Wednesday 10 April 2024

आज की चुनौती : कल का दायित्व

 घटनाएं इस तेजी से घट रह हैं मानो किसी ने उन्हें चर्खी पर चढ़ा दिया है; और यह खेल हम सबने बचपन में खेला ही है कि सतरंगी चर्खी को जब हम  तेजी से घुमाते हैं तो सारे रंग एकरूप हो जाते हैं और दिखाई देता है सिर्फ सफेद रंग का नाचता गोलाकार ! हमें आज तेजी से बदलती घटनाएं भी ऐसी ही दिखाई दे रही हैं. इस तीखी व तेज चक्करघिन्नी में सारे रंग एकरूप हो गए हैं - सिर्फ एक फर्क के साथ कि अब हमारे सामने जो चर्खी घूम रही है वह सफेद नहीं, काली है. यह बता रही है कि देश की तमाम राजनीतिक-सामाजिक-वैधानिक-पेशेवर ताकतों ने मिल कर इस देश को, इसकी व्यवस्था को और इसके संविधान को किस कदर छलने का जाल बुन रखा है.    

हमारे सामने दो तरह के लोग खड़े हैं : एक वे कि सत्ता जिनका आखिरी सत्य है. वे सब प्रधानमंत्री की रहबरी में सत्ता की अपनी भूख शांत करने के लिए सारे धतकर्म करते जा रहे हैं. यह चिंता का विषय तो है लेकिन किसी दूसरे धरातल पर. मेरी पहली व सबसे बड़ी चिंता यह है कि राजनीतिक सत्ता जिनका अंतिम लक्ष्य नहीं हैवे क्या कर रहे हैंक्या कह रहे हैं क्या खोज रहे हैं वे और क्या पा रहे हैं वेइनमें अधिकांश वे कायर लोग हैं जो जिंदगी भर सुविधा व संपन्नता के रास्ते तलाशते रहते हैं और किसी हद तक उसे पा भी लेते हैं. पा लेने के बाद वे ताउम्र सावधान रहते हैं कि कहीं से कुछ ऐसा न हो कि यह छिन जाए. इनमें न बौद्धिक ईमानदारी हैन रत्ती भर साहस ! ये सब खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं - शुद्ध शाब्दिक अर्थ में ! इनकी सारी चातुरीसारा ज्ञानसारी व्यवहार कुशलता आदि का कुल निचोड़ यह है कि जीने के सुविधाजनक रास्ते तलाशने में बुद्धि का इस्तेमाल कैसे किया जाए. कभी किसी से गांधी से पूछा था : आपको सबसे अधिक उद्विग्नता किस बात की होती है उन्होंने जो कहाउसका मतलब था: मैं इस बुद्धिजीवी वर्ग’ की बढ़ती जमात से सबसे अधिक उद्विग्न हूं ! 

नोटबंदी जैसा मूढ़ फैसला और फिर डैमेज कंट्रोल’ के लिए बार-बार बोला जाने वाला झूठजीएसटी की घोषणा के लिए संसद में आधी रात को आयोजित प्रधानमंत्री का खोखला आयोजन व उस अपरिपक्व योजना से हो रहे नुकसान को छिपाने की हास्यास्पद कोशिशेंप्रधानमंत्री का लगातार झूठ-अर्धसत्य-विज्ञान व इतिहास का उपहास करने वाली उक्तियांभारतीय समाज को खंड-खंड करने वाली जहरीली काईयां वाकवृत्तिसंविधान व न्यायपालिका की हिकारत भरी उपेक्षालोकतांत्रिक परंपराओं की धज्जियां उड़ानाविपक्ष के लिए समाज में घृणा फैलानालोकतांत्रिक समाज को पुलिसिया राज में बदलनानौकरशाही को चापलूसों की जमात में बदलनाफौज को राजनीतिक कुचालों में घसीट कर जोकरों की जमात भर बना देनाऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का नया तानाबाना तैयार करना जैसे कितने ही थपेड़े देश ने झेले हैंझेल रहा है. लेकिन इन तथाकथित बुद्धिजीवियों में से एक की भी मुखर व अडिग मुखालफत सामने आई हो तो मालूम नहीं है. इनमें से अधिकांश ढोलबाजों की जमात में नाचते मिलते हैं. 

कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र जारी हुआ. उससे हमारी लाख असहमति हो सकती है लेकिन प्रधानमंत्री का यह कहना कि उन्हें यह मुस्लिम लीग का घोषणापत्र लगता हैक्या राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं है उनका बयान बताता है कि उन्हें न तो इतिहास की धेले भर की जानकारी हैन वे उस दौर की राजनीति की कोई समझ रखते हैं. लेकिन मुझे गहरी वेदना तब हुई जब मैंने देखा कि दूसरे दिन सारे अखबारों ने प्रधानमंत्री के इस मूढ़ व जहरीले बयान को ज्यों-का-त्यों परोस दिया ! मीडिया की स्वतंत्र आत्मा होती तो वह लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी होती. वह ऐसे बयान या तो प्रसारित नहीं करती या फिर इसे खारिज करते हुए प्रसारित करती. लेकिन गोदी मीडिया’ हर समय लोकतंत्र की लाश पर ही खड़ी हो सकती है.  जो गोदी में हैं वे गुलाम ही रहेंगे.

आजादी की अनोखीलंबी लड़ाई के बाद मिले लोकतंत्र की इतनी कम कीमत लगाते हैं हम लोकतंत्र के बिखर जाने के कारण हमारे पड़ोसियों का हाल देखने के बाद भी यदि हम इसकी तरफ से इतने उदासीन हैं तो हमें किसी भी गुलामी से परहेज कैसे होगा चौतरफा विकास के तथ्य व सत्यहीन आंकड़ों का जो घटाटोप रचा गया है वह यदि सच हो तो भी हमें यह कहना चाहिए कि नागरिक स्वातंत्र्यमीडिया की आजादीव्यक्तित्वहीन न्यायपालिकाअन्यायपूर्ण श्रम-कानूनों की कीमत पर हमें कोई भीकैसा भी विकास नहीं चाहिए. पिंजड़ा सोने का हो तो भी खुली हवा से उसका सौदा नहीं हो सकता हैयह बात कितनी भी पुरानी होअंतरात्मा पर स्वर्णाच्छरों में दर्ज रहनी चाहिए. लेकिन प्रेस-मीडिया के लोगों को अपनी कलम के बारे में उतना भी सम्मान नहीं है जितना किसी भिखारी को अपने भीख के कटोरे के बारे में होता है. कुर्सी को अंतिम सत्य मानने वाले राजनीति के धंधेबाजों का रोज-रोज अपनी पार्टी छोड़ बीजेपी में जाने का क्रम मुझे शर्मसार करता है लेकिन मीडिया का रोज-रोज ईमान बदलना अकुलाहट से भर देता है. आजाद भारत के कोई 75 सालों में जिस जमात ने 6 इंच की कलम उठाना व संभालना नहीं सीखाक्या उसे कभी लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जा सकता है देश में मीडिया जैसी कोई संकल्पना आज बची ही नहीं है. धंधा है जो धंधे की तरह चलता है. इस रोने का कोई औचित्य नहीं है कि हम पर मालिकों का दवाब है और नौकरी छोड़ने की हमारी स्थिति नहीं है. आप बताएक्या कभी 10 पत्रकारों ने भी मिल कर यह बयान निकाला है कि हम दवाब में काम करने को तैयार नहीं हैं और ऐसे दवाब में काम करने से अच्छा होगा कि हम सब त्यागपत्र दे दें. ऐसी कोई नैतिक आवाज कहीं से उठे तो !  

धंधेबाजों का पूरा कुनबा चुनावी बौंड के घोटाले को सार्वजनिक होने से रोकने में किस तरह लगा थायह सारे देश ने देखा. सरकारी तंत्र इसमें क्यों लगा थायह बात तो समझी जा सकती है लेकिन सत्ता के इशारे पर नाचते देश-दुनिया के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक की भूमिका को किस तरह समझेंगे आप उसका तो धेले भर का स्वार्थ नहीं था कि यह जानकारी देश के सामने न आए. लेकिन उसने अपनी पूरी साख दांव पर लगा दी. हर अदालती डंडे के सामने उसकी हालत गली के उस कुत्ते-सी हो रही थी जो दुम दबा कर कायं-कायं कर रहा हो. उसने कभी कोई नैतिक भूमिका लेने की कोशिश ही नहीं की. अब स्टेट बैंक एक खोखला साइनबोर्ड भर रह गया जिसे किसी भी गैरतमंद सरकार को बंद कर देना चाहिए. नई संहिता के साथ उसकी नई संरचना लाजिमी है. 

