कई बार ऐसा होता है कि घाव दिखता नहीं है लेकिन बहुत गहरा होता है; बहुत सालता है, लंबे समय तक धपधपाता रहता है - शायद ताउम्र ! कभी ऐसा कुछ होता है जब लगता है कि अब अपने होने का मतलब ही कहीं खो गया है. इन दिनों ऐसी ही मन:स्थिति से गुजर रहा हूं जब आप खुद की नजरों में ही कुछ कम व कुछ छोटे हो जाते हैं.
बात दो लोगों की है- दो ऐसे लोगों की जिनमें अनगिनत लोग बसते हैं. ये दोनों ही लोग मेरे देश के नहीं हैं. मैं किसी भी तरह नहीं कह सकता कि इन दोनों को, कि इनमें से किसी एक को भी मैं जानता हूं. लेकिन ये दोनों इन दिनों मेरे भीतर ऐसी हलचल मचा रहे हैं कि मैं स्थिर नहीं हो पा रहा हूं. इनमें से एक रूस का है और दूसरा अमरीका का. कितनी हैरानी की बात है कि एक-दूसरे के सर्वथा विरोध में खड़े इन दो मुल्कों के दो लोगों में इतनी समानता है कि उनसे सैकड़ों मील दूर बैठा मैं, भारत का एक स्वतंत्रचेता नागरिक, इस कदर उद्वेलित हो उठा हूं कि जैसे बर्फ का कोई टुकड़ा तुम्हारे भीतर, तुम्हारी आंतों में उतरता चला जाए. अत्यांतिक शीत की जलन कभी झेली है ?
आरोन बुश्नेल नाम था उसका ! अमरीका की वायुसेना का सिपाही था. सेना में अनिवार्य भरती के नियम के कारण बुश्नेल सेना में था. अनिवार्य सेना भर्ती का चलन शासकों को जितना भी रास आता हो, यह मानवीय स्वतंत्रता व गरिमा के एकदम खिलाफ है. लेकिन सभी शासक किसी-न-किसी स्वरूप में इसे बनाए रखते हैं. बुश्नेल के मन में युद्धों व हत्याओं को ले कर उलझन थी. वह अमरीका का एक सजग युवा था जो जानता था कि देश-दुनिया में कहां, क्या हो रहा है और यह भी कि उसमें उसका अपना अमरीका क्या भूमिका निभा रहा है. अपने दोस्तों से इस बारे में उसकी बातें होती रहती थीं. वह भावुक था, अंतरात्मा की अदालत में अक्सर खुद से सवाल-जवाब करता था. फिर भी अब तक किसी ने नहीं कहा कि वह अपना काम जिम्मेवारी से नहीं करता था.
फलस्तीन पर इसराइली आक्रमण और उसमें अपने अमरीका की भूमिका ने उसे एकदम विचलित कर दिया. उसे ही क्यों, संसार भर के स्वतंत्रचेता नागरिकों ने गजा में इसराइली नरसंहार का प्रतिवाद किया है. हाल के वर्षों में किसी एक मुद्दे पर विभिन्न देशों के इतने सारे लोग घरों से बाहर निकले हों व अपनी सरकारों से रास्ता बदलने को कहा हो, ऐसा यह एक उदारण है.
