कहावत पुरानी है कि भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है ! तो समझिए कि वैसे ही काल से देश गुजर रहा है. कहा जा रहा है कि यहां हर कुछ, हर ओर से छप्पड़ फाड़ कर बरस रहा है ! हम भी देख रहे हैं कि छप्पर हो कि न हो, बारिश खूब हो रही है. जुमलों की बारिश, आंकड़ों की बारिश, घोषणाओं की बारिश ! आत्म-प्रशंसा की बारिश तो बहाल किए दे रही है. बेचारे कबीर ने ऐसा ही कुछ देखा होगा तो यह उलटबांसी लिखी होगा : बरसे कंबल, भींगे पानी !
तो इस बारिश में अब तक पांच ‘रत्न’ भी बरस चुके हैं. तब से रोज सुबह अखबार इसलिए ही खोलता हूं कि देखूं कि आज कौन-सा ‘रत्न’ बरसा ? आज ही नहीं, मैं पहले से भी हैरान रहता था कि यदि हमारे देश में इतने रत्न हैं तो हम इतने दरिद्र व फूहड़ क्यों हैं ? इस वर्ष के रत्नों को छोड़ दें तो 48 रत्नों की खोज हमने पहले ही कर ली थी. अब ( याकि अब तक !) हो गए हैं 53 यानी अर्द्ध-शतक पूरा हो चुका है. लेकिन बल्लेबाज क्रीज पर है और चुनाव-टाइम पूरा होने से पहले कई ओवर बाकी भी हैं, तो मतलब कि हे गुणग्राहको, अपनी पोथी बंद मत करना अन्यथा नये ‘रत्नों’ से वंचित रह जाओगे.
महात्मा गांधी ने 150 साल पहले जब ‘हिंद-स्वराज्य’ नाम की किताब लिखी थी तब ‘भारत-रत्न’ का जन्म भी नहीं हुआ था. उस किताब में बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी बातें उन्होंने लिखीं. वह तो उनका भाग्य ही मानता हूं कि जैसे उस समय ‘भारत-रत्न’ का जन्म नहीं हुआ था वैसे ही उस समय ‘यूएपीए’ का जन्म भी नहीं हुआ था, नहीं तो महाशय धरे भी जाते और धकियाए भी जाते ! ‘हिंद-स्वराज्य’ में महात्माजी ने संसदीय लोकतंत्र की कटु समीक्षा करते हुए प्रधानमंत्री नाम के अनोखे प्राणी की आंतरिक विपन्नता पर ऊंगली उठा दी और लिख दिया कि वह अपनी सत्ता का सौदा कई तरह से, कई स्तरों पर करता है जिनमें एक तरीका सम्मान बांटने का भी है. गुलाम खरीदने की प्रथा बंद हो गई तो बड़े लोगों को गुलाम बनाने के नये रास्ते खोजने पड़े. महात्माजी ने यह भी लिख दिया कि प्रधानमंत्री नाम का यह प्राणी देशभक्त होता है, उन्हें इस पर भी शक है. जो बेचारा सारा देश अपनी तर्जनी पर उठाए फिरता है ( माफ कीजिए, देश नहीं, अब वह संसार उठाए फिरता है ! ) उसके बारे में ऐसी शंका !! मुझे पक्का विश्वास है कि महात्माजी को यह सब लिखने-कहने की छूट कांग्रेस व जवाहरलाल नेहरू ने दे रखी थी वरना रत्नों की ऐसी बेइज्जती सनातनी देश भला बर्दाश्त करता क्या ! यह अकारण नहीं है कि यह सरकार कांग्रेस-मुक्त देश बनाने में जुटी है और सफलता के करीब है. कांग्रेस-मुक्त हो गया देश तो महात्माजी तो साथ ही निबट जाएंगे. इसलिए ‘वे’ उनके बारे में कम ही बोलते हैं. बुद्धिमान को इशारा काफी होता है तो कई हैं ‘उनके’ लोग जो उनका इशारा समझ चुके हैं और अपना काम बखूबी कर रहे हैं.
