Friday 27 September 2019

गांधी की दिल्ली

                दिल्ली भी अजीब है ! यह देश की राजधानी है लेकिन देश यहां कहीं नजर नहीं अाता है. यह रोज-रोज देश से बेगाना होता जा रहा शहर है. हर महानगर का कुछ ऐसा ही हाल है लेकिन दिल्ली तो कोई वैसा ही महानगर नहीं है. देश की राजधानी है मतलब एक ऐसा अाईना होना चाहिए इसे जिसमें देश खुद को देख सके. लेकिन दिल्ली के हुक्मरान रात-दिन इसी जुगत में लगे रहते हैं कि दिल्ली का चेहरा देश से कितना अलग बना दिया जाए ! हवा में चर्चा , अौर चर्चा तेज है कि हमारी संसद छोटी पड़ती जा रही है अौर हमें दिल्ली की शान के अनुकूल एक नई व अाधुनिक संसद चािहए ! हम भी पता नहीं कब से कहते रहे हैं कि हमारी संसद छोटी पड़ती जा रही है लेकिन संसद के छोटे होने से हमारा मतलब इसके बौनेपन से हुअा करता था, इसके रूप-स्वरूप से नहीं ! अब तो फिक्र संसद के बौनेपन की है ही नहीं, सारी फिक्र उसकी बाहरी अाभा को चमकाने की है. हवा में यह भी चर्चा है कि नॉर्थ अौर साउथ ब्लौक की अद्भुत स्थापत्य वाली इमारतें, वहां का वह ऐतिहासिक लैंडस्केप सब बदला जाएगा, क्योंकि यह सारा कुछ भूकंप के खतरों को ध्यान में रख कर नहीं बनाया गया है. यह भूकंप अाए इससे पहले हम याद कर लें कि कितने साल पहले लुटियन की यह दिल्ली बनी थी ? उतने सालों में कितने ही भूकंप इन इमारतों ने पार कर लिए. ये इमारतें हमारे राजनीतिक-सामाजिक जीवन में अाए भूकंपों का तो प्रतीक हैं. 

मुझे तो बहुत भद्दा लगता है कि इंडिया गेट के पास की सारी खुली जगहें बंद होती जा रही हैं; हरियाली खत्म हो रही है; वहां के विस्तार का, खुलेपन का, हरियाली का दम घोंट कर कोई युद्ध-स्मारक या वार मेमोरियल बनाया गया है. क्या पूरा इंडिया गेट अौर वहां का सारा विस्तार युद्ध-शहीदों की स्मृति में ही खड़ा हुअा नहीं है ? अमर जवान ज्योति अौर पत्थरों पर दर्ज शहीदों के नाम, उल्टी राइफल पर टिकी शहीद की फौजी टोप- सब हमें बांधते भी हैं, गहरे कहीं छूते भी हैं. फिर यह अलग से वार मेमोरियल क्या हुअा ? क्यों हुअा ? आपने कभी सोचा है कि देश की राजधानी दिल्ली में कहीं एक जगह भी ऐसी है नहीं  कि जहां पीस मेमोरियल हो. गांधी की शांति-अहिंसा-सिविलनाफरमानी की उस जंग में अनजान जगहों पर, अनजान अौर अनाम लोगों ने ऐसे-ऐसे करतब किए हैं साहस के, विवेक के, संगठन के अौर अहिंसक प्रतिबद्धता के कि सहसा विश्वास न हो. मैं महात्मा गांधी की बात नहीं कर रहा हूं, उन्हें महात्मा मान कर चलने वाले करोड़ों अनाम-अनजान लोगों की बात कर रहा हूं. इनका इतिहास कहीं दर्ज हो, स्कूल-कॉलेज के युवा, देश भर से दिल्ली घूमने अाए लोग उसे देखें-समझें तो देश का भविष्य एक नई दिशा ले सकता है. लेकिन शासन का मन  अौर उसका ध्यान तो कहीं अौर ही है.

   कभी गहरी पीड़ा अौर तीखे मन से जयप्रकाश नारायण ने कहा था : ‘दिल्ली एक नहीं कई अर्थों में बापू की समाधि-स्थली है !’ अाइए, हम देखें कि यह समाधि कहां है अौर कैसे बनी है… एक तो यही कि गांधी की हत्या इसी दिल्ली में हुई थी. लेकिन कहानी 30 जनवरी 1948 के पहले से शुरू होती है. 