बुश्नेल के सामने यह सवाल कुछ दूसरी तरह से खड़ा हुआ था. वह प्रतिवाद करने वालों में एक तो था ही लेकिन वह जानता था कि वह गजा को मटियामेट करनेवालों में भी एक है. उसका अपराधबोध अलग स्तर का था . इसलिए उसका जवाब भी अलग तरह से आया जब 25 फरवरी 2024 की दोपहर, 25 साल के इस फौजी जवान को हम तेजी से चल कर, अमरीका स्थित इसरायली दूतावास की तरफ जाते देखते हैं. उसके अमरीकी वायुसेना की पोशाक पहन रखी है, हाथ में फ्लास्क की तरह का एक डब्बा है. वह मजबूत कदमों से, तेजी से चलता जा रहा है तथा स्वगत ही बोलता भी जा रहा है : मैं अमरीकी वायुसेना का एक सक्रिय फौजी हूं…लेकिन अब मैं इस तरह के नरसंहार में किसी भी तरह का भागीदार बनने को तैयार नहीं हूं…हमारे शासकों ने भले इसे सामान्य मान लिया है…मैं एक चरम कदम उठने जा रहा हूं…फलस्तिनियों के साथ उपनिवेशवादी ताकतें आज जो कर रही हैं, उनकी तुलना में मेरा यह चरम कदम कुछ भी नहीं है…यह नरसंहार मेरे लिए असह्य हो गया है…फलस्तीन को आजाद छोड़ दो…फलस्तीन को आजाद छोड़ दो…कहते-कहते वह दूतावास के बंद द्वार तक पहुंचता है, स्थिरता से खड़ा होता है…अपने हाथ का डब्बा अपने सर तक लाता है, उसमें रखा तरल पदार्थ उसे सर से नीचे तक भिंगो जाता है…खाली डब्बा वह एक तरफ फेंकता है, अपनी फौजी टोपी झटके से सर पर पहनता है…अपने पैंट की जेब से लाइटर निकालता है…नीचे झुक कर अपनी पैंट में लाइटर से आग लगाता है…लपट भभक उठती है… उसकी तेज, स्पष्ट आवाज उभरती है…फ्री फलस्तीन…फ्री फलस्तीन … दो-तीन आवाजों के बाद आवाज कमजोर पड़ने लगती है…लपटें इससे अधिक बोलने का मौका नहीं देती हैं…अब तक सड़क पर छाया सन्नाटा टूटता है,सायरन की आवाज गूंजती है, कदमों की धमा-चौकड़ी सुनाई देती है…एक आवाज चीखती है…उसे जमीन पर गिरा दो…उसे जमीन पर गिरा दो…लेकिन न कोई दिखाई देता है, न कोई आगे आता है…फिर एक फौजी दिखाई देता है जो लपटों में घिरे आरोन की तरफ अपनी बंदूक ताने, निशाना लेने की कोशिश में है…फिर एक नागरिक दिखाई देता है जो उत्तेजना में चीखता है…आग बुझाने वाला यंत्र लाओ…आग बुझाने वाला यंत्र लाओ…फिर वह चीखकर कहता है …हमें बंदूक नहीं, वह यंत्र चाहिए…फिर कोई यंत्र लाता है…आग बुझाने की कोशिश होती है…यह सब चल रहा है लेकिन अब वहां बुश्नेल नहीं है…वह अपना प्रतिवाद दर्ज कर, सबकी पकड़ से दूर जा चुका है…
हम बुश्नेल का पुराना ट्विट पढ़ पाते हैं : “ दूसरे लोगों की तरह मैं भी खुद से पूछता हूं कि अगर मैं दास प्रथा के दौरान जीवित होता तो क्या करता? या जिम क्रो कानूनों ( रंगभेदी ) के समय ? या रंगभेद के चलन के दौरान? अगर आज मेरा देश नरसंहार कर रहा है तो मैं क्या करूंगा? मैं जो करने जा रहा हूं, वही मेरा उत्तर है.” बुश्नेल का एक फौजी साथी, जो भी उसकी तरह ही युद्ध, हत्या, अपनी सरकार के रवैये आदि के संदर्भ में अंतरात्मा की आवाज सुनता था और फौज से निकल सका था, बताता है कि बुश्नेल बहुत जिंदादिल दोस्त था. बहुत अच्छा गाता था, भावुक व ईमानदार था. हमेशा अन्याय, जबर्दस्ती आदि की खिलाफत करता था. रुंधे गले से उसने कहा : ऐसा करने से पहले जिस पीड़ा से वह गुजरा होगा, उसे मैं समझ सकता हूं.
हम बुश्नेल के जल मरने को क्या समझें ? एक नासमझ का अतिरेक भरा, उन्मादी, भावुक कदम ?आखिर क्या ही फर्क पड़ा गया फलस्तीनियों को याकि अमरीकी-इसराइली सरकारों को ? इनमें से किसी ने बुश्नेल के लिए सहानुभूति से भरा एक शब्द भी तो नहीं कहा ! हम ‘समझदार’ लोग ऐसा भी कहेंगे कि इससे तो कहीं अच्छा होता कि बुश्नेल जिंदा रह कर ऐसे अन्यायों का मुकाबला करता ! ‘समझदारों’ के लिए न तर्कों की कमी है, न शब्दों की. बुश्नेल के लिए शब्द, तर्क आदि पर्याप्त नहीं थे. उसे तो जवाब चाहिए था जो उसे कहीं मिला नहीं. जीवन जिन सवालों के जवाब देता ही नहीं है, मौत उन सवालों को समेट कर, आपको सुला लेती है. भीतर के हाहाकार से बेचैन बुश्नेल सो गया. उसे किसी को जवाब नहीं देना था. अपने पीछे छोड़ी दुनिया के हर इंसान के लिए वह खुद ही सवाल बन गया है कि सुनो, कितने‘आदमी’ बने और कितने ‘आदमी’ बचे हो तुम ?