आपको यह भी देखना चाहिए कि रत्नों की इस खोज में सरकार ने पार्टी का भेद भी नहीं किया है. सबको एक नजर से, एक ही तराजू पर तोला गया है. टके सेर भाजी, टके सेर खाजा! मैं यह भी देख रहा हूं कि जिन्हें काल के कूड़ेघर में फेंक दिया गया था, उन्हें भी जब वहां से निकाल कर झाड़ा-पोंछा गया तो इस मीडिया नाम के जमूरे को उनमें नई ही रोशनी व चमक दिखाई देने लगी. अब कोई पिछले सालों की सारी खाक छान कर मुझे बताए कि कर्पूरी ठाकुर की किस विशेषता का जिक्र किसने, कब किया और इस मीडिया ने कब उनकी चमक कबूल की ? अब तो कई दावेदार पैदा हो गए हैं कि जो कह रहे हैं कि कर्पूरी ठाकुर जैसे रत्न को ‘भारत-रत्न’ न मिलने के कारण वे सालों से सोये नहीं हैं. अब जा कर उन्हें नींद आएगी ! मुझे भी अच्छा लगता है जब कोई चैन की नींद सोता है. लेकिन कर्पूरी ठाकुर का क्या ? जैसे-जैसे लोग उनकी जैसी-जैसी प्रशंसा कर रहे हैं उससे उनकी नींद हराम हो गई हो तो हैरानी नहीं. अंग्रेजी अखबारों ने उनकी प्रशंसा में अब क्या-क्या नहीं लिखा जबकि उनके रत्न बनने से पहले इन अखबारों ने कभी उनकी सुध भी नहीं ली और कभी ली भी तो उनको बेसुध करने के लिए ही ली.
सुध लेने की बात निकली ही है तो मैं सोच रहा हूं कि 2014 में ग्रह-परिवर्तन के बाद से किसने लालकृष्ण आडवाणी की सुध ली. वे भारतीय जनता पार्टी के सौरमंडल के किस कोने में रहे अबतक, इसका पता उनमें से किसे है जो आज उनकी अक्षय-कीर्ति के गान गा रहे हैं ? वे गा भी रहे हैं और कनखी से देख भी रहे हैं कि यह गान कहीं मर्यादा के बाहर तो नहीं जा रहा है ? जिस इशारे से लालकृष्ण आडवाणी को ‘भारत-रत्न’ बनाया गया है, सबको पता है कि उस इशारे के इशारे से आगे नहीं निकलना है.
भारतीय राजनीति के शिखरपुरुषों में शायद ही कोई दूसरा होगा जिसे लालकृष्ण आडवाणी जैसी हतइज्जती झेलनी पड़ी होगी. असामान्य बेशर्मी से उन्हें सरेआम अपमानित करने का कोई अवसर चूका नहीं गया. आज वे और उनका परिवार कृतकृत्य हो कर उस अपमान का सौदा ‘भारत-रत्न’ से करने में जुटा है. यह ज्यादा दुखद इसलिए है कि आडवाणी-परिवार व जयंत सिंह परिवार के संस्कारों में अब कोई फर्क बचा ही नहीं है.
कर्पूरी ठाकुर हों कि लालकृष्ण आडवाणी कि चौधरी चरण सिंह कि नरसिम्हा राव कि स्वामीनाथन, कौन कहेगा कि ये सब विशिष्ट जन नहीं हैं ? लेकिन कोई नहीं कहेगा कि इनमें विशिष्टता थी तो क्या थी ? हमारी परंपरा में मृतकों के लिए सच बोलने का चलन नहीं है. यह भी सही है कि याद ही रखना हो तो शुभ को याद रखना चाहिए. फिर भी एक सवाल तो बचा रह जाता है कि कैसे फैसला करेंगे कि कौन किस श्रेणी का हकदार है ?
