Tuesday, 30 September 2025

आपातकाल का अंधेरा

अंधकार की भी आंखें होती हैं ! इतिहास उन्हीं आंखों से अंधकार के पार देखता है और नया इतिहास लिखता है. आपातकाल हमारे लोकतांत्रिक इतिहास का ऐसा ही अंधेरा हैभारत का मतदाता जिसके पार देख सका था और नया इतिहास रच भी सका था. लेकिन अंधकार को भेदने वाली आंखों का एक सच यह भी है कि वे अंधी न हों. भला सोचिए नअंधी आंखें क्या तो देखेंगीक्या तो समझेंगी ! 

      26 जून 1975 को आपातकाल का अंधेरा सारे देश का आसमान लील गया था. ऐसा अंधेरा देश ने देखा नहीं था कभी. भारतीय लोकतंत्र को आपातकाल की चादर तले ढक करउसका दम घोंटने की यह अत्यंत गर्हित कोशिश श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने की थीयाकि पार्टी को शून्य बना कर इंदिराजी ने की थी. कांग्रेस ने तो अपना नाम भी बदल कर कांग्रेस (इं) कर लिया था ताकि आंखों की शर्म भी क्यों रहे. 

      उस आपातकाल के 50 साल पूरे हुए. इसे देखने के भी दो नजरिये हैं : एक कहता है कि आपातकाल के 50 साल पूरे हुएमैं कहता हूं कि एकाधिकारवादी राजनीतिक ताकतों को चुनौती दे कर परास्त करने के 50 साल पूरे हुए. न लोकतंत्र पर वैसा हमला हुआ था पहले कभीन पार्टियों को पीछे छोड़ती हुई जनता ने कभी उठ कर अपने लोकतंत्र के संरक्षण की वैसी लड़ाई लड़ी थी कभी.  ये दो तस्वीरें नहीं हैंएक ही तस्वीर को देखने की दो नजर है. यह तस्वीर है संपूर्ण क्रांति आंदोलन की ! 

      यह भूलना राजनीतिक अंधता है कि आपातकाल आसमान से टपका नहीं था बल्कि एक अभूतपूर्व जनांदोलन का मुकाबला करने के लिएसंविधान को तोड़-मरोड़ कर निकाला गया वह हथियार था जिसकी धार इस देश के अनपढ़अशिक्षित व असंगठित मतदाता ने पहला मौका मिलते ही कुंद कर दी. कोई 15 महीने चले इस आंदोलन को भूल कर या भुला कर आपातकाल के विषय में निकाला गया हर निष्कर्ष रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक है. 

      सत्ताधीशों के लिए 1947 में भी जरूरी हो चला था कि गांधी की लोकक्रांति की अवधारणा को जनता की नज़र से हटा करएक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि गांधी दीवार पर लटके फ़्रेम से बाहर न आ सकें. यह काम उन लोगों ने किया जो गांधी को अपराधी नहीं मानते थेउनको अपमानित नहीं करते थेदिल से उनकी इज़्ज़त करते थे लेकिन उन्हें आज़ाद भारत के लिए अनुपयोगी मानते थे. 

      1977 में भी सत्ताधीशों के लिए जरूरी हो गया कि जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति की अवधारणा को जनता की नजर से ओझल करएक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि वे लोकविहीन लोकनायक भर रह जाएं. यह तुलना जयप्रकाश को गांधी बनाने की फूहड़ कोशिश नहीं है बल्कि क्रांति व सत्ता के रिश्ते को सफ़ाई से समझने का उद्यम है. 

      आजादी के साथ ही जिनके लिए लोकतंत्रसंविधानजनतासमतासमानतासादगीमितव्ययिता आदि किताबी अवधारणाएं मात्र रह गईं और एकमात्र सच सत्ता ही बचीउनकी एक नजर हैदूसरी नजर उनकी है जो लोकतंत्र को लोक के संदर्भ में संविधान से बंधी निरंतर विकासशील वह अवधारणा मानते-समझते व जीते हैं जिसके लिए कैसी भी सत्ता व किसी की भी सत्ता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है. ऐसी अविचलित आस्था की घोषणा जयप्रकाश ने 1974 में नहीं1922 में कर दी थी: “ स्वतंत्रता मेरे जीवन का आकाश-दीप बन गई. वह आज तक वैसी ही बनी हुई है. समय जैसे-जैसे बीतता गया वैसे-वैसे स्वतंत्रता का अर्थ केवल अपने देश की स्वतंत्रता नहीं रहा बल्कि उससे आगे बढ़ करउसका अर्थ हो गया मनुष्य मात्र की सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति ! इससे भी आगे बढ़ कर वह मानवीय व्यक्तित्व की स्वतंत्रता मेंविचारों की और  आत्मा की स्वतंत्रता में परिणत हो गया. स्वतंत्रता मेरे लिए ऐसी जीवन-निष्ठा बन चुकी है जिसका सौदा मैं कभी भी रोटीसत्तासुरक्षासमृद्धिराज्य प्रदत्त मान-सम्मान अथवा दूसरी किसी भी चीज के लिए नहीं कर सकता.” तो सिर्फ आपातकाल के नहींइस आस्था से जीने व लड़ने के भी 50 साल पूरे हुएयह भूला कैसे जा सकता है !  

      इसलिए आपातकाल के 50 साल पूरा होने का जश्न जिस तरह मनाया गयाअखबारों ने उसे जिस तरह प्रस्तुत कियावह हमें बता गया कि अंधी आंखों से देखा गया इतिहास कितना खोखला व अर्थहीन होता है. मजा यह भी देखिए कि आपातकाल एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सत्ता पक्ष व विपक्ष एक ही स्वर में बोलते हैं : आपातकाल की भर्त्सना ! 1977 के बाद सेइसकी आड़ में सभी तीसमारखां बने जाते हैं जबकि इनमें से अधिकांश न संपूर्ण क्रांति के आंदोलन से सहमत थेन उसके सिपाही थेन आपातकाल से भिड़े थेन उससे किसी स्तर पर समझौता न करने का जिनका प्रण था. बरसाती मेंढकों का ऐसा प्रहसन पहली बार नहीं हो रहा है. 1947 न आएइसके लिए रात-दिन काम करने वाले कितने की योग्य’ जन थे जिन्होंने 1947 के आते ही कपड़े बदल करआजादी के नारे लगाने शुरू कर दिए. हमने देखा कि जवाहरलाल गुलामी के मनकों से आजादी का बंदनवार सजाने में जुट गएसरदार गुलामी को पुख्ता बनाने में जुटी नौकरशाही की फौज ले कर आजादी का राजमार्ग बनाने में लग गए. फिर जो बनावह कहानी फिर कभी.   

      1977 में आई दूसरी आजादी’ की पहली सुबह ही बीमार व इंच-इंच मौत की तरफ़ खिसकते जयप्रकाश ने सर्वोदय के अपने साथियों से जो कहा सो कहानई सरकार में कुर्सी संभालने जा रहे लोगों को सामने बिठा कर दो बातें कहीं : सत्ता की कुर्सी बहुत खतरनाक होती है. इसलिए जब कभी आपकी सत्ता व जनता के बीच आमने-सामने की स्थिति बनेतो इंदिराजी ने जैसा व्यवहार कियामैं आशा करता हूं कि मोरारजी देसाई वैसा व्यवहार नहीं करेंगे. यह व्यक्तिगत शील भर की बात नहीं थीसीधा संदेश था कि संवैधानिक शक्तिओं का इस्तेमाल करते हुएवे सारी व्यवस्थाएं आप कीजिए जिससे भविष्य में कोई आपातकाल की तलवार जनता पर न चला सके. दूसरी बात उन्होंने इनसे बाद में कही : एक साल के लिए देश के सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर दीजिए और ऐसी योजना बनाइए कि पढ़ने व पढ़ाने वाले दोनों ही भारत के लाखों गांवों में बिखर जाएंअसली भारत को देखें-पहचानें तथा उसके साथ जीना व चलना सीखें. दूसरी तरफइसी अवधि में देश भर के शिक्षाविद् सर जोड़ कर बैठें व हमारी शिक्षा की नई व्यवस्था का खाका तैयार करें. जिन्हें याद न होउनको याद कराता हूं कि शिक्षा में क्रांति’ संपूर्ण क्रांति की संकल्पना का एक अहम आयाम था. आजाद भारत में नये मन कानया नागरिक तैयार करने की यह वही तड़प थी जिससे बेचैन गांधी ने 2 फरवरी 1948 को अपने सेवाग्राम आश्रम में अपने ख़ास सिपाहियों का सम्मेलन’ बुलाया था जिसमें आज़ाद भारत की सरकार का एक भी व्यक्ति उन्होंने शरीक नहीं किया था. लेकिन 2 फरवरी के आने से पहले आई 30 जनवरी और 3 गोलियों से गांधी को चुप करा दिया गया1977 के आते ही जयप्रकाश को प्रधानमंत्री ने सावधान कर दिया : जयप्रकाश बाहर के आदमी हैं. हम उनके प्रति जवाबदेह नहीं हैं. 

      आपातकाल के अंधेरे में इतिहास के ये दोनों पन्ने खो न जाएंइसकी सावधानी हमें रखनी है.     

      1977 के बाद से हम देख रहे हैं कि आपातकाल को 26 जून में महदूद कर दिया गया है. हर साल 26 जून को इसकी आड़ में कांग्रेस पर निशाना साधा जाता है. 2014 के बाद से यह खेल ज्यादा ही वीभत्स व फूहड़ हो चला है. कांग्रेस की इतिहास की समझ ऐसी पैदल है कि वह या तो चुप्पी साध बैठती है या आपातकाल से पहले की एनार्की की तस्वीर खींच करआपातकाल का औचित्य बताने लगती है. दोनों ही कांग्रेस की पराजित मनोभूमिका की चुगली खाते हैं. क्या कांग्रेस को याद नहीं है कि इंदिरा गांधी ने भीराजीव व मनमोहन सिंह ने भी आपातकाल’ को अपनी की तरह क़बूल किया था. आपातकाल को अनुशासन पर्व’ कहने वाले विनोबा भावे ने भीआपातकाल के बाद अपने साथियों के साथ बैठ कर कहा था कि बाबा से भी कई गलतियां हुई हैं. आप उसे भूल कर आगे बढ़िए ! 

