Wednesday, 6 December 2017
कांग्रेस के लिए यह पुराना ही नया है
Tuesday, 28 November 2017
184 किसान संगठन अौर एक किसान
अापने ठीक कहा है उप-राष्ट्रपतिजी !
Saturday, 21 October 2017
एक अौर गौरी
Sunday, 15 October 2017
आंबेडकर डर-डर कर चलता सफर
यह हिसाब कोई लगाता नहीं है लेकिन किसी-न-किसी को लगाना चाहिए कि भारतीय समाज में बाबसाहेब आंबेडकर ने अपनी दलित पहचान को हथियार बना कर जो राजनीतिक सफर शुरू किया था, वह इतने वर्षों कहां पहुंचा है और अब आज इसकी संभावनाएं कितनी बची हैं और कितनी सिद्ध हुई लगती हैं ! यह जानना या इसका आकलन करना जरूरी इसलिए नहीं है कि इससे बाबासाहेब की महत्ता में कोई फर्क पड़ेगा याकि इसके आधार पर हम उन्हें विफल करार दे सकते हैं. सवाल उनकी महत्ता या विफलता का नहीं है बल्कि समाज के हर उस आदमी की सार्थकता का है जो सामाजिक न्याय व समता के दर्शन में किसी भी स्तर पर भरोसा करता है. एक स्तर पर यह इसका भी आकलन हो सकता है कि दलित नेतृत्व के नाम पर आजादी के बाद जो राजनीति चली और जिसने बाबासाहेब को आक्रामक प्रतीक बना कर सबको धमकाने-डराने का काम किया, वह सारत: क्या साबित हुई और उसमें अब कितनी और कैसी संभावना बची है.
आंबेडकर को हिंदू समाज ने जैसा जीवन दिया, आंबेडकर ने उसे वैसा ही प्रत्युत्तर दिया और वही उसे वापस लौटाया ! उनके मन व चिंतन में हम गहरी प्रतिक्रिया और तीखा विक्षोभ देखते हैं, वह वहां से आया है. हम उसे अस्वीकार या स्वीकार कर सकते हैं लेकिन इन दोनों से ज्यादा बड़ी बात यह है कि हम उसे समझ सकते हैं. जिसे हम समझ सकते हैं वह प्रतिभाव बहुत ठोस होता है. आंबेडकर के संदर्भ में वह इतना स्वाभाविक और स्वाभिमान से भरा है कि उसकी तरफ से आंख फिराना आंख का अपमान होगा. इसलिए आंबेडकर के वक्त में किसी के लिए भी उनसे आंख चुराना संभव नहीं हुआ था, आंख मिलाने की स्थिति भी बिरलों की ही थी. आंख मिलाने वालों में गांधी सबसे अव्वल थे.
गांधी और आंबेडकर दोनों का बोधिवृक्ष एक ही था - जातीय अपमान व घृणा ! गांधी बोध को तब उपलब्ध हुए जब वे दक्षिण अफ्रीका के मारित्सब्बर्ग स्टेशन पर, एक सर्द रात में रेल के डिब्बे से सामानसहित निकाल फेंके गए थे. आंबेडकर जन्म से ही ऐसे दारुण अनुभवों से गुजरते हुए बोध को तब उपलब्ध हुए जब बडोदरा के उस पारसी होस्टल से उन्हें सामानसहित निकाल फेंका गया जिसमें बडोदरा महाराजा के निर्देश पर, उनके एक विशिष्ट मंत्री की हैसियत से उन्हें रखा गया था. गांधी दक्षिण अफ्रीका के उस स्टेशन से उठे तो कटुता व विक्षोभ के तमाम बंधनों को काटते हुए एक नई दुनिया के सर्जन में प्राणपण से जुट गये - एक ऐसी दुनिया, जो मूल्यों के लिहाज से भी और व्यवहार के लिहाज से भी आज की दुनिया से एकदम भिन्न होगी. आंबेडकर बडोदरा के होस्टल से उठे तो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर इतनी प्रखरता से भासमान हुए कि लोगों की नजरें चौंधिया गईँ. अचानक ही तब के अछूत समाज को अपनी खोई हुई आवाज और अपना खोया हुआ व्यक्तित्व मिला और वह बोलता-चलता और हर विमर्श में अपनी जगह बनाता दिखाई देने लगा.
