मैं परेशान हूं कि देश में एक न्यायपालिका है लेकिन उसके दो चेहरे हैं. किंवदंति है कि रावण के कई सर थे- दशानन; लेकिन यह नहीं कहा जाता है कि वे सारे सर भिन्न-भिन्न बातें बोलते थे. सर भले कई हों, वे सब एक ही तरह से सोचते-करते हों तभी व्यवस्था की गाड़ी चल सकती है. ऐसा न हो तो कोई भी व्यवस्था नहीं चल सकती है - खास कर न्यायपालिका ! यहां दो तरह की मनोभूमिका बेहद चिंताजनक व खतरनाक होती है.
हमारी न्यायपालिका का एक चेहरा सर्वोच्च न्यायालय की उस खंडपीठ का है जिसने कुल जमा 50 से अधिक दिनों तक जेल में रहने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल से रिहा कर दिया - कुल जमा 22 दिनों के लिए. 2 जून 2024 को उन्हें वापस जेल लौट जाना होगा. सर्वोच्च न्यायालय की संजीव खन्ना-दीपांकर दत्ता खंडपीठ ने जो आदेश दिया है उसके मुताबिक केजरीवाल इस बीच मुख्यमंत्री की हैसियत से कोई भी काम नहीं कर सकेंगे, दफ्तर भी नहीं जा सकेंगे, फाइलें भी नहीं निबटा सकेंगे लेकिन वे अपनी पार्टी व अपने गठबंधन का देशव्यापी चुनाव प्रचार कर सकेंगे. सारे सरकारी प्रशासन ने व अब मोदी-तंत्र बन चुके ईडी, इंकमटैक्स जैसे संस्थानों ने हर तरह का तर्क आजमाया ताकि केजरीवाल को चुनाव खत्म होने तक जमानत न मिल सके लेकिन अदालत ने उनके सारे तर्कों को खारिज करते हुए केजरीवाल को सशर्त जमानत दे दी. कहा : “ अरविंद केजरीवाल के बारे में आरोपियों ने यह ठीक ही ध्यान दिलाया है कि अक्तूबर 2023 से गिरफ्तारी तक भेजी ईडी की 9 नोटिसों-समन की उन्होंने उपेक्षा की. उनके मामले में यह प्रतिकूल तथ्य है लेकिन इस मामले में दूसरे भी कई तथ्य ऐसे हैं कि जिन पर ध्यान देना जरूरी है. आरोपी दिल्ली का मुख्यमंत्री है, एक राष्ट्रीय पार्टी का नेता है. इसमें शक नहीं कि उस पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं लेकिन अभी तक वे सिद्ध नहीं हुए हैं. उनका पहले का कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है. वे समाज पर किसी तरह का खतरा नहीं हैं… यह कहने की जरूरत नहीं है कि लोकसभा का चुनाव लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है जो अगले पांच साल के लिए देश की सरकार का फैसला करेगा. इसलिए हम आरोपियों के इस तर्क को खारिज करते हैं कि केजरीवाल को अंतरिम जमानत देना सामान्य नागरिकों की तुलना में राजनेताओं का विशेष सुविधाप्राप्त वर्ग बनाना हो जाएगा.” इस तर्क के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने सत्तापक्ष की सारी कोशिशों को धता बताते हुए केजरीवाल को अंतरिम जमानत दे दी.
जैसा कि अदालत ने कहा है कि अंतरिम जमानत का मतलब केजरीवाल को अपराधमुक्त घोषित करना नहीं है, ठीक उसी तरह मैं भी यह साफ कर दूं कि मेरे इस लेख का मतलब कोई ऐसा न निकाले कि मैं केजरीवाल की सरकारी व निजी नीतियों का समर्थन कर रहा हूं. मैं कहना यह चाह रहा हूं कि खन्ना-दत्ता पीठ ने जिस तरह इस मामले को सरकारी धौंस व कानून की मृत बारीकियों से बाहर निकल कर समझने व समझाने की कोशिश की, उससे सर्वोच्च न्यायालय का कद बड़ा हुआ है व लोकतंत्र के पांव मजबूत हुए हैं.
लेकिन यही न्यायपालिका जब पुणे में विशेष सुनवाई के लिए बैठती है, तब उसकी चेतना व समझ को लकवा क्यों मार जाता है ? जिस दिन केजरीवाल को अंतरिम जमानत देने का फैसला सामने आया, उसी 10 मई को 11 साल पुराने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर हत्याकांड का फैसला भी सामने आया. यहां अदालत मामले की नजाकत को समझने में पूरी तरह विफल रही. समाज में फैली अंधश्रद्धा न्याय की किसी भी अवधारणा को सदियों से विफल करती हुई, अट्टहास करती आ रही है. हमारे सामाजिक जागरण व बौद्धिक सजगता का जैसा क्रूर मजाक अंधविश्वास फैलाने तथा उसकी आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों ने किया है, करते आ रहे हैं, उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है. यह इंसानी समझ को धता ही नहीं बताती है बल्कि इंसानी कमजोरियों को निशाने पर ले कर समाज का मनोबल तोड़ देती है.
