Thursday 2 February 2017

अब कहें संजयलीला भंसाली


० कुमार प्रशांत 


तो यह तै हो गया कि संजयलीला भंसाली अपनी फिल्म पद्मावतीराजस्थान में नहीं बनाएंगे. जयपुर के जयगढ़ किले में अपनी इस फिल्म की शूटिंग में व्यस्त बंसाली अौर उनकी यूनिट पर जिस तरह हमला हुअा अौर किसी अनजान-सी सेना के सड़कछाप हुड़दंगियों ने मार-पीट, तोड़-फोड़ की उसके बाद बंसाली प्रोडक्शन ने वही किया जो किया जा सकता था. अब जब हमारे देश में कुछ भी सांस्कृतिक या बौद्धिक न बचे अौर हर काम, हर बात या हर कृति दूसरी कुछ नहीं बल्कि राजनीतिक चाल भर मान कर देखी, सुनी व पढ़ी जाए, ऐसा अालम बनाया जा रहा तब इस बात की चर्चा का कोई मतलब ही नहीं है कि कोई पद्मावती किस इतिहास में कब,कहां अौर कैसे प्रवेश करती है. १६वीं शताब्दी के सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधि में पद्मावतनाम से लंबी कविता लिखी जिसमें से पद्मावती का जन्म होता है. उससे पहले के इतिहास में पद्मावती कहीं मिलती नहीं है.  लेकिन काहे का इतिहास अौर किधर की पद्मावती ! सब उस पद्मावती को चाहते हैं जो अाज की राजनीति में मोहरे की तरह इस्तेमाल की जा सकती है.
संजयलीला भंसाली फिल्में बनाते हैं अौर उन्होंने कई अच्छी फिल्में हमें दी हैं. मैं तो यह भी कह सकता हूं कि व्यापारिक सफलता-असफलता की बात छोड़ दें तो भंसाली की हर फिल्म हमारे फिल्मी कैनवास पर कुछ नया जोड़ती अाई है. ऐसा हम बहुत कम निर्देशकों के बारे में कह सकते हैं. यह कहने के बाद अौर अकंपित स्वर में उनकी पिटाई अौर तोड़-फोड़ की निंदा करने के बाद भी मैं संजयलीला भंसाली से पूछना चाहता हूं कि क्या वे अब पद्मावतीबनाना छोड़ देंगे ? क्या वे फिल्म बनाना छोड़ देंगे ? क्या अब वे केवल विदेशों में फिल्में बनाएंगे ? क्या वे अपनी फिल्में अब विदेशों में ही दिखाएंगे ? अगर हांतो मुझे उनसे कुछ कहना नहीं है. अगर ऐसा नहीं है तो मुझे कुछ कहना है. 
संजयलीला भंसालीजी, यह वही असहिष्णुता है जिसकी तलवार बना कर एक खास विचारधारा, इन दिनों दूसरी सारी अावाजें बंद करने में जुटी हुई है. इस असहिष्णुता ने हत्याएं की हैं, असहमति को अपमानित अौर निंदित किया है, भिन्न मतों की खिल्ली उड़ाई है अौर असहाय लोगों को निशान पर रखा है. सत्ता ने इन सबकी अनदेखी कर, इनकी मदद की है, इन्हें प्रोत्साहित किया है. यही वह असहिष्णुता है संजयलीला भंसालीजी जिसका जिक्र कभी अापकी बिरादरी के तीनों खानों, अामिर, शाहरुख अौर सलमान ने किया था. तब उन तीनों को निशाने पर ले कर, इनके धर्म की खोज की गई थी, इनकी देशभक्ति पर सवाल उठाए गए था, इनको सीधा करने के लिए इनकी फिल्मों को निशाना बनाया गया था. अौर तब अाप भी अौर कई दूसरे नामी सितारोंने इन तीनों से खुद को अलग ही नहीं कर लिया था. कई थे जो उनके साथ जा खड़े हुए थे जो हमलावर थे. अौर वह इतिहाससिद्ध सत्य तो है ही कि जो अावाज उठने के वक्त चुप रह जाते हैं, वे अन्याय के पक्षधर हो जाते हैं. संजयजी, तब कहा यह जा रहा था कि कलाकारों का ऐसे राजनीतिक विवादों से कोई वास्ता नहीं होता है—‘हम तो फिल्में बनाते हैं अौर मनोरंजन करते हैं.’  अापकी बिरादरी के कई सूरमा तब सड़कों पर जुलूस ले कर निकले थे अौर बड़ी भद्दी असहिष्णुता से सबको सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने लगे थे.  