लेकिन एक बड़ा फर्क भी हुआ - गांधी जब अपनी नई दुनिया का नक्शा बनाते और उसके कील-कांटे गाड़ते-ठोकते थे तो वह बुनियादी परिवर्तन के लिए ही होता था. उन्हें अपनी नई दुनिया अपने लिए नहीं बनानी थी, सारे इंसानों के लिए बनानी थी और इसलिए उन्हें ढांचे व मन दोनों स्तरों पर लगातार काम करना था. आंबेडकर के लिए सारे इंसानों का मतलब अपने अछूत समाज से शुरू होता था और आज के समाज में जहां उसकी जगह बनती थी, वहां समाप्त हो जाता था. राजनीति का मतलब ही यही होता है - जो आज है उसमें अपनी जगह बनाना; जो प्राप्त है उसमें से अपना हिस्सा लेना ! गांधी का रास्ता अलग जाता था क्योंकि वह अलग संसार बनाने में लगा था. यह फर्क था, है और जब तक हम इसे बुनियादी तौर पर समझ नहीं लेंगे तब तक बना रहेगा. इसलिए गांधी को यहीं छोड़ कर हम आगे चलते हैं.
भारतीय समाज में अपने अछूत समाज के लिए जगह बनाने के अपने धर्मयुद्ध में आंबेडकर कहां पहुंचे और उनका समाज कहां पहुंचा, इसका आकलन आज करना शायद संभव भी है और जरूरी भी क्योंकि उनके नाम पर चलाई गई पूरी दलित राजनीति आज अौंधै मुंह गिरी और बिखरी पड़ी है. तब वाइसरॉय की कौंसिल में जगह पाने और बाद में लोकसभा में जगह बनाने की अपनी कोशिशों के कारण आंबेडकर की वही विरासत बनी, वही उनके समाज ने पहचानी और वही संभाली भी. अपने आखिरी दिनों में आंबेडकर खुद भी इस कटु सत्य को पहचान सके थे और क्षुब्ध-लाचार इसे देखते रहे थे. उनका यह अवसान भी करीब-करीब गांधी की तरह ही था. आखिरी दिनों में आंबेडकर के सेवक रतिलाल रत्तू ने इसका मार्मिक विवरण लिखा है.
भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाने की आंबेडकर की वह कोशिश बहुत रंग नहीं ला सकी क्योंकि ताउम्र आंबेडकर कभी भी पूरे दलित समाज के सर्वमान्य नेता नहीं बन सके. प्रचलित राजनीति में इस सर्वमान्यता से प्राप्त संख्याबल का ही निर्णायक महत्व होता है. इसी गणित से हिंदू समाज की सिरमौर जाति ब्राह्मण समाज से आने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू को चलना पड़ा, स्त्री-जाति से आई इंदिरा गांधी को चलना पड़ा, यही गणित था जिसकी चूल बिठाने में कांशीराम की सारी उम्र गई और यही समीकरण है कि जिसने मायावती से ले कर तमाम दलित नेताओं को हलकान कर रखा है और आज सभी अपने-अपने पिटे मोहरे संभालने में लगे हैं. सवाल है कि क्या सत्ता का समीकरण बिठा लेने से समाज का समीकरण भी बनता और बदलता है ? और शायद यह भी कि क्या समाज का समीकरण न बदले तो सत्ता का बदला हुआ समीकरण टिकाऊ होता है ? जवाब हम आंबेडकर के नाम पर चलने वाली राजनीति में खोजें तो पाएंगे कि समाज के सामान्य विकास का जितना परिणाम दलित समाज पर हुआ है, उसके अलग या अधिक राजनीति ने उसे कुछ भी नहीं दिया है.
दलित राजनीति के नाम पर कई नेता बने भी हैं और स्थापित भी हो गए हैं लेकिन उनका दलित समाज से वैसा और उतना ही नाता है जितना किसी भी सवर्ण नेता का उसके अपने समाज से है. अगर हम ऐसा कहें कि तमाम दलित नेता सवर्ण राजनीतिक नेताओं की अच्छी या बुरी प्रतिच्छाया बन कर रह गये हैं, तो गलत होगा क्या ? सत्ता तक पहुंचने के तमाम समीकरणों का अनिवार्य परिणाम यह हुआ है कि दलित राजनीति जोड़-तोड़ का, राजनीतिक सौदा पटाने का अखाड़ा बन गई है और धीरे-धीरे वह पूरी तरह बिखर गई है. दलित समाज और दलित राजनीति के बीच भी उतनी बड़ी व गहरी खाई खुद गई है जितनी सवर्ण राजनीति व सवर्ण समाज के बीच है. जिस भूत से लड़ने का आंबेडकर का संकल्प था वही भूत दलित राजनीति को कहीं गहरे दबोच चुका है. तब आंबेडकर की इस सोच की मर्यादा समझ में आती है कि जैसे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है यह भ्रामक है वैसे ही समाज परिवर्तन सत्ता की ताकत से होता है, यह भी भ्रामक है.
