Friday 27 September 2019

गांधी के साथ चलने के खतरे


   गांधी की बहार है ! जिधर देखिए उधर ही गांधी खड़े हैं. अखबार पटे हैं, हवाई अड्डों अौर रेलवे स्टेशनों अौर सरकारी अायोजनों में गांधी के चित्र व सुवाक्यों की झड़ी लगी हुई है. सरकारी विभागों को अादेश मिला है कि गांधी:150 का अायोजन होना ही चाहिए. एक बड़े निगम के बड़े अधिकारी ने परेशान हो कर पूछा - क्यों, क्या, कैसे करें हम यह अायोजन ? अौर फिर यह भी कि हमारे यहां कोई जानता भी नहीं है कि इस अादमी के बारे में जानने लायक बचा क्या है कि जो हम नहीं जानते हैं ? फिर अपने अाप से ही जरा धीमी अावाज में बोले- हम यह भी तो नहीं जानते हैं कि हम क्या नहीं जानते हैं ?  

मोहनदास करमचंद गांधी के साथ यह बड़ी दिक्कत है ! हम सब उसे इतना अधिक जानते हैं ( हर चौराहे पर रोज ही तो उससे मिलते हैं ! ) कि उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं. जानना चाहते भी नहीं हैं, क्योंकि हमने उन्हें इतिहास का विषय बना दिया है, वर्तमान से उनका कोई नाता बनाया ही नहीं. 

देखिए न, एक पूरी-की-पूरी सरकार हैरान-परेशान है कि उसने तो योजनापूर्वक उसके हाथ में झाड़ू पकड़ा कर, अपनी स्मार्ट सिटी की किसी सड़क किनारे उसे खड़ा कर दिया था कि बच्चू अब यहीं रहो अौर मक्खियां उड़ाते रहो ! उसकी ऐसी ड्यूटी लगाने से पहले सरकार ने उसका चश्मा भी उतार लिया था ताकि वह इधर-उधर, दूर तक न देख सके. यह अादमी वहां खड़ा भी हो गया. सबको शुरू में ऐसा ही लगता रहा है िक इस अादमी से अपना कहा कुछ भी करवाना या कहवाना एकदम अासान है. ब्रितानी साम्राज्यवाद भी कितने लंबे समय तक इसी मुगालते में रहा. लेकिन इतिहास गवाह है कि कोई कभी उससे ऐसा कुछ भी करवा या कहवा नहीं सका जिसे करना या कहना उसे नैतिक व न्यायप्रद नहीं लगा. अब देखिए न, उनकी काल्पनिक स्मार्ट सिटी के सड़क किनारे इसके खड़े रहने मात्र से इतनी धूल उड़ रही है कि सिटी की तो छोड़िए, पूरी-सारी सरकार का अपना चेहरा ही धूल-धूल हुअा जा रहा है. 

      ऐसी कोशिशें पहले भी हुईं हैं. एक वाइसरॉय साहबान ने ( अगर भूलता नहीं हूं तो लिनलिथगो ! ) ने भी कहा कि ये लोग नहीं समझते हैं कि अाप तो संत हैं, अापको राजनीतिक क्षुद्रताअों में ये लोग नाहक ही घसीटते हैं ! वे चाहते तो थे कि अौर कुछ नहीं तो ऐसे ही किसी बहाने यह अादमी हमारे रास्ते से दूर तो हटे ! लेकिन गांधी ने तपाक से कहा : मेरा महात्मापना अगर कुछ है तो अाप जिसे क्षुद्र राजनीति कह रहे हैं, उसकी क्षुद्रता को खत्म करने में ही है. मैं राजनीति का चेहरा बदलने में लगा हूं. 

  अाज भी ‘कई चतुर जानकार’ अापको मिल जाएंगे कि जो कुछ इस अंदाज में कि जैसे कोई रहस्य खोल रहे हों, कहेंगे अापसे कि अाप गलतफहमी में मत रहिएगा, गांधीजी बहुत चतुर, चालाक, घुरंधर राजनीतिज्ञ थे ! अाप देख ही रहे हैं िक उन्हें ‘चालाक बनिया’ कहने वाला अभी असत्य की सबसे बड़ी दूकान खोले बैठा है. ऐसे लोग पहचान ही नहीं पाते हैं कि एक सच्चा इंसान अपने जीवन के प्रत्येक पल में परिपूर्ण होता है अौर परिपूर्णता में जीता है - एक साथ कई-कई मोर्चों पर जीता हुअा, लड़ता हुआ, कुछ बनाता, कुछ मिटाता हुअा ! उसका लड़ना भी जीने का ही एक तरीका होता है.

