Saturday 25 February 2017

कैदी नंबर ३२९५ के सवाल

यह उनके लिए भी अासान तो नहीं रहा होगा - पोश गार्डेन से निकल कर सीधे जेल जाना ! हमारे लिए भी कहां अासान है यह समझ पाना कि तमिलनाड की राजनीति चलती है तो ऐसे क्यों चलती है कि चलती लगी ही नहीं है, घिसटती ज्यादा लगती है; याकि यह समझ पाना भी कहां अासान है कि जयललिता ने अपनी राजनीति को अपने अलावा कोई दूसरा अाधार भी देने की कोशिश क्यों नहीं की ? जिन नेताअों के पास अपनी पत्नियां या बेटे या बेटियां हैं उनमें से कोई भी नहीं है कि जिसने अपनी राजनीति को पारिवारिक अाधार देने की कोशिश नहीं की है. अब तो यह हक के रूप में मान्य भी किया जा चुका है. यह समझना भी मुझे मुश्किल लग रहा है कि जब राज्यों में कहीं भी ऐसी राजनीतिक स्थिति बनती है तब केंद्र सरकार अौर उसका राज्यपाल न्याय व संविधान की प्रतिबद्धता छोड़ , इतनी अासानी से दूसरी प्रतिबद्धताअों  से कैसे बंध जाता है ? राज्यपाल केंद्रीय सत्ता का प्रतिनिधि तो होता है लेकिन क्या वह उस संविधान से बंधा नहीं होता है कि जिसके संरक्षण की अाखिरी जिम्मेवारी राष्ट्रपति व न्यायपालिका की होती है? यह समझना कितना मुश्किल है कि राज्यपाल विद्यासागर राव अपना राज्य छोड़ कर गायब ही हो गए अौर उस राजनीतिक पतन को अबाध चलने दिया जिसे रोकने के लिए ही इस संवैधानिक पद की कल्पना की गई है. ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां कभी-कभी ही बनती हैं जब राष्ट्रपति या राज्यपाल के होने की सार्थकता बनती है. वैसी घड़ी में जो कमतर साबित हो उसे उस पद पर रहना ही क्यों चाहिए या उस पद पर उन्हें रखना ही क्यों चाहिए, यह समझना भी अासान नहीं है. 
फिर यह समझना मेरे लिए तो बहुत ही मुश्किल है कि हमारी न्यायपालिका के फैसलों का अाधार क्या होता है ? जिन मामलों में कोई नैतिक या संवैधानिक पेंच न हो, उन मामलों में फैसला लेने का कोई निश्चित, ठोस अाधार व प्रक्रिया है या नहीं ? क्या संविधान की मोटी पुस्तक सिर्फ जयकारा लगाने के लिए है कि वह निश्चित दिशा-निर्देश भी करती है ? इतने सारे सवाल इसलिए कि बंगलारू का सबसे निरीह ट्रायल कोर्ट अाय से अधिक संपत्रि के मामले में वर्षों पहले जयललिता व शशिकला को अपराधी बता देता है; फिर कर्नाटक हाईकोर्ट उसी मामले की, उन्हीं दस्तावजों के अाधार पर सुनवाई करता है अौर दोनों ‘माहारानियों’ को बेदाग रिहा कर देता है; फिर वही मामला उन्हीं लोगों के साथ, वे ही दस्तावेज ले कर सर्वोच्च न्यायालय में अाता है. सर्वोच्च न्यायालय अपने ही हाईकोर्ट के फैसले से एकदम उल्टा रुख लेता है अौर मृत जयललिता से उनकी प्रतिष्ठा अौर कुर्सी पर अाधी चढ़ बैठी शशिकला से उनकी कुर्सी छीन लेता है. अब अाप देखिए कि यहां सर्वोच्च न्यायालय अपने ट्रायल कोर्ट के साथ खड़ा होता है अौर हाईकोर्ट को खारिज करता है. लेकिन वह हमें क्यों नहीं बताता कि उसके हाईकोर्ट ने संविधान की किस धारा की क्या व्याख्या की,किस