सत्ता पाने की आराधना और समाज बदलने की साधना दो भिन्न कर्म हैं जो भिन्न मन व संकल्प से करने होते हैं. समाज बदलेगा तो एक नई राजनीति बनेगी ही लेकिन इसी राजनीति के बंदरबांट से कोई नया समाज बनेगा यह वह आत्मवंचना है जिसे पहचानने में आंबेडकर विफल हुए थे और दलित राजनीति जिससे लहूलुहान पड़ी है. यहां से आगे का कोई रास्ता तभी बनेगा जब गांधी-आबेडकर का नया समीकरण हम तैयार कर सकेंगे. आज भारतीय समाज इसी मोड़ पर खड़ा किसी नये आंबेडकर की प्रतीक्षा कर रहा है. ( 14.10.2017 )
Sunday, 1 October 2017
गांधी का झाडू
Tuesday, 26 September 2017
नहीं, मुझे गांधी नहीं चाहिए !
कॉलेज के उस हॉल में सौ के करीब युवा होंगे - हमारे देश की नई पीढ़ी के नुमाइंदे ! सभी कॉलेज वाले थे जिन्हें मैं इस देश के युवाअों का सबसे अधिक सुविधा व अवसर प्राप्त वर्ग मानता हूं. सभी गांधी को न मानने व न चाहने वाले थे. मैंने पूछा : अाप सब एक-एक कारण बताएं कि अापको महात्मा गांधी से क्या परेशानी है ?
अभी तक का नकारात्मक माहौल अचानक चुप हो गया ! अापस में खुसफुस चल रही है, यह तो मैं देख रहा था लेकिन कोई जवाब बन रहा हो, यह नहीं देख रहा था. कुछ थे कि जिन्होंने बड़ी हिम्मत जुटा कर अाधे-अधूरे वाक्यों में अपनी बात कही जिसका बहुत सीधा संबंध गांधी से नहीं था. मसलन यह कि गांधीजी ने अहिंसा की बात की जबकि हमें तो सारे भ्रष्टाचारियों को गोली मार देनी चाहिए.
मैंने पूछा : तुम गांधी की बात मानते हो क्या ?
वह तुनक कर बोला : हर्गिज नहीं!
“तो फिर रोका किसने ? गोली मार दो न !!”
वह हैरानी से मेरी तरफ देखने लगा ! लगा, जैसे ऐसा जवाब या किसी को मार देने के बारे में ऐसी सलाह उसे कभी मिली नहीं हो; या फिर उसने कभी सोचा ही न हो कि मार डालने की जो बात वह हर सांस में बोलता है, उसे करने के बारे में वह एकदम कोरा है !
मैंने थोड़ा अौर इंतजार किया कि कोई मजबूत जवाब अाए लेकिन सब उलझे हुए ही दीखे ! फिर मैंने ही कहा : नहीं भाई, मुझे गांधी की बिल्कुल ही जरूरत नहीं है ! मुझे तो नहीं चाहिए यह गांधी, क्योंकि मुझे पिछड़ापन नहीं चािहए ! गरीबी अौर अशिक्षा को मैं तुरंत दूर करना चाहता हूं जबकि गांधी उसी का गुणगान करते हैं. मुझे ऐसा समाज चाहिए कि जो तेजी से विकास करता हो. इसलिए मैं क्यों देखूं कि दूसरे का क्या हो रहा है, मुझे तो अपना देखना है ! मैं ऐसा समाज चाहता हूं जिसमें सबके पास अफरात हो, किसी चीज की कभी कमी न रहे, इसलिए मुझे यह देखना नहीं है कि पर्यावरण का क्या हो रहा है; कि नदियों का क्या हाल है; कि हमारे पास जो अफरात है ऐसा दीखता है, वह कहां से अाता है. मुझे मेरी जरूरत का िमल जाए मांगने से, चुराने से याकि छीनने से तो मेरे लिए बस है. मैं दूसरे का कुछ भी छीनना नहीं चाहता हूं तब तक, जब तक मेरी जरूरतें पूरी हो रही हैं. लेकिन मुझे दिक्कत होगी, तो मैं दूसरों को भी चैन से जीने नहीं दूंगा. गरीबों से मेरी भी हमदर्दी है लेकिन हमदर्दी से पेट तो भरता नहीं है. इसलिए मैं जब इतना कमा लूंगा कि मेरी सारी जरूरतें पूरी हो जाएं, तो फिर दूसरों की सोचूंगा.