मुझे याद आया कि इसी अमरीका में एक आदमी था मुहम्मद अली या कैसियस क्ले ! मुक्केबाजी के खेल में उन जैसे शलाकापुरुष कम ही आए. अनिवार्य सैनिक भर्ती का सवाल उनके सामने भी आया था. श्वेत प्रभुता के समाज में एक अश्वेत युवक के लिए आसान नहीं था कि वह अंतरात्मा की आवाज सुने व सत्ता को सुनाए. लेकिन मुहम्मद अली ने वह आवाज सुनी भी और सुनाई भी. उन्होंने अपना प्रतिवाद लिखा: “ मेरी अंतरात्मा मुझे इजाजत नहीं देती है कि महाशक्तिशाली अमरीका के लिए मैं अपने किसी भाई को, किसी अश्वेत या कीचड़ में लिपटे किसी निर्धन-भूखे को गोली मार दूं ! और क्यों मार दूं ? उनमें से किसी ने तो मुझे ‘निगर’ नहीं कहा; उनमें से किसी ने तो मेरी ‘लिंचिंग’ नहीं की; उनमें से किसी ने तो मुझ पर अपना कुत्ता नहीं छोड़ा; उनमें से किसी ने मुझसे मेरी राष्ट्रीयता तो नहीं छीनी; मेरी मां से बलात्कार नहीं किया, मेरे पिता की जान नहीं ली… फिर क्यों मारूं मैं उनको ? मैं कैसे गरीब लोगों की जान लूं ? नहीं, आप मुझे जेल में डाल दो !” मुझे याद आया कि 1968 में, जब चेकोस्लोवाकिया में तब की महाशक्ति सोवियत रूस की सेना घुस आई थी और उस छोटे-से देश की स्वतंत्र चेतना को कुचल कर रख दिया था तब जॉन पलाश नाम के एक युवक ने रूसी टैंक के सामने खड़े हो कर उसी तरह आत्मदाह कर लिया था जैसे अभी बुश्नेल ने किया. ऐसे दीवाने मर जाते हैं ताकि हमारे भीतर कहीं मनुष्यता के जीने की संभावना जिंदा रहे. यह गांधी के आमरण उपवास की तरह है या उनकी गोली खाने की ज़िद की तरह !
बुश्नेल के आत्मदाह के करीब साथ-साथ ही रूसी तानाशाह राष्ट्रपति ब्लादामीर पुतिन ने एलेक्सी नवलनी की हत्या करवा दी. मुझे लिखना तथा आपको समझना तो यह चाहिए कि पुतिन ने नवलनी की हत्या कर दी लेकिन बुश्नेल को ‘समझदारी’ का पाठ पढ़ाने वाले मुझसे कहेंगे कि ‘टेक्निकली’ हत्या पुतिन ने नहीं की. मैं नहीं जानता हूं कि कानून ‘आत्महत्या के लिए उकसाने’ को जिस तरह अपराध मानता है वैसी कोई सजा पुतिन को क्यों नहीं दी जानी चाहिए.
नवलनी ने पुतिन के जहरीले पंजों में अपनी गर्दन आप ही दे दी. जैसे हम सब जीवन की तरफ दुम दबाए भागते हैं, नवलनी सर उठाए मौत की तरफ भागते रहे. वे कोई राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं थे. भवन निर्माण क्षेत्र के वकील थे और उसी क्रम में रूस के सरकारी कामों में व्याप्त भ्रष्टाचार का सवाल उठा कर सबसे पहले सामने आए. और फिर बात से बात बढ़ती गई. पुतिन की नीतियों के सबसे मुखर आलोचक के रूप में वे खड़े हुए. उन्होंने रूसी ‘संसद’ का चुनाव भी लड़ा और शासन-प्रशासन के विरोध-अवरोध के बावजूद काफी सारा समर्थन जमा कर लिया. पुतिन ने भांप लिया कि यह आदमी और इसकी आवाज साधारण नहीं है. यह खतरनाक है. पुतिन जैसे एकाधिकारी मानसिकता वाले खतरे को उमड़ कर सामने आने नहीं देते बल्कि आगे बढ़ कर उसका गला मरोड़ देते हैं. इसलिए पहले झपाटे में ही पुतिन की पुलिस ने नवलनी को धर दबोचा. कई तरह के आरोपों का जाल बिछाया गया जिसमें चरमपंथी गतिविधियों में हिस्सेदारी से ले कर धोखाधड़ी तक का मामला शामिल था. जिस दिलेरी से उस गिरफ्तारी का सामना नवलनी ने किया, उससे पता चल गया कि पुतिन की आशंका कितनी सही थी.
