Saturday 4 May 2024

मिस मेयो : मिस्टर मेयो

     इतिहास भी कमाल के गोते लगाता है ! भला सोचिए, 2024 में वह 1927 की कहानी दोहरा रहा है. तब यानी 1927 में एक थीं कैथरीन मेयो और एक थे महात्मा गांधी. महात्मा गांधी कौन थे यह तो अधिकांशत: हम सब जानते ही हैं ( मैं व्हाट्एप यूनिवर्सिटी के महान इतिहासकारों को भी इसमें शामिल कर रहा हूं ! ), लेकिन कैथरीन मेयो कौन थीं यह जानने की जरूरत अधिकांश पाठकों को पड़ेगी. तो बताता हूं कि वे एक अमरीकी, श्वेत चमड़ी की श्रेष्ठता के भाव से भरी, नकचढ़ी पत्रकार सरीखी कुछ थीं जिन्हें कुछ लोग तब उसी तरह इतिहासकार भी कहते थे जिस तरह अब कुछ लोग गृहमंत्री अमित शाह को दार्शनिक कहते हैं. 20 के दशक में मिस मायो भारत आई थीं. गांधीजी से भी मिली थीं, दूसरी हस्तियों से भी मिली थीं, रवींद्रनाथ ठाकुर से भी मिली थीं. गांधीजी के निर्देश में चल रहे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से असहमत, असंतुष्ट, नाराज मेयो मैडम ने एक किताब लिखी :  मदर इंडिया ! ना, ना, आप ऐसा मत मान बैठिएगा कि महबूब खान की प्रसिद्ध फिल्म मदर इंडिया मेयो मैम की इस किताब से प्रेरित थी. मेयो मैम मदर इंडिया में अपना अलग ही राग गाती हैं.   

   यह किताब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्योंउसकी दिशाउसकी उपलब्धियों आदि की धज्जियां उड़ाती हुई यह साबित करती है कि यह भारतीय समाज कुरीतियों-अन्याय-अत्याचार तथा शोषण की गंदी व्यवस्था पर टिका एक ऐसा गर्हित समाज है जिसे गुलाम बना कर अंग्रेजों ने ( कहें : श्वेत चमड़ी वालों ने ! ) कुछ सभ्य,कुछ मानवीय बनाया है. मेयो मैम की किताब तब कई लोगों को नागवार गुजरी थी लेकिन वह किताब जल्दी ही गुजर भी जाती’ यदि गांधीजी ने उसे पढ़ा न होता. बहुत कहने पर गांधीजी ने न केवल मदर इंडिया’ पढ़ी बल्कि चौतरफा आग्रह के कारण, ‘ बहुत व्यस्तता’ में से समय निकाल कर उस पर एक टिप्पणी भी लिखी जो 15 सितंबर 1927 को यंग इंडिया’ में प्रकाशित हुई.  महात्मा गांधी ने अपनी टिप्पणी का शीर्षक दिया : ‘ ड्रेन इंस्पेक्टर रिपोर्ट’ : नाली सफाई के जमादार की रिपोर्ट ! गरज यह कि जिसका धंधा ही गंदगी को उकेर-उकेर कर देखना हैवह गंदगी के अलावा देखेगा भी तो क्या और वर्णन भी करेगा तो गंदगी की ही करेगा. महात्मा गांधी की अपनी शैली में यह खासी कड़ी टिप्पणी थी. गांधीजी ने लिखा कि यह “ बड़ी चालाकी से लिखी सशक्त किताब है… जो किसी हद तक सत्य का बखानअसत्य के प्रचार के लिए करती है.” 

   अब न कैथरीन मेयो हैंन गांधीजी हैं लेकिन गंदगी फैलाने का धंधा जोरों पर है. गंदगी को सहेजने तथा ‘ बड़ी चालाकी से सत्य का बखान इस तरह करना कि असत्य का प्रचार हो’ वाली संस्कृति जीवित भी हैजारी भी है. सो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस कला में महारत हासिल कर ली है. वे अब इस कला के उस्ताद जमादार’ बन गए हैं. हम देखें तो प्रधानमंत्री मोदी का कुल इतिहास 2014 से शुरू होता है और कुर्सी तक पहुंच कर चुक जाता है. वे सत्ता की जिन दो कुर्सियों पर बैठे हैं - मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री - यदि वे कुर्सियां हटा दी जाएं तो उनके पास कुछ भी बचता नहीं है. कुर्सी के बिना वे उसी तरह अर्थहीन हो जाते हैं जैसे नालियों के बिना सफाई जमादार ! 

   मोदी चुनाव के सन्निपात में इधर जब-जब मुंह खोल रहे हैंइतिहास का मुंह खुला रह जाता है. वैसे भी प्रधानमंत्री झूठ व सच में फर्क करने जैसी नैतिकता में कभी पड़ते नहीं हैं. सत्ता की कुर्सी पर बैठ कर किसी झूठ को जोर-जोर से सौ बार बोलो तो वह लोगों के बीच किसी हद तक सच की तरह स्थापित हो जाता हैइसे मान कर अहर्निश कार्यरत रहते हैं प्रधानमंत्री. उन्होंने कहा कि कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र उन्हें मुस्लिम लीग के घोषणापत्र जैसा लगता है. कोई प्रमाण कोई साम्यता नहींयह सब बताना प्रधानमंत्री का काम थोड़े ही है ! उन्हें पता है कि उनकी बात को गोदी मीडिया’ देश भर में पहुंचा देगा और जहां-जहां उनका कहा मुस्लिम’ शब्द पहुंचेगा,सांप्रदायिकता के अनुकूल वातावरण बन ही जाएगा. उन्हें इस वातावरण से मतलब है क्योंकि इससे वोट की फसल अच्छी बनती व कटती है. 

    उन्होंने कहा कि कांग्रेस लोगों से घर छीन लेगीभैंस छीन लेगीधन छीन लेगीमंगलसूत्र छीन लेगी और यह सारा मुसलमानों को दे देगी. कोई प्रमाण कोई संदर्भ नहींयह सब बताना प्रधानमंत्री का काम थोड़े ही है ! उन्होंने बस कह दियाअब ‘ गोदी मीडिया’ अपना काम करेगा और वातावरण जहरीला बनता जाएगा. समाज जितना जहरीला बनता जाएगावोट की फसल उतनी जल्दी पकेगी. पकी फसल काटनेवाले योगियों की कमी थोड़े ही है प्रधानमंत्री के पास ! 

   उन्होंने कह दिया कि ‘ पाकिस्तान युवराज को प्रधानमंत्री बनाने को बेकरार  है’, तो कह दिया. गोदी मीडिया के पंखों पर सवार हो कर बात सब दूर फैल गई. इसमें पाकिस्तान’ और युवराज’ दो ही शब्द हैं जिसका जहरीला असर प्रधानमंत्री को पैदा करना है. उन्हें लगता है कि देश आज भी इतना जाहिल है कि उनका मनचाहा हो जाएगा. सच क्या है सच इतना ही है कि पाकिस्तान के एक सांसद को मोदी से कहीं भला लगता है कि राहुल गांधी भारत के प्रधानमंत्री हों. किसी एक व्यक्ति को पूरे देश का प्रतिनिधि बता कर कुछ भी बयान दे देनागांधी के शब्दों में ड्रेन इंस्पेक्टर रिपोर्ट’ है.  

   पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संदर्भ दे कर प्रधानमंत्री ने कहा कि कांग्रेस कहती है कि देश के धन पर पहला हक मुसलमानों का है. कोई प्रमाण कोई संदर्भ तुरंत ही गंदी नाली में उतरे प्रधानमंत्री के सिपाही और  खोज लाए एक वीडियो. वीडियो चलाया गया तो उसमें मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक उनका होना चाहिए जो कमजोर हैंअल्पसंख्यक हैं. हमारे देश में मुसलमान भी अल्पसंख्यक की श्रेणी में आते हैंतो उनका नाम भी लिया मनमोहन सिंह ने. यह कोई छुपी बात तो है नहीं कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में जिस कांग्रेस का जन्म हुआ वह अंतिम आदमी की बात करती थी तथा यह भी मानती थी कि वह अंतिम आदमी हमारे विकास की कसौटी भी है और कारण भी. धर्म के आधार पर इनमें फर्क करना कांग्रेस की नीति में नहीं है. व्यवहार में राजनीति बहुत कुछ ऐसा कराती है जैसा इन दिनों मोदी-कुनबा कर रहा हैतो जितनी छूट इन्हें है उतनी छूट मनमोहन सिंह को क्यों नहीं दी जानी चाहिए कांग्रेस और मनमोहन सिंह सांप्रदायिकता का फायदा उठाते होंगे भले लेकिन सांप्रदायिकता उनकी राजनीति का आधार कभी नहीं रही है. हिंदू महासभा से ले कर भारतीय जनता पार्टी तक अपने हर अवतार में नरेंद्र मोदियों ने सांप्रदायिकता को ही अपनी राजनीति का आधार बनाया है. इन दोनों में बहुत बड़ा गुणात्मक फर्क है. 