      कांग्रेस के मन में यदि चोर नहीं है तो उसे पूरे विश्वास सेहर बार संघ परिवार के झूठे तेवर का खंडन करना चाहिए और कहना चाहिए कि 50 साल पहले लिया गया वह निर्णय हमारी चूक थी जिससे हम बहुत दूर निकल आए हैं. यह एकदम वैसी ही चूक है जैसी वामपंथियों की गांधी-आंदोलन को साम्राज्यवाद की दलाली बताने व उसे कमजोर करने वाली चूक थी याकि संघ परिवार की आजादी के आंदोलन को लगातार धोखा देने और सांप्रदायिकता को उभार कर सत्ता पाने की चालबाजी थी. ऐसी ही चूक सीपीआई ने कीसर्वोदय के गिनती भर के उन लोगों ने की जिन्होंने विनोबा की आड़  में सत्ता से तालमेल बिठाया. इन सारी बातों को किनारे कर यदि हम आगे चल रहे हैंतो कांग्रेस को उसकी चूक की याद दिला कर आगे चलने में क्या गलत हैआगे चल रहे हैं इसका मतलब यह नहीं है कि आपके पिछले कारनामों को भूल गए हैं. आपको हर नाजुक परिस्थिति में यह साबित करना होगा कि आप अपनी उस गलती से सीख कर आगे निकल आए हैं. इतिहास ने ऐसे सभी लोगों के कंधों पर यह उधार रख छोड़ा है.  

      आपातकाल की याद हमें इस तरह करनी चाहिए कि सत्ताएं हमेशा सारी शक्ति अपने हाथ में समेटने की युक्ति खोजती रहती हैं. लोकतंत्रसंविधान आदि नहींसत्ता उनकी निष्ठा की पहली व अंतिम कसौटी होती है. इसलिए यह याद रखने की ज़रूरत है कि यदि जयप्रकाश नाम का यह एक आदमी न होता तो 1974 से शुरू हुआ सारा संघर्षलोकतंत्र में उजागर हुई लोक की भूमिकावोट को हथियार की तरह बरतने का तेवरसंपूर्ण क्रांति के संदर्भ में समाज परिवर्तन के आयामों को समझने की दृष्टिदलों की नहीं,  निर्दलीय शक्ति की लोकतांत्रिक भूमिकाएक व्यापक लोकतांत्रिक संघर्ष के मद्देनजर गांधी की सामयिकतायुवाओं की गत्यात्मकताशांतिमयता से अहिंसा तक की यात्रा  आदि-आदि कितने ही अमूल्य मोती जो हमें मिलेनहीं मिले होते. अगर जयप्रकाश नहीं होते तो संसदीय लोकतंत्र की आड़ में मुंह छिपाए बैठी तानाशाहीसत्ता व पूंजी की आपसी साठगांठ व अपरिमित भ्रष्टाचारनिहित स्वार्थों का भयंकर क्रूर व काइयां गंठजोड़हमारे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे में तथाकथित उच्च जातियों व पुरुष-वर्चस्व आदि को हर स्तर पर वैसी चुनौती नहीं मिलती जिससे बिलबिला कर आपातकाल की तोप दागी गई थी. जो आपातकाल को विपक्ष व इंदिरा गांधी के बीच की रस्साकशी की तरह देखना व समझना चाहते हैंवे जड़ को भूल कर पत्ते गिन रहे हैं. आराम से वक्त काटने का यह तरीका हमारे तथाकथित बौद्धिकों को रास आता है लेकिन यह अर्थहीन है. इसलिए तो आपातकाल का पहला नतीजा हमने देखा कि यह वर्ग सबसे पहले शरणागत हुआ फिर चाहे व कलमधारी रहा हो कि रंग-ब्रश वाला कि अखबारी कि सभ्यता-संस्कृति का झंडाबरदार ! इन सबके ही सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे न जो प्रतिनिधिमंडल ले कर इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की बधाई देने पहुंचे थेऔर इनमें से ही कई थे जो 1977 में जनता पार्टी की सफलता के बाद जयप्रकाश को बधाई देने भी पहुंचे थे.ऐसे लोग लोकतंत्र के लोक के साथ नहींतंत्र के साथ रहने में सुख पाते हैं. यदि जयप्रकाश नहीं होते तो 1974 को मुट्ठी भर ऊधमी छात्रों का तमाशा बता कर दबा-बिखरा दिया गया होतापटना व दिल्ली की सत्ता हमें झांसा देकरख़रीद करडरा कर सब कुछ डकार गई होती. इतिहास में हमारे हिस्से दो पंक्तियां भी दर्ज नहीं होतीं. 

      जयप्रकाश ने हमारे छोटे-सेआधे-अधूरे प्रयास को अपनी हथेली पर इस तरह संभाला कि वह विराटतर होता गया और हम आसमान में उतने ऊपर उड़ सके जितना इंसान उड़ सकता है. यह काव्य नहीं है. कभी जयप्रकाश ने विह्वल हो कर बताया था कि कैसे गांधी नाम के उस एक आदमी ने सारे देश की सामूहिक चेतना को झकझोर करउसे उस दिशा में सक्रिय कर दिया था जिसे आजादी की दिशा कहते हैं - राष्ट्र की आजादी से ले कर मानव-मात्र की आजादी ! ऐसी संपूर्ण आजादी का अहसास भी तब कहां था ?  

      एक आदमी ! यहीं पहुंच कर तो जयप्रकाश अपनी आस्था के दर्शन मार्क्सवाद से विलग हुए थे जो एक आदमी की भूमिका को खारिज करता है और व्यक्ति की विशिष्ठ क्षमता व अवदान को  द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की वेदी पर बलि चढ़ा देता है. अगर भौतिकता की गति से ही सब कुछ निर्धारित होता हैतब व्यक्ति की अपनी भूमिका काउसके पुरुषार्थ का कोई मतलब बचता ही कहां है जयप्रकाश ने ही पूछा था कि अगर ऐसा है तो फिर किसी आदमी के भीतर अच्छाई की प्रेरणा का आधार क्या है मार्क्स ने जवाब नहीं दियागांधी ने दिया - अपनी शांत किंतु अकंपित आवाज में उन्होंने कहा : इतिहास की गति भी इंसान ही तय करता है. इसलिए इतिहास के सर्जन मेंसंस्कृति के संस्कार मेंसमाज की चेतना को आकार देने में व्यक्ति के अभिक्रम की निश्चित व निर्णायक भूमिका है. बससावधानी यह रखनी है कि व्यक्ति का सारा अभिक्रम सामाजिक अभिक्रम को उत्प्रेरित करने वाला हो. वह नहीं हो तो व्यक्तिपूजा व एकाधिकारशाही पनपती हैवह हो तो लोक की हैसियत बनती व बढ़ती है. 

      यही भूमिका तब जयप्रकाश ने निभाई. हमने भी कहां कभी देखा-सुना-पढ़ा याकि अनुभव किया था कि एक आदमी अपने वक्त की हवा बना भी देता हैबदल भी देता है. धर्मवीर भारती ने अंधायुग में इसे पहचानने की कोशिश की थी: भगवान श्रीकृष्ण ने “ विशादग्रस्त अर्जुन से कहा - मैं हूं परात्पर ! / जो कहता हूं करो/ सत्य जीतेगा / मुझसे लो सत्यमत डरो ! … जब भी कोई मनुष्य / अनासक्त हो कर चुनौती देता है इतिहास को/ उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है /नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित/ उसको हर क्षण  मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है.” 

      अंधायुग जब मैंने जयप्रकाश को एक रेलयात्रा के दौरान पढ़ कर सुनाई. कृष्ण का जैसा रूपाकार भारतीजी ने उभारा हैउससे वे एकदम आर्द्र हो उठे थे. दूसरी सुबह किताब मांग करखुद उसे फिर से पढ़ा और फिर किताब मुझे सौंपते हुए स्वत: ही बुदबुदाए … पता नहीं इंसान में ऐसी क्षमता कैसे आती है … 

      हमने अपनी आंखों देखा और अपने प्राणों उसे जिया कि कैसे एक आदमी के नि:स्वार्थ अभिक्रम से समाज में अनीति व अन्याय के प्रतिकार की क्षमता पैदा होती है. संपूर्ण क्रांति का पूरा दर्शन व उसकी रणनीति जयप्रकाश की निष्कलुष साधना व साहसिक प्रयोग का अभियान था. इसी अभियान के दौरान हमारी समझ में आया कि दलों की जीत-हार से आगे भी कोई लोकतंत्र होता हैऔर उस लोकतंत्र को साकार करने का काम बड़ा ही पित्तमार है. गांधी अपनी आत्मा का अंतिम सत्व होम कर जिन लोगों तक यह स्वप्न पहुंचा सकेजयप्रकाश उनमें सबसे निराले व आकर्षक थे. इसलिए गांधी ने लिखा भी कि “ मैं जयप्रकाश को हज़म करना चाहता हूं… क्यों कि मैं जानता हूं कि मेरे बाद वह मेरी भाषा बोलेगा.” 

      1974 से हम जयप्रकाश को खोजने-पहचानने बैठैंगे तो भूल भी करेंगे व विफल भी होंगे. जयप्रकाश ने गांधी की वह भाषा सीखी-समझी ही नहींउसे उन्नत व सर्वग्राही भी बनाया. 1974 आते-आते उन्हें यह अहसास हो चला था कि वक्त की छन्नी में उनके लिए बहुत थोड़ी रेत बची है. वह पूरी तरह खाली हो जाए इससे पहले वे अपने समानधर्मा तरुणों को यह अहसास करा देना चाहते थे कि लोकशक्ति लोकतंत्र की मूल शक्ति है जिसे संगठित व सक्रिय करना क्रांति की सही  दिशा है. 

      इतने संदर्भों में जो आपातकाल को नहीं देख व समझ सकेंगे वे किसी दूसरे आपातकाल में डरते-भटकते या फिर किसी की चरणवंदना करते मिलेंगे जैसे आज मिल रहे हैं. हम इनमें शामिल नहीं हैंयह वह उपलब्धि है जो जयप्रकाश को काम्य थी.  ( 17.07.2025)

एक और देशद्रोही !