सरकार के पास नागरिक सम्मान की चार श्रेणियां है न ! क्या ये श्रेणियां व्यक्ति का कद नापने के इरादे से बनाई गई हैं ? नहीं, ‘पद्मश्री’ से ‘पद्मविभूषण’ तक की सारी श्रेणियों को आंकने का आधार इतना ही हो सकता है कि किसने, किस क्षेत्र में ऐसा काम किया कि जिसका उनके क्षेत्र पर गहरा असर पड़ा ? एक बड़ा डॉक्टर या इंजीनियर या प्रोफेसर पूरे समाज पर नहीं, अपनी विशेषज्ञता के किसी पहलू पर ही असर डालता है, तो वह ‘पद्मश्री’ से नवाजा जा सकता है. कोई इससे बड़े दायरे को प्रभावित करता है तो ‘पद्मभूषण’ और जो कई दायरों को प्रभावित करता है तो वह ‘पद्मविभूषण’ से नवाजा जा सकता है. अगर राज्य द्वारा सम्मान कोई राजनीतिक क्षुद्रता की चालबाजी नहीं है तो ऐसे तमाम सम्मान व्यक्ति के छोटे या बड़े होने का फैसला नहीं करते, भारतीय समाज पर उस व्यक्ति के असर का आकलन भर करते हैं. खिलाड़ी, अभिनेता, वैज्ञानिक जैसी हस्तियां अपने-अपने क्षेत्र में आला हो सकती हैं लेकिन संपूर्ण भारतीय समाज व उसकी मनीषा पर उनका ऐसा कोई असर नहीं हो सकता कि जो व्यापक रूप से हमारी सोच-समझ को प्रभावित करता हो. यह सब भूल कर जब राज्य किसी को इस्तेमाल करने की छुद्रता करता है तब सम्मान अपमान में बदल जाता है. गांधी जिस अर्थ में इन सम्मानों को सत्ता की चालबाजी कहते हैं, उसे गहराई से समझने की जरूरत है.
हमने राजनीतिक चालबाजी के लिए इन नागरिक सम्मानों को व्यक्ति की हैसियत से जोड़ दिया है. जहां यह हैसियत से जुड़ जाता है, वहाँ ऐसे सारे सम्मान खरीदे व बेचे ही जाते हैं क्योंकि ऐसे सौदों की हैसियत खास लोगों की ही होती है.
‘भारत-रत्न’ का सीधा मतलब है कि आप ऐसे किसी व्यक्ति की बात कर रहे हैं जिसने भूत-भविष्य व वर्तमान तीनों स्तरों पर भारतीय मनीषा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है. यह वक्ती उपलब्धि की बात नहीं है, जिस हद तक इस नश्वर संसार में किसी की अविनाशी कीर्ति हो सकती है, उसकी बात है. अगर इस कसौटी को मान लें हम तो हमारे 53 भारत-रत्नों में से 3 भी इस पर खरे नहीं उतरेंगे. कोई क्रिकेट खेलता हो कि कोई गाना गाता हो वह हमारे वक्त का प्रतिनिधि हो सकता है, ‘भारत-रत्न’ नहीं हो सकता है. प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन जाना ‘भारत-रत्न’ का अधिकारी हो जाना हर्गिज नहीं हो सकता है. लेकिन यही तो हो रहा है.
रत्नों का यह बंटवारा दरअसल किसी दूसरे को नहीं, दूसरे के बहाने खुद को महिमामंडित करने की चालाकी है. हमने अपने गणतंत्र को इसी नकल पर संयोजित किया तो राज्य-पुरस्कारों का चलन भी शुरू किया. हम भीतर से जितने दरिद्र होते हैं, बाहरी अलंकरणों से उसे उतना ही छिपाने की कोशिश करते हैं. आज वही तमाशा चल रहा है. ‘भारत-रत्न’ इतना खोखला कभी नहीं हुआ था. ( 16.02.2024)
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