   मोदी के छुटभैय्यों में से एक राजनाथ सिंह जब नाली में उतरे तो यह गंदगी समेट लाए कि महात्मा गांधी कांग्रेस को समाप्त करना चाहते थे लेकिन नेहरू एंड कंपनी ने यह होने नहीं दिया. यही महाशय थे जिन्होंने नाली छान कर यह गंदगी समेटी थी कि सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने से अंग्रेजों को माफीनामा लिखा था. वह झूठ आज तक उनका मुंह काला करता हैतो यह नया सत्य इन्हें कहां ला पटकेगा ! महात्मा गांधी की जिस दिन संघ-परिवार ने हत्या कीउससे पहले की रात गांधीजी ने अपनी जिंदगी का आखिरी दस्तावेज लिखा था. उसे पढ़ने व समझने की कसरत भले न करें राजनाथ सिंह लेकिन इतना तो जानें कि उस दस्तावेज में गांधीजी ने लिखा था कि आजादी मिलने के साथ ही कांग्रेस पार्टी का काम पूरा हो गया. अब इसे विसर्जित कर देना चाहिए. कांग्रेस पार्टी के जो लोग सत्ता की राजनीति में काम करना चाहते हैं उन्हें अपनी नई पार्टी बनानी चाहिए. लेकिन ईमानदारी से इतिहास का ककहरा भी जिसने पढ़ा होगा उसे इसी के साथ एक दूसरा दस्तावेज भी मिलेगा जिसमें आजादी के बाद गांधी जवाहरलाल से पूछते हैं कि तुम अब कांग्रेस की क्या भूमिका देखते होऔर जवाहरलाल कहते हैं कि उन्हें अब कांग्रेस की कोई खास भूमिका दिखाई नहीं देती हैतो गांधी कहते हैं कि नहींकांग्रेस कभी खत्म नहीं होगीउसे कभी खत्म नहीं होना चाहिए क्योंकि वह जिन मूल्यों के लिए काम करती रही हैवे मूल्य अक्षुण्ण हैं. राजनीति के जोकरों के लिए यह बारीकी समझ पाना संभव नहीं है कि गांधीजी कांग्रेस संगठन व कांग्रेस मूल्य में फर्क करते हुए जवाहरलाल को सावधान करते हैं. इसलिए कांग्रेस जिन मूल्यों के लिए बनी व लड़ी थीउन मूल्यों को खत्म करने में लगी संघी धारा को कोई नैतिक हक नहीं है कि वह महात्मा गांधी की उन बातों का संबंध आज से जोड़े. और इतिहास के पन्ने ही पलटने हों तो राजनाथ सिंहों को वे सारे पन्ने भी देखने चाहिए जिनमें गांधीजी ने हिंदू महासभा-राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ जैसे सांप्रदायिकता में तैरने वाले संगठनों के लिए कठोरतम वर्जनाएं की हैं. 

   सच और झूठ में क्या फर्क है बकौल कृष्णबिहारी नूर’ : 

   सच बढ़े या घटे तो सच ना रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं. जैसे यह शेर भारतीय जनता पार्टी के लिए ही लिखा गया है. ( 03.05.2024)   

Wednesday 24 April 2024

क्या लोकतंत्र की यह गुजारिश कोई सुन रहा है !

बेचारा सर्वोच्च न्यायालय ! अब उसके या उसके उच्च न्यायालय के जज रहे 21 महानुभावों ने उसे सावधान किया है ( धमकी दी है ! )  कि उसे दवाब में डाल कर मनचाहा फैसला पाने वाला एक गिरोह काम कर रहा है जिससे उसे बचना भी चाहिए व सतर्क भी रहना चाहिए. सार यह है कि कानूनी पेशे की रोटी खाने वाले ये 21 जज सर्वोच्च न्यायालय को बता रहे हैं कि आप इतने भोले हो कि कोई भी आपको लल्लू बना लेता है. वे यह भी कहते हैं कि मी लॉर्डआप घबराएं नहींहम हर क्षण आपकी मदद के लिए तैयार हैं. जब भी आप ऐसे दवाब में टूटने लगेंबस हमें पुकार लें. इससे पहले 2 सौ से ज्यादा ऐसे ही पेशेवर न्यायाधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी ही चेतावनी दी थी. 

मैं जल्दी से खोजने लगा कि इन स्वनामधन्य महानुभावों के नाम क्या हैंतो मुझे खुद पर ही शर्म आई कि ऐसे दिग्गजों’ में से मैं किसी को भी खास नहीं जानता हूं. ये महानुभाव जिन अदालतों से जुड़े रहेउनके पन्नों में इनमें से किसी के नाम सेएक भी ऐसा मामला दर्ज नहीं मिलता है जिसने संवैधानिकता को मजबूत बनाने जैसा कोई काम किया हो. काले कोट का पेशा तो पेशा है जो ऐसे सभी महानुभाव करते हैं लेकिन काले कोट की आभा जगाने का माद्दा अलग चीज है. वह कभी-कभी हीकिसी-किसी में मिलता है. 

इन महानुभावों का इतना सारा किया जैसे काफी नहीं था कि प्रधानमंत्री ने भी सर्वोच्च न्यायालय को भरी क्लास में ( भरे-पूरे देश में ! ) मुर्गा बना दिया. बकौल प्रधानमंत्री इस देश में काला धन बनाने वाले गिरोह में अब सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल हो गया है और चुनावी बौंड’ को असंवैधानिक ठहराने के लिए देश को और सर्वोच्च न्यायालय को पछताना होगा. वे कहते हैं कि चुनावी बौंड की कल्पना उनके मन में तब कौंधी थी जब वे बुधत्व’ को उपलब्ध हुए थे. चुनावी बौंड उनके मन के उसी पवित्र क्षण’ की संतान है. गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए जब ऐसे ही किसी पवित्र क्षण’ में उन्होंने फैसला कर लिया था कि उन्हें येनकेनप्रकारेण देश का प्रधानमंत्री बनना ही हैतबसे ले कर अबकी बार 400 पार’ के नवीनतम पवित्र लक्ष्य’ का इतिहास पलटें हम तो पता चलता है कि देश को पछताने के एक नहींअनेक मोदी-कारण हैं. लेकिन अभी मैं सिर्फ चुनावी बौंड के पवित्र फैसले’ की ही बात करूंगा. 

प्रधानमंत्री ने कहा है कि काले धन की गिरफ्त से चुनावी प्रक्रिया को मुक्त करने के पवित्र उद्देश्य’ से चुनावी बौंड की योजना लाई गई थी. मैं जानना चाहता हूं कि नोटबंदी की तरह यह भी मायावी साधक मोदी’ की निजी उपलब्धि थी या इस बारे में जानकारों से मश्विरा भी हुआ था स्वर्गीय अरुण जेटली के अलावा कोई ऐसा एक नाम प्रधानमंत्री ले सकते हैं जिसकी नश्वर काया अब तक हमारे बीच मौजूद है तब के रिजर्व बैंक के गवर्नरबैंकिग की दुनिया के दूसरे बड़े नामकोई अर्थशास्त्रीचुनाव आयोग के अधिकारी कौन थे कि जिनके साथ इस पवित्र’ योजना की चर्चा-समीक्षा की गई थी क्या संसद में कभी इस पर विमर्श हुआ ?  अगर यह पवित्र मन की परिकल्पना थी तो इसमें गुप्तता के इतने प्रावधान क्यों थे दाता व आदाता का नाम किसी को पता नहीं चलना चाहिएइसकी इतनी सावधानी क्यों थी इस पर उस तरह नंबर क्यों डाला गया था कि जो जासूसी निगाहों से ही पढ़ा जा सकता था ?  गुप्त नंबर की यह तरकीब भी आपकी योजना में तो थी नहींबैंकों के गंभीर एतराज के बादलाचारी में आपके पवित्र मन’ ने इसे छिपा कर डालना कबूल किया था ! बताएं प्रधानमंत्री कि इतनी तिकड़मों के पीछे कौन-सा पवित्र मन काम कर रहा था ?  जो गुप्त होता हैवह पवित्र नहीं होता है.