मैं ऐसा भारत चाहता हूं िक जिसमें भ्रष्टाचार न हो, मिलावट न हो, गंदगी न हो अौर सभी एक-दूसरे की मदद करते हों लेकिन ऐसा भारत बनाने का काम करने का अभी मेरे पास समय नहीं है. अभी तो यह काम दूसरे करें, जब मेरे पास समय होगा तो मैं भी जरूर इस काम में सबके साथ काम करूंगा. मेरा किसी धर्म से कोई झगड़ा नहीं है लेकिन मेरा अपना धर्म भी तो है जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है ! इसलिए मैं जान लगा कर अपने धर्म की रक्षा करूंगा अौर इस रास्ते में जो अाएगा, उसकी जान का भगवान मािलक ! ….
मैं अौर भी बहुत कुछ कहना चाह रहा था ताकि गांधीजी की अब हमें कोई जरूरत नहीं है, यह बात पुख्ता प्रमाणित हो कर इन युवाअों के मन में बैठ जाए. लेकिन मेरी हर बात के साथ सामने बैठे युवाअों के चेहरों पर जो उमड़ रहा था वह था गहरे असमंजस का भाव ! यह भाव इतना गहरा व साफ-साफ दिख रहा था कि मुझे रुकना पड़ा ! मैंने बात बंद कर दी. अब दोनों तरफ से प्रश्नाकुल नजरें थीं. कौन बोले, ऐसा भाव था. फिर मैंने ही चुप्पी तोड़ी :
“ क्या हुअा ? … तुम सब मेरी तरफ ऐसी नजरों से क्यों देख रहे हो ?”
चुप्पी थोड़ी लंबी खिंची. फिर एक लड़की झिझकते-झिझकते बोली : “ सर, अाप यहां गांधीजी के बारे में बोलने अाए थे न !”
“ हां !”, मैंने जल्दी से अपनी सहमति दे दी.
“ तो अाप तो गांधीजी के खिलाफ ही बोल रहे हो !”
“ तो तुम लोगों ने भी तो मुझको पहले ही बता दिया था न कि तुम सब न गांधी को मानते हो, न चाहते हो !”
वह फिर बोली : “ लेकिन इसका मतलब ऐसा थोड़े ही न हुआ कि हम गांधीजी के बारे में बुरी बात करें !”
“ लेकिन मैंने गांधीजी के बारे में कोई बुरी बात कही ही कहां ! … मैं तो इतना ही कह रहा था न कि मैं अपनी जिंदगी कैसे जीना चाहता हूं अौर मैं अपना देश कैसा बनाना चाहता हूं !”
“ लेकिन सर,” इस बार वह पहला अहिंसा न चाहने वाला युवक बोला : “ हम वैसा समाज तो नहीं चाहते हैं जैसा अाप बता रहे थे !”
“ तो जैसा समाज चाहते हो, वैसा बनाअो तो !… बनाने लगोगे तो गांधी तुम्हारे साथ अा जाएंगे; अागे चलोगे तो तुम गांधी के साथ अा जाअोगे !… गांधी दूसरा कुछ नहीं है मित्रो, अपनी पसंद का समाज बनाने का नाम है ! … हमें गांधी इसलिए पसंद नहीं अाते हैं कि हम चाहते हैं कि समाज बनाने का काम दूसरे करें, हम उनके बनाए समाज में अाराम से रहें ! … गांधी को यह पसंद नहीं है. वे कहते हैं कि हर किसी को अपने रहने का समाज खुद ही बनाना चाहिए, अौर जब तुमको बनाने की अाजादी मिलेगी तो तुम वही बनाअोगे जो तुम्हें पसंद है; अौर तब तुम देखोगे कि तुम्हारी पसंद अौर गांधी की पसंद में ज्यादा कोई फर्क है नहीं !”
ऐसा हाल युवाअों का ही नहीं, हम सबका है. हम मानते हैं कि गांधी हमें पसंद नहीं हैं क्योंकि हम जानते ही नहीं है कि हम गांधी को जानते नहीं हैं ! यह गांधी की भी अौर हमारी भी कमनसीबी है. ( 27.09.2017)