Wednesday 4 December 2019

संविधान के चमगादड़

         क्या आपको मालूम है कि हमारा एक संविधान भी है कि जिसे बनाने में कोई तीन साल लगे अौर जिसे लिखने में एक अादमकद अादमी ने अपना जीवन-दीप सुखा डाला था ? अौर क्या अापको यह भी मालूम है कि इसे बनाने अौर लिखने में जो लोग जुटे लगे थे, उनमें सेकरीब-करीब सभी भारत की अाजादी की लड़ाई के तपे-तपाये सिपाही थे जिनकी पूरी जवानी अपने सेनापति महात्मा गांधी के पीछे चलते अौर लड़ते बीती थी ? क्या अापको मालूम है कि अभी-अभी 26 नवंबर की जो तारीख बीती है वही हमारा संविधान दिवस है ? अौर ठीकउसी संविधान दिवस पर, संविधान के नाम पर शपथ लेने वाले महाराष्ट्र के राजनेताअों ने संविधान के शब्दों की अौर उसकी अात्मा की धुर्रियां ऐसी बिखेरी हैं कि अब संविधान की घायल अात्मा की कराह के अलावा वहां कुछ सुनाई नहीं देता है

  कई बार लगता है, अौर अब तो बार-बार, हर रोज लगता है कि संविधान एक बड़ा वटवृक्ष है जिसकी शाखाअों पर हम सभी चमगादड़ों-से उल्टा लटके हैं ; अौर जो उल्टा लटका है उसे कभी कुछ सीधा दिखा है क्या ? इस संविधान को बनाने में जिसने सबसे ज्यादामजदूरी की उस बाबासाहब भीमराव अांबेडकर ने इसे लिपिबद्ध कर, जब अपनी कलम धरी तभी यह भी कहा कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं. अौर जो कभी पल भर के लिए भी संविधान सभा में गया नहीं, उसका एकशब्द लिखा नहीं, उस प्रक्रिया को कभी तवज्जो दी नहीं लेकिन जिसकी गहरी, विशाल छाया संविधान अौर उसके निर्माताअों पर पड़ती रही, उस महात्मा गांधी ने बहुत कुरेदने पर कुछ इस अाशय की बात कही : देश चलेगा कैसे इसकी फिक्र में ये सब दुबले हुए जा रहे हैं, मैं इसफिक्र में पड़ा हूं कि देश बनेगा कैसे !! 

 चमगादड़ो, सोचो अौर बताअो कि जो बनेगा नहीं, वह चलेगा कैसे ?  

 जो नहीं बना है उसे ही चलाने की पीड़ा से हम भी गुजर रहे हैं अौर हमारा संविधान भी ! जरा हिसाब तो लगाइए कि हमारा समाज कितनी जगहों से, कितनी तरह से टूटा है ? हमारी पुरागाथा का अष्टावक्र भी शरमा जाए इतना विकलांग विकृत है हमारा समाज जिसमेंजातियां मिलती हैं, उप-जातियां मिलती हैं; धर्म अौर संप्रदाय; अधर्म अौर जहरीली सांप्रदायिकता ; कुसंस्कारी भाषाएं अौर बोलियां; रीति-रिवाज भी अौर परंपराएं भी अौर पतनशील रवायतें भी. ये सब मिलते हैं; अौर मिलते हैं इन सबसे चिपके हुए उन्मत्त हम लोग; लेकिन जोनहीं मिलता है वह है एक पूरा, खालिस हिंदुस्तानी ! जबकि हमारा संविधान जैसे ही बोलना शुरू करता है, एकदम पहला वाक्य ही बोलता है कि हम भारत के लोग अपने लिए यह संविधान बना कर, अपने ऊपर लागू करते हैं. ‘ हम भारत के लोग’ - जो संविधान इससे छोटीकिसी पहचान को मानता ही नहीं है, हम बौने लोगों ने उसे ही कितनी जंजीरों में इसे बांध रखा है ! इंसान हो कि संविधान किसी को भी बांध देना विकास की, प्रस्फुरण की नहीं बोंसाई बनाने की प्रक्रिया है. बोंसाई, जो प्राकृतिक नहीं है; बोंसाई जो फुलवारियों में नहीं हमारेड्राइंगरूमों में मिलता है. इसलिए संविधान भी हमें समाज में नहीं, शपथ-ग्रहण समारोहों में मिलता है

 कभी यह बोध जागता है हममें कि जब हम सड़क के गलत किनारे अपनी साइकिल खड़ी करते हैं, जब हम सड़कों को अपनी कारों की पार्किंग की तरह इस्तेमाल करते हैं, जब हम सड़क पर पैदल चलते इंसानों को अपनी गाड़ी से हिकारत की नजर से देखते हैं अौर उनकेलिए अपनी गाड़ी किनारे नहीं कर लेते हैं, जब हम सड़क पर थूकते हैं या पान की पिचकारी छोड़ते निकल जाते हैं, अौर जब हम किसी भी कारण से, किसी भी अादमी या प्राणी पर हाथ या हथियार छोड़ते हैं तब हम संविधान के मुंह पर कालिख पोत रहे होते हैं ? अरे चमगादड़ो, संविधान रोज-रोज लोकतंत्र को जीने की कला सिखाने का शास्त्र है; पूजने का अौर महफिलों में सर लगाने का ग्रंथ नहीं

  टिकट की लंबी कतार के अाखिरी सिरे पर खड़ा था वह - अखबार में अांखें गड़ाए कदम-दर-कदम बढ़ रहा था - उसने किसी को धक्का दिया, किसी पर चिल्लाया, अपने से 5-10 लोग अागे खड़े किसी को नोट पकड़ाने की कोशिश की वह उसका टिकट भी लेले. उसे जाने की जल्दी तो थी लेकिन वह धैर्य की बांह गहे था. तभी एक अादमी ने पीछे से अा कर उसके कंधे पर हाथ रखा. मैंने देखा, वह संविधान था. तभी अपना अस्तित्व किसी तरह संभालती-लड़खड़ाती, कांपती-सी एक वृद्धा भी अा लगी कतार में. उसने अखबार से नजरबाहर निकाली, वृद्धा की तरफ देखा अौर फिर कतार से बाहर अा कर, उसे संभालते हुए सीधा टिकट खिड़की पर ले गया-“ इन्हें पहले टिकट ले लेने दो !” टिकट लेने वाले से उसने कहा. उस अादमी ने भी वृद्धा को देखा अौर अपना हाथ पीछे ले लिया. खिड़की के भीतर बैठेअादमी ने भी देखा कि कतार से बाहर का कोई, कतार तोड़ कर खिड़की पर पहुंचा है. उसने देखा अौर वृद्धा को टिकट दे दिया. टिकट ले कर उसी तरह कांपती-लड़खड़ाती वह चल पड़ी. वह अादमी फिर लौट कर कतार के पीछे अा लगा. मैंने देखा - संविधान वहीं खड़ा थालेकिन इस बार वह अानंद भरी हंसी से भरा था


 चमगादड़ो, संविधान के वृक्ष पर उल्टा लटकना नहीं, उसके साथ सीधा खड़ा रहना सीखो ! ( 27.11.2019) 

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