नवलनी ने अपनी भूमिका संसदीय विपक्ष की रखी. वे जेल से भी लगातार अपनी बात कहते रहे, मुकदमों में अपना पक्ष रखने आते रहे. वे प्रखरता से लेकिन शांति से अपना पक्ष रखते थे. परिणाम यह हुआ कि नवलनी पुतिन की खिलाफत की सबसे मजबूत आवाज बन कर ही नहीं उभरे बल्कि रूसी समाज में असहमति की आवाज के उत्प्रेरक भी बन गए. रूसी संविधान में मनमाना संशोधन कर पुतिन अपनी स्थिति मजबूत करते रहे और नवलनी ऐसे हर कदम का पर्दाफाश करते रहे. फिर खबर आई कि वे जेल में बीमार हो गए हैं. इस खबर के पीछे का सच सभी जानते थे इसलिए रूसी समाज से भी और बाकी दुनिया से भी पुतिन पर दवाब बढ़ा और हार कर नवलनी को इलाज के लिए जर्मनी भेजना पड़ा. यहां यह बात सामने आई कि नवलनी के रक्त में जहर पहुंचाया गया है. अपने विरोधियों को खत्म करने में रसायनों के इस्तेमाल की ऐसी खबर रूस में किसी से छिपी नहीं थी. नवलनी उसके ठोस प्रमाण बन कर सामने आए.
यह मौका था कि जब नवलनी रूस लौटने से इंकार कर, जर्मनी में राजनीतिक शरण की मांग कर सकते थे. ऐसा कर सारी उम्र विदेश में बसर कर देनेवाले असहमत रूसी राजनीतिज्ञों-कलाकारों की कमी नहीं है. लवलनी को ऐसा समझाने की कोशिश भी की गई लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. पुतिन की आंखों में आंखें डाल कर बातें कहने-लड़ने को वे जर्मनी से रूस लौट आए. उन्होंने कहा: मैं किसी से, किसी भी तरह डरता नहीं हूं.
इस बार नवलनी को वैसी जेल में डाला गया जिसे हिटलर ‘कंसन्ट्रेशन कैंप’ कहता था. रूस के ध्रुवीय प्रदेश में बनी ऐसी जेलों को वहां ‘पीनल कॉलोनी’ कहते हैं. यहां ‘राजद्रोही’ सश्रम कैदी बना कर रखे जाते हैं. असाधारण बर्फीली आंधी व वर्षा से दबा-ढका यह सारा इलाका सामान्यत: मनुष्यों के रहने लायक नहीं माना जाता है. ऐसे ही इलाके में बनी है यह ‘पीनल कॉलोनी’ जहां देशद्रोही नवलनी डाल दिए गए. उन पर कई नये आरोप मढ़े गए और अंतत: 2021 की जनवरी में उन्हें 19 साल की जेल की सजा सुनाई गई. यह सजा और उसके पीछे के इरादों को अच्छी तरह समझ रहे नवलनी ने न हिम्मत हारी व धैर्य छोड़ा. उन पर मुकदमा चलता रहा और वे हर पेशी में ऑनलाइन हाजिर हो कर अपना पक्ष रखते रहे. हर बार उनका मनोबल व उनका सहज मानवीय हास्य-परिहास किसी को भी स्तंभित करता था.