डॉ. दाभोलकर व उनकी अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने इसके खिलाफ मोर्चा खोला था. बौद्धिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक से ले कर प्रत्यक्ष प्रतिरोध का हर मंच उन्होंने इस्तेमाल किया. ऐसे एक आदमी की हत्या सनातन संस्था नाम के एक प्रतिगामी गंठजोड़ ने दिन-दहाड़े कर दी, तो यह एक व्यक्ति की ही नहीं, उस सामूहिक प्रयास की हत्या थी जो समाज को अंधविश्वासों के प्रति जाग्रत कर रहा था. पुणे पुल पर, 20 अगस्त 2013 की सुबह उन्हें गोली मार दी गई. 11 साल से पुलिस व अदालत अपराधी को पकड़ने व सामने लाने में लगी थी लेकिन दोनों इस कदर विफल रहते हैं कि 11 साल बाद विशेष जज पी.पी. जाधव कहते हैं : “ हमारे पास शंका करने के पर्याप्त कारण थे लेकिन पुलिस इनके खिलाफ पर्याप्त सबूत जुटाने में विफल रही. इन सब पर शक के निश्चित व ठोस कारण थे लेकिन निश्चित सबूत के अभाव में हमें इन्हें छोड़ना पड़ा.” इसके बाद जज साहब ने वह सब भी कहा जिसे कहने का सारा अधिकार वे पहले ही गंवा चुके थे. उन्होंने कहा कि किसी भी इंसान की हत्या दुर्भाग्यपूर्ण है. लेकिन आरोपियों ने, खासकर उनके वकील ने कुछ ऐसे तर्क पेश किए जिनसे इस हत्या को जायज साबित करने की कोशिश हुई. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है.
अब न्यायपालिका को व समाज को सोचना यह चाहिए कि जिस “व्यक्ति या संस्थान पर शंका करने के पर्याप्त सबूत थे”, उसे 11 साल की कोशिश के बाद भी आप अपराधी सिद्ध नहीं कर पाए तो अदालत व पुलिस किस मर्ज की दवा हैं ? अदालत व जज साहबान का एक ही, जी हां, एक ही काम है कि वे सच को खोज निकालें तथा अपराधी को बचने नहीं दें. आप देख भी रहे हैं, समझ भी रहे हैं, मान भी रहे हैं कि जो छूट रहे हैं वे हत्या जैसे जघन्य अपराध के अपराधी तो हैं लेकिन जांच एजेंसियां, पुलिस आदि सही तरीके से जांच नहीं कर रही हैं. तो फिर अदालत क्या करेगी ? मैं समझता हूं कि अदालत और जज साहबान की पेशेगत नैतिकता व संवैधानिक दायित्व कहता है कि उन्हें जांच एजेंसियों को कड़ा निर्देश देना चाहिए कि वे जांच में क्या-क्या ऐसा छोड़ रहे हैं जिससे मामला कमजोर पड़ रहा है, और उन्हें किस दिशा में जांच पूरी कर, नये साक्ष्य के साथ तुरंत अदालत के सामने उपस्थित होना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक अदालत न किसी को मुक्त करेगी, न हल्की सजा देगी बल्कि मुकदमा लंबित रहेगा तथा पुलिस व सरकार पर अदालत का दवाब बना रहेगा. पुणे की इस अदालत ने किस आधार पर मुकदमा बंद कर दिया या अपराधियों के लिए ऊपर की अदालत तक जाने का रास्ता बना दिया ? ऊपरी अदालतों में तो मामलों की और भी धकमपेल है, तो मामला वहां भेज कर आप अपनी जिम्मेवारियों से कंधा झटकने भर का काम कर रहे हैं जो आपकी अयोग्यता सिद्ध करता है.