  १९४२ के तूफानी दिन थे. सारा संसार दूसरे विश्वयुद्ध की अाग में जलने को बढ़ा जा रहा था अौर हमारी अाजादी के सारे नेता इस उलझन में पड़े थे कि फासिज्म के खिलाफ लड़ने की तैयारी में लगे इंग्लैंड समेत मित्र राष्ट्रों को इस वक्त किसी मुश्किल में डालना चाहिए या नहीं ?  उनका तर्क सीधा था : एक बार हिटलर का फासिज्म परास्त हो जाए तो फिर हम अपनी अाजादी की मांग अौर लड़ाई को अागे बढ़ाएंगे. गांधी इस तर्क का खोखलापन समझ रहे थे. बोले : अगर इंग्लैंड अौर मित्र राष्ट्र सच में फासिज्म के खिलाफ अौर लोकतंत्र के पक्ष में लड़ाई लड़ने उतरे हैं तो उन्हें अपनी ईमानदारी का परिचय देना होगा. उनकी कसौटी यह है कि वे भारत को उसकी अाजादी सौंप दें ! अाखिर गुलाम भारत यह फैसला कैसे कर सकता है कि उसे फासिज्म की लड़ाई में कब अौर कैसे उतरना है ? अाजाद भारत ही इस बात का फैसला करेगा कि यह लड़ाई यदि फासिज्म के खिलाफ है तो उसे इसमें क्या भूमिका अदा करनी है; अौर वह अाज से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका अदा भी कर सकता है. लेकिन उसकी अनिवार्य शर्त है कि उसे अाजाद किया जाए. कांग्रेस के दिग्गज अवाक रह गये ! वे गांधी का रास्ता पकड़ने को तैयार भी नहीं हो पा रहे थे अौर गांधी की बात का कोई जवाब भी नहीं था उनके पास.   

       अपनी बात कह कर गांधी रुके नहीं. उन्होंने कांग्रेस को समझा दिया : कांग्रेस साथ दे, न दे, वे ऐसी एक निर्णायक लड़ाई छेड़ने जा रहे हैं. यह ‘भारत छोड़ो’ अांदोलन की पूर्वपीठिका थी. किसी ने सावधान किया : अापके इस अाह्वान से देश में अाग लग जाएगी ! वे तक्षण बोले : अब तो इस अाग में उतर कर ही मुझे हिंद की अाजादी खोजनी होगी. मैं अब अौर इंतजार करने को तैयार नहीं हूं. 

       कांग्रेस ने गांधी को देखा, देश का मन देखा अौर उसकी समझ में अा गया कि यह अादमी इस दावानल में कूदेगा जरूर, अौर जैसा हमेशा होता अाया है वैसा ही फिर होगा कि यह अादमी जिधर जाएगा, देश भी उधर ही जाएगा; छूट जाएंगे हम ! कांग्रेस बार-बार गांधी को अस्वीकार करती थी, उनसे अलग व दूर जाने की कोशिश करती थी लेकिन जनता से पीछे छूट जाने का भय उसे बार-बार गांधी के पास अाने को मजबूर करता था. इसलिए 8 अगस्त 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में जब कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुअा तो मंच पर गांधी अकेले नहीं, पूरी कांग्रेस के साथ बैठे थे; अौर कांग्रेस के उन्हीं दिग्गज नेताअों ने गांधी के भारत छोड़ो अांदोलन के प्रस्ताव के समर्थन में बड़े-बड़े व्याख्यान दिए. अौर अगली सुबह, जब सूरज भी उगने की कसमसाहट में था, गांधी उन्हें ले कर गये कहां ? सभी-के-सभी जेलों में बंद कर दिए गये - अाजादी के अांदोलन की सबसे लंबी जेल !.   