अधिकाधिक संवैधानिक अधिकार अपनी मुट्ठी में कर लेने तथा अपने लिए आजीवन राष्ट्रपति का पद सुरक्षित कर लेने के साथ ही पुतिन की बर्बरता बढ़ गई. चापलूस नौकरशाही, क्रूर व स्वार्थी पुलिस तथा चप्पे-चप्पे को सूंघते जासूसी संगठन के बल पर पुतिन ने रूस को ‘साम्यवादी तानाशाही’ का नया ही नमूना बना दिया. फिर भी नवलनी के समर्थकों तथा पुतिन विरोधी दूसरी ताकतों ने असहमति की आवाज दबने नहीं दी. ऐसी हर आवाज को जेल से नवलनी का समर्थन मिलता रहा. बात तेजी से तब बदली जब पुतिन ने यूक्रेन पर हमला किया. नवलनी ने इस हमले का जोरदार प्रतिवाद किया. इस बार वे ज्यादा मुखर भी थे और ज्यादा कठोर भी !
अपने बच्चों के साथ उनकी पत्नी यूलिया जर्मनी जा बसी थीं. उन्होंने लवलनी का मामला अंतरराष्ट्रीय भी बना कर रखा और रूस के भीतर के अपने साथियों का मनोबल भी बनाए रखा. वे हमेशा कहती रहीं : हम हारेंगे नहीं, हम चुप नहीं रहेंगे, हम माफ नहीं करेंगे.
यूक्रेन ने रूसी प्रमाद को जैसा जवाब दिया, उसकी सेना ने रूस पर जैसे आक्रमण किए, पश्चिमी राष्ट्रों ने जिस तरह व जिस पैमाने पर यूक्रेन की सैन्य मदद की, इन सबने पुतिन को हैरान कर दिया. हर यूक्रेनी नागरिक फौजी बन जाएगा, पुतिन को इसकी कल्पना नहीं थी. तानाशाही का शास्त्र यही बताता है कि हर तानाशान सफलता पा कर ज्यादा मचलता है, विफलता पा कर पागल हो जाता है. पुतिन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. कभी वियतनाम में अमरीका के साथ भी ऐसा ही हुआ था. हमने पड़ोसी बांग्लादेश की जन्मकथा में भी यही होते देखा है. यूक्रेन बचेगा या मटियामेट हो जाएगा, पता नहीं लेकिन यह पता है कि रूस व पुतिन इतिहास में कभी भी सम्माननीय हैसियत नहीं पा सकेंगे. इतिहास की भी अपनी काली सूची होती है.
जेल की भयंकर मशक्कत, मानसिक विशाद, बाहरी सन्नाटा और जहर से खोखली हो गई शारीरिक क्षमता के साथ-साथ बढ़ती उम्र की प्रतिकूलता नवलनी को घेरने लगी हो तो आश्चर्य नहीं. हालांकि अपनी आखिरी पेशी के दौरान टीवी पर वे जितने दृढ़ व जाब्ते में लग रहे थे, उससे यह मानना संभव नहीं था कि उनका स्वाभाविक अंत करीब है. अचानक ही रूसी सरकारी तंत्र ने दुनिया को खबर दी कि ह्रदय के अचानक काम करना बंद कर देने के कारण 15 फरवरी 2024 को नवलनी की मौत हो गई.
पुतिन जिस तरह झूठ का समानार्थी शब्द बन गया है, उससे कौन बता सकता है कि मौत की यह तारीख भी सच्ची है या नहीं. खबर पाते ही नवलनी की मां ‘पीनल कॉलोनी’ पहुंचीं. उन्हें अपने बेटे से मिलना नहीं था, उसका शव लेना था. लेकिन वहां के अधिकारियों ने उन्हें कोई खबर नहीं दी और वापस लौटा दिया. पूरे सप्ताह वे भागती-दौड़ती रहीं फिर कहीं उन्हें मृत नवलनी मिले. शर्त यह थी कि उन्हें दफनाने का सारा संस्कार गुप्त रीति से करना होगा. न कोई सार्वजनिक समारोह होगा, न शवयात्रा निकाली जाएगी.