इस बार वह धुर लद्दाख में मिला ! एक वही जगह बाकी थी शायद जहां देशद्रोहियों की पहुंच नहीं थी. लेकिन हम गलती पर थे. वहां भी ये निकल ही आए ! आप देखिए नकहां-कहांकिस-किस रूप में ये लोग पहुंचे हुए हैंफैले हुए हैं. यहां वह उपवास की आड़ ले कर बैठा था. वह एक साथ पाकिस्तानचीनअमरीका आदि का एजेंट था. हम पहले समझ ही नहीं पाएक्योंकि हम सहज विश्वासी मन के लोग हैं. लगा शांति की बात करने वालाउपवास आदि का रास्ता पकड़ने वालाहमारी राजनीतिक चालबाजी आदि को नहीं समझने वाला एक निरर्थक-सा आदमी है तो उसे करने दो जो करना चाहे. कहां-कहां हम सबको सूंघते फिरें ! आखिर लोकतंत्र भी तो एक रस्म है न कि जिसे भी हमें निभाना पड़ता है. लेकिन अब लगता है कि वे अंग्रेज ही सही थे कि जो उपवासशांतिअहिंसा आदि का ढोंग समझते थे और गांधी को ज्यादा घास नहीं डालते थे. हमने डाली तो देखिए यह सोनम वांगचुक भी शेर बनने लगा ! अब शेर को उसके जंगल में छोड़ दें तो और खतरासो उसे जोधपुर जेल में ला धरा है हमने. अब उसे यहां अपना-सा कुछ भी न मिलेगा — न हवान पानीन लोगन धरती ! अपनी जमीन से काट दो बड़े-से-बड़ा सूरमा भी चूहा बन जाता है.   

यह कहानी है जो पिछले 5-7 दिनों से बेतहाशा लिखी-कही-फैलाई जा रही है. सरकार का आईटी सेल पूरी वफ़ादारी के साथ सोशल मीडिया परगोदी मीडिया परफोटो मीडिया पर जहांजो सूझ रहा है वही चेंपे जा रहा है. जी आका’ के उन्माद में वे यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि एक व्यक्ति को एक साथ चीनअमरीकापाकिस्तान का एजेंट करार देना आपके ही दिमागी दिवालियापन का प्रमाण है. कोई अमरीकी डीप स्टेट का और चीन की रेड आर्मी’ का काम एक साथ कैसे कर सकता है,यह हमारे अतिशय कुशाग्र विदेशमंत्री जयशंकर के अलावा दूसरा कोई न समझ सकता हैन समझा सकता है. 

अब सोनम वांगचुक को बचने-छिपने के लिए कोई जगह नहीं मिलेगी. सत्ता की ऐसी अंधी धमक चला रखी है दिल्ली ने कि कार्यपालिका के जी-हुजूरों की बात कौन करेदिल्ली अपनी मूल्यविहीन सत्ता-लालसा का सिक्का चलाए रखने के लिए फौज-पुलिस का खुला राजनीतिक इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचक रही है. याद है न कि ऑपरेशन सिंदूर के झूठ को सच बनाने के लिए किस तरह सेना के अधिकारियों का इस्तेमाल किया गया था और किस तरह वायु सेनाध्यक्ष एयर मार्शल ए.पी. सिंह और फिर भारतीय सैन्य सेवा प्रमुख जेनरल अनिल चौधरी ने इनकी पोल खोल दी थी ! इस बार सामने लाए गए हैं लद्दाख के पुलिस महानिदेशक कोई श्रीमान एस.डी.सिंह जामवाल. उनसे कहलवाया जा रहा है कि लद्दाख में हुई हिंसा के प्रेरक-जनक-योजनाकार सोनम वांगचुक थे जिनके तार पाकिस्तान से जुड़े हैंअमरीकी फंडिंग की ताक़त हैं उनके पास. जामवाल का कहना है कि यदि प्रदर्शनकारियों पर गोली चला कर हमने कुछ लोगों को ढेर नहीं कर दिया होता तो सारा लद्दाख जल कर राख हो जाता. जामवाल ने ही यह रहस्य भी खोला कि उनके 70-80 पुलिसकर्मी घायल पड़े हैंऔर  यह भी कि उन लोगों को खुफिया जानकारी थी कि वांगचुक व उनके साथी शांति भंग करने की तैयारी कर रहे हैं. वे यह नहीं बताते हैं कि जब उन्हें पता था कि वे ऐसी तैयारी कर रहे हैं तब आप क्या कर रहे थेनिकम्मी सरकार के निकम्मे अधिकारी! 

अब हम घटना की तरफ लौटते हैं.

सोनम अनशन पर पांचवीं बार उतरे थे. केंद्र सरकार लद्दाख के नागरिक संगठन को दिया अपना कोई वाद पूरा करने को तैयार नहीं थी. वह लद्दाख जन संगठन से बातचीत करने को भी तैयार नहीं थी. बातचीत की हर बातचीत किसी-न-किसी बहाने भटका दी जा रही थी. गुस्सा व निराशा गहरा रही थी. उसे एक मोड़ दे कर क़ाबू में रखने के लिए और सरकार पर दवाब बढ़ाने के लिए सोनम अनशन पर उतरे. आपको याद है न कि लद्दाख से चल कर सैकड़ों नागरिक कुछ माह पहले ही सोनम के साथ दिल्ली पहुंचे थे. दिल्ली में उन्हें घोर उपेक्षा मिली थी. 

यह यात्रा व इससे पहले के सारे अनशन व संवाद के प्रयास इसी कोशिश में थे कि सरकार बातचीत करेलद्दाख की सुने ताकि वहां का तनाव ढीला पड़े और बात आगे बढ़े. शुरू से ही सोनम वांगचुक की सोच व उनकी पहल इसी दिशा में रही है कि सत्ता से संवाद करसमस्याओं का रास्ता निकाला जाए. लेकिन यह सरकार भी  शुरू से ही लोगों की मांग पर बातचीत करने व लोगों का कहा सुनने को अपनी हेठी समझती रही है. एक खास विचारधारा की सरकार का मिजाज ऐसा होता है. भूमि अधिग्रहण से ले कर किसान आंदोलनबेरोजगार आंदोलनशिक्षक आंदोलनपूर्व सैनिक आंदोलन जैसे अनेक उदाहरण हैं जब यह सरकार सुनने व बातचीत करने में अपनी हेंकड़ी दिखाती रही है. वैसा ही लद्दाख के साथ भी होता रहा. 

सोनम व लद्दाख का कहना क्या है ठीक वही जो हिमालय का कहना है कि हम लोग प्राकृतिक बनावट व भौगोलिक संरचना में बाकी देश से सर्वथा भिन्न व अत्यंत नाजुक पर्यावरण के वाशिंदे हैं. हमारी जरूरतें अलग हैंहमारी प्राथमिकताएं अलग हैं. इसलिए दिल्ली की सोच व दिल्ली का मिजाज हम पर थोपिए मत ! हमसे बात कीजिए और हमें जिसकी जितनी जरूरत हैउतना हमें दे कर आप देश का दूसरा काम कीजिए. इतनी सरल-सीसीधी लोकतांत्रिक आकांक्षा है हिमालय व लद्दाख की. लेकिन कोई राज्यकोई समाज अपनी आकांक्षा हमसे पूछे बग़ैर तय करे और हमें उसे पूरा करना पड़ेऐसा लोकतंत्र सरकारों ने पढ़ा कब है ! इसलिए वह अपने एजेंट छोड़ती है ताकि वे हिमालय या लद्दाख में जा करअंदमान जा कर वहां के लोगों की एकता को तोड़ें व दिल्ली की घुसपैठ का रास्ता बनाएं. कौन हैं ये एजेंट नौकरशाहीपार्टी व पुलिस-फौज. यही खेल सब जगह चलता है. 

सोनम शिक्षा से जुड़े सज्जन व्यक्ति रहे हैं. वे बताते हैं कि वे विज्ञान में - ऑप्टिक्सलाइटमिरर में डूबे रहने वाले विज्ञान की धरा के युवा थे जिसे पारिवारिक वजहों से अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए बच्चों को पढ़ाने का काम करना पड़ाऔर लद्दाखी बच्चों को पढ़ाते हुए उनकी अपनी शिक्षा भी हुई और वे पहचानने लगे कि यह शिक्षा नहींभूसा है जो वे और दूसरे सारे शिक्षक बच्चों के दिमाग में भरते जा रहे हैं. इसी अनुभव में से नए सोनम वांगचुक का जन्म हुआ. दुनिया देखीविदेशी शिक्षण संस्थानों को देखा-समझा और फिेर अपने लद्दाख को अपने बच्चों के लिए बनाने में जुट गए. अपनी संस्था बनाईविज्ञान की अपनी पढ़ाई व अपनी मौलिकता का इस्तेमाल कर वह बहुत कुछ बनाया जिसकी चर्चा तब भी और अब भी सब तरफ़ होती है. लद्दाख की बर्फानी प्रकृति से जूझते भारतीय फौजियों को देखा तो उनके लिए ऐसे हल्के व आरामदेह टेंट बनाए की फौज धन्य हो गई. लद्दाखी बच्चों के लिए पाठ्यक्रम बनायाउसके लिए योग्य शिक्षक तैयार किएवहां के नाज़ुक पर्यावरण के अनुकूल विकास के कितने ही नए ढांचे खड़े किए. देश-दुनिया से तमाम सम्मान व पुरस्कार बरस पड़ेबरसते ही रहे. हर सरकार का स्नेह पायाहर सरकार के स्नेही रहे. कभी कोई एक उदाहरण भी नहीं खोज पाएंगे आप जब किसी सवाल पर सोनम ने सरकार की मुखालफत की हो. उनकी यह कच्ची समझ यहां तक गई कि जब जम्मू-कश्मीर को तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित करधारा 370 खत्म कर दी गई और पूरा राज्य एक बड़ी जेल में बदल दिया गयातो उसका सबसे मुखर स्वागत सोनम ने किया. लद्दाख के लिए स्वतंत्र प्रांत की अपनी मांग के रास्ते में वे धारा 370 को सबसे बड़ी बाधा मानते थे. इसलिए वह धारा खत्म की गई तो सोनम ने यह समझा कि अब लद्दाख का रास्ता खुल जाएगा. वे यह सीधी व सच्ची बात नहीं समझ सके कि दूसरे का घर लूटने वालेपड़ोस का घर नहीं भरते हैं बल्कि उसी पड़ोस को लूटते हैं जिसने पहला घर लूटने में मदद की थी. लद्दाख के साथ यही हुआ.               

ऐसी आदमी की संरचना में आप देशद्रोही का एक धागा भी खोज नहीं पाएंगे. 2020 सरकार की चीन से अनचाही तनातनी हो गई तो लद्दाख से पहली आवाज सोनम की ही उठी कि हमें नागरिक स्तर पर भी चीन को हराना हैसो हर नागरिक अपने पर्स का हथियार’ चलाए व चीनी सामान नहीं खरीदने का संकल्प ले ! सोनम को सरकार ने हाथोंहाथ लिया. कितना प्रचार व समर्थन मिला तब सोनम को. 