मोदी-मार्का भ्रष्टाचार वह है जिसमें शब्दों के अर्थ ही बदल दिए जाते हैं. मोदी-सदाचार की नई परिभाषा है : सरकार जो भी करे ( नहींमोदी-सरकार जो भी करे ! ) वह सदाचारजो देश करे या कहे वह कदाचार ! किसी जड़बुद्धि को भी हंसी आ जाए ऐसी बातें प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी कु-योजनाओं के बचाव में कहते आ रहे हैं. नोटबंदी के लिए कहा : इतने दिनों में काला धन खत्म करने के अलावा फलां-फलां बात नहीं हुई तो मुझे फांसी पर चढ़ा देना ! नोटबंदी से वह सब तो कुछ होना नहीं था जिसका दावा किया गया था लेकिन फांसी की अवधि आते-न-आते सारी घोषणाएं ही बदल दी गईं. सियारमार्का मीडिया के धंधेबाज मालिक और दोनों हाथों धन समेटने में लगे कारपोरेट नई घोषणाओं को ले उड़े. ऐसा ही जीएसटी के साथ हुआ. इस शेखचिल्ली योजना की मूर्खताएं आज तक सुधारी जा रही हैं. कपड़े बदलनेढोल-नगाड़े बजाने व गले पड़ने को विदेश-नीति समझने वाली मसखरी का दौर समाप्त हुआ तो आज यह हाल है कि हमारी विदेश-नीति में न कोई नीति बची हैन आत्मसम्मान ! नेपालपाकिस्तानबांग्लादेशम्यांमारअफगानिस्तानचीन से ले कर फिजी तक में हमारी किरकिरी होती है और हम कभी अमरीकीकभी रूसी तो कभी यूरोपी हित का समर्थन कर अपने दिन निकाल रहे हैं. यूक्रेनफलस्तीन के मामलों में हम उस मूर्ख बच्चे से नजर आते हैं जो अपना रिपोर्ट कार्ड लहराता घर लाता है बगैर यह जाने कि उसे कितने विषयों में सिफर मिला है. विदेश-नीति के निर्धारण में गलतियां पहले भी होती रही हैं लेकिन गलतियों को मास्टर-स्ट्रोक बताने की मूढ़ता इसी सरकार की देन है. 

चुनावी बौंड के मामले में अदालती चांटा खाने के बादअमित शाह मार्का छुटभैय्यों से अनाप-शनाप बयान दिलवाने के बाद अब अपने प्रायोजित इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने मुंह खोला है. वे जब भी किसी मुद्दे पर मुंह खोलते हैंदेश का मुंह खुला रह जाता है. उन्होंने कहा : अगर बौंड की मेरी योजना न होती तो यह पता ही नहीं चलता कि पैसा किधर से आया और किधर गया : मनीट्रेल ! प्रधानमंत्रीजीपूछने वाला तो यह पूछेगा कि महाशययदि आप ही न होते तो यह बौंड ही कहां होता ! पैसा कहां से आया और कहां गयाइतना ही नहींइस आने-जाने के पीछे सरकार ने कब,कहां व कैसे दलाली खाईयह भी देश को पता चला तो इसलिए नहीं कि आपका बौंड था बल्कि इसलिए कि सर्वोच्च न्यायालय इस बौंड के पर्दाफाश के पीछे ही पड़ गया था. चुनावी बौंड का रहस्य किसी स्तर पर न खुले इसके लिए जितनी तिकड़म संभव थीसरकार ने वह सब की. भाड़े के सारे वकील साहबानों व भ्रष्ट व कायर स्टेट बैंक की नौकरशाही तक को सरकार ने मैदान में उतार दिया लेकिन न्यायालय ने कुछ भी देखने-सुनने से मना कर इस बौंड योजना को बैंड ही कर दिया तो रास्ता ही नहीं बचा कि कहां सर छिपाएंकहां पांव ! 

प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि चुनावी बौंड की योजना के कारण चुनावी प्रक्रिया से काले धन की समाप्ति हुई. उनके अपने अर्थशास्त्रियों में से कोई एक मुझे समझा दे कि कोई धन काला होता है क्या धन तो सारे सफेद ही होते हैंइरादे काले-सफेद जरूर होते हैं. जब आप काले इरादे से धन छिपाते हैं तो वह काला हो जाता हैजब सरकार आपके काले इरादे वाले धन को पकड़ लेती है तथा कानूनी दंड वगैरह लगा कर उसे व्यवस्था में समाहित कर लेती है तो वही धन सफेद हो जाता है. जब सरकार अदालत में कहती है कि राजनीतिक दलों को चंदा कहां से व कितना मिला यह जानने का जनता को कोई अधिकार ही नहीं है तब वह काले इरादे से चल रही होती है. जब अमित शाह कहते हैं कि चुनावी बौंड योजना से हमें कितनी रकम मिली व विपक्ष को कितनी यह मत देखिए बल्कि देखिए यह कि हमारे कितने व विपक्ष के कितने सांसद हैंतब वे काले इरादे से बात कर रहे थे मानो डकैतों का कोई गिरोह है जो लूट में से बंटवारे पर लड़ रहा हो. लूट ही बुरी हैयह कोई नहीं कर रहा है. अब तक विपक्ष ने भी देश से कहां माफी मांगी है कि इस लूट का छोटा-बड़ा हिस्सा ले कर हमने भी पाप ही किया !             

सर्वोच्च न्यायालय ने इस संवैधानिक मुकदमे की जैसी उपेक्षा की और इसे कोई 10 साल तक लटाकाए रखावह ऐसा संवैधानिक अपराध है कि जिसकी सुनवाई के लिए भी कोई अदालत होनी चाहिए थी. संविधान निर्माताओं ने कल्पना ही नहीं की कि कभी ऐसा भी होगा कि मुकदमों की भीड़ में कोई सर्वोच्च न्यायालय यह विवेक भूल जाएगा कि वह क्यों बना हैऔर देश क्यों उसका बोझ ढोता है. सर्वोच्च न्यायालय की प्राथमिक भूमिका संविधान के संरक्षण की हैउसका पहला व अंतिम काम विधायिका को संविधान की मर्यादा में बांध कर रखना है. यह दायित्व ऐसा है कि जिसे संविधान की दूसरी कोई संरचना निभा नहीं सकती है. इसलिए सर्वोच्च न्यायाधीश को रोस्टर में यह विवेक करना ही चाहिए कि उसके पास मामलों का जो अंबार पड़ा है उसमें विधायिका की संवैधानिकता की जांच करने का कौन-कौन-सा मामला है. वे सारे मामले उसकी प्राथमिकता में पहले नंबर पर होने चाहिए. उसे भीड़ में एक बना देने से देश की संवैधानिक व्यवस्था भाड़ में जा रही हैयह उसे क्यों दिखाई नहीं दे रहा उसने भी काला चश्मा तो नहीं पहन रखा है !  

संवैधानिक संरचनाएं जब अपना काम मुस्तैदी से व संवैधानिक तटस्थता से करती रहती हैं तब इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि सरकार किसकी है और उसका एजेंडा क्या है. यदि कैगईडीइंकमटैक्ससीबीआईचुनाव आयोगप्रेस काउंसिलमहिलाअल्पसंख्यक व बाल आयोगनिचले स्तर से ऊपर तक की न्यायपालिका अपना-अपना काम करती तो किसी सरकार की हिम्मत नहीं होती कि वह लोकतंत्र का गला दबोच करअपनी मनमानी करे. लेकिन इन सबने एक नहींअनेक अवसरों पर संविधान को विफल करअपनी संवैधानिक भूमिका से धोखा किया है. अदालत ने कभी सीबीआई को पिंजड़े में बंद तोता’ कहा था. कहा तो था लेकिन उसने ऐसा किया कुछ भी नहीं कि जिससे पिंजड़ा टूटेतोता बाहर आ कर बाज बन जाए. वह और ऐसी तमाम संवैधानिक संरचनाएं अपनी वर्तमान की हैसियत के लिए सरकार से उपकृत और भावी के लिए सरकार पर आश्रित रहती हैं. यह कायर गुलामी लोकतंत्र के लिए घातक है.    

 चुनावी बौंड के खुलासे से एक बार वह सड़ांध खुले में आ गई है जो इस सरकार ने पिछले 10 सालों में रचा है. अगर यहीं से भारत में संवैधानिकता की शुरुआत होनी हो तो वही सही लेकिन इस लोकतंत्र की इतनी गुजारिश ज़रूर है कि चंद्रचूड़ हों कि सूर्यचूड़सभी सुनें कि अब पीछे न लौटें. ( 23.04.2024)

Wednesday 10 April 2024

आज की चुनौती : कल का दायित्व

 घटनाएं इस तेजी से घट रह हैं मानो किसी ने उन्हें चर्खी पर चढ़ा दिया है; और यह खेल हम सबने बचपन में खेला ही है कि सतरंगी चर्खी को जब हम  तेजी से घुमाते हैं तो सारे रंग एकरूप हो जाते हैं और दिखाई देता है सिर्फ सफेद रंग का नाचता गोलाकार ! हमें आज तेजी से बदलती घटनाएं भी ऐसी ही दिखाई दे रही हैं. इस तीखी व तेज चक्करघिन्नी में सारे रंग एकरूप हो गए हैं - सिर्फ एक फर्क के साथ कि अब हमारे सामने जो चर्खी घूम रही है वह सफेद नहीं, काली है. यह बता रही है कि देश की तमाम राजनीतिक-सामाजिक-वैधानिक-पेशेवर ताकतों ने मिल कर इस देश को, इसकी व्यवस्था को और इसके संविधान को किस कदर छलने का जाल बुन रखा है.    