   गांधी की इस हैसियत व पकड़ की काट निकालने के लिए साम्राज्य ने जिन्ना साहब को खड़ा किया था. अब पाकिस्तान की उनकी बात हवा में फैलती जा रही थी. गांधी हवा का रुख पहचान रहे थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने गांधी को रणनीति समझाई : हम जिन्ना साहब की पाकिस्तान की मांग का अभी समर्थन करें ताकि अाजादी की इस अाखिरी लड़ाई में सबकी ताकत लगे, कोई फूट न पड़े. एक बार यह लड़ाई पूरी जीत लें हम फिर देखेंगे कि जिन्ना साहब से कैसे निबटना है. ऐसी रणनीति गांधी की कैसे पचती ! उन्होंने ‘भारत छोड़ो’ का अपना प्रस्ताव पेश करते हुए, उसी मंच से कहा : मैं जिसे गलत मानता हूं उसका समर्थन करूं ताकि अागे का रास्ता साफ हो सके, ऐसी लड़ाई मेरी नहीं है. पाकिस्तान एक गलत बात होगी, सो मैं जिन्ना साहब को साथ लेने के लिए उनके पाकिस्तान का समर्थन कैसे करूं !
  
 गांधी ने एक नहीं, कई मुसीबतें हमारे सर मढ़ दीं. उनके बिना हम मजे से जी रहे थे. कितने मजे से अंग्रेज बने रह कर, उनकी सोहबत का सारा अानंद लेते हुए हम उनसे सालाना जंग कर लेते थे ! इस अादमी ने अा कर मुसीबत पैदा कर दी. इसने बताया कि जिससे लड़ रहे हो, जिससे असहमत हो तुम उसके जैसे बन अौर रह कैसे सकते हो ? इसने ही यह कीड़ा हमारे मन में डाल दिया कि जैसे अाजादी का कोई विकल्प नहीं है वैसे ही लड़ाई का भी कोई विकल्प नहीं है. अौर लड़ाई में कायरता, क्रूरता या चालाकी नहीं, वीरता व सत्य की धीरता काम देगी. जरा सोचिए तो कि किसने अौर कब कहा था कि दुश्मन से लड़ने में भी कायरता, क्रूरता, चालाकी, हिंसा, झूठ की जगह नहीं है ? ये सारी बलाएं गांधी ही हमें सौंप गये हैं.    
  दुनिया में कहीं गांधी नहीं हुए लेकिन अाजादी तो सबको मिली. लेकिन फर्क यह हुअा कि दूसरों की अाजादी अाजादी ही रह गई, हमारी अाजादी नई संभावना बन गई. हालांकि हमें अाधी-अधूरी अाजादी मिली अौर वह भी बहुत रक्त-रंजित मिली लेकिन उसकी संभावनाअों की चर्चा आज भी दुनिया भर में चलती है. दुनिया अाज भी उस लड़ाई की संभावना को समझने में लगी है जिसमें लड़ते तो पूरी ताकत से हैं लेकिन इस बद्धता के साथ कि सामने वाले वाले की जान नहीं लेनी है. यह लड़ाई का अलग ही रूप है जो संसार को गांधी से मिला. गांधी ने पहली बार हमें सिखाया कि बहादुरी जान लेने में नहीं, देने में है. अाप जीते किस तरह हैं यही नहीं, आप मरते किस तरह हैं, यह भी अापकी आजादी का दिल अौर दिमाग बनाता है. इसलिए गांधी के लिए साध्य-साधन विवेक आदर्श का नहीं, व्यवहारिकता का सवाल बन जाता है. तुम गलत या अशुद्ध रास्ते चल कर अपने साध्य तक पहुंचोगे, तो वह रास्ता ही तुम्हारे साध्य का स्वरूप बदल देगा, यह कहने का साहस अौर उस पर टिके रहने का आत्मविश्वास गांधी से मिला है संसार को. 

         उसने कहा कि अहिंसा अगर रणनीति है तो धेले भर भी इसकी कीमत नहीं है; अौर इससे भी सच्ची बात यह कि यदि यह रणनीति है तो हमारे-आपके काम की नहीं है, क्योंकि रणनीति तो रणक्षेत्र में उतरा सैनिक या सेनापति, दुश्मन की क्षमताअों अौर अपनी सीमाअों को देख-समझ कर बनाता है. इसलिए कभी, किसी काल में, किसी के काम आई अहिंसा की रणनीति आज हमारे काम आएगी, यह कैसे संभव है ? अहिंसा जब मूल्य बन कर हमारे पास आती है तब वह हममें ही एक बुनियादी परिवर्तन कर देती है. कल तक जो लड़ाई हथियारों से हो रही थी वह अहिंसक लड़ाई बनी कि वे सारे वाह्य हथियार गिर जाते हैं अौर अाप खुद हथियार बन जाते हैं. हिंसा अपने हाथ में संहार या प्रहार का कोई-न-कोई साधन ले कर ही शुरू होती है अौर परमाणु बम तक पहुंचती है; अहिंसा अपने हाथ में कुछ भी नहीं लेने से शुरू होती है अौर अंतत: इंसान को ही हथियार बना लेती है. तब तुम्हारा चलना, बोलना, कहना यानी कि तुम्हारा होना ही वह कसौटी बन जाता है जहां से अहिंसा जन्म भी लेती है अौर परवान भी चढ़ती है. 

