Saturday, 30 May 2020
साहस के साथ जीना ही जीना है !
Monday, 11 May 2020
कोरोना से लड़ने का उपाय
Monday, 4 May 2020
आप कोरोना से डर रहे हैं ?
अब जबकि जिन्होंने तालाबंदी की थी वे कह रहे हैं कि हम ढील दे रहे हैं, तब “ कभी हम खुद को तो कभी अपने घर को देखते हैं!” सच, मैं भी खुद को और अपने घर को देखता हूं और पाता हूं कि सभी डर रहे हैं, सभी एक-दूसरे से बच रहे हैं.
अपने देश ने ऐसा कुछ पहले देखा नहीं था, दुनिया ऐसे हालातों से पहले कभी गुजरी नहीं थी. लोग अपनों से कभी इस तरह आशंकित नहीं हुए थे; लोग अपनों से इस तरह कभी जुदा नहीं हुए थे. सब कुछ था फिर भी जैसे कुछ भी नहीं था.जीवन तो था लेकिन सब ओर सनसनी मौत की ही थी. मौत वह हकीकत बनती जा रही थी जो सभी फसानों पर भारी थी. कमरों में लगने वाला ताला मुल्कों पर लगाया जा रहा था लेकिन लगता था कि कोरोना-दैत्य को हर ताले की चाभी का पता है. ऐसा पहले भी हुआ था लेकिन इतना व्यापक नहीं हुआ था. यह तो सही अर्थों में अंतरराष्ट्रीय है. हमारी आधुनिक सभ्यता के सारे स्वर्णिम शिखर सबसे पहले धूल-धूसरित हुए. आंसू भरी आंखों से ब्रिटेन की वह डॉक्टरनी जो कह रही थी वह जैसे सारी दुनिया की बात कह रही थी : “ हम कर तो कुछ नहीं पा रहे हैं लेकिन देखिए, हम मोर्चा छोड़ कर भाग भी नहीं रहे हैं !”
आज भी सब कुछ वैसा ही है। जिंदगी के नहीं, मौत के आंकड़े ही हैं जो हम एक-दूसरे के साथ बांट रहे हैं।जिंदगी और मौत के बीच का फासला इतना कम कब था याकि हमने कब महसूस किया था ? लेकिन नहीं, कहने और देखने को इतना ही कुछ नहीं है। बहुत कुछ और भी है : पहले से कहीं ज्यादा शांत नगर-मुहल्ले हैं, सड़कों पर लोग हैं लेकिन भीड़ नहीं है, कहीं भीड़ है भी तो भीड़पन नहीं है; कई गुना साफ पर्यावरण है, धुली हवा, पारदर्शी पानी, अपनी चमक बिखेरते जंगल, आजाद जानवर, चहकते पंछी ! हिमालय की देवतुल्य चोटियां बहुत दूर से साफ दिखाई देने लगी हैं. हमने जिनके जंगल छीन लिया था वैसे कई पशु-पंछी हमारे नगरों की सड़कों का मुआयना करते दिखाई देने लगे हैं.
कौन कर रहा है यह सारा काम ? देश तो बंद है ! सर्वशक्तिमान सरकारें कमरों में कैद, आपस में बातें कर रही हैं; तो फिर कौन है जो यह सब कर रहा है ? हम अपना विकास, विज्ञान और विशेषज्ञता और अपनी मशीनें ले कर जैसे ही हटे, प्रकृति अपने सारे कारीगरों को साथ ले कर मरम्मत में जुट गई. जिन बिगाड़ों को हमारे विशेषज्ञों ने हमारी किस्मत बता कर किनारा कर लिया था, आज वे सारे जैसे रास्ते पर आ रहे हैं; ओजोन की चादर की किसी हद तक मरम्मत हो गई है, ग्लैशियरों का पिघलना कम हो गया है. आप हिसाब करें कि हुए कितने दिन हैं तो कुल जमा 70 दिन ! इतने ही वक्त में प्रकृति ने बहुत कुछ झाड़ डाला है, पोंछ लिया है, रोप दिया है. उसने हमसे कह दिया है कि तुम अपना हाथ खींच लो, मैं अपना हाथ बढ़ाती हूं। इसलिए पीछे नहीं लौटना है, रास्ता बदल कर तेजी से चलना है - आगे ! गांधी का ‘हिंद-स्वराज्य’ इसी घर-वापसी का ब्ल्यू-प्रिंट है.