लेकिन बात बिगड़ी तब जब प्रधानमंत्री की लक्ष्मण-रेखा जाने-अनजाने में सोनम ने पार की. यह अपने गुजरात के साबरमती में जिनपिंग को झूला झुलाने व गले लगाने बाद का हादसा है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति को गले लगाने का खेल समझने वाले प्रधानमंत्री को अचानक जिनपिंग ने दिखा दिया कि यहां गला काटने में देर नहीं लगती है. मोदी  सरकार डर गई और हर डरे हुए आदमी की तरह उसने इस खतरे को झूठ की चादर से ढकना चाहा. प्रधानमंत्री ने भरी संसद में कहा कि न सीमा पार से कोई आया हैन कोई घुसा थान कोई घुसा है. प्रधानमंत्री देश की आंख में धूल झोंक रहे थेलद्दाख में सोनम खुली आंखों से देख रहे थे कि चीन भीतर आ घुसा हैकि लद्दाखी चरवाहों की धरती उसने कब्जा कर ली हैकि जानवरों को चराने की जगह नहीं बची हैलद्दाखी लोगों का अपनी ही धरती पर आना-जाना दूभर हो गया है. उन्होंने यह सच देश को बता दिया.

उस दिन से सोनम सरकार की नजर से गिर गए. उनकी छवि खराब करने का काम चलने लगा. उनकी उपेक्षा होने लगी और यह सावधानी बरती जाने लगी कि उनको कैसी भीकोई भी सफलता न मिले. यह सरकार हमेशा चौकन्ना रहती है कि कहींकोई भी ऐसा व्यक्तित्व न उभर सके कि जो कभीकिसी भी मौके पर सरकार से- प्रधानमंत्री से - सवाल-जवाब की हैसियत में आ जाए. सोनम यह करने लगे थे.

अब लद्दाख को अकेला कर सरकार उसे चुप कराना चाहती है. सोनम उसकी सबसे स्पष्ट व मुखर आवाज थे. उसे उसने ऐसी धारा में पकड़ कर अंदर कर दिया है जिसमें जमानत मिलना आसान नहीं है. जब सर्वोच्च अदालत हर जिम्मेवारी से कंधा झटकने में लगी हो तब तो सोनम का बाहर आना ज्यादा ही मुश्किल है. अब रास्ता एक ही है कि सारा देश लद्दाख की साथ बोले व सोनम की रिहाई की मांग करे. यह सब सोनम के रास्ते से ही हो लेकिन कमजोर या प्राणहीन न हो. हमें खुल कर और बुलंद आवाज में कहना चाहिए कि जब देश में देशद्रोहियों की संख्या इस कदर बढ़ जाए तब लोगों को नहींसरकार को पकड़ना चाहिए. 

( 29.09.2025)   

Friday, 26 September 2025

राहुल गांधी से मत पूछो !

    राहुल गांधी ने एक अजीब-सी हवा पकड़ ली है. वे बोलते जा रहे हैं लगातार, बिना इस फिक्र के कि उन्हें कौन सुन व समझ रहा है. सत्ता की राजनीति की मुश्किल ही यह है कि यहां लोग अपनी ही प्रतिध्वनि सुनते हैं और खुश होते रहते हैं कि जमाना सुन रहा है. लेकिन राहुल गांधी के मामले में बात कुछ अलग-सी भी है. राहुल गांधी राजनीतिज्ञ हैं, तो राजनीति तो कर ही रहे हैं - वह भी सत्ता की राजनीति ! - लेकिन वे जो कह रहे हैं वह सत्ता की संकीर्ण राजनीति से अलग है. वे बोल भर नहीं रहे हैं, लोगों के बीच घुस-घुस कर बोल रहे हैं, चलते-चलते बोल रहे हैं, उनका चलना ही बोलने में बदल गया है. 

    राहुल गांधी जो कह रहे हैंहम उसे अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर सुनें तो हम समझ पाएंगे कि वे जो कह रहे हैंवह बात नहींआवाज है जिसकी प्रतिध्वनि हमारे भीतर उठनी चाहिए. यदि नहीं उठती है तो राहुल गांधी तो निश्चित ही विफल हो जाएंगे लेकिन उससे कहीं बड़ी व भयंकर बात यह होगी कि हमारा लोकतंत्र विफल हो जाएगासंविधान व्यर्थ हो जाएगा और आजादी का वह सारा संघर्षजो गांधी की अंगुली पकड़ कर लड़ा गया थाअपनी अर्थवत्ता खो देगा. इसलिए मैं कह रहा हूं कि राहुल गांधी से सवाल मत पूछो. राहुल गांधी को सुनो और ख़ुद से पूछो भी और खुद को जवाब भी दो कि तुम क्या करोगेक्या कर सकोगे और  क्या करना जरूरी है.  

    भारतीय राजनीति में आज राहुल गांधी यदि हमारे पुराणकालिक किसी पात्र की भूमिका से मिलती-जुलती भूमिका में दिखाई देते हैं तो वह अभिमन्यु की भूमिका है. 

   महाभारत की कथा बताती है कि कौरव सेनापति गुरु द्रोण ने महाभारत के 13वें दिन चक्रव्यूह की रचना की थी ताकि धर्मराज युधिष्ठिर को बंदी बना करयुद्ध समाप्त किया जा सके. वे जानते थे कि पांडवों में केवल अर्जुन ही हैं जिन्हें चक्रव्यूह को बिखेरने की कला आती है. इसलिए उस दिन युद्ध-स्थल की संरचना ऐसी की गई थी कि अर्जुन को चक्रव्यूह से कहीं दूरदूसरे किसी युद्ध में उलझा कर रखा जाए और इधर युधिष्ठिर को चक्रव्यूह में फंसाया जाए. खबर पांडवों तक पहुंची तो उनके खेमे में सन्नाटा छा गया : अर्जुन तो हैं नहीं लेकिन तो चक्रव्यूह सामने है ! इस चुनौती से कैसे निबटें ?  जवाब अभिमन्यु ने दिया : मैं चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश करना जानता हूं. वह मैं करूंगा लेकिन मुझे उससे बाहर निकलना नहीं आता है. पांडव-महारथियों ने उसे आश्वासन दिया कि तुम चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश करोगे तो हम तुम्हारे पीठ से लगे-लगे ही भीतर घुस आएंगेऔर एक बार हम सब भीतर आ गए तो फिर क्या द्रोणाचार्य और क्या चक्रव्यूहसब छिन्न-भिन्न कर देंगे. 

   लेकिन ऐसा हो न सका. अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोड़ कर भीतर प्रवेश तो कर लिया लेकिन उसके महारथी लाख कोशिश कर के भीउसकी पीठ से लगे-लगे चक्रव्यूह के भीतर न जा सके और कौरव महारथियों ने घेर करनिहत्थे अभिमन्यु का वध कर डाला. आज ही की तरह तब भी युद्ध में सबसे पहला बलिदान नैतिकता व शील का होता था. 

   राहुल संघ परिवार मार्का चक्रव्यूह में प्रवेश कर चुके हैं. अब लोकतंत्र के दूसरे महारथी नहीं आ गए तो संभव है कि महाभारत की कथा दुहराई जाए. 

   लोकतंत्र की शतरंज में वोट पासा होता है. यह पासा जनता के हाथ में होता है और जनता किसी के हाथ में नहीं होती है. इसलिए जनता को धर्म या जाति या रिश्ते-नाते के नाम पर या अब सीधे ही रेवड़ियां बांट कर अपनी तरफ़ करने का खेल सभी खेलते आए हैं. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आंतरिक कमजोरी है जिसका कोई रास्ता खोजना है. लेकिन राहुल गांधी जो नई बात सामने ले कर आए हैं वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आंतरिक कमजोरी की बात नहीं हैलोकतांत्रिक प्रक्रिया को हाइजैक’ करने की बात हैयह येनकेन प्रकारेण जनता को अपनी तरफ करने की बात नहीं हैजनता को अपने रास्ते से ही हटाने की बात है. राहुल जिसे वोट-चोरी कह रहे हैंवह दरअसल लोकतंत्र का गला घोंटने का षड्यंत्र है. राहुल गांधी ने यह पूरा मामला जितनी खोज व तैयारी के साथ सामने लाया है उसके बाद इसकी तरफ़ से आंख मूंदना सारे देश के लिए शर्मनाक ही नहीं होगाहमारे मुर्दा होने का भी प्रमाण होगा. एक राजनीतिक लड़ाई को उन्होंने लोकतंत्र की लड़ाई में बदल दिया है और इसलिए यह लड़ाई उन सबकी हो गई है जो लोकतंत्र को अपने जीने के एक अविभाज्य मूल्य की तरह देखते व जीते हैं. 

   एक बड़े पत्रकार ने उस रोज़ बड़ी तल्खी से पूछा था : बम फोड़ा तो राहुलजी नेक्या हुआ फुस्स ! अब हाइड्रोजन बम की बात कर रहे हैं !! 

   मैं हैरान रह गया ! राहुल गांधी के पास वह बम तो है नहीं कि जिससे लाशें गिरती हैं. वे जिस बम की बात कर रहे हैं वह लोकतांत्रिक नैतिकता से जुड़ा है. अगर वह आपको छूता नहीं है तो आपको लोकतंत्र छूता नहीं है. लोकतंत्र में एक नागरिक इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह सबको आगाह कर दिखा दे कि देखोयहां इस तरह लोकतंत्र को विफल किया जा रहा है. इसके आगे का काम उन सबको करना चाहिए जिन्हें संविधान ने अलग-अलग भूमिकाएं सौंप रखी हैं. विधायिका हैकार्यपालिका है. न्यायपालिका और मीडिया है जिसे संविधान ने लोकतंत्र की पहरेदारी का काम दे रखा है. ये सब जब अपना काम न करें तो एक नागरिक क्या करे 

   1974 की बात है. जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र का क्षितिज बड़ा करने का संपूर्ण क्रांति का अपना आंदोलन बढ़ाते चले जा रहे थे. मांग थी कि बिहार की विधान सभा भंग की जाए व मंत्रिमंडल इस्तीफा दे. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आक्षेप उठाया कि क्या सड़क से उठ कर कोई कह दे कि विधान सभा भंग करो तो हम कर दें फिर लोकतांत्रिक परंपराओं का क्या होगा जयप्रकाश ने इंदिराजी की बात का यह सिरा पकड़ लिया और आंदोलन ने अगले कई महीने इस आक्षेप का खोखलापन उजागर करने में लगाए. 

