जब भारतीय लोकतंत्र अपने नये सारथी चुनने की कगार पर पहुंच रहा है, तब लगता है कि लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ- न्यायापालिका - आने वालों के लिए एक-एक कर हिदायतें जारी कर रहा है. मेरे जैसा कोई कहेगा कि “बड़ी देर कर दी मेहरबां आते-आते” या यह भी कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की कीमत सतत जागरूकता से ही अदा की जा सकती है. जो जागरूक नहीं है वह आजाद भी नहीं रह सकता है. हमारी न्यायपालिका को इसका अब भी अहसास हो तो हम स्वस्थ लोकतंत्र की दिशा में चल सकते हैं. हमारी न्यायपालिका ही एकमात्र संवैधानिक व्यवस्था है जो व्यक्ति व संस्थानों को लोकतांत्रिक अनुशासन में बांध कर रखने का संवैधानिक अधिकार रखती है. इसलिए ही तो संविधान में इसे सत्ता की होड़ से अलग रखा गया है. यह अलग बात है कि इसके भीतर से भी गुलाम मानसिकता वाले पैदा होते हैं और पहले मौके पे सत्ता की तरफ दौड़ लगा लेते हैं. सत्ता चरित्रत: स्वतंत्रता विरोधी होती है. वह कायर व यथास्थितिवादी भी होती है.
मैं इतना सब लिख पा रहा हूं क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस बी.आर.गवई-संदीप मेहता की बेंच ने ‘न्यूजक्लिक’ के संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ की कोई 300 दिन पहले यूएपीए में की गई गिरप्तारी को ‘अवैध’ घोषित कर दिया है और वे जेल से बाहर आ गए हैं. हम प्रबीर से क्या कह सकते हैं सिवा इसके कि आइए, प्रबीर, आपका स्वागत है ! हमें अफसोस है कि हम उस भारत में आपका स्वागत नहीं कर पा रहे हैं जो आपके जेल जाने वाले दिन से बेहतर भारत है. लेकिन क्या कीजिएगा, जो भी है, जैसा भी है हमारा-आपका भारत है जिसे हमें लगातार ज्यादा लोकतांत्रिक व न्यायपूर्ण बनाते जाना है.
हम प्रबीर से इतना ही कहेंगे लेकिन हमें न्यायपालिका से बहुत कुछ कहना है. हम उससे कहना चाहते हैं कि श्रीमान, हम हर तरफ से लोकतांत्रिक परंपरा व संवैधानिक व्यवस्था से दूर होते जा रहे हैं. जो भी सरकार में पहुंच जाता है वह समझता है कि वह यहां पहुंच कर हर मर्यादा व बंधन से ऊपर हो गया है जबकि हमारे संविधान ने राष्ट्रपति से ले कर नागरिक तक सबकी मर्यादा लिख कर सामने धर दी है. उसने उन बंधनों का भी स्पष्ट उल्लेख कर रखा है जिसका पालन सबको करना चाहिए. राष्ट्रपति वह नहीं है जो प्रधानमंत्री की कृपा के नीचे दबा हुआ, सहमति में गर्दन झुकाए पड़ा है. वह किस समुदाय का है, स्त्री है कि पुरुष संविधान इसका विचार नहीं करता है. वह कहता है कि राष्ट्रपति वह है जो विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका पर आखिरी अंकुश है. वह संविधान का आखिरी संरक्षक है. डॉ. राजेंद्र प्रसाद हमारे पहले राष्ट्रपति ही नहीं थे, संविधान की इस परिकल्पना पर खरे उतरने का रास्ता बनाने व बताने वाले भी थे. उनका काम सबसे कठिन था क्योंकि सामने जो सरकार थी वह वर्षों लंबे आजादी के संघर्ष में उनके साथ काम करने वाले बला के समृद्ध जनों की सरकार थी. इतना ही नहीं, राजेंद्र बाबू के सामने यह नजीर भी नहीं थी कि एक राष्ट्रपति को अपनी संवैधानिक भूमिका कैसे निभानी चाहिए. उन्होंने जो किया वही नजीर बन गई.