हमारे सामने दो तरह के लोग खड़े हैं : एक वे कि सत्ता जिनका आखिरी सत्य है. वे सब प्रधानमंत्री की रहबरी में सत्ता की अपनी भूख शांत करने के लिए सारे धतकर्म करते जा रहे हैं. यह चिंता का विषय तो है लेकिन किसी दूसरे धरातल पर. मेरी पहली व सबसे बड़ी चिंता यह है कि राजनीतिक सत्ता जिनका अंतिम लक्ष्य नहीं हैवे क्या कर रहे हैंक्या कह रहे हैं क्या खोज रहे हैं वे और क्या पा रहे हैं वेइनमें अधिकांश वे कायर लोग हैं जो जिंदगी भर सुविधा व संपन्नता के रास्ते तलाशते रहते हैं और किसी हद तक उसे पा भी लेते हैं. पा लेने के बाद वे ताउम्र सावधान रहते हैं कि कहीं से कुछ ऐसा न हो कि यह छिन जाए. इनमें न बौद्धिक ईमानदारी हैन रत्ती भर साहस ! ये सब खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं - शुद्ध शाब्दिक अर्थ में ! इनकी सारी चातुरीसारा ज्ञानसारी व्यवहार कुशलता आदि का कुल निचोड़ यह है कि जीने के सुविधाजनक रास्ते तलाशने में बुद्धि का इस्तेमाल कैसे किया जाए. कभी किसी से गांधी से पूछा था : आपको सबसे अधिक उद्विग्नता किस बात की होती है उन्होंने जो कहाउसका मतलब था: मैं इस बुद्धिजीवी वर्ग’ की बढ़ती जमात से सबसे अधिक उद्विग्न हूं ! 

नोटबंदी जैसा मूढ़ फैसला और फिर डैमेज कंट्रोल’ के लिए बार-बार बोला जाने वाला झूठजीएसटी की घोषणा के लिए संसद में आधी रात को आयोजित प्रधानमंत्री का खोखला आयोजन व उस अपरिपक्व योजना से हो रहे नुकसान को छिपाने की हास्यास्पद कोशिशेंप्रधानमंत्री का लगातार झूठ-अर्धसत्य-विज्ञान व इतिहास का उपहास करने वाली उक्तियांभारतीय समाज को खंड-खंड करने वाली जहरीली काईयां वाकवृत्तिसंविधान व न्यायपालिका की हिकारत भरी उपेक्षालोकतांत्रिक परंपराओं की धज्जियां उड़ानाविपक्ष के लिए समाज में घृणा फैलानालोकतांत्रिक समाज को पुलिसिया राज में बदलनानौकरशाही को चापलूसों की जमात में बदलनाफौज को राजनीतिक कुचालों में घसीट कर जोकरों की जमात भर बना देनाऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का नया तानाबाना तैयार करना जैसे कितने ही थपेड़े देश ने झेले हैंझेल रहा है. लेकिन इन तथाकथित बुद्धिजीवियों में से एक की भी मुखर व अडिग मुखालफत सामने आई हो तो मालूम नहीं है. इनमें से अधिकांश ढोलबाजों की जमात में नाचते मिलते हैं. 

कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र जारी हुआ. उससे हमारी लाख असहमति हो सकती है लेकिन प्रधानमंत्री का यह कहना कि उन्हें यह मुस्लिम लीग का घोषणापत्र लगता हैक्या राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं है उनका बयान बताता है कि उन्हें न तो इतिहास की धेले भर की जानकारी हैन वे उस दौर की राजनीति की कोई समझ रखते हैं. लेकिन मुझे गहरी वेदना तब हुई जब मैंने देखा कि दूसरे दिन सारे अखबारों ने प्रधानमंत्री के इस मूढ़ व जहरीले बयान को ज्यों-का-त्यों परोस दिया ! मीडिया की स्वतंत्र आत्मा होती तो वह लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी होती. वह ऐसे बयान या तो प्रसारित नहीं करती या फिर इसे खारिज करते हुए प्रसारित करती. लेकिन गोदी मीडिया’ हर समय लोकतंत्र की लाश पर ही खड़ी हो सकती है.  जो गोदी में हैं वे गुलाम ही रहेंगे.

आजादी की अनोखीलंबी लड़ाई के बाद मिले लोकतंत्र की इतनी कम कीमत लगाते हैं हम लोकतंत्र के बिखर जाने के कारण हमारे पड़ोसियों का हाल देखने के बाद भी यदि हम इसकी तरफ से इतने उदासीन हैं तो हमें किसी भी गुलामी से परहेज कैसे होगा चौतरफा विकास के तथ्य व सत्यहीन आंकड़ों का जो घटाटोप रचा गया है वह यदि सच हो तो भी हमें यह कहना चाहिए कि नागरिक स्वातंत्र्यमीडिया की आजादीव्यक्तित्वहीन न्यायपालिकाअन्यायपूर्ण श्रम-कानूनों की कीमत पर हमें कोई भीकैसा भी विकास नहीं चाहिए. पिंजड़ा सोने का हो तो भी खुली हवा से उसका सौदा नहीं हो सकता हैयह बात कितनी भी पुरानी होअंतरात्मा पर स्वर्णाच्छरों में दर्ज रहनी चाहिए. लेकिन प्रेस-मीडिया के लोगों को अपनी कलम के बारे में उतना भी सम्मान नहीं है जितना किसी भिखारी को अपने भीख के कटोरे के बारे में होता है. कुर्सी को अंतिम सत्य मानने वाले राजनीति के धंधेबाजों का रोज-रोज अपनी पार्टी छोड़ बीजेपी में जाने का क्रम मुझे शर्मसार करता है लेकिन मीडिया का रोज-रोज ईमान बदलना अकुलाहट से भर देता है. आजाद भारत के कोई 75 सालों में जिस जमात ने 6 इंच की कलम उठाना व संभालना नहीं सीखाक्या उसे कभी लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जा सकता है देश में मीडिया जैसी कोई संकल्पना आज बची ही नहीं है. धंधा है जो धंधे की तरह चलता है. इस रोने का कोई औचित्य नहीं है कि हम पर मालिकों का दवाब है और नौकरी छोड़ने की हमारी स्थिति नहीं है. आप बताएक्या कभी 10 पत्रकारों ने भी मिल कर यह बयान निकाला है कि हम दवाब में काम करने को तैयार नहीं हैं और ऐसे दवाब में काम करने से अच्छा होगा कि हम सब त्यागपत्र दे दें. ऐसी कोई नैतिक आवाज कहीं से उठे तो !  

धंधेबाजों का पूरा कुनबा चुनावी बौंड के घोटाले को सार्वजनिक होने से रोकने में किस तरह लगा थायह सारे देश ने देखा. सरकारी तंत्र इसमें क्यों लगा थायह बात तो समझी जा सकती है लेकिन सत्ता के इशारे पर नाचते देश-दुनिया के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक की भूमिका को किस तरह समझेंगे आप उसका तो धेले भर का स्वार्थ नहीं था कि यह जानकारी देश के सामने न आए. लेकिन उसने अपनी पूरी साख दांव पर लगा दी. हर अदालती डंडे के सामने उसकी हालत गली के उस कुत्ते-सी हो रही थी जो दुम दबा कर कायं-कायं कर रहा हो. उसने कभी कोई नैतिक भूमिका लेने की कोशिश ही नहीं की. अब स्टेट बैंक एक खोखला साइनबोर्ड भर रह गया जिसे किसी भी गैरतमंद सरकार को बंद कर देना चाहिए. नई संहिता के साथ उसकी नई संरचना लाजिमी है. 

हमने यह भी देखा कि वकालत का धंधा करने वाले वे सारे नामी-गरामी लोगजिन्होंने अपनी ऐसी छवि गढ़वाई है कि वे हैं तो संविधान हैन्याय हैकैसे-कैसे तर्कों के साथ सामने आ रहे थे ! वे सब सर्वोच्च अदालत को समझा व धमका रहे थे कि चुनावी बौंड की कोई भी जानकारी सार्वजनिक हो गई तो न्यायपालिका सदा-सर्वदा के लिए कलंकित हो जाएगी तथा देश तो गड्ढे में गया ही समझिए! इन सबके पीछे करोड़ों की वह फीस बोल रही थी जो इनकी छवि का आधार है. इनकी कोई नैतिक रीढ़ बनी व बची नहीं है.

यह असली खतरा है. सरकारें आएंगीजाएंगी. जब भीजो भी सरकार आएगी उसे भी अपने ऐसे ही रीढ़विहीन लोगों की जरूरत होगी. ऐसे ही बुद्धिजीवीपत्रकारमीडिया संस्थान उसे भी तो चाहिए होंगे ! इसलिए लोकतंत्र के पैरोकारों की जमात खड़ी करना प्राथमिक शर्त है. हमें आज का दायित्व पूरा करना है और कल का दायित्व निभाने की ताकत संयोजित करनी है. दोनों काम साथ-साथ करने हैं. ( 10.04.2024 )    

Tuesday 5 March 2024

बुश्नेल, नवलनी और शाशा की कतार में

 कई बार ऐसा होता है कि घाव दिखता नहीं है लेकिन बहुत गहरा होता है; बहुत सालता है, लंबे समय तक धपधपाता रहता है - शायद ताउम्र ! कभी ऐसा कुछ होता है जब लगता है कि अब अपने होने का मतलब ही कहीं खो गया है. इन दिनों ऐसी ही मन:स्थिति से गुजर रहा हूं जब आप खुद की नजरों में ही कुछ कम व कुछ छोटे हो जाते हैं. 