न्यायपालिका याद करे, और हमेशा याद रखे कि स्वतंत्रता के बाद दो-दो बार ऐसा हुआ है कि अपनी तटस्थता व साहस खो देने के कारण न्यायपालिका ने सारे राष्ट्र को शर्मिंदा किया है. पहली थी महात्मा गांधी की हत्या. उस मुकदमे ने हमारी न्यायपालिका के चेहरे पर ऐसी कालिख मली है जो कभी छूटेगी नहीं. नाथूराम गोडसे से ले कर सावरकर तक सभी उस हत्या के प्रमाणसहित सीधे गुनहगार थे. पुलिस व जांच एजेंसियां राजनीतिक दवाब व भय से तथा अपनी पक्षधरता से उस तरह जांच नहीं कर रही थीं जिस तरह करने की जरूरत थी. तब जज साहब क्या कर रहे थे ? तब सरकार क्या कर रही थी ? क्या अदालत सावधान थी कि वह किसी भी स्तर पर अपराधी को बचने का मौका नहीं देगी ? क्या सरकार सावधान व प्रतिबद्ध थी कि वह अपनी मशीनरी को किसी भी स्तर पर कोताही बरतने नहीं देगी ? गांधी-हत्या पर लिखी गई प्राय: हर किताब में अदालत के व सरकार के रवैये पर गहरा क्षोभ दर्ज है तो इसी कारण से. गांधी से दाभोलकर तक की हत्या में हत्यारे इतनी लंबी दौड़ लगा चुके हैं लेकिन अदालत आज तक बैठी है कि न्याय के लिए जरूरी प्रमाण उसके पास चलकर आएंगे ? नहीं, प्रमाण निकलें व चलकर अदालत तक पहुंचे इसकी सावधान कोशिश अदालत को, जज साहबान को तथा सरकार को भी करनी होगी. औपनिवेशिक अदालत व लोकतांत्रिक अदालत में यदि इतना फर्क भी दिखाई न दे तो न्यायपालिका व विधायिका को किसी भी तरह की सामाजिक प्रतिष्ठा व स्वीकृति की बात भूल ही जानी चाहिए. न्याय तक पहुंचना मशीनी प्रक्रिया नहीं है. उसमें जज साहबान की बारीक कानूनी पकड़ तथा मानवीय व संवैधानिक प्रेरणा के प्रति गहरी प्रतिबद्धता भी कसौटी पर होती है.
ऐसा ही तब भी हुआ जब लोकतंत्र की समझ व उसके प्रति प्रतिबद्धता की परख करने आपातकाल देश के सामने आया. जयप्रकाश नारायण ने मामला आसान बना दिया था : यह लोक बनाम तंत्र की लड़ाई है. उन्होंने पक्ष-विपक्ष की राजनीति से एकदम अलग, एक नया ही विमर्श देश में खड़ा कर दिया था : लोक की व्यापक असहमति को कुचलने का अधिकार किसी भी तंत्र के पास नहीं हो सकता है. उन्होंने कहा : लोकतंत्र किसी सरकार का मामला नहीं है. लेकिन उस नाजुक कालखंड में हमारी न्यायपालिका निरक्षर भट्टाचार्य साबित हुई. वह तो जिस संविधान की रक्षा की शपथ लेती है, उसकी ही भक्षक बन गई. उसने तो ‘कानूनी संप्रभु’ को ‘संवैधानिक संप्रभु’ का आका घोषित कर दिया. उस कलंक को धोने में न्यायपालिका को वैसी हिम्मत व दूरदृष्टि बार-बार दिखानी होगी जैसी केजरीवाल की अंतरिम जमानत के प्रश्न पर खन्ना-दत्ता की खंडपीठ ने दिखाई. उनके लिए आसान था कि वे केजरीवाल की रिहाई से मुंह फेर लेते क्योंकि सरकार, जांच एजेंसियां, गोदी मीडिया सभी तो समवेत सुर में मोदी-राग ही गा रहे थे. मनीष सिसोदिया से केजरीवाल तक ऐसा जाल बुना गया था कि दूसरा कुछ देखने-सुनने की अदालत को जरूरत भी नहीं थी. लेकिन संसदीय लोकतंत्र में चुनाव का संदर्भ, राजनीतिक दलों की भूमिका, केजरीवाल का एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का अध्यक्ष होना, चुनाव से ठीक पहले उनकी गिरफ्तारी और सत्ता-पक्ष द्वारा मामले का लंबा खींचने की रणनीति सबको खन्ना-दत्ता खंडपीठ ने आंका व अंतरिम जमानत का आदेश दे दिया. उन्होंने वे जरूरी प्रतिबंध भी लगा दिए जिससे केजरीवाल स्वंय को अपराधमुक्त मानने का भ्रम न पाल लें लेकिन यह भी घोषित कर दिया कि लोकतंत्र के खेल को खेल बनाने की भूल सत्तापक्ष भी न करे. यदि इस खंडपीठ ने केजरीवाल की जमानत को नजीर बनाते हुए, ऐसी ही शर्तों के साथ झारखंड में हेमंत सोरेन के लिए भी निर्देश जारी किया होता तो इससे न्यायपालिका का चेहरा और साफ हो जाता, लोकतंत्र की सूरत कुछ और चमक उठती.
न्यायपालिका सतत संविधान की कसौटी पर होती है और लोक हमेशा ही संविधान का संरक्षण चाहता है, यह लोकतांत्रिक दायित्व संविधान ने न्यायपालिका की गांठ में बांध दिया है. यह गांठ कमजोर होगी या भुला दी जाएगी तो न्यायपालिका जितने भी चेहरे लगा ले, वह स्याह ही होता जाएगा.( 14.05.2024)
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