बैरिस्टर मोहन दास से महात्मा गांधी तक के सफर में हम जो देख नहीं पाते हैं वह है गांधी की खुद से हुई भयंकर लड़ाई ! संसार में शायद ही कहीं किसी इंसान ने खुद से ऐसा युद्ध लड़ा होगा - बुद्ध भी ऐसे ही युद्ध में लगे इंसान हैं लेकिन गांधी से उनकी लड़ाई कुछ अासान बन जाती है क्योंकि उन्होंने लड़ाई का मैदान बदल लिया, जीवन के नहीं, वे वैराग्य के साधक बन गये. गांधी इसी सांसारिक मैदान में खड़े रहते हैं अौर हमारी आंखों के सामने अपनी साधना का सारा युद्ध लड़ते हैं. वे कुछ सिद्धि पा कर हमारे बीच नहीं आते हैं कि मुझे उपलब्ध हुआ ज्ञान आपको देता हूं. वे लोक-अखाड़े में ही अपना ज्ञान खोजते हैं, पाते हैं अौर लोक को उसमें दीक्षित करते हैं. अगर मैं कहूं कि लोक का दीक्षित होना ही उस ज्ञान की असली कसौटी है, तो भी गलत नहीं होगा. जिसे लोक अपना न सके, बरत न सके अौर रोज-रोज के जीवन में जिसका इस्तेमाल न कर सके, गांधी के लिए वैसा ज्ञान काम का नहीं है. मूल्य का स्वभाव ही है कि वह मूल को छूता है, रणनीति हमेशा चमड़ी तक पहुंच कर दम तोड़ देती है.

        जीने के लिए सांस की शर्त है. अॉक्सीजन का सिलिंडर ले कर घूमना उसका विकल्प है ही नहीं. हिंसा-अहिंसा के साथ भी कुछ ऐसा ही है. हिंसा या क्रोध या घृणा की लाचारी यह है कि उसकी उम्र बहुत कम होती है. अाप कितने वक्त तक नाराज या किसी के प्रति घृणा पाले रख सकते हैं ? अाप पूरा जोर लगा लें तो भी यह भाव दम तोड़ने लगता है, इसकी व्यर्थता महसूस होने लगती है. अापमें इतना मानसिक/ नैतिक बल न हो कि अाप इसे स्वीकार कर लें अौर पीछे हट जाएं, यह बात दीगर है. दक्षिण अफ्रीका के जनरल स्मट्स ने यही तो लिखा था बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को कि तुमसे मेरी लड़ाई है लेकिन मैं लड़ूं कैसे तुमसे कि तुम ही हो कि जो मेरे हर संकट में मेरी ढाल बन जाते हो !  हिंसा बदला लेने का सुख देती है, वक्ती जीत का अहसास भी कराती है लेकिन टिकती नहीं है. अहिंसा मूल्य बनती है तभी साकार होती है अौर यह एक साथ ही, या साथ-साथ ही, दोनों को विजय तक ले जाती है. अहिंसा सामने वाले को, प्रतिपक्षी को भी अपने दायरे में ले कर चलती है, इसलिए ज्यादा प्रभावी होती है. 