बात दो लोगों की है- दो ऐसे लोगों की जिनमें अनगिनत लोग बसते हैं. ये दोनों ही लोग मेरे देश के नहीं हैं. मैं किसी भी तरह नहीं कह सकता कि इन दोनों कोकि इनमें से किसी एक को भी मैं जानता हूं. लेकिन ये दोनों इन दिनों मेरे भीतर ऐसी हलचल मचा रहे हैं कि मैं स्थिर नहीं हो पा रहा हूं. इनमें से एक रूस का है और दूसरा अमरीका का. कितनी हैरानी की बात है कि एक-दूसरे के सर्वथा विरोध में खड़े इन दो मुल्कों के दो लोगों में इतनी समानता है कि उनसे सैकड़ों मील दूर बैठा मैंभारत का एक स्वतंत्रचेता नागरिकइस कदर उद्वेलित हो उठा हूं कि जैसे बर्फ का कोई टुकड़ा तुम्हारे भीतरतुम्हारी आंतों में उतरता चला जाए. अत्यांतिक शीत की जलन कभी झेली है ?  

आरोन बुश्नेल नाम था उसका ! अमरीका की वायुसेना का सिपाही था. सेना में अनिवार्य भरती के नियम के कारण बुश्नेल  सेना में था. अनिवार्य सेना भर्ती का चलन शासकों को जितना भी रास आता होयह मानवीय स्वतंत्रता व गरिमा के एकदम खिलाफ है. लेकिन सभी शासक किसी-न-किसी स्वरूप में इसे बनाए रखते हैं. बुश्नेल के मन में युद्धों व हत्याओं को ले कर उलझन थी. वह अमरीका का एक सजग युवा था जो जानता था कि देश-दुनिया में कहांक्या हो रहा है और यह भी कि उसमें उसका अपना अमरीका क्या भूमिका निभा रहा है. अपने दोस्तों से इस बारे में उसकी बातें होती रहती थीं. वह भावुक थाअंतरात्मा की अदालत में अक्सर खुद से सवाल-जवाब करता था. फिर भी अब तक किसी ने नहीं कहा कि वह अपना काम जिम्मेवारी से नहीं करता था. 

 फलस्तीन पर इसराइली आक्रमण और उसमें अपने अमरीका की भूमिका ने उसे एकदम विचलित कर दिया. उसे ही क्योंसंसार भर के स्वतंत्रचेता नागरिकों ने गजा में इसराइली नरसंहार का प्रतिवाद किया है. हाल के वर्षों में किसी एक मुद्दे पर विभिन्न देशों के इतने सारे लोग घरों से बाहर निकले हों व अपनी सरकारों से रास्ता बदलने को कहा होऐसा यह एक उदारण है. 

बुश्नेल के सामने यह सवाल कुछ दूसरी तरह से खड़ा हुआ था. वह प्रतिवाद करने वालों में एक तो था ही लेकिन वह जानता था कि वह गजा को मटियामेट करनेवालों में भी एक है. उसका अपराधबोध अलग स्तर का था . इसलिए उसका जवाब भी अलग तरह से आया जब 25 फरवरी 2024 की दोपहर25 साल के इस फौजी जवान को हम तेजी से चल करअमरीका स्थित इसरायली दूतावास की तरफ जाते देखते हैं. उसके अमरीकी वायुसेना की पोशाक पहन रखी हैहाथ में फ्लास्क की तरह का एक डब्बा है. वह मजबूत कदमों सेतेजी से चलता जा रहा है तथा स्वगत ही बोलता भी जा रहा है : मैं अमरीकी वायुसेना का एक सक्रिय फौजी हूंलेकिन अब मैं इस तरह के नरसंहार में किसी भी तरह का भागीदार बनने को तैयार नहीं हूंहमारे शासकों ने भले इसे सामान्य मान लिया हैमैं एक चरम कदम उठने जा रहा हूंफलस्तिनियों के साथ उपनिवेशवादी ताकतें आज जो कर रही हैंउनकी तुलना में मेरा यह चरम कदम कुछ भी नहीं हैयह नरसंहार मेरे लिए असह्य हो गया हैफलस्तीन को आजाद छोड़ दोफलस्तीन को आजाद छोड़ दोकहते-कहते वह दूतावास के बंद द्वार तक पहुंचता हैस्थिरता से खड़ा होता हैअपने हाथ का डब्बा अपने सर तक लाता हैउसमें रखा तरल पदार्थ उसे सर से नीचे तक भिंगो जाता हैखाली डब्बा वह एक तरफ फेंकता हैअपनी फौजी टोपी झटके से सर पर पहनता हैअपने पैंट की जेब से लाइटर निकालता हैनीचे झुक कर अपनी पैंट में लाइटर से आग लगाता हैलपट भभक उठती है… उसकी तेजस्पष्ट आवाज उभरती हैफ्री फलस्तीनफ्री फलस्तीन … दो-तीन आवाजों के बाद आवाज कमजोर पड़ने लगती हैलपटें इससे अधिक बोलने का मौका नहीं देती हैंअब तक सड़क पर छाया सन्नाटा टूटता है,सायरन की आवाज गूंजती हैकदमों की धमा-चौकड़ी सुनाई देती हैएक आवाज चीखती हैउसे जमीन पर गिरा दोउसे जमीन पर गिरा दोलेकिन न कोई दिखाई देता हैन कोई आगे आता हैफिर एक फौजी दिखाई देता है जो लपटों में घिरे आरोन की तरफ अपनी बंदूक तानेनिशाना लेने की कोशिश में हैफिर एक नागरिक दिखाई देता है जो उत्तेजना में चीखता हैआग बुझाने वाला यंत्र लाओआग बुझाने वाला यंत्र लाओफिर वह चीखकर कहता है हमें बंदूक नहींवह यंत्र चाहिएफिर कोई यंत्र लाता हैआग बुझाने की कोशिश होती हैयह सब चल रहा है लेकिन अब वहां बुश्नेल नहीं हैवह अपना प्रतिवाद दर्ज करसबकी पकड़ से दूर जा चुका है… 

हम बुश्नेल का पुराना ट्विट पढ़ पाते हैं : “ दूसरे लोगों की तरह मैं भी खुद से पूछता हूं कि अगर मैं दास प्रथा के दौरान जीवित होता तो क्या करताया जिम क्रो कानूनों ( रंगभेदी ) के समय या रंगभेद के चलन के दौरानअगर आज मेरा देश नरसंहार कर रहा है तो मैं क्या करूंगामैं जो करने जा रहा हूंवही मेरा उत्तर है.” बुश्नेल का एक फौजी साथीजो भी उसकी तरह ही युद्धहत्याअपनी सरकार के रवैये आदि के संदर्भ में अंतरात्मा की आवाज सुनता था और फौज से निकल सका थाबताता है कि बुश्नेल बहुत जिंदादिल दोस्त था. बहुत अच्छा गाता थाभावुक व ईमानदार था. हमेशा अन्यायजबर्दस्ती आदि की खिलाफत करता था. रुंधे गले से उसने कहा : ऐसा करने से पहले जिस पीड़ा से वह गुजरा होगाउसे मैं समझ सकता हूं. 

हम बुश्नेल के जल मरने को क्या समझें एक नासमझ का अतिरेक भराउन्मादीभावुक कदम ?आखिर क्या ही फर्क पड़ा गया फलस्तीनियों को याकि अमरीकी-इसराइली सरकारों को इनमें से किसी ने बुश्नेल  के लिए सहानुभूति से भरा एक शब्द भी तो नहीं कहा ! हम समझदार’ लोग ऐसा भी कहेंगे कि इससे तो कहीं अच्छा होता कि बुश्नेल जिंदा रह कर ऐसे अन्यायों का मुकाबला करता ! समझदारों’ के लिए न तर्कों की कमी हैन शब्दों की. बुश्नेल के लिए शब्दतर्क आदि पर्याप्त नहीं थे. उसे तो जवाब चाहिए था जो उसे कहीं मिला नहीं. जीवन जिन सवालों के जवाब देता ही नहीं हैमौत उन सवालों को समेट करआपको सुला लेती है. भीतर के हाहाकार से बेचैन बुश्नेल सो गया. उसे किसी को जवाब नहीं देना था. अपने पीछे छोड़ी दुनिया के हर इंसान के लिए वह खुद ही सवाल बन गया है कि सुनोकितनेआदमी’ बने और कितने आदमी’ बचे हो तुम ?  