यह फिल्मी बिरादरी का पतन-काल था. 
संजय हों कि अमिताभ बच्चन कि अनुपम खेर कि दूसरे कई सारे लोग; अौर हम-अाप भी यह समझें कि समाज में वाटरटाइट कंपार्टमेंट नहीं होते हैं कि जिनमें एक में क्या हो रहा है, उसका पता भी अौर उसका असर भी दूसरे पर नहीं होता है. समाज उस तरह काम करता है जिस तरह दिल को रक्त पहुंचाने वाली रक्तवाहिकाएं काम करती हैं. हमारी वाहिकाएं रात-दिन, चौबीसों घंटे साफ खून को दिल तक पहुंचाने में अौर खराब खून को बाहर निकालने में लगी रहती हैं. यह किसी बदहवास की दौड़ नहीं है, रक्तवाहिकाअों का संविधानसम्मत काम ही यही है. जिस दिन रक्तवाहिकाएं अपना यह संवैधानिक काम, संवैधानिक गति से करना बंद कर देती हैं, उस दिन संविधान भी अौर हम, दोनों ही मर जाते हैं. मारने के लिए काल को दूसरा कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ती है. ऐसा ही हाल कला का भी है. जिस दिन कला अपनी व्यापक सामाजिक जिम्मेवारियों से मुंह मोड़ लेती है, उसी दिन कला का गला काल दबोच लेता है. अाज से मुंह मोड़ कर कला कल के काम की भी नहीं रह जाती है. अापकी फिल्मी दुनिया के साथ ऐसा हुअा है संजय बाबू ! अापने जयपुर में उसकी ही फसल काटी है. इस विषबेल को बोते वक्त हमने चुप्पी रखी थी, अब यह हमें चुप करा रहा है. 
अाप जहां जाएंगे, असहिष्णुता का यह जहर अापके पीछे-पीछे वहां पहुंच जाएगा. देश के जिस कोने में भी अाप काम करना चाहेंगे संजय, वहीं पद्मावतीके ये लोग पहुंच जाएंगे अौर अाप पर फिर हमला करेंगे. ये नहीं चाहते हैं कि इस देश में लोग अपने मन से सोचें, अपने मन की करें अौर अपनी कला की सफलता-विफलता का हिसाब अपनी तरह रखें. ऐसा नहीं है कि कला अपनी परंपरा, अपनी लोकभावना अादि का ख्याल न रख कर, कुछ भी करने को स्वछंद है. कोई सच्चा कलाकार अव्वल तो ऐसा कुछ करेगा नहीं फिर भी हमने संविधान बना रखा है, अदालतें हैं, सेंसर है अौर समाज में अस्वीकृति दर्ज कराने के तमाम मंच हैं. हम इनमें से किसी का भी, कभी भी इस्तेमाल कर कला को संयम का पाठ पढ़ा सकते हैं. लेकिन किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अागे बढ़ कर किसी का गला, किसी की कलम, किसी की कूची या किसी का कैमरा पकड़ ले. इसलिए बोलना, अावाज उठाना अौर असहमति प्रकट करना जरूरी होता है. यह जरूरी काम अपरिहार्य बन जाता है जब सत्ता अंपायर की भूमिका छोड़ कर, एक पक्ष की खिलाड़ी बन जाती है. पद्मावतीयदि अाज हमें अौर अापको यह पाठ पढ़ा जाती है तो मैं कहूंगा कि पद्मावतीऐतिहासिक पात्र थी या नहीं, इसकी खोज व बहस इतिहासकार कितनी भी करें, मेरे लिए वह हमारे वर्तमान की अमूल्य धरोहर है. 
अौर हां, मैं राजपूत नहीं, इस देश का पूत हूं. ( 1.02.2017)                                                                                                                       

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