प्रकृति के कारीगरों की भी अपनी क्षमता है. वे रात-दिन लग कर जितना रच सकते हैं, हमारा बिगाड़ा हुआ जितना बना सकते हैं, हमारा प्रदूषित किया जल और वायु जितना साफ कर सकते हैं, हमारे काटे-खोदे जंगलों और खदानों को जितना परिपूरित कर सकते हैं उससे ज्यादा बोझ उन पर मत लादो ! किसान भी विवेक करता है कि अपने बैल पर कितना बोझ डाले, हम उतना विवेक भी नहीं करते हैं कि अपने किसान पर कितना बोझ डालें. प्रकृति थकती नहीं है लेकिन बेदम जरूर हो जाती है. हमारी सभ्यता उसका दम निकाल लेती है. यह बंद करना होगा. विकास की पोशाक में विनाश का यह खेल बंद करना ही होगा.
उतना ही और वैसा ही विकास हमारे हिस्से का है जितना और जैसा विकास पर्यावरण के चेहरे पर धूल न मलता हो. बाकी सारा कुछ छलावा है, झूठ है, आपकी खड़ी की धोखे की टट्टी है. जरूरी है कि एक कोरोना से निकल कर हम दूसरे कोरोना में न जाएं. इसलिए बंद करनी होगी बेवजह की असुविधा पैदा करने वाली सुविधा की यह अंधी दौड़, कारों-विमानों-कारखानों का यह जुलूस, सच को झूठ और झूठ को सच करने वाली विज्ञापनबाजी, दो लगा कर दस पाने की भूख जगाने वाला यह आर्थिक छलावा और लगातार हमारी जरूरतें बढ़ाते चलने वाला यह बाजार ! पूंजी को भगवान बताने वाला और भगवान से पूंजी कमाने वाला, लोभ और भय के पहिए पर दौड़ने वाला यह विकास नहीं चाहिए।
कोई ज्ञानी पूछता है - क्या कोरोना इनसे पैदा हुआ है ? वह मुझे डरा कर चुप कराना चाहता है. चुप रहना और चुप कराते रहना इनकी सभ्यता का हथियार है. मैं अज्ञानी कहता हूं : नहीं, कोरोना तो विषाणु है जो प्रकृति से पैदा हुआ है। आगे भी होगा किसी दूसरे नाम से. पहले भी हुआ था - कभी हैजा के नाम से, कभी प्लेग के नाम से, कभी इंफ्लूएंजा तो कभी स्मॉलपॉक्स के नाम से. ब्लैक डेथ, एचआईवी, एशियन फ्लू, बर्ड फ्लू, इबोला और न जाने क्या-क्या नाम सिखाए थे आपने. इसलिए विषाणुओं का पैदा होना प्राकृतिक है. एक अध्ययन बताता है कि एक व्यक्ति एक दिन में औसतन २-४ सौ ग्राम मल त्यागता है, और हमारे एक ग्राम मल में 1 करोड़ वायरस, 10 लाख बैक्टीरिया आदि होते हैं. तो इन विषाणुओं से हमारा नाता पेट से ही होता है. लेकिन कोरोना से लड़ाई में हम जितने कमजोर और असहाय साबित हुए हैं वह जीवन के, जीविका के और विकास के उन्हीं कारणों से जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है. यह बीमार विज्ञान है, यह अंधा विकास है, यह अमानवीय संस्कृति है, यह डगमगाती सभ्यता है। इससे निकलना होगा, इसे बदलना होगा, इसे अस्वीकार करना होगा। वह छोटा-सा, अनमोल शब्द हमें फिर से सीखना व जीना होगा जिससे गांधी के सत्याग्रह की शुरुआत होती है - नहीं !
नहीं, भय नहीं; नहीं, लोभ नहीं; नहीं, हिंसा नहीं; नहीं, वह नहीं जो सबके लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं है. नहीं, जरूरत से ज्यादा नहीं और जरूरतें ज्यादा बढ़ाना नहीं; नहीं, किसी से डरना नहीं और किसी को डराना नहीं; नहीं, दूसरों के बल पर और दूसरों से छीने गये संसाधनों पर इतराना नहीं; नहीं, हाथ का काम और हाथ से काम धर्म है, कर्तव्य है, स्वाधीनता से जीने का मूलमंत्र है, भूलना नहीं. आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान जहां नहीं, वहां रहना नहीं. कोरोना इतना जगा जाए हमें तो वह भगवान का भेजा दूत ही कहलाएगा. नहीं तो यह कोरोना अपने किसी भाई -बंदे को अगली बार फिर ले कर आएगा. प्रकृति आत्मसम्मान के साथ आत्मनिर्भरता का जीवन जीना चाहती है जिसमें हमारी जीवन-शैली बाधक होती है. बाधा कौन पसंद करता है ? न हम, न प्रकृति ! ( 04.05.2020)