मुझे याद आया कि इसी अमरीका में एक आदमी था मुहम्मद अली या कैसियस क्ले ! मुक्केबाजी के खेल में उन जैसे शलाकापुरुष कम ही आए. अनिवार्य सैनिक भर्ती का सवाल उनके सामने भी आया था. श्वेत प्रभुता के समाज में एक अश्वेत युवक के लिए आसान नहीं था कि वह अंतरात्मा की आवाज सुने व सत्ता को सुनाए. लेकिन मुहम्मद अली ने वह आवाज सुनी भी और सुनाई भी. उन्होंने अपना प्रतिवाद लिखा: “ मेरी अंतरात्मा मुझे इजाजत नहीं देती है कि महाशक्तिशाली अमरीका के लिए मैं अपने किसी भाई कोकिसी अश्वेत या कीचड़ में लिपटे किसी निर्धन-भूखे को गोली मार दूं ! और क्यों मार दूं उनमें से किसी ने तो मुझे निगर’ नहीं कहाउनमें से किसी ने तो मेरी लिंचिंग’ नहीं कीउनमें से किसी ने तो मुझ पर अपना कुत्ता नहीं छोड़ाउनमें से किसी ने मुझसे मेरी राष्ट्रीयता तो नहीं छीनीमेरी मां से बलात्कार नहीं कियामेरे पिता की जान नहीं ली… फिर क्यों मारूं मैं उनको मैं कैसे गरीब लोगों की जान लूं नहींआप मुझे जेल में डाल दो !” मुझे याद आया कि 1968 मेंजब चेकोस्लोवाकिया में तब की महाशक्ति सोवियत रूस की सेना घुस आई थी और उस छोटे-से देश की स्वतंत्र चेतना को कुचल कर रख दिया था तब जॉन पलाश नाम के एक युवक ने रूसी टैंक के सामने खड़े हो कर उसी तरह आत्मदाह कर लिया था जैसे अभी बुश्नेल ने किया. ऐसे दीवाने मर जाते हैं ताकि हमारे भीतर कहीं मनुष्यता के जीने की संभावना जिंदा रहे. यह गांधी के आमरण उपवास की तरह है या उनकी गोली खाने की ज़िद की तरह ! 

बुश्नेल के आत्मदाह के करीब साथ-साथ ही रूसी तानाशाह राष्ट्रपति ब्लादामीर पुतिन ने एलेक्सी नवलनी की हत्या करवा दी. मुझे लिखना तथा आपको समझना तो यह चाहिए कि पुतिन ने नवलनी की हत्या कर दी लेकिन बुश्नेल को समझदारी’ का पाठ पढ़ाने वाले मुझसे कहेंगे कि टेक्निकली’ हत्या पुतिन ने नहीं की. मैं नहीं जानता हूं कि कानून आत्महत्या के लिए उकसाने’ को जिस तरह अपराध मानता है वैसी कोई सजा पुतिन को क्यों नहीं दी जानी चाहिए. 

नवलनी ने पुतिन के जहरीले पंजों में अपनी गर्दन आप ही दे दी. जैसे हम सब जीवन की तरफ दुम दबाए भागते हैंनवलनी सर उठाए मौत की तरफ भागते रहे. वे कोई राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं थे. भवन निर्माण क्षेत्र के वकील थे और उसी क्रम में रूस के सरकारी कामों में व्याप्त भ्रष्टाचार का सवाल उठा कर सबसे पहले सामने आए. और फिर बात से बात बढ़ती गई. पुतिन की नीतियों के सबसे मुखर आलोचक के रूप में वे खड़े हुए. उन्होंने रूसी संसद’ का चुनाव भी लड़ा और शासन-प्रशासन के विरोध-अवरोध के बावजूद काफी सारा समर्थन जमा कर लिया. पुतिन ने भांप लिया कि यह आदमी और इसकी आवाज साधारण नहीं है. यह खतरनाक है. पुतिन जैसे एकाधिकारी मानसिकता वाले खतरे को उमड़ कर सामने आने नहीं देते बल्कि आगे बढ़ कर उसका गला मरोड़ देते हैं. इसलिए पहले झपाटे में ही पुतिन की पुलिस ने नवलनी को धर दबोचा. कई तरह के आरोपों का जाल बिछाया गया जिसमें चरमपंथी गतिविधियों में हिस्सेदारी से ले कर धोखाधड़ी तक का मामला शामिल था. जिस दिलेरी से उस गिरफ्तारी का सामना नवलनी ने कियाउससे पता चल गया कि पुतिन की आशंका कितनी सही थी. 

नवलनी ने अपनी भूमिका संसदीय विपक्ष की रखी. वे जेल से भी लगातार अपनी बात कहते रहेमुकदमों में अपना पक्ष रखने आते रहे. वे प्रखरता से लेकिन शांति से अपना पक्ष रखते थे. परिणाम यह हुआ कि नवलनी पुतिन की खिलाफत की सबसे मजबूत आवाज बन कर ही नहीं उभरे बल्कि रूसी समाज में असहमति की आवाज के उत्प्रेरक भी बन गए. रूसी संविधान में मनमाना संशोधन कर पुतिन अपनी स्थिति मजबूत करते रहे और नवलनी ऐसे हर कदम का पर्दाफाश करते रहे. फिर खबर आई कि वे जेल में बीमार हो गए हैं. इस खबर के पीछे का सच सभी जानते थे इसलिए रूसी समाज से भी और बाकी दुनिया से भी पुतिन पर दवाब बढ़ा और हार कर नवलनी को इलाज के लिए जर्मनी भेजना पड़ा. यहां यह बात सामने आई कि नवलनी के रक्त में जहर पहुंचाया गया है. अपने विरोधियों को खत्म करने में रसायनों के इस्तेमाल की ऐसी खबर रूस में किसी से छिपी नहीं थी. नवलनी उसके ठोस प्रमाण बन कर सामने आए. 

यह मौका था कि जब नवलनी रूस लौटने से इंकार करजर्मनी में राजनीतिक शरण की मांग कर सकते थे. ऐसा कर सारी उम्र विदेश में बसर कर देनेवाले असहमत रूसी राजनीतिज्ञों-कलाकारों की कमी नहीं है. लवलनी को ऐसा समझाने की कोशिश भी की गई लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. पुतिन की आंखों में आंखें डाल कर बातें कहने-लड़ने को वे जर्मनी से रूस लौट आए. उन्होंने कहा: मैं किसी सेकिसी भी तरह डरता नहीं हूं. 

इस बार नवलनी को वैसी जेल में डाला गया जिसे हिटलर कंसन्ट्रेशन कैंप’ कहता था. रूस के ध्रुवीय प्रदेश में बनी ऐसी जेलों को वहां पीनल कॉलोनी’ कहते हैं. यहां राजद्रोही’ सश्रम कैदी बना कर रखे जाते हैं. असाधारण बर्फीली आंधी व वर्षा से दबा-ढका यह सारा इलाका सामान्यत: मनुष्यों के रहने लायक नहीं माना जाता है. ऐसे ही इलाके में बनी है यह पीनल कॉलोनी’ जहां देशद्रोही नवलनी डाल दिए गए. उन पर कई नये आरोप मढ़े गए और अंतत: 2021 की जनवरी में उन्हें 19 साल की जेल की सजा सुनाई गई. यह सजा और उसके पीछे के इरादों को अच्छी तरह समझ रहे नवलनी ने न हिम्मत हारी व धैर्य छोड़ा. उन पर मुकदमा चलता रहा और वे हर पेशी में ऑनलाइन हाजिर हो कर अपना पक्ष रखते रहे. हर बार उनका मनोबल व उनका सहज मानवीय हास्य-परिहास किसी को भी स्तंभित करता था.  

अधिकाधिक संवैधानिक अधिकार अपनी मुट्ठी में कर लेने तथा अपने लिए आजीवन राष्ट्रपति का पद सुरक्षित कर लेने के साथ ही पुतिन की बर्बरता बढ़ गई. चापलूस नौकरशाहीक्रूर व स्वार्थी पुलिस तथा चप्पे-चप्पे को सूंघते जासूसी संगठन के बल पर पुतिन ने रूस को साम्यवादी तानाशाही’ का नया ही नमूना बना दिया. फिर भी नवलनी के समर्थकों तथा पुतिन विरोधी दूसरी ताकतों ने असहमति की आवाज दबने नहीं दी. ऐसी हर आवाज को जेल से नवलनी का समर्थन मिलता रहा. बात तेजी से तब बदली जब पुतिन ने यूक्रेन पर हमला किया. नवलनी ने इस हमले का जोरदार प्रतिवाद किया. इस बार वे ज्यादा मुखर भी थे और ज्यादा कठोर भी ! 

अपने बच्चों के साथ उनकी पत्नी यूलिया जर्मनी जा बसी थीं. उन्होंने लवलनी का मामला अंतरराष्ट्रीय भी बना कर रखा और रूस के भीतर के अपने साथियों का मनोबल भी बनाए रखा. वे हमेशा कहती रहीं : हम हारेंगे नहींहम चुप नहीं रहेंगेहम माफ नहीं करेंगे. 

यूक्रेन ने रूसी प्रमाद को जैसा जवाब दियाउसकी सेना ने रूस पर जैसे आक्रमण किएपश्चिमी राष्ट्रों ने जिस तरह व जिस पैमाने पर यूक्रेन की सैन्य मदद कीइन सबने पुतिन को हैरान कर दिया. हर यूक्रेनी नागरिक फौजी बन जाएगापुतिन को इसकी कल्पना नहीं थी. तानाशाही का शास्त्र यही बताता है कि हर तानाशान सफलता पा कर ज्यादा मचलता हैविफलता पा कर पागल हो जाता है. पुतिन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. कभी वियतनाम में अमरीका के साथ भी ऐसा ही हुआ था. हमने पड़ोसी बांग्लादेश की जन्मकथा में भी यही होते देखा है. यूक्रेन बचेगा या मटियामेट हो जाएगापता नहीं लेकिन यह पता है कि रूस व पुतिन इतिहास में कभी भी सम्माननीय हैसियत नहीं पा सकेंगे. इतिहास की भी अपनी काली सूची होती है. 