                अाधुनिक अर्थशास्त्र अौर अर्थशास्त्री परेशान हैं कि विकास के लिए पूंजी निहायत जरूरी है लेकिन उसी पूंजी का जैसे ही संचय होता है, वह व्यवस्था को दीमक की तरह चाटने लगती है. तो पूंजी तो चाहिए लेकिन उसका केंद्रीकरण न हो, यह कैसे साधा जा सकता है, यह यक्ष प्रश्न तब भी था, अाज भी है. मार्क्स ने इसका गहन अध्ययन किया अौर फिर यह निदान सामने रखा कि पूंजी को व्यक्ति के नहीं, राज्य के हाथ में रहना चाहिए.   साम्यवाद इसी दर्शन की पैदावार है. व्यक्ति के हाथ से निकल कर पूंजी राज्य के हाथ में तो पहुंची लेकिन दुनिया ने देखा कि उससे एक नये किस्म का पूंजीवाद पैदा हुअा जिसे स्टेट  कैपटलिज्म कहते हैं. यूगोस्लाविया की साम्यवादी क्रांति के जनकों में एक मिलोवान जिलास को, क्रांति की सफलता के बाद, अपने ही कॉमरेड मार्शल टीटो की जेल में जगह मिली. वहां बैठ कर जिलास ने एक किताब लिखी : ए न्यू क्लास; अौर बताया कि राज्य के हाथ में पूंजी देने का हमारा जो साम्यवादी प्रयोग हुअा, उसने समाज में एक नया ही वर्ग खड़ा कर दिया है जिसके हाथ में पूंजी अौर सत्ता का ऐसा केंद्रीकरण हुअा है कि जैसा इतिहास में पहले कभी हुअा नहीं था. इसने समाज को एक नई गुलामी में डाल दिया है. यहां गांधी अाते हैं अौर कहते हैं कि उत्पादन को हम जितना विकेंद्रित करेंगे, पूंजी भी उतनी ही बंटती जाएगी अौर समाज उन छोटी-छोटी पूंजियों को नियंत्रित कर, अपनी स्वतंत्रता, समता अौर अावश्यकता को संभाल सकेगा. वे बताते हैं कि उत्पादक अौर उपभोक्ता के बीच की दूरी को पाटे बिना एकत्रित पूंजी के दुष्परिणाम से बचना संभव ही नहीं है. गांधी का खादी-ग्रामोद्योग कपड़ा बनाने अौर पापड़ बेलने के लिए नहीं था, वह पूंजी अौर सत्ता की दुरभिसंधि को काटने की युक्ति थी. अाज जब दुनिया भर में मंदी छाई है अौर इतनी लंबी चलती जा रही है कि सारी दुनिया के सारे अर्थशात्री मिल कर भी कोई रास्ता तलाश नहीं पा रहे हैं, गांधी का यह अर्थशास्त्र प्रयोग के लिए सबको ललकार रहा है.

          गांधी के चिंतन में गांव तो था लेकिन उनका गांव वह नहीं था जो हमें शहरों के उच्छिष्ट के रूप में आज हर जगह दीखता है. आज के नगर-महानगर हमारी मानसिक, शारीरिक, आत्मिक विकृति के नमूने हैं जिनके लिए गांधी ने ' हिंद-स्वराज्य' में लिखा है कि इन महानगरों में गुंडों की फौज होगी अौर वेश्याअों की गलियां होंगी ! जवाहरलाल को लिखे अपने प्राय: आखिरी खत में, जिसमें वे उन्हें अपने साथ वैचारिक बहस के लिए ललकारते हैं ताकि भावी के लिए यह दर्ज हो जाए कि उनमें अौर उनके घोषित उत्तराधिकारी के बीच कैसी अौर कितनी गहरी खाई है, वे यह साफ करते हैं कि उनकी कल्पना के गांव वे नहीं हैं कि जो आज दिखाई देते हैं. वे गांव की सबसे बड़ी ताकत उसका अामने-सामने का, खुली किताब जैसा जीवन मानते हैं. 'फेस-टू-फेस' समाज बना रहे अौर उसके भीतर की जीवन-शैली बदले, इसकी कोशिश वे करते हैं. अाप खुद ही देखिए न कि महानगरों अौर शहरों का जीवन को हम अाज जहां पहुंचा पाए हैं क्या उसमें कुछ भी ऐसा है कि जो हम संभाल व संवार पा रहे हैं ? मुंबई जैसे एक महानगर को बस चलाए भर रखने में हमारा दम फूल रहा है ! अाज का ताजा पागलपन है कि हम हर बड़े नगर-महानगर में मैट्रो का जंगल पैदा कर रहे हैं. जहां सारा पर्यावरण दम तोड़ रहा है वहां यह मशीनी घोड़ा अॉक्सीजन पैदा करेगा कि कार्बन का दमघोंटू संकट अौर गहरा करेगा ? यह रास्ता अवैज्ञानिक है, अशक्य है अौर अमानवीय है. इसलिए हम लौटें या न लौटें प्रकृति तो लौटने की तरफ मुड़ चुकी है. वह हर तरह से अपना असहकार प्रकट कर रही है. वह बेहद गर्म हो रही है, उबल रही है, उफन रही है, वह कम-से-कम पैदा कर रही है अौर अधिक-से-अधिक लागत मांग रही है. पहले उसने कई संकेत दिए कि हम जिस राह पर गये हैं उसके साथ वह कदमताल नहीं कर सकेगी. अब वह संकेत नहीं दे रही है, जहां, जब उसे मौका मिल रहा है, वह हमला कर रही है. वह कह रही है कि अापको उस विकास की तरफ जाना ही होगा जिसमें मनुष्य अौर पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक व पालक होंगे. अाप उसे गांव कहें कि शहर कि महानगर कि स्मार्ट सिटी, गांधी को फर्क नहीं पड़ेगा.   