हम राजेंद्र बाबू के निजी व्यवहार व मान्यताओं से असहमत हो सकते हैं लेकिन इसमें शायद ही किसी की असहमति हो कि नवजात लोकतंत्र व रक्तस्नान से गुजरी आजादी के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने पर्याप्त संयम व दृढ़ता से काम किया. ऐसा हम अब तक के राष्ट्रपतियों में से इक्का-दुक्का के लिए ही कह सकते हैं. ऐसा ही हाल लोकसभा के अध्यक्ष की भूमिका का है. उसका पहला व अंतिम दायित्व सांसदों की प्रतिष्ठा व संरक्षण है. वह पार्टी का होता तो है लेकिन संविधान उससे पार्टी से ऊपर उठ कर काम करने की मांग करता है. मुझे यदि संविधान में कोई संशोधन करना हो तो उसमें एक संशोधन यह होगा कि लोकसभा का अध्यक्ष सार्वजनिक जीवन की कोई हस्ती होगा न कि बहुमत से जीती पार्टी का कोई ऐरा-गैरा ! आज लोकसभा व राज्यसभा का अध्यक्ष सबसे व्यक्तित्वहीन व्यक्ति को बनाते हैं जिसकी रीढ़ की हड्डी जन्मजात ही गायब हो. आज वह विपक्ष के सांसदों को बोलने का मौका व समय नहीं देता है; वह उनका माइक बंद करवा देता है, वह इस बात का गर्व करता है कि उसने कितने सांसदों को निलंबित किया; कितनों की सदस्यता छीन ली. कहीं किसी सांसद की गिरफ्तारी होती है तो आज लोकसभा में जूं तक नहीं रेंगती. किसी सांसद की गिरफ्तारी इसलिए बहुत बड़ी बात नहीं है कि उसे कोई विशेषाधिकार प्राप्त है बल्कि इसलिए है कि वह अपनी जनता का नुमाइंदा है. उसकी गिरफ्तारी, निलंबन, सदस्यता से वंचित करना उसके मतदाताओं का अपमान है. कोई लोकतंत्र यह कैसे सह सकता है ? सांसद की चूक भी तो भी वह संसद में विमर्श में सामने आनी चाहिए. लोकसभा का अध्यक्ष यदि अपने सदस्यों का संरक्षण भी नहीं कर सकता है तो वह उस कुर्सी का अधिकारी हो ही नहीं सकता है.
ऐसा ही न्यायपालिका के साथ भी है. मैं बराबर लिखता रहा हूं कि न्यायपालिका को संविधान ने इसी भूमिका में गढ़ा है कि वह विधायिका-कार्यपालिका-मीडिया के संदर्भ में सतत विपक्ष की भूमिका में रहे - विरोध के लिए नहीं, संविधान से बाहर जाने की हर कोशिश को अप्रभावी बनाने व संविधान के दायरे मे खींच लाने के लिए. उसे 24 घंटे सतर्क रहना चाहिए कि देश में कहीं भी, किसी की भी गिरफ्तारी विधायिका-कार्यपािलका द्वारा उसे दी गई सीधी चुनौती है. गिरफ्तारी किसी भी नागरिक से उसका बुनियादी संवैधानिक अधिकार छीनती है. इसलिए प्रबीर हों कि उमर खालिद कि दूसरे कई, हर गिरफ्तारी से न्यायपालिका को चौकन्ना हो जाना चाहिए कि उसके संवैधानिक अस्तित्व को चुनौती दी गई है. उसे बगैर किसी का इंतजार किए हर गिरफ्तारी की जांच करनी चाहिए और अपने नतीजे पर पहुंचना चाहिए तथा देश को तुरंत बताना चाहिए.
कोई व्यक्ति, पत्रकार हो कि व्यापारी कि राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता, वह जितने दिन जेल में होता है उतने दिन उसके लिए संविधान व न्यायपालिका का अस्तित्व संशय में होता है. प्रबीर की गिरफ्तारी अवैध थी यह बात सर्वोच्च न्यायालय 300 दिनों के बाद बता रहा है तो यह कहना गलत तो नहीं होगा कि 300 दिनों तक प्रबीर के लिए संविधान स्थगित था तथा न्यायपालिका अस्तित्वहीन ? कौन सी न्यायपालिका, संविधान की किस धारा से निरपराध प्रबीर के 300 दिन लौटा सकती है ? इसलिए तो वह पुरानी कहावत हमेशा नई होती रहती है कि न्याय में देरी न्याय को धता बताना है. इसलिए न्यायपालिका को दूसरा सब कुछ छोड़ कर हर गिरफ्तारी का तुरंत संज्ञान लेना चाहिए.