जेल की भयंकर मशक्कतमानसिक विशादबाहरी सन्नाटा और जहर से खोखली हो गई शारीरिक क्षमता के साथ-साथ बढ़ती उम्र की प्रतिकूलता नवलनी को घेरने लगी हो तो आश्चर्य नहीं. हालांकि अपनी आखिरी पेशी के दौरान टीवी पर वे जितने दृढ़ व जाब्ते में लग रहे थेउससे यह मानना संभव नहीं था कि उनका स्वाभाविक अंत करीब है. अचानक ही रूसी सरकारी तंत्र ने दुनिया को खबर दी कि ह्रदय के अचानक काम करना बंद कर देने के कारण 15 फरवरी 2024 को नवलनी की मौत हो गई. 

पुतिन जिस तरह झूठ का समानार्थी शब्द बन गया हैउससे कौन बता सकता है कि मौत की यह तारीख भी सच्ची है या नहीं. खबर पाते ही नवलनी की मां पीनल कॉलोनी’ पहुंचीं. उन्हें अपने बेटे से मिलना नहीं थाउसका शव लेना था. लेकिन वहां के अधिकारियों ने उन्हें कोई खबर नहीं दी और वापस लौटा दिया. पूरे सप्ताह वे भागती-दौड़ती रहीं फिर कहीं उन्हें मृत नवलनी मिले. शर्त यह थी कि उन्हें दफनाने का सारा संस्कार गुप्त रीति से करना होगा. न कोई सार्वजनिक समारोह होगान शवयात्रा निकाली जाएगी. 

अब पीछे की कहानी खुल रही है हालांकि कहानी का अंतिम पन्ना खुला है कि नहींकौन जानता है. कहानी बता रही है कि देश के भीतर-बाहर का दवाब ऐसा था कि पुतिन को लाचार हो कर नवलनी के भ्रष्टाचार विरोधी संगठन’ से एक समझौता करना पड़ा जिसके पीछे जर्मन सरकार का जबर्दस्त दवाब भी काम कर रहा था. समझौता यह हुआ कि जर्मनी की जेल में बंद एक रूसी जासूस वादिम क्रासिकोव की रिहाई की एवज में नवलनी को देशबदर कर जर्मनी भेज दिया जाएगा. पुतिन के लिए यह एक टाइम बम’ को खुले में छोड़ देने जैसा समझौता था. वह जानता था कि यह खेल मंहगा पड़ सकता है. इसलिए उसने एक दूसरी योजना बनाई. बीमार नवलनी से उस दिन की भयंकर बर्फबारी में भी मजदूरी करवाई गई. बेदम हुए लवलनी को पुतिन के आदेशानुसार उसके गुर्गे ने छाती पर जोरदार प्रहार कर नीचे गिरा दिया. गिरे नवलनी फिर उठ नहीं सके. बर्फानी तूफान के बीच उनकी सांस जम गई. यूलिया जब समझौते की दूसरी औपचारिकताओं को पूरा करने में लगी थींनवलनी कैसे भी समझौते की पहुंच से दूर निकल गए. यूक्रेनी फौजी गुप्तचर एजेंसी के प्रमुख क्रायलो बुदानोव ने कहा कि उनकी जानकारी के मुताबिक नवलनी की मौत ‘ ह्रदय में खून का थक्का’ जम जाने से हुई. 

अन्य कारणों का व कहानी के दूसरे पन्नों का खुलासा होता रहेगा लेकिन बुश्लेन को मानसिक बीमारी का या भटकी मानसिकता का शिकार बताने वाले नवलनी को क्या कहेंगे हर उस आदमी को क्या कहेंगे जो जीवन अपनी शर्त पर जीना चाहता है क्या जो सत्ता में हैं उनको ही अपने रंग-ढंग से जीने का अधिकार है क्या मनुष्य की अपनी कोई आजादी और उस आजादी की अनुल्लंघनीय गरिमा नहीं होती है ?

लेकिन अभी रूस की ही शाशा स्कोचिनलेंको का प्रसंग बाकी है. शाशा कलाकार व संगीतकार हैं तथा सेंट पीट्सबर्ग में रहती हैं. वे राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैंन पुतिन की खिलाफत का कोई काम उन्होंने कभी किया है. लेकिन वे अभी जेल में हैं और उनकी यह सजा 7 साल लंबी है. उनका अपराध यह है कि वे फौज के खिलाफ अफवाह फैलाती हैं. ऐसा क्या किया शाशा ने उन्होंने यूक्रेन में रूसी बर्बरता से विचलित हो कर एक ऐसा मासूम काम किया जिसकी कोई सजा हो ही नहीं सकती है. खबर आई थी कि यूक्रेन के मारियोपोल के आर्ट स्कूल पर रूसी जहाजों ने बम बरसाया जब वहां 400 से अधिक लोगों ने शरण ले रखी थी. शाशा इस खबर से बेहाल हो गईं. अपने शहर के मॉल में खड़ी-खड़ी वे सोचने लगीं कि क्या करूं मैं ऐसा कि जिससे अपने देश के इस वहशीपन का प्रतिकार हो सके ! उन्हें कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने मॉल के कुल जमा पांच सामानों पर लगी उनका मूल्य बताने वाली पर्चियां निकाल करउनकी जगह अपनी नई पर्चियां लगा दीं जिन पर युद्ध विरोधी संदेश लिखे थे. उन्होंने लिखा था : “ हमारे बच्चों को जबरन फौज में भर्ती कर यूक्रेन भेजा जा रहा है. युद्ध की कीमत हमारे बच्चों की जान से चुकाई जा रही है.” पुलिस को कुछ पता भी नहीं चला लेकिन उस मॉल से सामान खरीदे किसी ग्राहक ने अपने सामान के साथ नत्थी शाशा की यह पर्ची पढ़ी और उसे ले कर पुलिस के पास पहुंचापुलिस शाशा के पास पहुंची और शाशा जेल पहुंची. अब वह जेल में है - 7 लंबे सालों के लिए ! 

मेरी तरह आपको भी लगता हो कि बुश्नेलनवलनी और शाशा एक ही कतार में खड़े हैं तो आप भी मेरे साथ शर्म व विवशता का भाव लिए इस कतार के एकदम अंत में खड़े हो जाइए. ( 04.03.2024) 

भारत-रत्नों की भरमार

 कहावत पुरानी है कि भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है !  तो समझिए कि वैसे ही काल से देश गुजर रहा है. कहा जा रहा है कि यहां हर कुछ, हर ओर से छप्पड़ फाड़ कर बरस रहा है ! हम भी देख रहे हैं कि छप्पर हो कि न हो, बारिश खूब हो रही है. जुमलों की बारिश, आंकड़ों की बारिश, घोषणाओं की बारिश ! आत्म-प्रशंसा की बारिश तो बहाल किए दे रही है. बेचारे कबीर ने ऐसा ही कुछ देखा होगा तो यह उलटबांसी लिखी होगा : बरसे कंबल, भींगे पानी ! 

 तो इस बारिश में अब तक पांच रत्न’ भी बरस चुके हैं. तब से रोज सुबह अखबार इसलिए ही खोलता हूं कि देखूं कि आज कौन-सा रत्न’ बरसा आज ही नहींमैं पहले से भी हैरान रहता था कि यदि हमारे देश में इतने रत्न हैं तो हम इतने दरिद्र व फूहड़ क्यों हैं इस वर्ष के रत्नों को छोड़ दें तो 48 रत्नों की खोज हमने पहले ही कर ली थी. अब ( याकि अब तक !) हो गए हैं 53 यानी अर्द्ध-शतक पूरा हो चुका है. लेकिन बल्लेबाज क्रीज पर है और चुनाव-टाइम पूरा होने से पहले कई ओवर बाकी भी हैंतो मतलब कि हे गुणग्राहकोअपनी पोथी बंद मत करना अन्यथा नये रत्नों’ से वंचित रह जाओगे.  

