरूरी है क्योंकि यह अाग बहुत कुछ लील जाएगी. वर्ल्ड बैंक ने कभी कहा था कि उसका अार्थिक अध्ययन बताता है 2030 तक दुनिया से गरीबी खत्म हो जाएगी. अब वर्ल्ड बैंक खुद ही खत्म हो रहा है लेकिन 2030 तक दुनिया से गरीबी दूर हो जाएगी, ऐसा सपना अब मुंगेरीलाल भी नहीं देखते. 

अब फिर दावोस है. पिछली बार यहां चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग का जलवा था. वे चीन का वह चमकीला चेहरा दुनिया को बेच रहे थे जिसे चीन के ही अधिकांश लोग नहीं जानते-पहचानते हैं. लेकिन चीन के राष्ट्रपति के पीछे एक अाभामंडल था कि वे दुनिया के सबसे बड़े िनर्यातक देश के प्रमुख थे. इस बार यही काम हमारे प्रधानमंत्री कर रहे हैं. उनके साथ हमारे देश के कारपोरेटों की बड़ी मंडली गई है, सरकारी अांकड़ों के विशेषज्ञ भी अपना ‘पहाड़’ ले कर वहां गये हैं. सब मिल कर वहां भारत को चमकाएंगे. यह चमक सच्ची होती तो किस भारतीय को खुशी व गर्व न होता लेकिन जो है नहीं, वह जब चमकाया जाता है तब धुंअा ज्यादा उठता है अौर अंधेरा फैलता है. हमारे प्रधानमंत्री के साथ ही यह सच्चाई भी वहां गई है कि उनके साथ दावोस पहुंचे इन्हीं कारपोरेटों की अाय में, 2017 में 20.9 लाख करोड़ रुपयों की बढ़ोत्तरी हुई है. इसका दूसरा मानी यह है कि 2017-18 का भारत सरकार का कुल बजट जितना था उस बराबर की कमाई इन कारपोरेटों ने 2017 में की है. अाज की तारीख में भारत में 101 अरबपति हैं जिनमें से 17 अरबपति 2017 में ही पैदा हुए हैं. अर्थशास्त्रियों की जमात में एक  सम्मानित नाम है टॉमस पिकेटी का. उनका अध्ययन बताता है कि भारत की सबसे गरीब जमात के सबसे पीछे के 50% लोगों की अाय में पिछले वर्ष में 0% की वृद्धि हुई है जबकि इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या 13% बढ़ी है. 

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ताजा रपट हमारी कुछ दूसरी तस्वीरें ले कर अाया है. हम दुनिया की विकास सूचकांक में 62 वें स्थान पर हैं मतलब चीन( 26) अौर पाकिस्तान (47) से पीछे. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम दुनिया भर के देशों का ऐसा अध्ययन करते हुए यह देखता है कि वहां की सामान्य जनता के रहन-सहन का स्तर क्या है, पौष्टिक खाद्य की उपलब्धता कैसी है, पर्यावरण के संरक्षण की स्थिति क्या है अौर देश पर वह विदेशी कर्ज कितना है जिसका भावी पीढ़ियों पर बोझ पड़ेगा. यह अध्ययन बताता है कि अार्थिक रूप से कौन देश कितना सशक्त है इसका जवाब यह नहीं है कि हमने जनधन योजना में कितने बैंक खाते खोले बल्कि यह है कि उन खातों में अाज क्या जमा है अौर जो जमा है वह कहां से अाया है. पैसा कहां अौर कैसे पैदा हो रहा है अौर वह किन रास्तों से चल कर लोगों की जेबों तक पहुंच रहा है, यह रास्ता जाने बिना न विकास के अांकड़ों का कोई अर्थ होता है, न कमाई के अांकड़ों का. 

इसलिए दावोस में हमारा चेहरा चाहे जितना चमकाया जाए, उस चेहरे के पीछे की यह सच्चाई छिपाई नहीं जा सकेगी कि हमारी जेब लगातार खाली होती जा रही है, सरकारी खर्चे पर कोई प्रभावी रोक संभव नहीं हो पा रही है, बैंकिंग व्यवस्था की अराजकता संभाली नहीं जा पा रही है, रोजगारविहीन विकास की घुटन फैल रही है, खेती-किसानी की कमर टूट चुकी है, अौद्योगिक उत्पादन भी गिर रहा है अौर खपत भी. नोटबंदी ने हमारे अर्थतंत्र के मध्यम घटक का दम तोड़ दिया तो जीएसटी से उसे बेहाल कर दिया है.  किसी भी अर्थ-व्यवस्था की मध्यम कड़ी ही उसे संभालकर रखती है अौर ऊपर-नीचे के थपेड़ों से बचाती है. यह मध्यम कड़ी अाज जैसी बेहाल कभी नहीं थी. जीएसटी में जितनी बार, जितने बदलाव किए जा रहे हैं वे दूसरा कुछ बताते हों या न बताते हों, यह तो बता ही रहे हैं कि इसे लागू करने से पहले जितना अध्ययन व जितनी व्यवस्था जरूरी थी, वह नहीं की गई. अधपका फल या अधपकी फसल किसी के काम नहीं अाती है; खेत को जरूरत कमजोर कर जाती है. 

यह सब लिखते-जानते किसी तरह खुशी नहीं है मुझे. बहुत तकलीफ है, क्योंकि मामला इस प्रधानमंत्री या उस प्रधानमंत्री का नहीं है. इस या उस सरकार की भी बात नहीं है. बात देश की है जो किसी भी सरकार के बाद भी रहेगा, किसी भी प्रधानमंत्री के बाद भी चलेगा. वह कमजोर हो, घायल हो, खोखला हो तो तकलीफ कितनी दारूण होती है, यह मैं भी जानता हूं अौर अाप भी. ( 22.01.2018)  

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