   जयप्रकाश के मन में कहीं यह धुंधली-सी आशा थी कि यदि वे बड़े पैमाने आंदोलन की इस मांग के पीछे का जन-समर्थन स्थापित कर देंगे तो किसी सरकार के लिए उसकी उपेक्षा करना कठिन हो जाएगा. इसलिए हर स्तर पर उन्होंने जन-समर्थन उजागर करने वाले कार्यक्रमों का तांता लगा दिया. भारतीय लोकतंत्र में जनता की सहमति व सक्रियता का वैसा प्रदर्शन न कभी हुआ थान फिर कभी हुआ. यहां तक हुआ कि 3 दिनों तक पूरा बिहार प्रांत बंद रहा. 3-5 अक्तूबर 1974 के दौरान हुआ बिहार बंद अकल्पनीय था. कोई नहीं था कि जिसे भरोसा था कि बग़ैर जबरदस्ती व हिंसा के ऐसा व इतना लंबा बंद करवाया जा सकता है. लेकिन वह बंद हुआ. सड़केंदूकानेंस्कूल-कॉलेज आदि तो बंद हुए हीरेलें भी बंद हुईं. सब हुआ और पूरी तरह लोकतांत्रिक व शांतिमय तरीकों से हुआ. देश-दुनिया का मीडिया ऐसे अभूतपूर्व बंद का गवाह बना. 

   लेकिन जयप्रकाश का यह बम भी उसी तरह फुस्स करार दिया गया जिस तरह राहुल का बम फुस्स करार दिया जा रहा है. 18 नवंबर 1974 को पटना के गांधी मैदान की अभूतपूर्व सभा में जयप्रकाश ने इस प्रश्न को इस तरह उठाया : “ कदम-दर-कदम कैसे चला है यह आंदोलन यह देखिए. इन सबका कोई असर नहीं. अब कौन-सी बात का असर होगामेरी समझ में नहीं आता है.” लोकतंत्र जिनके लिए सौदा करने की व्यवस्था नहींआस्था हैउनके लिए बम का मतलब कुछ अलग ही होता है. लोकतांत्रिक व्यवहार से थोड़ा भी विचलन उन्हें विचलित करता है. चुनावी हार नहींचुनाव की ही हार किसी लोकतांत्रिक आस्था वाले को कैसे पचे खेल ही बदल दिया जाए तो खेल कैसे खेला जाए इसलिए जनमत का हर तरह से प्रदर्शन करने के बाद भी जब सत्ता न सुनने-न देखने को तैयार हुईतब झुंझला कर जयप्रकाश ने कहा था  कि अब इतना ही बचा है न कि मैं बच्चों से कहूं कि जाओऔर हाथ पकड़ कर इन लोगों को कुर्सी से उतार दो ! 

   राहुल गांधी ने बात जहां पहुंचा दी है उसके आगे वे,या कोई भी नागरिक क्या कर सकता है विनोबा स्वयं ऐसे ही मुकाम पर 1982 में तब पहुंचे थे जब गो-हत्याबंदी की उनकी मांग पर इंदिराजी कान धरने को भी तैयारी नहीं थीं. मुंबई से ले कर दिल्ली तक हर दरवाजे पर सालों तक दस्तक देने के बाद भी जब कोई दरवाजा नहीं खुला तो विनोबा ने झुंझला कर कहा था कि इंदिरा गांधी का हाथ पकड़ करउन्हें कुर्सी से उतार देना चाहिए.  

   हाथ पकड़ कर कुर्सी से उतारने जैसी बात राहुल गांधी नहीं कह रहे हैं लेकिन आप कह रहे हैं कि बम तो फुस्स हो गया ! जब हमारी लोकतांत्रिक चेतना इतनी संवेदना शून्य हो गई हो कि उस पर किसी बात का असर ही नहीं होता हैतो कोई क्या करे पत्रकार राहुल गांधी से पूछते हैं कि अब आपका अगला कदम क्या होगा पूछना तो उनसे चाहिए नऔर बताना तो उनको चाहिए न कि कल सुबह आपके अखबार का चेहरा कैसा होगा यह खबर कहां व कैसे प्रकाशित होगी चैनलों को बताना चाहिए न कि कल से इस खबर को कैसे प्रसारित किया जाएगा क्या कंधों पर अपना कैमरा उठाए चैनलों के लोग उन जगहों पर उतर पड़ेंगे जिनकी बात राहुल कह रहे हैं ताकि जाना व बताया जा सके कि सच क्या है हर अखबार व चैनल को जा कर घेरना तो चुनाव आयोग को चाहिए न कि जब आपके बारे में ऐसी गंभीर शंका पैदा हो गई है तब आप क्या करने जा रहे हैं हम सबको पूछना तो सर्वोच्च न्यायालय से चाहिए न कि जब राहुल गांधी इतने सारे प्रमाण के साथ वोट चोरी की बात सामने ला रहे हैं तब क्या आपको अपनी पहल से ही इस मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिए ?  

   सवाल राहुल गांधी का नहींसवाल उस संविधान का है जिसकी बनाई कुर्सियों पर ये सभी विराजते हैं. संविधान की रक्षा की शपथ ले कर सारे सांसद संसद के भीतर प्रवेश करते हैं. चुनाव आयोग उसी संविधान की शपथ लेता है और न्यायाधीश उसी संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं. तो यह असामान्य घड़ी है कि हम सबके अस्तित्व का आधार संविधान ही धुंधलके में घिर रहा है. यह अकेले राहुल गांधी की जिम्मेवारी कैसे हो सकती है कि वे संविधान की रक्षा करें अौर बाकी सब संविधान पर चोट करेंयाकि इसका उल्टा हो रहा होतो भी अदालत को या संसद को या चुनाव आयोग को आगे आना तो होगा. 

   कोई पूछ रहा है कि जब हालत इतनी खराब हो गई तब आप बोल रहे हैंपहले क्यों नहीं बोले कोई कह रहा है को वोट चोरी की बात अब कमजोर पड़ती जा रही है. पहले नहीं बोले तो क्या अब भी नहीं बोलें यह कोई तर्क हुआ क्या पत्रकारों को और एंकरों को कभी पता चला था कि इस तरह वोट चोरी हो रही हैकिसी को नहीं पता था की सरकार व आयोग की मिलीभगत से ऐसा हो सकता है. अब राहुल को भी पता चला है और सबको पता चल चुका है. अब जाकर यदि वोट चोरी की बात कमजोर पड़ती जा रही है तो इससे हमें खुश होना चाहिए या दुखी यह बात गलत साबित हो तो हम राहत की सांस लें या फिर इसकी जड़ तक पहुंचने का आज का सिलसिला बना रहेइसकी सावधानी हमें रखनी चाहिए. यह कांग्रेस का सवाल नहीं हैयह भाजपा की चिंता का विषय भी होना चाहिए. लेकिन भाजपा ने चोर-चोर मौसेरे भाई जैसा रवैया रखा है.  

   लोकतंत्र एक मूल्य है जिसमें से हमारे नागरिक होने याकि आदमी होने के अनेक मूल्य निकलते हैं. हम किसी भी पार्टी के हों या किसी के भी भक्त या अंधभक्त होंअंधे तो न हों !  ( 26.09.2025)

Tuesday, 16 September 2025

एक और जगदीप !

     जगदीप छोकर नहीं रहे ! खबर चुप से गुजर नहीं जाती है, थरथराती हुई, संग चलती रहती है. एक आदमी की मौत में और एक जुनून की मौत में फर्क होता है न ! जगदीप छोकर की मौत ऐसे ही जुनून की मौत है. जिसने दिल लगा कर, दिलोजान से लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली के संरक्षण व सुधार के उपाय सोचे व किए, उसके दिल ने ही अंततः मुंह फेर लिया. दिल गया तो सब गया; हम गए. इसलिए जगदीप छोकर गए. 

नाम और काम की विरूपता को ले कर स्व. काका हाथरसी ने  कई हास्य कविताएं लिखी थीं. लेकिन ऐसा तो उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि एक ही नाम के दो व्यक्ति इतनी विरूपित भूमिकाओं में हो सकते हैं ! मैं ऐसी तुलना की कभी सोचता भी नहीं लेकिन लापता लेडीज’ वाले अंदाज में पूर्व उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कोई 53 दिनों बाद जिस रोज प्रकट हुएउसी रोज जगदीप छोकर विदा हुए. तो मुझे ख्याल आया कि एक ही नाम के दो व्यक्तियों में कितना गहरा फर्क है ! जगदीप छोकर ने जाते-जाते भी  रीढ़विहीन सत्तापिपासा के खिलाफ जैसे अपना बयान दर्ज करा दिया. 

बड़ी-बड़ी कुर्सियों परबड़े-बड़े जुगाड़ से बैठने वाले धनखड़ साहब ने सत्ता के साथ रहने का पूरा सुख जिया और फिर सत्ता की दुलत्ती ऐसी खाई कि किसी ने पानी भी नहीं पूछा. गुमनामी में बिसुरते हुए उन्हें अब यह अहसास हुआ कि बहुत हो चुका उनका एकांतवाससत्ता के दरबारी को इस तरह सत्ता के आभामंडल से लंबे समय तक दूर नहीं रहना चाहिए. सत्ता का शास्त्र कहता है कि यहां नियम ऐसा है कि कुर्सी से हटे तो साया भी साथ छोड़ देता है. इसलिए शाही समारोह में, ‘शाह’ लोगों के बीच वे अचानक प्रकट हुए. सत्ता के गलियारों में बने रहने के लिए दरबार से अच्छी जगह क्या हो सकती हैऔर वहां चहलकदमी करने से अच्छी जुगत क्या हो सकती है !  

जगदीप छोकर दरबार के आदमी नहीं थे. कभी अहमदाबाद के आइआइएम में प्रोफेसर रहे छोकर साहब ने वहां से निवृत्ति के बाद कुछ सहमना लोगों के साथ जुड़ कर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म या एडीआर नाम का संगठन बनाया तो फिर उसी के होकर रह गए. संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की अपनी खास जगह होती है - ऐसी जगह जो न बदली जा सकती हैन चुराई जा सकती हैन छीनी जा सकती हैन उसे किसी की जेब में छोड़ा जा सकता है. ऐसा कुछ भी हुआ तो संभव है कि लोकतंत्र का तंत्र बना रहे लेकिन उसकी आत्मा दम तोड़ देती है. यह बुनियादी बात है. 