यही दिल्ली थी कि जहां प्रार्थना करते गांधी पर, 20 जनवरी 1948 को बम फेंका गया था लेकिन वह बम उनका काम तमाम नहीं कर सका. हत्या-गैंग के मदनलाल पहवा का निशाना चूक गया. उसका फेंका बम गांधीजी तक पहुंच नहीं पाया. गांधी की हत्या की यह पांचवीं कोशिश थी. गांधी इन सबसे अनजान नहीं थे. उन्हें पता था कि उनकी हत्या की कोशिशें चल रही हैं, कि उनके प्रति कई स्तरों पर गुस्सा-क्षोभ-शिकायत का भाव घनीभूत होता जा रहा है. लेकिन वह दौर था कि जब इतिहास की अांधी इतनी तेज चल रही थी कि हमारी नवजात अाजादी उसमें सूखे पत्तों-सी उड़ जाएगी, ऐसा खतरा सामने था. इसकी फिक्र में जवाहरलाल, सरदार अौर पूरी सरकार ही रतजगा कर रही थी. गांधी भी अपना सारा बल लगा कर इतिहास की दिशा मोड़ने में लगे थे अौर यहां भी वे सेनापति की अपनी चिर-परिचित भूमिका में थे.     

  ऐसे में ही अाई थी 29 जनवरी 1948 ! नई दिल्ली का बिरला भवन ! … सब तरफ लोग-ही-लोग थे … थके-पिटे-लुटे अौर निराश्रित !! दिल्ली तब संसार की सबसे बड़ी शरणार्थी नगरी बन गई थी. बापू जब दिल्ली अाए तो सरदार ने बताया उन्हें कि वे जिस भंगी कॉलोनी में रहते रहे हैं, वह शरणार्थियों से भरी पड़ी है. वे वहीं रहने का अाग्रह करेंगे तो शरणार्थियों को हटाना पड़ेगा, सुरक्षा का संकट भी खड़ा होगा… भंगी कॉलोनी से निराश्रितों फिर निराश्रित करने की कल्पना से ही बापू परेशान हो गये. इसलिए उन्हें बिड़लाजी के इस शानदार भवन में लाया गया. बापू ने उसके एक कोने में अपना निवास बनाया… लेकिन लोगों ने भी वहीं अपना अाश्रय खोज लिया… इतने लोग यहां क्यों हैं ? क्या पाने अाए हैं ? क्या मिल रहा है यहां ?… ऐसे सारे ही सवाल यहां बेमानी हैं… कोई किसी से ऐसा कोई सवाल पूछ नहीं रहा है ! बस, सभी इतना जानते हैं कि यहां कोई है कि जो खुद से ज्यादा उनकी फिक्र करता है ! … अाजाद भारत की पहली सरकार के सारे सरदार भी यहां, इन्हीं साधारण लोगों के बीच बैठे-भटकते-बातें करते मिल जाते हैं. वे यहां क्यों हैं ? उन्हें यहां से क्या मिलता है ? उनमें से कोई भी ऐसे सवाल नहीं करता है. वे भी यहां इसी भाव से अाते हैं अौर खुद में खोये, खुद को खोजते रहते हैं कि यहां कोई है जिसे उनसे ज्यादा उनकी फिक्र है. ईमान की शांति अौर परस्पर भरोसे से पूरा परिसर भरा है… 

अौर जो यहां है वह ? …  80 साल का बूढ़ा … जिसका क्लांत शरीर अभी उपवास के उस धक्के से संभला भी नहीं है जो लगातार 6 दिनों तक चल कर, अभी-अभी 18 जनवरी को समाप्त हुअा है… 20 जनवरी को उस पर बम फेंका जा चुका है… तन की फिक्र फिर भी हो रही है लेकिन ज्यादा गहरा घाव तो मन पर लगा है. वह तार-तार हो चुका है…29 जनवरी 1948… अपना तार-तार मन लिए वह अपने राम की प्रार्थना-सभा में बैठा, वह सब कुछ जोड़ना-बुनना-सीना चाहता है जो टूट गया है, उधड़ गया है, फट गया है. यह प्रार्थना-सभा उसके जीवन की अंतिम प्रार्थना अौर अंतिम सभा बनने जा रही है, यह कौन जानता था ? 