दस्तावेज को किस तरह पढ़ा कि ट्रायल कोर्ट का फैसला एकदम से रद्दी की टोकरी में फेंक दिया अौर ‘अपराधी’ को सत्ता की बड़ी कुर्सी पर बिठा दिया. अौर फिर सर्वोच्च न्यायालय ने क्या पढ़ा, क्या देखा कि उसने हाईकोर्ट का फैसला कूड़ेखाने में डाल कर, जयललिता को दोबारा ‘दफना दिया’ अौर शशिकला को कैदी नंबर ३२९५ बना दिया ? सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला किसी हद तक हमारी न्याय-व्यवस्था अौर संविधान पर तीखी टिप्पणी करता है. क्या किसी दिन का न्याय इस पर निर्भर करता है कि उस दिन जज की कुर्सी पर कौन बैठा है ? सुनते हैं हम कि वकील अपने मुवक्किल से कहता है कि अाज बेंच बहुत खराब है, हम अगली तारीख ले लेते हैं याकि यह कि अब तो अपनी लुटिया डूबी ही समझो क्योंकि ‘साहब’ बहुत खराब है ! अगर न्याय का दारोमदार किसी व्यक्ति की मौज पर है तब तो संविधान, न्याय-व्यवस्था का यह जंजाल, जज साहबन का तेवर, वकीलों की फौज की मौज सब अर्थहीन हो जाते हैं. इसलिए यह समझना अासान नहीं है कि कर्नाटक हाईकोर्ट अपने ट्रायल कोर्ट का फैसला इस तरह उलट दे कि जयललिता जेल की जगह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा बैठें; फिर सर्वोच्च न्यायालय अपने हाईकोर्ट का फैसला जड़ से ऐसा पलट दे अौर जिसे हाईकोर्ट ने पोस गार्डेन में रहने का अधिकार दिया था, उसे वहां से निकाल कर चार लंबे वर्षों के लिए परपन्ना अग्रहारा जेल भेज दे लेकिन अपने हाईकोर्ट से यह भी न कहे कि उसकी चूक कहां हुई थी; अौर देश से ‘सॉरी’ भी न कहे ! नहीं, इन सब पर गंभीरता से विचार किए बिना न्यायपालिका की छवि बनाए रखना संभव नहीं होगा. यह तकनीकी सवाल नहीं है, न्याय के तत्व का सवाल है. 
हम कल्पना करें कि जयललिता जीवित होतीं अौर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर होतीं अौर तब ऐसा अदालती फैसला अाया होता तो तमिलनाडू की सड़कों पर क्या हुअा होता ?  वे सड़कों पर हाहाकार मचवा देतीं ! कुछ अात्मदाह भी हो जाते. इस मामले में शशिकला बेचारी साबित हुईं क्योंकि वे जयललिता के साथ का फायदा तो उठाती रहीं लेकिन जयललिता का जय-सूत्र न पढ़ सकीं, न समझ सकीं. वे सत्ता तो चाहती थीं  लेकिन यह सत्य नहीं पहचानती थीं कि सत्ता प्रधानमंत्री की हो कि मुख्यमंत्री की, अापको सड़क को उभारना अौर सड़क पर उतरना अाना चाहिए. इस मानी में अभी मुख्यमंत्री की कुर्सी सेंक रहे ई.के. पलानसामी अौर कुर्सी से उतारे गये अो. पन्नीरसेलवम दोनों ही अत्यंत कमजोर व अनधिकारी व्यक्ति हैं. यहां से जो संभावनाएं बनती हैं, उसमें एक संभावना वाला नाम द्रमुक के करुणानिधि-पुत्र स्टालिन का है. उनमें यह करिश्मा है. अत: तमिल राजनीति में अभी ठहराव अाने की उम्मीद नहीं है. लेकिन कैदी नंबर ३२९५ ने जितने सवाल खड़े कर दिए हैं, भारत की राजनीतिक व न्यायिक व्यवस्था को उसका जवाब देना ही होगा. ( 17.02.2017)  

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