जब देश में संसदीय लोकतंत्र आया-ही-आया थासंसदीय प्रणाली से अपने स्तर पर एक किस्म की अरुचि रखने वाले गांधी भी चुनाव की इस भूमिका को समझ रहे थे और इसे ले कर सावधान भी थे.  वे अलग-अलग शब्दों में यह बात कहते रहे कि जैसा संसदीय लोकतंत्र हमने अपने लिए चुना है उसमें चुनाव की मजबूत निगरानी जरूरी होगीक्योंकि यहीं से लोकतंत्र को धोखा देने का प्रारंभ हो सकता है. इसलिए गोली खाने से पहले वाली रातअपने जीवन का जो आखिरी दस्तावेज उन्होंने लिखा ताकि कांग्रेस व देश उस पर विचार करेउसमें दूसरी कई सारी बातों के साथ-साथ यह भी दर्ज किया कि मतदाता सूची में नाम जोड़ने-काटने-हटाने आदि का काम पूर्णतः विकेंद्रित हो व ग्राम-स्तर पर लोकसेवकों द्वारा किया जाए. चुनाव आयोग जैसे किसी भारी-भरकम सफेद हाथी को पालने की बात उन्हें कभी रास नहीं आई. लोकसेवकों द्वारा ग्राम-स्तर पर बनाई मतदाता सूची ही अंतिम व आधिकारिक मानी जाएगी तथा उसी आधार पर चुनाव होंगेकुछ ऐसी कल्पना उनकी थी. गांधी को दरअसल गोली मारी ही इस वजह से गई कि वे लगातार खतरनाक विकल्पों की तरफ देश को ले जाने में लगे थे.

आजादी के बाद और गांधी के बाद लोकतंत्र के संवर्धन की तरफ सबसे ज्यादा ध्यान किसी ने दिया व काम किया तो वे जयप्रकाश नारायण थे. तब थे वे समाजवादी पार्टी के सिरमौर नेता व देश मन-ही-मन उन्हें जवाहरलाल का विकल्प मानता था. लेकिन चुनाव में पराजय के बादउनके ऐसे प्रयासों को पराजित विपक्ष का रुदन भी माना गया. लेकिन बात इससे गहरी थीक्योंकि जयप्रकाश इन सबकी थाह से ज्यादा गहरे थे. इसलिए आज़ादी के बाद पहली बार वे जयप्रकाश ही थे कि जिन्होंने चुनाव सुधार पर सम्यक विचार कर अपनी सिफारिशें देने के लिए एक समिति का गठन किया. यह भी लोकतंत्र के संदर्भ में एक नया ही प्रयोग था कि केवल सरकारी नहींनागरिक समितियां भी बनाई जाएंनागरिकों के भी जांच आयोग गठित किए जाएं. जब हम गुलाम थे तब भी गांधी की पहल से जालियांवालाबाग हत्याकांड की जांच के लिए नागरिक समिति बनी थी जिसके गांधी स्वयं भी सदस्य थे. जयप्रकाश ने ऐसे अनेक आयोगों का गठन किया - प्रशासनिक सुधार पर भीशिक्षा-व्यवस्था पर भीचुनाव सुधार पर भीपंचायती राज पर भी. बाद में तो लोकतंत्र का सवाल उन्होंने इतना अहम बना दिया कि संपूर्ण क्रांति का पूरा एक आंदोलन व दर्शन ही खड़ा कर दिया.

छोकर साहब से इस तरह की बात कई मौकों पर हुई. चुनाव प्रणाली का ऐसा केंद्रीकरण बना रहे और सत्ता उसका दुरुपयोग न करेयह सोचना नादानी भी है और किसी हद तक फलहीन भी. वे दो-एक बार मुझसे उलझे भी फिर यह कह कर बात खत्म की कि मैं नया कुछ बनाने जैसी बात कहने की योग्यता नहीं रखता हूं. मेरी कोशिश तो जो चल रहा है उसमें पैबंद लगाने की ही है. 

यह दर्जीगिरी भी खासे महत्व का उपक्रम है. संसदीय लोकतंत्र को बनाने का काम जितना चुनौतीपूर्ण हैउतना ही चुनौतीपूर्ण है उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने का काम . सत्ता को उतना ही लोकतंत्र चाहिए होता है जितने से उसकी सत्ता सुचारू चलती रहे. लोकतंत्र के चाहकों को विकासशील लोकतंत्र से कम कुछ पचता नहीं है. लोकतंत्र का आसमान लगातार बड़ा करते चलने की जरूरत हैक्योंकि जो नागरिक के पक्ष में विकसित न होता रहेवह लोकतंत्र नहीं है. जगदीप छोकर ऐसे विकासशील लोकतंत्र के सिपाही थे. वे अब नहीं रहे ! लोकतंत्र रहा क्या पुतिन वाला लोकतंत्र भी तो हैया जिनपिंग वाला या फिर नेतान्हू वाला ! मोदी मार्का लोकतंत्र भी तो है ही न जो यूएपीए की बैसाखी लगा कर ही चल पाता है  - वह भी घुटनों के बल ! 

  लोकतंत्र रहेगा क्या यह सवाल व यह चुनौती हमें सौंप कर जहां छोकर साहब गए हैंवहां भी वे लोकतंत्र की लड़ाई ही लड़ते मिलेंगे. ( 14.09.2025)          

10 और 5 का शर्मनाक खेल

     कलम में जितनी संभव है शर्म की उतनी स्याही भर कर, अपने देश ने नाम जितने संभव हैं उतने खून के आंसू पी कर, और भारतीय न्यायपालिका की तरफ पछतावे से भरी आंखों से जितना देखना संभव है, उतना देखते  हुए मैं यह लेख लिख रहा हूं. रात के 3 बज रहे हैं लेकिन मैं चाह कर भी आंखें बंद नहीं कर पा रहा हूं, क्योंकि यह सारा माहौल खुली आंखों से जितना सर्द व घुटता हुआ लगता है, बंद आंखों में वह उससे भी भयावह व दमघोटूं बन जाता है. आपने कभी महसूस किया है कि जब अंधकार सामने आ कर आपको घूरने लगता है तब वह कितना अंधेरा होता है ! वह अंधकार से भी अंधेरा हो जाता है, क्योंकि तब वह बोलने भी लगता है.

   आज ही दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने देश के उन 10 नागरिकों को जमानत देने से मना कर दिया जो पिछले 5 सालों से जेलों में बंद हैं. न्यायमूर्ति नवीन चावला व शालिंदर कौर की बेंच ने जमानत रद्द करते हुए जो कहा उससे मुझे ख्याल आया कि सचमूर्तियां भी कहीं न्याय करती हैं क्या ! कर सकती हैं क्या करें तो वे मूर्तियां न रहें ! कौन हैं ये 10 लोग नाम ही काफी है : सरजिल इमामउमर ख़ालिदगुफिशा फातिमाअख़्तर खानअब्दुल ख़ालिद सैफीमुहम्मद सलीम खानशिफा-उर रहमानमीरान हैदर और शादाब अहमद. 10वें अपराधी तसलीम अहमद की जमानत रद्द करने का श्रेय न्यायमूर्ति सुब्रमोनियम प्रसाद तथा हरीश वैद्यनाथन शंकर की बेंच को जाता है. इन दसों का अपराध एक ही है कि इन सबने सोच-समझ करबखूबी बनाई योजना के तहत 2020 में राजधानी दिल्ली में दंगों को अंजाम दिया !”  

   क्या मैं इन दसों को याकि इनमें से किसी एक को भी जानता हूं नहींहर्गिज नहीं ! लेकिन मैं इनमें से एक-एक को जानता हूंक्योंकि जीवन के जो 75 से अधिक वसंत मैंने अभी तक बिताए हैंउनमें ये ही लोग मेरे अग़ल-बगल रहेबोलेचलेखेले हैं. मैं अगर इन 10 लोगों के नाम आपको फिर से बताऊं तो मेरी बात समझना शायद आसान हो जाए आपके लिए - शिवशंकर प्रसादराज कुमार जैनशरद यादवमीरा कुमारीसुब्रमण्यम स्वामीसदानंद सिंहकार्तिक उरांवबिशन सिंह बेदीकुंती मुर्मू और प्रकाश झा. ये 10 लोग हैं जिन्होंने 75 से ज्यादा सालों से बड़े हो चुके हमारे गणतंत्र की जड़ें खोदने की योजनाबद्ध साजिश की. ये 10 यदि सप्रमाण पकड़े न गए होते तो हमारे सामने हमारा गणतंत्र नहींउसका मलबा पड़ा होता आज !  

   इस सूची को देखते ही मेरी तरह आपके मन में भी तक्षण यह सवाल पैदा होगा कि क्या कभी ऐसा संभव है कि कोई 10 लोग मिल करकरोड़ों की आबादी वाले इस महान देश की जड़ें खोद दें अगर ऐसा कभी हुआ तो मैं कहूंगा कि इसकी जड़ थी ही नहीं ! फिर मेरी तरह आपके जहन में भी ख्याल आएगा कि यदि इतना बड़ा षड्यंत्र रचा गया तो इस बहुधर्मी देश में यह कैसे संभव हुआ कि सिर्फ हिंदू ही इसमें लिप्त थे यह बात तो अब तक बड़ी मजबूत लगती आ रही थीबड़े-बुजुर्गों द्वारा हमें समझाई जा रही थी कि अपराध व अपराधी की जाति-धर्म का ठिकाना नहीं होता है. तो फिर यह कैसे हुआ कि इस मामले में यह ठिकाना पक्का व पुख्ता हो गया ?  लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है ! कोई उन्मत्त हो कर कहेगा कि ( एक भद्दी-सी गाली देते हुए जैसी गोली मारो …’ का नारा खुलेआम लगाते हुए हमारे एक-दो-तीन-चार ….सत्ताधारी कुंवरों व बादशाह ने दी थीदेते ही रहते हैं ! ) कि सबको फांसी चढ़ा दो ! मैं कहूंगा : क्या बात कही हैएकदम मेरे मन की बात है ! लेकिन आप कहेंगे कि नहींनहींजरा जांच-परख लो ! फांसी का क्या हैवह तो अपने कानून के हाथ में आज भी हैकल भी रहेगा ! लेकिन संविधान है न हमाराऔर उसकी बनाई न्यायपालिका है नतो उसे अपना काम करने दोइन सारे अपराधियों पर आज-के-आज मुकदमा चलेइनका अपराध प्रमाण सहित देश जान ले और फिर इनको फांसी दे दी जाए ! मैं कहता हूं कि भाईक्या बात कही है आपने ! एक सभ्य समाज मेंजिसमें इंसान बसते हैंवहां ऐसा ही होना चाहिए ! 