अौर फिर उसकी वही थकी लेकिन मजबूत; क्षीण लेकिन स्थिर अावाज उभरी :  कहने के लिए चीजें तो काफी पड़ी हैं, मगर अाज के लिए 6 चुनी हैं. 15 मिनट में जितना कह सकूंगा, कहूंगा. देखता हूं, मुझे अाने में थोड़ी देर हो गई है, वह नहीं होनी चाहिए थी… एक अादमी थे. मैं नहीं जानता कि वे शरणार्थी थे या अन्य कोई, अौर न मैंने उनसे पूछा ही. उन्होंने कहा : ‘ तुमने बहुत खराबी कर दी है. क्या अौर करते ही जाअोगे? इससे बेहतर है कि जाअो. बड़े महात्मा हो तो क्या हुअा ! हमारा काम तो बिगड़ता ही है. तुम हमें छोड़ दो, हमें भूल जाअो, भागो !’ मैंने पूछा : ‘ कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा;’ हिमालय जाअो !’ … मैंने हंसते हुए कहा:’ क्या मैं अापके कहने से चला जाऊं ? किसकी बात सुनूं ? कोई कहता है, यहीं रहो, तो कोई कहता है, जाअो ! कोई डांटता है, गाली देता है, तो कोई तारीफ करता है. तब मैं क्या करूं ? इसलिए ईश्वर जो हुक्म करता है, वही मैं करता हूं. अाप कह सकते हैं कि हम ईश्वर को नहीं मानते, तो कम-से-कम इतना तो करें कि मुझे अपने दिल के अनुसार करने दें… दुखियों का वली परमेश्वर है लेकिन दुखी खुद परमात्मा तो नहीं है… किसी के कहने से मैं खिदमतगार नहीं बना हूं. ईश्वर की इच्छा से मैं जो बना हूं, बना हूं. उसे जो करना है, करेगा… मैं समझता हूं कि मैं ईश्वर की बात मानता हूं. मैं हिमालय क्यों नहीं जाता ? वहां रहना तो मुझे पसंद पड़ेगा. ऐसी बात नहीं कि वहां मुझे खाना-पीना, अोढ़ना नहीं मिलेगा. वहां जा कर शांति मिलेगी. लेकिन मैं अशांति में से शांति चाहता हूं. नहीं तो उसी अशांति में मर जाना चाहता हूं. मेरा हिमालय यहीं है. 

अगले दिन हमने उनकी हत्या कर दी ! हमने अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. उसके बाद शुरू हुई अाजाद भारत की एक ऐसी यात्रा जिसमें कदम-कदम पर उनकी हत्या की जाती रही. यह उन लोगों ने किया जो गांधी के दाएं-बाएं हुअा करते थे. कम नहीं था उनका मान-स्नेह गांधी के प्रति अौर न कम था उनका राष्ट्र-प्रेम ! लेकिन गांधी का रास्ता इतना नया था, अौर शायद इतना जोखिम भरा था कि उसे समझने अौर उस पर चलने का साहस अौर समझ कम पड़ती गई, लगातार छीजती गई अौर फिर एकदम से चूक ही गई! इसलिए विकेंद्रीकरण के धागे कातते गांधी के देश में केंद्रित पंचवर्षीय योजनाअों का सिलसिला शुरू हुअा. गांधी ग्रामाधारित विकेंद्रित योजना, स्थानीय साधन व देशी मेधा की शक्ति एकत्रित करने की वकालत करते हुए सिधारे थे. सरकार ने उसकी तरफ पीठ कर दी. गांधी ने कहा था कि सरकार क्या करती है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह कैसे रहती है अौर किसका काम करती है. इसलिए गांधी ने सलाह दी कि वाइसरॉय भवन को सार्वजनिक अस्पताल में बदल देना चाहिए अौर देश के राष्ट्रपति को मय उनकी सरकार के छोटे घरों में रहने चले जाना चाहिए. सारा मंत्रिमंडल एक साथ होस्टलनुमा व्यवस्था में रहे ताकि सरकारी खर्च कम हो अौर मंत्रियों की अापसी मुलाकात रोज-रोज होती रहे, वे अापस में सलाह-मश्विरा करते रह सकें. लेकिन हमने किया तो इतना ही किया कि नामों की तख्ती बदल दी : वाइसरॉय भवन का नाम बदल कर राष्ट्रपति भवन कर दिया, प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री सेवक कहलाने लगे अौर सभी सार्वजनिक सुविधा का ख्याल कर, बड़े-बड़े बंगलों में रहने चले गये. सरकार ने कहा : देश की छवि का सवाल है ! उस दिन से सरकारी खर्च जो बेलगाम हुअा सो अाज तक बेलगाम दौड़ा ही जा रहा है. 