महात्मा गांधी ने 150 साल पहले जब हिंद-स्वराज्य’ नाम की किताब लिखी थी तब भारत-रत्न’ का जन्म भी नहीं हुआ था. उस किताब में बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी बातें उन्होंने लिखीं. वह तो उनका भाग्य ही मानता हूं कि जैसे उस समय भारत-रत्न’ का जन्म नहीं हुआ था वैसे ही उस समय यूएपीए’ का जन्म भी नहीं हुआ थानहीं तो महाशय धरे भी जाते और धकियाए भी जाते ! हिंद-स्वराज्य’ में महात्माजी ने संसदीय लोकतंत्र की कटु समीक्षा करते हुए प्रधानमंत्री नाम के अनोखे प्राणी की आंतरिक विपन्नता पर ऊंगली उठा दी और लिख दिया कि वह अपनी सत्ता का सौदा कई तरह सेकई स्तरों पर करता है जिनमें एक तरीका सम्मान बांटने का भी है. गुलाम खरीदने की प्रथा बंद हो गई तो बड़े लोगों को गुलाम बनाने के नये रास्ते खोजने पड़े. महात्माजी ने यह भी लिख दिया कि प्रधानमंत्री नाम का यह प्राणी देशभक्त होता हैउन्हें इस पर भी शक है. जो बेचारा सारा देश अपनी तर्जनी पर उठाए फिरता है ( माफ कीजिएदेश नहींअब वह संसार उठाए फिरता है ! ) उसके बारे में ऐसी शंका !! मुझे पक्का विश्वास है कि महात्माजी को यह सब लिखने-कहने की छूट कांग्रेस व जवाहरलाल नेहरू ने दे रखी थी वरना रत्नों की ऐसी बेइज्जती सनातनी देश भला बर्दाश्त करता क्या ! यह अकारण नहीं है कि यह सरकार कांग्रेस-मुक्त देश बनाने में जुटी है और  सफलता के करीब है. कांग्रेस-मुक्त हो गया देश तो महात्माजी तो साथ ही निबट जाएंगे. इसलिए वे’ उनके बारे में कम ही बोलते हैं. बुद्धिमान को इशारा काफी होता है तो कई हैं उनके’ लोग जो उनका इशारा समझ चुके हैं और अपना काम बखूबी कर रहे हैं.

आपको यह भी देखना चाहिए कि रत्नों की इस खोज में सरकार ने पार्टी का भेद भी नहीं किया है. सबको एक नजर सेएक ही तराजू पर तोला गया है. टके सेर भाजीटके सेर खाजा! मैं यह भी देख रहा हूं कि जिन्हें काल के कूड़ेघर में फेंक दिया गया थाउन्हें भी जब वहां से निकाल कर झाड़ा-पोंछा गया तो इस मीडिया नाम के जमूरे को उनमें नई ही रोशनी व चमक दिखाई देने लगी. अब कोई पिछले सालों की सारी खाक छान कर मुझे बताए कि कर्पूरी ठाकुर की किस विशेषता का जिक्र किसनेकब किया और इस मीडिया ने कब उनकी चमक कबूल की अब तो कई दावेदार पैदा हो गए हैं कि जो कह रहे हैं कि कर्पूरी ठाकुर जैसे रत्न को भारत-रत्न’ न मिलने के कारण वे सालों से सोये नहीं हैं. अब जा कर उन्हें नींद आएगी ! मुझे भी अच्छा लगता है जब कोई चैन की नींद सोता है. लेकिन कर्पूरी ठाकुर का क्या जैसे-जैसे लोग उनकी जैसी-जैसी प्रशंसा कर रहे हैं उससे उनकी नींद हराम हो गई हो तो हैरानी नहीं. अंग्रेजी अखबारों ने उनकी प्रशंसा में अब क्या-क्या नहीं लिखा जबकि उनके रत्न बनने से पहले इन अखबारों ने कभी उनकी सुध भी नहीं ली और कभी ली भी तो उनको बेसुध करने के लिए ही ली. 

सुध लेने की बात निकली ही है तो मैं सोच रहा हूं कि 2014 में ग्रह-परिवर्तन के बाद से किसने लालकृष्ण आडवाणी की सुध ली. वे भारतीय जनता पार्टी के सौरमंडल के किस कोने में रहे अबतकइसका पता उनमें से किसे है जो आज उनकी अक्षय-कीर्ति के गान गा रहे हैं वे गा भी रहे हैं और कनखी से देख भी रहे हैं कि यह गान कहीं मर्यादा के बाहर तो नहीं जा रहा है जिस इशारे से लालकृष्ण आडवाणी को भारत-रत्न’ बनाया गया हैसबको पता है कि उस इशारे के इशारे से आगे नहीं निकलना है. 

भारतीय राजनीति के शिखरपुरुषों में शायद ही कोई दूसरा होगा जिसे लालकृष्ण आडवाणी जैसी हतइज्जती झेलनी पड़ी होगी. असामान्य बेशर्मी से उन्हें सरेआम अपमानित करने का कोई अवसर चूका नहीं गया. आज वे और उनका परिवार कृतकृत्य हो कर उस अपमान का सौदा भारत-रत्न’ से करने में जुटा है. यह ज्यादा दुखद इसलिए है कि आडवाणी-परिवार व जयंत सिंह परिवार के संस्कारों में अब कोई फर्क बचा ही नहीं है.   

कर्पूरी ठाकुर हों कि लालकृष्ण आडवाणी कि चौधरी चरण सिंह कि नरसिम्हा राव कि स्वामीनाथनकौन कहेगा कि ये सब विशिष्ट जन नहीं हैं लेकिन कोई नहीं कहेगा कि इनमें विशिष्टता थी तो क्या थी हमारी परंपरा में मृतकों के लिए सच बोलने का चलन नहीं है. यह भी सही है कि याद ही रखना हो तो शुभ को याद रखना चाहिए. फिर भी एक सवाल तो बचा रह जाता है कि कैसे फैसला करेंगे कि कौन किस श्रेणी का हकदार है 

सरकार के पास नागरिक सम्मान की चार श्रेणियां है न ! क्या ये श्रेणियां व्यक्ति का कद नापने के इरादे से बनाई गई हैं नहीं, ‘पद्मश्री’ से पद्मविभूषण’ तक की सारी श्रेणियों को आंकने का आधार इतना ही हो सकता है कि किसनेकिस क्षेत्र में ऐसा काम किया कि जिसका उनके क्षेत्र पर गहरा असर पड़ा एक बड़ा डॉक्टर या इंजीनियर या प्रोफेसर पूरे समाज पर नहींअपनी विशेषज्ञता के किसी पहलू पर ही असर डालता हैतो वह पद्मश्री’ से नवाजा जा सकता है. कोई इससे बड़े दायरे को प्रभावित करता है तो पद्मभूषण’ और जो कई दायरों को प्रभावित करता है तो वह पद्मविभूषण’ से नवाजा जा सकता है. अगर राज्य द्वारा सम्मान कोई राजनीतिक क्षुद्रता की चालबाजी नहीं है तो ऐसे तमाम सम्मान व्यक्ति के छोटे या बड़े होने का फैसला नहीं करतेभारतीय समाज पर उस व्यक्ति के असर का आकलन भर करते हैं. खिलाड़ीअभिनेतावैज्ञानिक जैसी हस्तियां अपने-अपने क्षेत्र में आला हो सकती हैं लेकिन संपूर्ण भारतीय समाज व उसकी मनीषा पर उनका ऐसा कोई असर नहीं हो सकता कि जो व्यापक रूप से हमारी सोच-समझ को प्रभावित करता हो. यह सब भूल कर जब राज्य किसी को इस्तेमाल करने की छुद्रता करता है तब सम्मान अपमान में बदल जाता है. गांधी जिस अर्थ में इन सम्मानों को सत्ता की चालबाजी कहते हैंउसे गहराई से समझने की जरूरत है. 

हमने राजनीतिक चालबाजी के लिए इन नागरिक सम्मानों को व्यक्ति की हैसियत से जोड़ दिया है. जहां यह हैसियत से जुड़ जाता हैवहाँ ऐसे सारे सम्मान खरीदे व बेचे ही जाते हैं क्योंकि ऐसे सौदों की हैसियत खास लोगों की ही होती है. 

भारत-रत्न’ का सीधा मतलब है कि आप ऐसे किसी व्यक्ति की बात कर रहे हैं जिसने भूत-भविष्य व वर्तमान तीनों स्तरों पर भारतीय मनीषा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है. यह वक्ती उपलब्धि की बात नहीं हैजिस हद तक इस नश्वर संसार में किसी की अविनाशी कीर्ति हो सकती हैउसकी बात है. अगर इस कसौटी को मान लें हम तो हमारे 53 भारत-रत्नों में से 3 भी इस पर खरे नहीं उतरेंगे. कोई क्रिकेट खेलता हो कि कोई गाना गाता हो वह हमारे वक्त का प्रतिनिधि हो सकता है,  ‘भारत-रत्न’ नहीं हो सकता है. प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन जाना भारत-रत्न’ का अधिकारी हो जाना हर्गिज नहीं हो सकता है. लेकिन यही तो हो रहा है.               

रत्नों का यह बंटवारा दरअसल किसी दूसरे को नहींदूसरे के बहाने खुद को महिमामंडित करने की चालाकी है. हमने अपने गणतंत्र को इसी नकल पर संयोजित किया तो राज्य-पुरस्कारों का चलन भी शुरू किया.   हम भीतर से जितने दरिद्र होते हैंबाहरी अलंकरणों से उसे उतना ही छिपाने की कोशिश करते हैं. आज वही तमाशा चल रहा है. भारत-रत्न’ इतना खोखला कभी नहीं हुआ था. ( 16.02.2024)