   आप ऐसा कहेंगे तो इन 10 में से कोई एक ( याकि सभी-के-सभी ! ) कह उठेंगे कि हम तो पिछले 5 सालों से जेल में बंद हैं. न कभी मुकदमा चला है इन सालों मेंन हमारी पेशी हुई हैन उधर से कभी वकील खड़ा हुआ हैन इधर से ! हम पर जो भी आरोप हैंजो पुलिस के कागजात हैंवे सब हमें दिए जाएं ताकि हम भी और हमारे वकील भी उसे देख कर यह तो समझ सकें कि आरोप क्या हैंऔर हमारा जवाब क्या है मुकदमा चले और माननीय न्यायमूर्ति उसे सुनेंदेश भी जानेसंविधान भी उसे परखे और फिर साबित हो कि फांसी पड़नी चाहिए तो पड़े !! हम जो मांग रहे हैं वह रिहाई नहीं हैजमानत है. आपने ही हमें बताया-सिखाया है कि हमारे लोकतंत्र में जमानत नागरिक का स्वाभाविक अधिकार हैजेल अंतिम अपवाद है ! तो हमारे मामले में यह क्यों नहीं हो रहा है संविधान कहता है कि बिना मुकदमा चलाए किसी को जेल में बंद रखना उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है. इस हनन को रोकने के लिए ही तो हमने न्यायपालिका नाम का इतना बड़ा सफेद हाथी पाल रखा है. यह खाता बहुत हैकरता क्या हैयह समझना अब भारी हुआ जाता है. 

   आपको भी लग रहा है न कि इस दूसरी सूची के अपराधियों का यह कहना एकदम खरा है ! आज ही मुकदमा चलाओ और कल फांसी दे दोकोई एतराज नहीं करेगा ! लेकिन जब हम यही बात दूसरी नहींपहली सूची के लिए कहते हैंसब पलट जाते हैं. तो बात ऐसी बनती है कि अपराध व अपराधी का फैसला हम नाम देख कर करते हैं. यह शर्मनाक हैयह अंधेरा हैयह दमघोंटू है. यह लोकतंत्र की हत्या है. 

   क्या हमारे न्यायमूर्तियों को कभी इसका अहसास होता है कि जितनी बार वे पहली सूची के लोगों की जमानत रद्द करते हैंउतनी-उतनी बार न्यायपालक की उनकी छवि धूमिल होती जाती है क्या हमारी न्यायपालिका को इसका अहसास है कि भारतीय नागरिक के मन में आज अपने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता जिस गतालखाने में चली गई हैन्यायपालिका की विश्वसनीयता उसके आसपास ही है 

   बहुमत के नशे में चूर कोई सरकार ऐसा कानून बना देती है जिसमें व्यवस्था यह बनाई गई है कि यूएपीए के मामले में की गई गिरफ्तारी न्यायपालिका की समीक्षा के भीतर नहीं आएगीऐसा चुनाव आयोग बनाया जाता है कि जो हमेशा सरकार की तरफ ही झुका रहेगाऐसा कानून बनाया जाता है कि चुनाव आयुक्तों पर कभीकिसी अदालत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है आदि और हमारी न्यायपालिका देखती रह जाती हैतो वह अपने अस्तित्व का मतलब ही खो देती है. 

   हम भारत के नागरिकों ने अपने संविधान की संरचना ऐसी बनाई जिसमें हमने अपनी न्यायपालिका में यह आदेश दिया है कि आपको निरंतर चौकन्ना रह कर यह देखना है कि कोई भी विधायिका या कोई भी कार्यपालिका या न्यायतंत्र का कोई भी पुर्जा कहीं सेकभी संविधान पर हाथ न डाल सके ! ऐसा होने से पहलेऐसा होने के बाद या ऐसी संभावना भांप कर न्यायपालिका को संविधान की तलवार ले कर खड़ा हो जाना है. इसलिए संविधान में हमने एक ही ऐसी संरचना बनाई हैन्यायपालिका जिसे सतत विपक्ष में रहना है यानिकी संविधान के पक्ष में रहना है. हमारा संविधान अलिखित नहींलिखित है और उसे सिर्फ वकील साहबान नहींहम भी पढ़ पाते हैं. जब आपकी व्याख्याएं बहुत जटिल होती हैंतब हम आसानी से समझ जाते हैं कि आप संविधान के शब्दों के पीछे छिपी भावना को समझने में चूक रहे हैं या फिर संविधान की अपनी लक्ष्मण-रेखा पर पांव धर रहे हैं. यह वह लोकतांत्रिक अपराध है जिसकी सजा आपकी नहींहमारी अदालत में दी जाती है. सरकारों को भले पांच साल में एक बार ( या जब भी चुनाव हो !) हमारी अदालत में आना पड़ता हैआप तो हर रोज हमारी अदालत में होते हैंयह न हम भूलेंन आप ! 

   2020 का दिल्ली दंगा पूर्वनियोजित था. भारतीय नागरिकों ने उस दौर में अपूर्व एकता व साहस के साथ दिल्ली में ही नहींदेश भर में अपने संविधान के आईने में अपनी छवि खोजी थी. तब की सरकार को वह बहुत बड़ी व गहरी चुनौती थी कि “ किधर से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज / मैं अपना जाम उठता हूंतू किताब उठा !” 30 जनवरी 1948 नहीं आई होती और महात्मा गांधी जीवित होते तो वे भी 2020 में अपने युवकों के साथ उसी तरह खड़े होते जिस तरह सन् 42 में हुए थे. लेकिन इतिहास बताता है कि उस दौर में भी लोग भटके थेगलत रास्तों की ओर गए थे और तब गांधी ने ही अपनी अदालत में उनकी पेशी ली थी. वैसी ही सावधानी आज भी करनी है. इसलिए बगैर पल गंवाए इस लेख की पहली सूची के लोगों पर मुकदमा चलाया जाए व रोज-रोज की सुनवाई के साथ अदालत अपना फैसला सुनाए. फिर संविधान के जाल में फंसता कौन हैकिसे फांसी होती हैयह तमाशा हम सब देखेंगे. इसलिए हमारे लोकतंत्र को आज व अभी जमानत चाहिए.  ( 05.09.2025 )

Monday, 1 September 2025

कैसा है 80 साल बूढ़ा 15 अगस्त

कैसा अजीब मंजर है आंखों के सामने कि लोकतंत्र के पन्ने-पन्ने उखड़ कररद्दी कागजों-से हवा में इधर-उधर उड़ रहे हैं और इन्हीं पन्नों के बल पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सत्ता में बैठी सरकार आंखें मूंदे बैठी है कुछ वैसे ही जैसे बिल्ली सामने से भागते चूहों की तरफ से तब तक आंख मूंदे रहने का स्वांग करती रहती है जब तक कोई चूहा एकदम पकड़ की जद में न आ जाए. दूसरी तरफ़ है नौकरशाही से छांट कर लाई गई वह तिकड़ी बैठी है जिसे हम अब तक चुनाव आयोग कहते आ रहे थे. वह हवा में उड़ते-फटते अपने ही मतदाता सूची के पन्नों को रद्दी बताती हुईसारे मामले को मतदाता’ की नौटंकी करार दे रही है. तीसरी तरफ़ है हमारा सुप्रीम कोर्ट जो इन पन्नों को लोकतंत्र की नहींतथाकथित चुनाव आयोग की संपत्ति बता रहा है और कह रहा है कि भले पन्ने चीथड़े हो गए हैं लेकिन हमें व्यवस्था को बचा कर तो रखना है न ! हरिश्चंद्र’ नाटक के दुखांत-सी इस नाटिका के पीछे कहीं से एक आवाज़ और भी आती है : “ मैं निश्चित देख रहा हूं कि दलीय लोकतंत्र की इस यात्रा में एक वक्त ऐसा आने ही वाला है जब तंत्र व लोक के बीच वर्चस्व की लड़ाई होगीऔर तब यह याद रखना कि लोक के नाम पर बने ये सारे लोकतांत्रिक संवैधानिक संस्थानलोक के नहींतंत्र के साथ जाएंगेक्योंकि वे वहीं से पोषण पाते हैं.” जरा गौर से सुनेंगे तो आप पाएंगे कि यह आवाज़ महात्मा गांधी की है. 

    एकदम गणित में न भी बैठे तो भी 78 साल व 80 साल में कोई ख़ास फर्क नहीं होता हैवह भी तब जब आप व्यक्ति की नहींराष्ट्र-जीवन की बात करते हैं. 1947 के 15 अगस्त को मिली आजादी ( 2014 में मिली आजादी वाला गणित जिनका होवे इसे न पढ़ें !) इस 15 अगस्त को 78 साल की तो हो ही जाएगी. तो मैं दो साल आगे का हाल देखते हुए लिख रहा हूं कि 80 साल में यह आजादी कैसे इतनी बूढ़ी हो गई कि इसके आंचल में अपने ही राष्ट्र की विविधताओं के लिए जगह नहीं बच रही हैइसके आंचल में असहमति की न तो जगह बची हैन सम्मानक्यों ऐसा है कि इसके आंचल में खोजने पर भी देशभक्त कमदेशद्रोही अधिक’ मिल रहे हैंयह क्या हुआ है कि जिधर से देखोइसके आंचल में चापलूस व अधिकांशत: निकम्मी नौकरशाही मिल रही हैडरी हुई व स्वार्थी न्यायपालिका व अयोग्य जज मिल रहे हैंभ्रष्ट व आततायी पुलिस मिल रही हैअंधभक्त व निरक्षर राजनीतिज्ञ मिल रहे हैं वह सब कुछ मिल रहा है जो नहीं मिलना चाहिए था और वह सब खो रहा है जो हर जगहअफरातन मिलना चाहिए था. 

    ऐसा नहीं है कि पहले सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था और अचानक ही यह बिगाड़ आ गया है. लंबी गुलामी सबसे अधिक मन को बीमार करती है. गुलाम मन आजादी के सपने भी गुलामी के कपड़ों में ही देखता है. हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ. एक आदमी था जरूर कि जिसमें ऐसा आत्मबल था कि वह भारत राष्ट्र सेमन-वचन-कर्म तीनों स्तरों पर आजादी की साधना करवा सकता था. लेकिन आजादी के बाद हमने सबसे पहला काम यह किया कि अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. आजादी के सबसे उत्तुंग शिखर का सपना दिखाने वाले महात्मा से छुटकारा पा कर हमने आजाद भारत का सफर शुरू किया. तो ग़ुलाम मन से घिरी आजादी की कच्ची समझगफ़लत,दिशाहीनताबेईमानी सबके साथ हम चले. गांधी ने जिन्हें बहुत वर्ष जिओ  और हिंद के जवाहर बने रहो” का आशीर्वाद दिया था वे जवाहरलाल बहुत वर्ष जिए’ ज़रूर लेकिन जवाहर’ कम, ‘नेहरू’ अधिक बनते गए. लेकिन एक बहुत बड़ा फर्क था - बहुत बड़ा ! - कि नेहरू थे तो यह आस भी थी कि शीर्ष पर कमजोरी है लेकिन बेईमानी नहीं है. गाड़ी पटरी पर लौटेगी. नेहरू के बाद यह आस भी टूटती गई.    