हमने यह भी देखा कि वकालत का धंधा करने वाले वे सारे नामी-गरामी लोगजिन्होंने अपनी ऐसी छवि गढ़वाई है कि वे हैं तो संविधान हैन्याय हैकैसे-कैसे तर्कों के साथ सामने आ रहे थे ! वे सब सर्वोच्च अदालत को समझा व धमका रहे थे कि चुनावी बौंड की कोई भी जानकारी सार्वजनिक हो गई तो न्यायपालिका सदा-सर्वदा के लिए कलंकित हो जाएगी तथा देश तो गड्ढे में गया ही समझिए! इन सबके पीछे करोड़ों की वह फीस बोल रही थी जो इनकी छवि का आधार है. इनकी कोई नैतिक रीढ़ बनी व बची नहीं है.

यह असली खतरा है. सरकारें आएंगीजाएंगी. जब भीजो भी सरकार आएगी उसे भी अपने ऐसे ही रीढ़विहीन लोगों की जरूरत होगी. ऐसे ही बुद्धिजीवीपत्रकारमीडिया संस्थान उसे भी तो चाहिए होंगे ! इसलिए लोकतंत्र के पैरोकारों की जमात खड़ी करना प्राथमिक शर्त है. हमें आज का दायित्व पूरा करना है और कल का दायित्व निभाने की ताकत संयोजित करनी है. दोनों काम साथ-साथ करने हैं. ( 10.04.2024 )    

8 comments:

  1. आनंद कुमार10 April 2024 at 08:35

    यह लेख बड़े दायरे में प्रसारित करने से असरदार साबित होगा।‌ इसमें कबीर की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है:
    सुखिया सब संसार है
    खाएं और सोए
    दुखिया दास कबीर है
    जागे और रोए।

    ReplyDelete
  2. This is the issue which must be raised, i intend to have a forum to express it for that as discussed my friends to contest from New Delhi lok sabha constituency to place this as an agenda to create awareness among out countrymen being need of the hour, that's why this shall be people's representation

    ReplyDelete
  3. The so called intellectuals has become totally careerists. With no morals. I see daily that even the top advocates bee line before the power centers to become judge. It is difficult to find any so called intellectual who would be unconcerned about getting any post.

    ReplyDelete
  4. It is gsbapna

    ReplyDelete
  5. पत्रकार और लेखक कहलाते हुए अब दसेक साल से शर्म आती है--भला हो उन थोड़े से बहादुर वैकल्पिक यूट्यूबर पत्रकारों का जो बेहद सीमित साधनों के बावजूद दसियों करोड़ लोगों को जगा कर रख रहे हैं।रचनाकार बिरादरी में एक दो ही अब भी हैं, ग़नीमत है अब भी अन्याय अत्याचार तानाशाही के
    विरुद्ध कुछ बोल रहे हैं। इस महाप्रलय के बाद बेशक शूरवीरों की ऐसी फौज प्रकट हो जाएगी जो अभी कहीं दुबकी बैठी है। आपातकाल के बाद जैसा देखा गया, कुछ वैसा ही।

    ReplyDelete
  6. Well said!
    First, we are not given the facts by the media, second, we are unable to process it in view of the imminent future and lastly, we lack the courage to act on our convictions.
    This must be corrected.

    ReplyDelete
  7. भारतीय संवैधानिक व्यवस्था (लोकतंत्र) मे कोई चौथा स्तंभ नही है। आज कार्यपालिका + पूँजीपति = गोदी मीडिया। आपातकाल के दौरान कार्यपालिका+ लाठी= विरोधी मिडीया।

    प्रधानमंत्री को शायद कांग्रेस का घोषणा पत्र आजादी पूर्व 1936 मुस्लिम लीग का घोषणा पत्र इसलिए याद आ गया क्यों की इनके पूर्वजों ने उनके साथ ही मिल कर सरकार बनाई थी।

    ReplyDelete