विनोबा ने गांधी की याद दिलाई कि उद्धार में उधार रखने की बात न करे सरकार, लेकिन सरकार ने ‘चाहिएवाद’ का रास्ता पकड़ा. जिसे करना था अौर कर के दिखाना था, वह चाहने लगा; जिसे चाहना था वह गूंगा हो गया. अौर फिर एक-दूसरे पर जवाबदेही फेंकने का ऐसा फुटबॉल शुरू हुअा कि असली खेल धरा ही रह गया. सामाजिक समता अौर अार्थिक समानता की गांधी की कसौटी थी- समाज का अंतिम अादमी ! उन्होंने सिखाया था : जो अंतिम है वही हमारी प्राथमिकताअों में प्रथम होगा. हमने रास्ता उल्टा पकड़ा : संपन्नता ऊपर बढ़ेगी तो नीचे तक रिसती-रिसती पहुंचेगी ही - थ्योरी अॉफ परकोलेशन ! बस, ऊपर संपन्नता का अथाह सागर लहराने लगा अौर व्यवस्था ने उसके नीचे रिसने के सारे रास्ते बंद कर दिए. गांधी का अंतिम अादमी न तो योजना के केंद्र में रहा अौर न योजना की कसौटी बन सका. गरीबी की रेखाएं भी अमीर लोग ही तै करने लगे. गांधी ने कहा कि शिक्षा सबके लिए हो, समान हो अौर उत्पादक हो. हमने किया यह कि सभी को अपनी अार्थिक हैसियत के मुताबिक शिक्षा खरीदने के लिए अाजाद कर दिया अौर सबसे अच्छी शिक्षा उसे माना जो सामाजिक जरूरतों से सबसे अधिक कटी हुई थी. भारतीय समाज का सबसे बड़ा अौर सबसे समर्थ वर्ग उसी दिन से दूसरों के कंधों पर बैठ कर, पूर्ण गैर-जिम्मेवारी से जीने का अादी बन गया. अाज हाल यह है कि हमारी शिक्षा करोड़ों-करोड़ युवाअों को न वैभव दे पा रही है, न भैरव ! दुनिया का सबसे युवा देश ही दुनिया का सबसे बूढ़ा देश भी बन गया है. 

गांधी के विद्रूप का यह सिलसिला अंतहीन चला. वह सब कुछ अाधुनिक अौर वैज्ञानिक हो गया जो गांधी से दूर व गांधी के विरुद्ध जाता था. 2 अक्तूबर अौर 30 जनवरी से अागे या अधिक का गांधी किसी को नहीं चाहिए था. यह मोहावस्था जब तक टूटी, बहुत पानी बह चुका था. 

अौर अाज ? अाज तो हमने गांधी की अांखें भी छोड़ दी हैं. रह गया है उनका चश्मा भर कागज पर धरा हुअा. गंदे मन से लगाया स्वच्छता का नारा सफाई नहीं, सामाजिक गंदगी फैला रहा है. अब नारा ‘मेड इन इंडिया’ का नहीं, ‘मेक इन इंडिया’ का है; अब बात ‘स्टैंडअप इंडिया’ की नहीं, ‘स्टार्टअप इंडिया’ की होती है. अब अादमी को नहीं, ‘एप’ को तैयार करने में सारी प्रतिभा लगी है. ‘नया गांव’ बनाने की बात अब कोई नहीं करता, सारी ताकतें मिल कर गांवों को खोखला बनाने में लगी हैं, क्योंकि बनाना तो ‘स्मार्ट सिटी’ है. देशी व छोटी पूंजी अब पिछड़ी बात बन गई है, विदेशी व बड़ी पूंजी की खोज में देश भटक रहा है. खेती की कमर टूटी जा रही है, उद्योगों का उत्पादन गिर रहा है, छोटे अौर मझोले कारोबारी मैदान से निकाले जा रहे हैं अौर तमाम अार्थिक अवसर, संसाधन मुट्ठी भर लोगों तक पहुंचाए जा रहे हैं.  देश की 73% पूंजी मात्र 1% लोगों के हाथों में सिमट अाई है. सामाजिक समरसता नहीं, सामाजिक वर्चस्व अाज की भाषा है. अब चौक-चौराहों पर कम, राजनीतिक हलकों में ज्यादा असभ्यता-अश्वलीलता-अशालीनता दिखाई देती है. लोकतंत्र के चारो खंभों का हाल यह है कि वे एक-दूसरे को संभालने की जगह, एक-दूसरे से गिर रहे हैं; टकराते-टूटते नजर अा रहे हैं. सारा देश जैसे सन्निपात में पड़ा है. 

ऐसे में गांधी को कहां खोजें अौर क्यों खोजें ? 

खोजें इसलिए कि इस महान देश को अपनी किस्मत भी बनानी है अौर अपना वर्तमान भी संवारना है. अाज गांधी भूत-भविष्य अौर वर्तमान के मिलन की मंगल-रेखा का नाम है. अौर गांधी को हम सब खोजें अपने भीतर ! जो भीतर से अाएगा वही गांधी सच्चा भी होगा अौर काम का भी होगा. दिल्ली ने गांधी का बलिदान देखा है, हम निश्चय करेंगे तो यही दिल्ली उनका निर्माण भी देखेगी. ( 17.09.2019)

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