         गांधी का 'राष्ट्रवाद' व्यक्ति की निजी गरिमा व स्वाभिमान से जुड़ता है, उसे भीड़ के साथ नहीं जोड़ता है. गांधी सुराज नहीं, 'स्वराज्य' की बात करते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि 'स्वराज्य' ही 'सुराज' है. अाज बड़े शोर-शराबे के साथ जिसे 'राष्ट्रवाद' कह कर हमें पिलाया जा रहा है दरअसल वह राष्ट्र को खंड-खंड अपनी मुट्ठी में करने की कुटिल चाल भर है; अपनी सांप्रदायिकता को छिपाने का फूहड़ उपक्रम भर है. अाधुनिक इतिहास में खोजें तो जातीय श्रेष्ठता के सिद्धांत में जड़ विश्वास करने वाली एक धारा मिलती है जो हिटलर, सावरकर से चलती हुई संघ परिवार तक पहुंचती है जिसमें यहां-वहां कई-कई गुरुजी वगैरह शामिल हो जाते हैं. इस 'राष्ट्रवाद' में मंत्र कहीं से आता है अौर तंत्र में अापको ईंधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है. इस 'राष्ट्रवाद' का दूसरा नाम ही ‘मॉब लिंचिंग’ है. अब सवाल है तो यह कि क्या कोई राष्ट्र भीड़ के हवाले किया जा सकता है ?

'स्वराज्य' में चयन की स्वतंत्रता होती है, ‘राष्ट्रवाद’ में अापका चयन होता है. ‘राष्ट्रवाद’ के लिए धर्म एक हथियार है कि जिसके बल पर अपने से अलग, अपने से असहमत अौर अपने विरोधी की गर्दन काटी जा सकती है. अगर धर्म इस काम नहीं आता हो या नहीं अा सकता हो तो इन सारे धर्मावलंबियों को धर्म छोड़ने या बदलने में क्षण न लगे ! गांधी का धर्म उन्हें सिखाता है कि आदमी के भीतर, हर आदमी के भीतर छिपी संभावनाअों को उजागर करना ही सबसे बड़ा धर्म है. 

      किसी ने पूछा : हमारे लिए, दुनिया के लिए अापका कोई संदेश हमें मिले ! गांधी ने बस एक छोटा-सा वाक्य कह दिया :  मेरा जीवन ही मेरा संदेश है ! बस यही आखिरी संदेश है - मैं जिस तरह जिआ हूं उसे देखो अौर उससे तुम्हारे जीने में मदद मिलती हो तो बस है. अब मैंने उसमें यह भी जोड़ दिया है कि मेरा जीवन ही नहीं, मेरा मरना भी मेरा संदेश है. कैसे जिएं अौर किन बातों के लिए मरें, यह समझना हो अौर अपने लिए कुछ पाना हो तो गांधी का जीना अौर मरना अापके लिए भी उनका आखिरी संदेश बन जाएगा. गांधी के साथ हमारी मुश्किल यूं अाती है कि वह हमारे  पढ़ने से, साधना से, कर्मकांड से, प्रतीकों से चिपकने से हाथ अाता ही नहीं है. उसे समझना हो कि उसके पास पहुंचना हो तो वह उसके साथ चले बिना संभव नहीं है. गांधी की पूजा नहीं, गांधी की दिशा में छोटा-बड़ा सफर ही उन्हें ही नहीं, हमें भी जिंदा रख सकेगा. ( 23.09.2019)  

No comments:

Post a Comment