हम देख रहे हैं कि 7 दशकों के संसदीय लोकतंत्र में सरकारें कानून को मनमाने खेल का खिलौना बना रही हैं. प्रबीर पर आरोप है कि उन्होंने चीन से पैसा लिया है. लिया है कि नहीं, यह तो प्रबीर ही बताएंगे लेकिन मैं पूछना यह चाहता हूं कि क्या सरकारी खजाने में, पीएम रिलीफ फंड में, दूसरे संस्थानों में चीनी पैसा नहीं है ? चीन से तो हमारा खुला व्यापार-संबंध है. तो चीनी पैसा अपराध कैसे हो गया ? और चीनी क्यों, कोई भी मुद्रा अपराध कैसे हो सकती है यदि वह कानूनी रास्तों से देश में पहुंच रही है ? ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि प्रबीर चीन गए होंगे और टेंपो में भर-भर कर चीनी पैसा भारत ले आए होंगे ? अगर ‘न्यूजक्लिक’ के पास कोई चीनी डोनेशन कानूनसम्मत रास्तों से आया है, और विधिसम्मत तरीकों से ‘न्यूजक्लिक’ ने उसका इस्तेमाल किया है तो प्रबीर यूएपीए के अपराधी कैसे हो गये ? क्या अपराध की कसौटी यह है कि अपराधी सत्ताधारी का चापलूस है या नहीं ? अगर ऐसा है तो यह न्यायपालिका के मुंह पर तमाचा है. विधायिका व कार्यपालिका जब अपनी संवैधानिक अौकात भूल जाती है, और मीडिया चूहे से ज्यादा अपनी हैसियत नहीं मानती है तब नागरिक अनाथ हो जाता है. तानाशाही या फासिज्म ऐसी ही परिस्थिति बनाती है और ऐसी ही परिस्थिति में फूलती-फलती है. हमारा संविधान इस बारे में पर्याप्त सजग है. उसने न्यायपालिका को शक्ति दे रखी है कि वह तानाशाही या फासिज्म को फलने-फूलने से रोक सके. लेकिन शक्ति काफी नहीं होती है; शक्ति का अहसास व उसके इस्तेमाल की प्रेरणा जरूरी होती है. हनुमान को भी उनकी शक्ति का अहसास कराना पड़ा था न !
इसलिए गवई-मेहता बेंच ने न्यायपालिका की उस भूमिका को फिर से उजगर किया है जिसका सिरा पकड़ कर संजीव खन्ना-दीपांकर दत्ता खंडपीठ ने केजरीवाल को अंतरिम जमानत दी. गवई-मेहता बेंच को प्रबीर की अवैध गिरफ्तारी के दायरे में उमर खालिद व अन्य सबको भी समेट लेना चाहिए था. ये अलग-अलग मामले नहीं हैं, विधायिका-कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका को दी जा रही चुनौती है. भारत सरकार के गृहमंत्रालय व दिल्ली पुलिस को तत्क्षण सर्वोच्च न्यायालय के कठघरे में खड़ा करना चाहिए और सारी गिरफ्तारियों का संवैधानिक अौचित्य जांचना चाहिए.
4 जून को जो भी, जैसे भी सत्ता की तरफ बढ़े वह जान ले कि अब न्यायपालिका उसे संविधान व कानून से खेलने का कोई भी मौका नहीं देगी तो हम कहेंगे कि भाई प्रबीर, हम आपके 300 दिन तो लौटा नहीं सकते लेकिन दूसरे प्रबीरों के 300 दिन पर आंच नहीं आने देंगे. आखिर तो हमारा लोकतंत्र प्रौढ़ हो रहा है ! ( 16.05.2024)
No comments:
Post a Comment