अब पीछे की कहानी खुल रही है हालांकि कहानी का अंतिम पन्ना खुला है कि नहीं, कौन जानता है. कहानी बता रही है कि देश के भीतर-बाहर का दवाब ऐसा था कि पुतिन को लाचार हो कर नवलनी के ‘भ्रष्टाचार विरोधी संगठन’ से एक समझौता करना पड़ा जिसके पीछे जर्मन सरकार का जबर्दस्त दवाब भी काम कर रहा था. समझौता यह हुआ कि जर्मनी की जेल में बंद एक रूसी जासूस वादिम क्रासिकोव की रिहाई की एवज में नवलनी को देशबदर कर जर्मनी भेज दिया जाएगा. पुतिन के लिए यह एक ‘टाइम बम’ को खुले में छोड़ देने जैसा समझौता था. वह जानता था कि यह खेल मंहगा पड़ सकता है. इसलिए उसने एक दूसरी योजना बनाई. बीमार नवलनी से उस दिन की भयंकर बर्फबारी में भी मजदूरी करवाई गई. बेदम हुए लवलनी को पुतिन के आदेशानुसार उसके गुर्गे ने छाती पर जोरदार प्रहार कर नीचे गिरा दिया. गिरे नवलनी फिर उठ नहीं सके. बर्फानी तूफान के बीच उनकी सांस जम गई. यूलिया जब समझौते की दूसरी औपचारिकताओं को पूरा करने में लगी थीं, नवलनी कैसे भी समझौते की पहुंच से दूर निकल गए. यूक्रेनी फौजी गुप्तचर एजेंसी के प्रमुख क्रायलो बुदानोव ने कहा कि उनकी जानकारी के मुताबिक नवलनी की मौत ‘ ह्रदय में खून का थक्का’ जम जाने से हुई.
अन्य कारणों का व कहानी के दूसरे पन्नों का खुलासा होता रहेगा लेकिन बुश्लेन को मानसिक बीमारी का या भटकी मानसिकता का शिकार बताने वाले नवलनी को क्या कहेंगे ? हर उस आदमी को क्या कहेंगे जो जीवन अपनी शर्त पर जीना चाहता है ? क्या जो सत्ता में हैं उनको ही अपने रंग-ढंग से जीने का अधिकार है ? क्या मनुष्य की अपनी कोई आजादी और उस आजादी की अनुल्लंघनीय गरिमा नहीं होती है ?
लेकिन अभी रूस की ही शाशा स्कोचिनलेंको का प्रसंग बाकी है. शाशा कलाकार व संगीतकार हैं तथा सेंट पीट्सबर्ग में रहती हैं. वे राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैं, न पुतिन की खिलाफत का कोई काम उन्होंने कभी किया है. लेकिन वे अभी जेल में हैं और उनकी यह सजा 7 साल लंबी है. उनका अपराध यह है कि वे फौज के खिलाफ अफवाह फैलाती हैं. ऐसा क्या किया शाशा ने ? उन्होंने यूक्रेन में रूसी बर्बरता से विचलित हो कर एक ऐसा मासूम काम किया जिसकी कोई सजा हो ही नहीं सकती है. खबर आई थी कि यूक्रेन के मारियोपोल के आर्ट स्कूल पर रूसी जहाजों ने बम बरसाया जब वहां 400 से अधिक लोगों ने शरण ले रखी थी. शाशा इस खबर से बेहाल हो गईं. अपने शहर के मॉल में खड़ी-खड़ी वे सोचने लगीं कि क्या करूं मैं ऐसा कि जिससे अपने देश के इस वहशीपन का प्रतिकार हो सके ! उन्हें कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने मॉल के कुल जमा पांच सामानों पर लगी उनका मूल्य बताने वाली पर्चियां निकाल कर, उनकी जगह अपनी नई पर्चियां लगा दीं जिन पर युद्ध विरोधी संदेश लिखे थे. उन्होंने लिखा था : “ हमारे बच्चों को जबरन फौज में भर्ती कर यूक्रेन भेजा जा रहा है. युद्ध की कीमत हमारे बच्चों की जान से चुकाई जा रही है.” पुलिस को कुछ पता भी नहीं चला लेकिन उस मॉल से सामान खरीदे किसी ग्राहक ने अपने सामान के साथ नत्थी शाशा की यह पर्ची पढ़ी और उसे ले कर पुलिस के पास पहुंचा; पुलिस शाशा के पास पहुंची और शाशा जेल पहुंची. अब वह जेल में है - 7 लंबे सालों के लिए !
मेरी तरह आपको भी लगता हो कि बुश्नेल, नवलनी और शाशा एक ही कतार में खड़े हैं तो आप भी मेरे साथ शर्म व विवशता का भाव लिए इस कतार के एकदम अंत में खड़े हो जाइए. ( 04.03.2024)
पढ़ कर सच में मन में हलचल हुई!
ReplyDeleteअसहायता की तकलीफ भीतर तक कचोटती है!
Adbhut likhte hai sir aap
ReplyDeleteAdbhut likhte hai sir aap
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