    दुष्यंत कुमार ने यह नजारा पहले ही देख लिया था. इसलिए लिखा : “ कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए / कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए…” लिखा और सिधार गएक्योंकि 80 साल की बूढ़ी इस आजादी के साथ जीना बहुत कलेजा मांगता है. 

    हमारी आजादी की कौन-कौन-सी पहचान ऐसी है कि जिससे आप पहचानते हैं कि यह जवां होती आजादी है आज के सरकारी फैशन के मुताबिक हमारी आजादी की एक ही पहचान है : हमारी फौज ! एक सुर से सारे दरबारी गीदड़ हुआं-हुआं करते हैं कि हमारा जवान बहादुरी से सीमा पर खड़ा हैइसलिए हम सीमा के भीतर चैन की बंसी बजाते हैं. हमें पंडित नेहरू ने बताया था कि सीमा पर हमारा जवान अकेलेसारी प्रतिकूलताओं के बीच भी इसलिए खड़ा रह पाता है कि उसके पीछे सारा देश एकताबद्ध अनुशासन में सक्रिय खड़ा रहता है. फौज में बहादुरी व भरोसा हथियारों से नहींहथियारों के पीछे के आदमी के मनोविज्ञान से आता है. फौजी को जब यह भरोसा होता है कि वह सही लोगों के लिएसही नेतृत्व मेंसही कारणों के लिए लड़ रहा है तब वह जान की परवाह नहींतिरंगे की परवाह करता है. लेकिन नेहरू जो भी कह रहे थेजो भी कर रहे थेजो भी सोच रहे थे वह सब गलतनकली व देश का अहित करने के लिए थाऐसा बता कर जो आज नकली नेहरू’ बन रहे हैंवे फौज को गुलामी वाली पलटन में बदल रहे हैं. 

    आज सीमा पर खड़ा हर जवान जानता है कि उसे अग्निवीर बना करउसके भविष्य की सारी अग्नि किसी ने डकार ली है. ऐसे छोटे व टूटे मन से वह कौन-सी लड़ाई लड़ेगा तो हम आज यह पहचान पाएं कि नहीं लेकिन सच यही है कि जैसे दुनिया में दूसरी जगहों पर है वैसा ही हमारे यहां भी हो रहा है कि फौज नहींहथियार लड़ रहे हैं. इसलिए हम भी दुनिया भर से हथियार खरीदने की होड़ में उतरे हुए हैं और अपनी फौज अग्निवीरों से बनाई जा रही है. भाड़े के सिपाहियों से भी लड़ाई लड़ी जाती हैयह इतिहास में दर्ज तो है ही.  

    आजादी के बाद से अब तक फौज का ऐसा राजनीतिक इस्तेमाल नहीं हुआ था जैसा आज आए दिन हो रहा है. फौज के बड़े-बड़े अफ़सरान रोज़ सरकारी झूठ को फौजी सच बनाने के लिए उतारे जा रहे हैं. बंदूक चलाने वाले जब ज़बान चलाने लगें तब समझिए कि आजादी बूढ़ी हो रही है. अभी-अभी हमारे वायुसेना प्रमुख ने ऑपरेशन सिंदूर के सिंदूर की रक्षा के लिएउस ऑपरेशन के महीने भर बाद यह रहस्य खोलने हमारे सामने आए कि हमने पाकिस्तान के कितने विमान मार गिराएउसे कितनी क्षति पहुंचाई और कैसे उसे युद्धविराम के लिए लाचार किया. हम कितने ख़ुश व आश्वस्त होते यदि उनके इस बयान से सरकार की बू नहीं आती होती ! यह तो हमने पूछा ही नहीं कि पाकिस्तान के कितने विमान गिरेक्योंकि हमें यह पता है कि जैसा हमारे बीच के हर युद्ध में हुआ वैसा ही इस बार भी हुआ कि पाकिस्तान की हमने बुरी हालत की. हम पूछ तो बार-बार यह रहे हैं कि भारतीय सेना का कितना नुकसान हुआ हमारे कमजोर राजनीतिक नेतृत्व के कारणहमारी कमजोर रणनीति के कारण हमारे कितने विमान गिरेकितने जवान हत हुएहम जानना चाहते हैं कि कश्मीर में कितना नागरिक नुक़सान हुआ और सरकार ने उनकी क्षतिपूर्ति के लिए क्या किया ?                     

वायुसेना प्रमुख को सफ़ाई देने के काम पर सरकार ने क्यों लगाया यह समझना कठिन नहीं है. हमारी सेना के दो सबसे बड़े अधिकारियों ने ऑपरेशन सिंदूर के तुरंत बाद ही, कहीं विदेश में यह खुलासा कर दिया था कि प्रारंभिक नुक़सान हमें इतना हुआ था कि हमें अपनी रणनीति बदलनी पड़ी और तब कहीं जा कर हम परिस्थिति पर काबू पा सके. उन्होंने यह भी बताया था कि विमान हमारे भी गिरे और जवान हमारे भी हत हुए. इसमें अजूबा कुछ भी नहीं है, क्योंकि यही तो युद्ध है. लेकिन सरकार तो यह बताने में जुटी रही कि हमें खरोंच भी नहीं आई और पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए. लोकसभा में हमारे रक्षामंत्री ने भी जो कहा उसका सार यही है. यह तो उस डॉनल्ड ट्रंप की पगलाहट ऐसी है कि उसने परममित्र का कोई लिहाज़ नहीं किया और बताया कि भारत के बड़े विमान भी गिरे हैं. अब हम ऐसे हैं कि अपने परममित्र की किसी भी बात को काटते नहीं हैं.  

    इसलिए इतने दिनों बाद फौजी सफ़ाई की जरूरत पड़ी. जब वायुसेना प्रमुख सफ़ाई देने आए तो बात ज्यादा सफ़ाई से होनी चाहिए थी: पाकिस्तान के विमान कहां-कहां गिरे यह भी बतातेविमान के मलबों की तस्वीर फौज ने ज़रूर ही रखी होगी तो वह भी दिखातेजवाबी कार्रवाई में हमारा नुक़सान कितना व कहां-कहां हुआइसका ब्योरा देतेनागरिकों को कहांक्या झेलना पड़ा और कहांराहत का काम कैसे किया गयायह बताते. ये सारी जानकारियां देश पर उधार हैं जिन्हें वायुसेना प्रमुख को उतारना चाहिए था. अगर यह उधार बना कर ही रखना था तब वायुसेना प्रमुख को सामने लाने की जरूरत ही क्या थी कैसे दयनीय स्थिति है यह कि वायुसेना प्रमुख भी इतनी हिम्मत नहीं रखता है कि अपना राजनीतिक इस्तेमाल होने से मना कर सके आख़िर परमवीर चक्र वाले लोग कैसे चक्कर में पड़ गए हैं ! सेना की तरफ बहादुरी से देखने वाला जो भाव हमें मिला हैहमारी आज की पीढ़ी को वह कैसे मिलेगा उनके लिए तो हमारी फौज की छवि भी माटी की ही हो जाएगी ! 

आजादी लाल किले से बोलने से मजबूत व परिपूर्ण नहीं हो जाती है. आप लाल किले से बोल क्या रहे हैंउससे लाल किला मज़बूत होता है. नेहरू ने लाल किले से जब जय हिंद !’ का नारा तीन बार उठाया था तब उनकी आवाज के पीछे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आवाज सुनाई देती थी.एक तड़प सुनाई देती थी. आज उसी नारे की गूंज एकदम खोखली सुनाई देती है. 80 सालों में यह फर्क क्यों हो गया इसलिए कि आज लाल किले से पार्टी का प्रचार और आत्मप्रशंसा का आयोजन होता है. आप आत्ममुग्धता में कितनी भी बातें करेंउनका नकलीपन देश पकड़ ही लेता है. अब लाल क़िला से राष्ट्र को कोई संबोधित नहीं करता है. अब वहां से लोग अपनी मंडली को संबोधित करते हैं. 

    हमारी प्रगतिविकासअपराधजनसंख्या आदि-आदि से ले कर प्राकृतिक आपदा आदि तक के आंकड़े भी जिस तरह लुप्त हो गए हैं उस तरह तो कभी गधे के सर से सींग भी लुप्त नहीं हुई थी. हमारा वह विभाग ही लुप्त हो गया है जो सरकारों से इतर अपना अध्ययन करता था व आंकड़े जारी करता था. आंकड़ों के सच के आईने में मुल्कों को अपना चेहरा देखना व संवारना होता है. लेकिन आप लाल किले से हर बार वही आंकड़े सुना रहे हैं जिनका कोई आधार-अध्ययन नहीं है. आंकड़ों की सरकारी फसल चाहे जितनी जरखेज हो रही होलोकतंत्र की धरती तो बंजर होती जा रही है. 

    अकल्पनीय विविधता से भरा यह देश संस्कृति की जिस डोर से बंधा हैवह बहुत मज़बूत है लेकिन है बहुत बारीक ! तोड़ोगे नहीं तो अटूट बनीमज़बूत होती जाएगीवार करोगे तो टूट जाएगीटूटती जाएगी. यह हजारों सालों की अध्यात्मिक परंपरा व साधना से पुष्ट हुई है. इसके पीछे सभी हैं - संत-सूफी-गुरू-भजनिक-उद्दात्त चिंतन वाले सामाजिक नेतृत्वकर्ता-गांव-नगर-शहर. सब रात-दिन सावधानी से इसे सींचते रहे तो यह अजूबा साकार हुआ है. ऐसा समाज संसार में कहीं है नहीं दूसरा. यह हमारा समाज ऐसा इसलिए है कि हमारे नेतृत्व ने रहीम को सुना व गुना था : रहिमन धागा प्रेम का / मत तोड़ो चटकाए/ टूटे ता फिर ना जुड़े/ जुड़े गांठ लग जाए. 

    पिछले दिनों में बहुत गांठ लग गई है. पैबंद लगे कपड़े की भी कोई शान होती है क्या ऐसा ही हमारा लोकतंत्र हो गया है. लेकिन हमारा है न तो हम पर यह पुरुषार्थ उधार है कि इसे फिर से तरोताजा खड़ा करें. 

वो  खड़ा है एक  बाबे-इल्म की  दहलीज़ पर 

मैं ये कहता हूं उसे इस ख़ौफ़ में दाखिल न हो. 

( 13.08.2025)